मन के कागज़ पर

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मन के कागज़ पर

िप्रय जब तुम पास थे!

आँचल फै लाए, िनःशब्द-मूक पड़े थे, दो बूँदो ं की आशा में, अधखुले नैन-स्वप्नाकाश थे! रुक्ष-धरा को नीर भरे घन बरसने के िवश्वास थे। िप्रय जब तुम पास थे। कामनाओ ं के झरते िनझर्र, धरा के घषर्ण करते झर-झर। कु छ तृिप्त तो कु छ मृगतृष्णा जैसे ये आभास थे। िप्रय जब तुम पास थे। उष्ण अधर स्पशर् को व्याकु ल, िकन्तु नैनो ं में कु छ सं कोच-चपल! हृदय-ध्विन सकु चाई, िकन्तु साहसी-प्रेम के उच्छवास थे। िप्रय जब तुम पास थे। उन्मुक्त हँ सी की स्वणर्-शृं खलाएँ , गूँथ रही ं थी ं मन में नव-अिभलाषाएँ प्रितध्विनत हो चले स्वर-लहिरयो ं के पल अनायास थे। िप्रय जब तुम पास थे। अिवस्मरणीय, अकिल्पत, अद्भतु ! प्रेम चरम िशखर आरूढ़ होने को उन्मुख। िवगत िवछोह- िवदा, दःु ख-िवस्मरण के आभास थे। 50


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