मन के कागज़ पर

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मन के कागज़ पर

मन के कागज़ पर (काव्य-सं ग्रह)

डॉ..किवता भट्ट

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मन के कागज़ पर

दो शब्द!

समस्त सं सार को ज्ञान के प्रकाश से प्रकािशत करने वाली माँ शारदा के युग चरणो ं का कोिटशः वन्दन! उन्ही ं के असीम आशीवार्द से अपने मन की अनुभूितयो ं को कागज पर प्रितिबिम्बत करने हेतु उन्ही ं का आशीवार्द पग-पग पर पथ-प्रदशर्क और आत्म-बल प्रदाता बना रहा। सािहत्य और समाज एक दूसरे के समानान्तर चलते हैं। इससे पूवर् के काव्य-सं ग्रह ‘आज ये मन’ में मैंने कु छ मनोभावो,ं व्यिक्तगत अनुभवो,ं सामािजक िवसं गितयो ं एवं समकालीन िवषयो ं के शब्द-िचत्रण का प्रयास िकया। वह प्रयास पाठको ं के मन को छू गया और खूब सराहा गया। उसी से मुझे ऐसे ही कु छ अन्य िवषयो ं पर िलखने की प्रेरणा िमली। पाठको ं का स्नेह हमेशा िमलता रहे; ऐसी मेरी ईश्वर से प्राथर्ना है। िपछले कु छ समय से एक ओर तो प्राकृ ितक आपदाओ ं की मार जनमानस झेलता रहा; वही ं दूसरी ओर दूिषत राजनीितक गितिविधयो ं के कारण जनभावनाओ ं का हृदयिवदारक शोषण होता रहा। उत्तराखण्ड और इसके जैसे अन्य िहमालयी राज्यो ं ने आपदाओ ं के दं श को झेला। इसके चलते अपना सब कु छ खो चुके लोगो ं के घावो ं पर मरहम लगाने के बजाय राजनेताओ ं ने झूठी घोषणाएँ एवं वायदे मात्र िकए। इन गितिविधयो ं ने घावो ं पर नमक बुरकने का अमानवीय कायर् िकया। अभी भी पहाड़ी राज्यो ं की िस्थित वैसी ही बनी हुई है। कई जगह लगभग डेढ़ वषर् बीत जाने पर भी अनेक गाँव अभी भी मुख्य सम्पकर् से कटे हुए हैं। भ्रष्टाचार के कारण यिद कु छे क जगह पर िनमार्ण कायर् हुए भी तो वे पूरे होने से पूवर् ही कमीशनबाजी की भेंट चढ़ गए। इस भ्रष्टाचार से पीिड़त पहाड़ी राज्य के जनमानस के ददर् एवं समस्याओ ं को इस काव्य-सं ग्रह में प्रमुखता से शब्द-शृं खलाओ ं में िपरोने का प्रयास िकया गया है। 2


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यहाँ इस तथ्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख करना आवश्यक समझती हूँ िक मैंने िनरपेक्ष और तटस्थ भाव से तथ्यो ं को प्रस्तुत करने का प्रयास िकया है; चूँिक किवता मात्र मनोभावो ं के सं कु चन और प्रसारण का नाम नही ं है; अिपतु इसमें मािर्मकता के साथ तथ्यात्मकता भी होनी चािहए। तथ्यात्मकता भी ऐसी िक जो समाज के िलए नैितक ढाँचा िनिर्मत कर सकने में सक्षम हो। मैं यह तो नही ं कहती िक मैं ऐसा करने में पूणर्तः खरी उतरूँगी; िकन्तु हाँ इतना अवश्य कहूँ गी िक ऐसा करने का मैंने िनष्ठापूणर् ढंग से प्रयास िकया है। सम्भवतः सुधी पाठक मुझे अितवादी न कहकर; मेरे काव्य में िछपे मनोभावो ं के उद्घाटन एवं नैितक मूल्यो ं के प्रसारण में अपनी िक्रयाओ ं व प्रितिक्रयाओ ं का उपहार समाज को देंगे; ऐसा मेरा िवश्वास है। अब हम बात करें गे किवताओ ं की िवषयवस्तु की;जहाँ एक ओर ‘जिटल प्रश्न पवर्तवासी का’ और ‘जलते प्रश्न’ जैसी किवताएँ के दारनाथ आपदा के िवध्वं स को दशार्ती है; वही ं ये हमारे देश के राजनीितक अवनयन, अवमूल्यन व ददु र्शा को भी िचित्रत करने का एक प्रयास हैं। ‘भूखा िशशु िहमाला’ में कु छ ही वषर् पूवर् जन्मे उत्तराखण्ड राज्य की एक िशशु से तुलना की गई है; जो घुटनो ं के बल सरक रहा है और रोजी-रोटी के िलए तरस रहा है। जो सपने इस राज्य के िनमार्ण के मूल में थे; वे पूणर्तः टू ट गए। पलायन की मार झेलते इस राज्य के नौजवान कै से महानगरो ं की चादर पर बन्द की तरह हैं और छोटे-मोटे रोजगार में कै से अपनी िजन्दगी खपा रहे हैं; इस पीड़ा को उके रने के साथ ही ‘दूर पहाड़ी गाँव में‘ जैसी किवता गांवो ं में मात्र बुजुगोर्ं के शेष रह जाने के ददर् को भी बयाँ करती है। साथ ही ‘तुम कभी तो आ जाते‘ किवता भी इसी प्रकार का प्रयास है। मेरे टू टे मकान में, ‘बूढ़ा पहाड़ी घर‘ जैसी किवताओ ं में भी पहाड़ी राज्यो ं से हो रहे पलायन के ददर् को प्रस्तुत करने का प्रयास िकया गया है। ‘पटेल की स्मृित में‘ और ‘वो धोती-पगड़ी वाला’ आजादी 3


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के महानायक सरदार बल्लभभाई पटेल को समिर्पत किवताएँ हैं। चूँिक वे िकसान पिरवार से थे और देश की उन्नित के िलए िकसान की उन्नित को आवश्यक मानते थे; िकन्तु, वतर्मान काल में हमारे देश के िकसान दगु र्ित के दौर से गुजर रहे हैं और प्रितिदन अनेक िकसान आत्महत्या करने को िववश हैं। यह एक त्रासदी ही है िक जो िकसान अनाज, फल और सिब्जयाँ उगाकर सबको जीवनदान देता है; वही अपने अिस्तत्व की रक्षा करने में असफल है। बढ़ते कजर् और िसकु ड़ती आमदनी से िकसान जब आत्महत्या करने को िववश होता है; तो, उस समय उसके मन में क्या भाव उमड़ते हैं; यह किवता उसी मन:िस्थित का िवश्लेषण करती है। ये दोनो ं ही किवताएँ पटेल जयं ती पर लखनऊ एवं बाराबं की के किव सम्मेलनो ं में पटेल जी को भावभीनी श्रद्धांजिल देते हुए मेरे द्वारा मं चो ं पर प्रस्तुत की गई थी।ं श्रोताओ ं ने इन दोनो ं ही किवताओ ं को खूब सराहा और िकसानो ं की िस्थित पर सभी को सोचने के िलए िववश कर िदया। ‘पसीना काले रं ग का‘ मजदूरो ं के शोषण और ददु र्शा को प्रस्तुत करने का प्रयास है। ‘िववश व्यवस्था’ ‘ठे के का टेण्डर’, ‘एक पुल जो इितहास बन गया’, ‘एक भोर िरक्शेवाले की’ ‘द्रौपदी बना लोकतन्त्र’ भ्रष्टाचार, राजनीितक व सामािजक िवसं गितयो ं को प्रस्तुत करने का प्रयास हैं। ‘िकतने िदन बच पायेगा?’ धधकते वनो ं से उत्पन्न वातारणीय असं तुलन एवं ‘उन पाप के नोटो ं का क्या होगा?’गं गा की वतर्मान ददु र्शा और इसकी स्वच्छता के नाम पर िकए जा रहे भ्रष्टाचार को प्रस्तुत करती हुई रचनाएँ हैं। ‘मानवता का मनु से िनवेदन‘ किवता नैितक अवनयन पर के िन्द्रत है। ‘तुम और मैं’ एक प्रेिमका का अपने प्रेमी के िलए पूणर् समपर्ण प्रदिर्शत करती है। ‘प्यासा पिथक’ एक प्रेमगीत हैं; वही ं ‘नीरवता के स्पं दन; किवता अके लेपन में मन के अंतद्वर् न्द्व को शब्दो ं में बाँधने का एक प्रयास है। ‘मन के रं गीन कागज पर।‘ ‘िप्रय! यिद तुम पास होते!’ ‘िप्रय जब तुम पास थे!’ ‘अंितम कामना’ ‘मेरे आलाप’, ‘इस आशा में‘ नारी-मन की 4


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सहज प्रेम-भावनाओ ं को शब्दो ं में बाँधने का प्रयास हैं। यद्यिप उन्हें शब्दो ं में बाँधना अत्यं त किठन है, तथािप मैंने उन्हें शब्दो ं में व्यक्त करने का प्रयास िकया है। इसके अितिरक्त कु छ िनतांत व्यिक्तगत अनुभवो ं को किवताओ ं के रूप में सं गृहीत करने का प्रयास िकया गया। राजनीितक एवं सामािजक रूप से नैितक पोषण हेतु प्रेिरत करने के प्रयास के साथ ही ये किवताएँ प्रेम जैसे कोमल हृदय भावो ं को सहेजने का प्रयास भी हैं। आशा है मेरा यह प्रयास पाठको ं को सािहित्यक रस प्रदान करने के साथ ही उनके मन-मिस्तष्क में कु छ सामािजक व सामियक िवषयो ं के प्रित िवचारो ं को भी करे गा। मेरे जीवन को ज्ञान से प्रकािशत करने वाली मेरी गुरु डॉ. इन्दु पाण्डेय (खण्डू ड़ी), प्राचायार्, दशर्नशास्त्र िवभाग, हे.न.ब.गढवाल िवश्विवद्यालय, श्रीनगर (गढवाल), उत्तराखण्ड को मैं सस्नेह मागर्दशर्न व प्रेरणा देने हेतु कोिट-कोिट धन्यवाद देती हूँ । मेरे द्वारा िविभन्न िवषयो ं पर िलखी गयी किवताओ ं को मेरे पित श्री सुभाष भट्ट जी के द्वारा सराहा गया और इन्हें सं गृहीत करने हेतु मुझे प्रेिरत िकया गया। उनके प्रोत्साहन एवं प्रेरणा हेतु मैं उनकी आभारी हूँ । साथ ही मेरे पूजनीय माता-िपता श्रीमती शकु न्तला रतूड़ी व श्री बाँके लाल रतूड़ी जी का असीम स्नेह मेरे िलए उत्प्रेरक का कायर् करता है; मेरा सम्पूणर् अिस्तत्व ही उनकी दे न है। उनके िचर आशीवार्द से मेरे प्रत्येक महत्त्वपूणर् कायर् िनिर्वघ्न पूणर् होते हैं; उनको मेरा शत्-शत् चरणस्पशर्। बड़ी बिहन के समान स्नेह करने वाली श्रीमती सुधा जी के प्रित मैं हमेशा ही नतमस्तक रहूँ गी। अपनी भिगनीद्वय श्रीमती सिवता पालीवाल एवं श्रीमती अिमता गैरोला द्वारा; मेरे प्रित समय-समय पर िकये गए कतर्व्यो ं के िनवर्हन हेतु उनको भी सस्नेह धन्यवाद देती हूँ । मुझे अत्यं त प्यारे मेरे अनुजद्वय भारत व सागर रतूड़ी को भी उनके सुमधुर व्यवहार हेतु स्नेहयुक्त धन्यवाद!

• किवता भट्ट

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दशर्नशास्त्र िवभाग, हे0न0ब0गढ़वाल के न्द्रीय िवश्विवद्यालय,श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखण्ड- 246174 सम्पकर् सूत्र-mrs.kavitabhatt@gmail.com

मूलिनवास-ग्राम/पो0 ऑ0- कोटमा,िजला- रुद्रप्रयाग (गढ़वाल) ,उत्तराखण्ड

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किवता की किवताएँ और वतर्मान

किवता भट्ट का काव्य सं ग्रह ‘मन के कागज पर’ हो रहा है ; यह एक शुभ सूचना है । इसिलए भी िक इन किवताओ ं की रचियता गम्भीर और पिरपक्व सोच के साथ जी रही हैं । आज किवता को सोच की सबसे ज्यादा जरूरत है । मैं इस सं ग्रह की साथर्कता के िलए किवता भट्ट को बधाई दे ता हूँ । किवता अनुभव की प्रिक्रया है । िलखने से पहले भी और पढ़े जाने के बाद भी । इन किवताओ ं के शीषर्क समकालीन िस्थितयो ं के साथ जी रहे हैं । जैसे –जिटल प्रश्न पवर्तवासी का, जलते प्रश्न, िप्रय ! यिद तुम पास होते । प्यासा पिथक, मन के रंगीन कागज पर, िववश व्यवस्था, एक पुल जो इितहास बन गया, एक भोर िरक्शेवाले की, द्रोपदी बना लोकतं त्र, ठे के का टेंडर , अंितम कामना, मेरे आलाप, मैं और तुम, तुम्हारी प्रतीक्षा में और भूखा िशशु िहमाला आिद जैसी अनेक किवताएँ इस सं ग्रह की पहचान हैं । प्राकृ ितक आपदा और िफर लूट-खसोट, भ्रष्टाचार, लोकतं त्र में रोटी का प्रश्न, पलायन के साथ िनमर्ल प्रेम का सं गीत और यथाथर् सभी कु छ इन किवताओ ं में है । िववश व्यवस्था की पं िक्त “समय की गित में बहती रही है .......” वतर्मान समय के सच को खोलती एक बोल्ड किवता है । ‘एक पुल जो इितहास बन गया......’ किवता में भ्रष्टाचार पर तथा ‘वो धोती और पगड़ी वाला’ किवता की पं िक्तयो ं “िनरं तर गितशील जीवन .......” में कवियत्री आत्महत्या करते िकसान पर कलम चलाती है । किवता भट्ट की प्रेम किवताएँ िजतनी गहरी हैं; उतनी ही सहज भी हैं और मासूिमयत के साथ उभरते हुए शब्द मन को सोचने पर िववश करते हैं । जैसे ‘मन के कागज पर’ किवता की पं िक्त “उद्गम से ही पूछ रहे हम कौन गली बं जारो ं की ........” के साथ ही प्यासा पिथक किवता की पं िक्तयो ं ‘मीलो ं के पत्थर िगनते हुए, आँखे अभी तक 7


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सोयी नही.ं ........’ के अितिरक्त “िप्रय ! यिद तुम पास होते’ किवता की पं िक्त ‘रे खाएँ , सीमाएँ और िदशांतर लाचार होते .......’ तथा ‘मैं और तुम’ किवता की पं िक्तयाँ ‘मैं मूक मं त्र मानिसक जप में, तुम प्राथर्नाओ ं के पुण्य प्रसाद िलये........’ आिद जैसी किवताएँ प्रेम में िमलन एवं िबछोह को अत्यं त गूढ़ भाव के साथ प्रकट करती हैं । इन किवताओ ं को सुनना, पढना और महसूस करना पाठको ं के िलए एक गहरे अनुभव से कम नही ं है । इसिलए पाठक-वगर् इसका स्वागत करे गा; ऐसा मेरा मानना है । अंत में किवता भट्ट से एक अनुरोध है िक वे अपना अगला काव्य-सं ग्रह शीघ्र ही पाठको ं तक पहुँ चाएँ गी। डॉ. अतुल शमार् देहरादून, उत्तराखं ड

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ğŇťēЗĐĂĜ ĪΫ ēľ Ĭĥ ĩĴĿĄĬĜīľ ēЗĐĂĜčĀ

काव्य की यात्रा एक नदी जी तरह होती है , अपने उद्गम की क्षीण धारा से लेकर िनरन्तर प्रवाह की ओर अग्रसर । किव के अनुभवो ं के ताप से कभी कु छ िपघलता है , धार बनता है । धारा बनने वाली वह सं वेदना मन की गहन भावधारा को साथ लेकर पथ में आए हर पहाड़ –घाटी , पथ की व्यथा-कथा पूछती , उस व्यथा से िपघलती , द्रवीभूत होती अग्रसर होती है । कभी लगता है उसके मन की व्यथा भी कु छ कम नही।ं उसकी खुिशयो ं के पल भी उससे रूठकर कही ं दूर चले गए हैं। पता नही ं कभी लौटेंगे या नही।ं दूसरे ही क्षण उसे साधारण और िकसी वं िचत एकाकी व्यिक्त का द:ु ख सालने लगता है। पेट की आग सबसे बड़ी आग है। दो जून की रोटी कमाने के िलए बहुतो ं का घर-बार छू टता है , सगे –सम्बन्धी छू टते हैं, बूढ़े माता ितल-ितलकर एकाकीपन की आग में झल ु सते जाते हैं। डॉ० किवता भट्ट की किवताओ ं में यह सब िमलेगा-व्यिष्ट से समिष्ट तक की भाव-कल्पना और िचन्तन की यात्रा । इनकी किवता ‘बूढ़ा पहाड़ी घर’ के वल घर ही नही ं है , बिल्क घर छोड़कर जाने वालो ं की एक-एक गितिविध का साक्षी रहा है। उसकी पुकार िकसी दीवारो ं वाले मकान की पुकार नही ं है। यह उस घर की पुकार है, िजसके साथ उसमें रहने वाले हर व्यिक्त की मुस्कान और पीड़ा का बसेरा रहा है । यह घर उन सब क्षणो ं का साक्षी रहा है। वह घर कं क्रीटअरण्यो ं ( शहर) में जाकर बसने वालो ं को कहता हैतुम्हारे िपता को मैं अितशय था प्यारा, उन्होंने उम्र भर मेरी छत-आँगन को सँ वारा। 9


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चार पत्थर िचने थे, लगा िमट्टी और कं कर, लीपा था मेरी चार दीवारों पर िमट्टी-गोबर। उन्होंने तराशे थे जो चैखट और लकड़ी के दर, लगी उनमें दीमक हुए जीणर्-शीणर् और जजर्र। तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, पहाड़ी घर के सामने एक समस्या है, िजसका दूर-दूर तक कोई समाधान नही ं है। वह शहरो ं की ओर हो रहे इस पलायन को कै से रोके ?आजीिवका के कारण न चाहकर भी घर छोड़ना पड़ता हैअभी भी मैं हर घड़ी-पल यही सोचता हूँ , अभी भी मैं रोता हूँ और समय को कोसता हूँ । क्या अब मैं मात्र भूखापन ही परोस सकता हूँ ? या वह रोटी का टुकड़ा तुम्हे मैं पुनः दे सकता हूँ ? बूढ़े पहाड़ी घर की एक उत्कट इच्छा है, िजसके िलए वह तरसकर रह जाता हैऔर तुम मुझको देना वही बचपन का आभास भर। अपनी सं तानों के बचपन में जाना ढल, और दे देना मुझे बचपन का वह प्रेम िनश्छल। िनरन्तर पयार्वरण के िवनाश के पाप ने हमारे सन्ताप को बढ़ा िदया है । इसका कारण है प्रकृ ित का क्रूरतापूवर्क दोहन । हमारी लोभवृित्त का दष्प ु िरणाम हमारे सामने है-वृक्षो ं के क़त्ले आम के रूप में। किवता ने ‘िकतने िदन बच पाएगा?’ में लाचार बूढ़ े वृक्ष की ममार्न्तक पीड़ा को इस प्रकार िचित्रत िकया हैजला डाले हमारे सं ग कु छ घोंसले, 10


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और कु छ चहकते मचलते घरौंदे। िफर रहे-अब वे पशु िबदकते, भय से- लाचार और िसहरते। पयार्वरण के िवनाश की गूँज ‘जिटल प्रश्न पवर्तवासी का’ और ‘जलते प्रश्न’ किवताओ ं में उभरकर आई है। अित दोहन के कारण उत्तराखण्ड में आई आपदा का कटु सत्य िवश्लेिषत िकया गया है। अन्धी आस्था प्राकृ ितक कोप को शान्त नही ं कर सकतीपुष्प-मालाओं के ढोंगी अिभनन्दन, असीम अिभलाषाओं के झूठे चन्दन। न मुग्ध कर सके िशव-शिक्त को, तरंिगणी बहाती आडंबर-भिक्त को। जलते प्रश्न में कठोर शब्दो ं में भत्सर्ना करते हुए किवता भट्ट कहती हैंिकतनी भूख-िकतनी प्यास है, जो कभी भी िमटती ही नहीं। िकतनी छल-कपट की दीवारें, जो आपदाओं से भी ढहती नहीं। सरकारी –तन्त्र िनतान्त सं वेदना-शून्य है। वह आपदा से भी कु छ नही ं सीखता । उसका कत्तर्व्य के वल कागजी काम तक सीिमत हैपेट अपना और कागजों का भरने वाले, कहते काम हमने सब कु छ कर डाले।

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सत्ता पाकर लोग उस आम आदमी को भूल जाते हैं, िजसके कन्धो ं पर सवार होकर वे सता का िसहं ासन प्राप्त करते हैं।‘ एक िरक्शावाला ‘जो भोर की करवट से ही जग जाता है , पाँच रुपये में भोजन की थाली तो नही ं पा सका; कोहरे की चादर का क़फ़न ओढ़कर लेट गया । ‘द्रौपदी बना लोकतन्त्र’ में सत्ता की क्रूरता के प्रित कवियत्री का आक्रोश इस प्रकार प्रकट होता है – िसहं ासन की बीमारी हो चुकी। क्या कोई कृ ष्ण अवतिरत होगा, चीरहरण की तैयारी हो चुकी। यह चीरहरण है भोलीभाली जनता का ,उसके लोकतािन्त्रक िवश्वास का । ‘वो धोती-पगड़ी वाला’ में दो िनवालो ं के िलए रात-िदन पसीना बहाने वाले मज़दूर की व्यथा-कथा है । सुख से अघाए िनयन्ता उसकी पीड़ा नही ं समझ सकतेवातानुकूलन में मदभरे प्यालों को पीने वाले मोल मेरे श्रम का क्या जानो, तुम महलों में जीने वाले। ‘दूर पहाड़ी गाँव में’ मौन की चीख को सुना है । असहाय बूढ़े , िजनका कोई सहारा नही ं , सन्नाटा और काट खाने वाला एकान्त ही उनके होने की गवाही देता है ।जवानी तो बसो ं में लदकर शहर चली गई । सहानुभूित के दो बोल बोलने वाला कोई पास है ही नही।ं यह हालत आज हर गाँव की होती जा रही है- दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। नौिनहाल हंसी बीते िदनों की बातें, बूढ़े तन, पूस, करवट बदलती रातें। 12


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बस मुठ्ठी भर राख है बुझेचूल्हे में, तन में थमती हुई चन्द लम्बी साँसें। झेंपती-एक धीमी िचगं ारी धुआँ उगलती है, ‘भूखा िशशु िहमाला’और ‘पसीना काले रं ग का’ किवता भी उस लघु मानव की पीड़ा,असमथर्ता की साक्षी हैं जो सब अभावो ं का पयार्य बन गया है । यह युवा कवियत्री अपने सामािजक सरोकारो ं के प्रित पूणर्तया जागरूक है। वह हर पीिड़त वं िचत , शोिषत के साथ खड़ी नज़र आती है । किव का अपना भी सं सार होता है। अभाव की दख ु ती रग होती है । अप्राप्य को पाने की छटपटाहाट होती है। जो छू ट गया उसे पकड़ पाने की आशा बनी रहती है। िप्रय को अपने पास महसूस करना कोई कमज़ोरी नही,ं बिल्क जीवन का सौन्दयर् है । िप्रय के पास होने पर अभाव –भरे िदन भी वासन्ती हो जाते हैं।‘िप्रय! यिद तुम पास होते!’ किवता में वही अनुराग िखलने की कल्पना अनुस्यूत हैपतझड़ भी सुवािसत मधुमास होते, िप्रय! यिद तुम पास होते! झर-झर प्रेम बरखा बरसती, बूँ द-बूँ द न कोंपलें तरसती, कु छ िततिलयाँ-चन्द भ्रमर, रंग-स्वर लहिरयों के सहवास होते ‘प्यासा पिथक’ में यही प्रतीक्षा िससिकयो ं में बदलने को िववश होती हैमीलो ं के पत्थर िगनते हुए बीते पहर, आँखें अब तक भी सोई नहीं। एक भी धड़कन ऐसी नहीं जो, 13


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स्मृितयों में तेरी कभी खोई नहीं । पल-पल गूंथ रही िससिकयाँ आँखें, परन्तु पलकें मैंने अभी िभगोई नहीं। जीवन की कहानी कटु होती गई, ‘मन के रं गीन कागज पर’ में एक ददर् िछपा हैउठ कर चले गये साथी। अब क्या चाह बहारों की? ‘तुम और मैं’ में प्रेम की प्रगाढ़ता िलये प्यासा पिथक है तो दूसरी ओर सुरिभत स्वप्नो ं की शृं खला िलये िनजर्न नीलांचल की नदी की आत्मीयता ममर्स्पशीर् हैिनजर्न नीलांचल की नदी मैं तुम प्यासे पिथक प्रेम प्रगाढ़ िलये। मैं सुरिभत स्वप्नों की स्वणर् शृं खला तुम प्रहर प्रशान्त पुण्य प्रकाश िलये। ‘नीरवता के स्पं दन’ में कवियत्री ने बीते हुए मधुर क्षणो ं को समेटने का प्रयास िकया हैसाँझ के आकाश पर कु छ बादल िवभा के घनेरे -से, स्मृितयों में प्रणय-क्षण कु छ उस साथी के - मेरे-से। िप्रय का पास होना सब सु खो ं का सं सार है । साथ-साथ िबताए वे पल स्मृितयो ं में सुगन्ध भरते रहते हैं । किवता भट्ट की ‘िप्रय जब तुम पास थे!’ की ये पं िक्तयाँ माधुयर्-भाव से िसिं चत हैंिप्रय जब तुम पास थे। उष्ण अधर स्पशर् को व्याकु ल, 14


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िकन्तु नैनों में कु छ सं कोच-चपल! वे पल बीत गए और एक प्रश्न अपने पीछे छोड़ गएक्या होगा क्या पुनिर्मलन अब िनत्यप्रित है यही प्रश्न ‘मेरे टू टे मकान में’ की किवता गाँव की सोधं ी खुशबू को समेटे है। मकान भले ही टू टा हो ,पर मन में अजस्र प्रेम का सोता बहता है।सुख-सुिवधाएँ कम भले हो ं ;लेिकन चैन की नीदं है। भी भी िप्रय के आने की आशा हैक्या मेरे टू टे मकान में वो िफर से आएँ गे, िजनके आते ही मेरे सपने रं गीन हो जाएँ गे। चाहकर भी उनको भुलाया न जा सका। उनकी यादें आज भी रह-रहकर रुला जाती हैं। मैंने सोचा अब मैंने उनको भुला िदया, पर उसकी यादों ने मुझको रुला िदया। अब सोचती हूँ यही रह-रह कर िक क्या? मेरे टू टे मकान में वो िफर से आएँ गे? ‘अंितम कामना’ में उस िप्रय की स्मृितयाँ घनीभूत हो उठी,ं िजन्होनं े रास्ते के कं कर चुन डाले । उनके िलए यह कामना िकतनी पावन िकतनी िनष्पाप है! अंितम सं ध्या जीवन की जब होवे, और शेष नहीं होगा कोई भी प्रहर। अंतस् में पिवत्र कामना ये ही रहेगीसं ग तुम्हारा, स्पशर् तुम्हारा अधर पर !

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‘मेरे आलाप’ का एकिनष्ठ प्रेम बहुत कु छ कह जाता है। हर व्यिक्त की कु छ सीमाएँ होती हैं ; जो उसे बाँध देती हैं। इसका यह अथर् कदािप नही ं िक उसने अपने िप्रय की उपेक्षा कर दी है।आशा का दामन थामे इस तरह की बात कोई पावन मन वाला ही कह सकता हैसम्भवतः िववशता कभी तो टू टेगी, पल-पल की अिनश्चतता छू टेगी। तब तुम पूणर् मेरे ही होओगे, जब मेरे आलापों में खोओगे। ‘तुम्हारी प्रतीक्षा में’ जहाँ खुिशयाँ खोखली हो ं और उनीदं ी आँखें ‘रुदाली हो जाएँ ’ ,तो िकसका िदल नही ं भीग उठे गा ! कवियत्री की यह आकांक्षा हर सहृदय पाठक को छू जाएगीअब तो चले आओ ं ,तािक साँसो ं में गमीर् रहे मेरे होंठों पर मदभरी लािलमा की नमीर् रहे चाहो तो दे दो चन्द उष्ण पलों का आिलंगन बफीर्ली पहाड़ी हवाओं से िसहरता तन-मन जीवन है ,तो सुख-द:ु ख आते जाते रहेंगे । ‘इस आशा में’ किवता में सन्देश िनिहत है िक आशा और िवश्वास सदा परछाई की तरह साथ रहेंगे । हर बार तुषारापात हुआ नयी पं खिु ड़ यों पर िफर भी डाली है िक माली को िनहारे जाती है। आज होगा नहीं तो कल होगा, किवता के फटे आँचल में भी मखमल होगा,

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डॉ किवता भट्ट की ये बहुआयामी किवताएँ सहृदय पाठक गुनगुनाने के िलए िववश हो उठें गे मेरा पूणर् िवश्वास है िक डॉ ०किवता भट्ट की काव्य यात्रा उत्तरोत्तर अग्रसर होती जाएगी।कोिटश शुभकामनाएँ ! ĭĜīĥξĭ ēĜƒĩʼnĚ ‘ЗĴīĜāıĿ’ 26 ЗijĂƒĩĭ , 2014

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िवषय-सूची

1.जिटल प्रश्न पवर्तवासी का 2.जलते प्रश्न 3.िप्रय! यिद तुम पास होते! 4.प्यासा पिथक 5.िववश व्यवस्था 6.मन के रंगीन कागज पर 7.वो धोती-पगड़ी वाला 8.एक पुल जो इितहास बन गया 9.दूर पहाड़ी गाँव में 10.तुम और मैं 11.एक भोर िरक्शेवाले की 12.द्रौपदी बना लोकतन्त्र 13.तुम कभी तो आ जाते 14.ठे के का टेण्डर 15.नीरवता के स्पं दन

16. बूढ़ा पहाड़ी घर 17.िकतने िदन बच पायेगा? 18.पसीना काले रंग का 19.िप्रय जब तुम पास थे! 20.उन पाप के नोटों का क्या होगा? 21. मेरे टू टे मकान में 22.पटेल की स्मृित में! 23.अंितम कामना 24.मेरे आलाप 25.मानवता का मनु से िनवेदन 26.इस आशा में 27.भूखा िशशु िहमाला 28.तुम्हारी प्रतीक्षा में

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मन के कागज़ पर

जिटल प्रश्न पवर्तवासी का िशवभूिम बनी शवभूिम अहे! मानव-दम्भ के प्रासाद बहे। दसो-ं िदशाएँ स्तब्ध, मूक खड़ी, िवलापमय काली क्रूर प्रलय घड़ी। क्रन्दन की िनशा-उषा साक्षी बनी, शम्भु तृतीय नेत्र की जल-अिग्न। पुष्प-मालाओ ं के ढोगं ी अिभनन्दन, असीम अिभलाषाओ ं के झूठे चन्दन। न मुग्ध कर सके िशव-शिक्त को, तरं िगणी बहाती आडंबर-भिक्त को। िनःशब्द िहमालय िनहार रहा, पावन मं त्र अधरो ं के छू ट गए । प्रस्तर और प्रस्तर खं ड बहे, सूने िशव के शृं गार रहे। जहाँ आनन्द था, सहस्र थे स्वप्न, िवषाद, बहा ले गया, शेष स्तम्भन। कु छ शव भूिम पर िनवर्स्त्र पड़े, अन्य कु क्कुर मुख भोजन बने, 19


मन के कागज़ पर

भोज हेतु काक -िववाद करते, िगद्ध कु छ शवो ं पर मँ डराते। अस्त-व्यस्त और खं डहर, के दार-भूिम में अवशेष जजर्र। कोई कह रहा, था यह प्राकृ त, और कोई िधक्कारे मानवकृ त। आज प्रकृ ित ने व्यापारी मानव को, दण्ड िदया दोहन का प्रकु िपत हो, उसकी ही अनुशासनहीनता का। कौन उत्तरदायी इस दीनता का? नाटकीयता द्रतु गित के उड़न खटोलो ं से, िवनाश देखा नेताओ ं ने अन्तिरक्ष डोलो ं से, दो-चार श्वेतधािरयो ं के रटे हुए भाषण, िदखावे के चन्द मगरमच्छ के रुदन। इससे क्या? मं थन-गहन िचंतन के िवषय, चािहए िवचारो ं के स्पं दन, दृढ़-िनश्चय। क्योिं क जिटल प्रश्न पवर्तवासी का बड़ा है, जो देवभूिम-श्मशान पर िवचिलत खड़ा है।

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जलते प्रश्न

मन के कागज़ पर

क्रूर प्रितशोध प्रकृ ित का था या, भ्रष्ट मानव की धृष्टता का फल? श्रद्धा-िवश्वास पर कु ठाराघात या, मानव मृगतृष्णाओ ं का दल-दल? जलते िवचारो ं ने प्रश्नो ं का, रूप कर िलया था धारण। िकन्तु उनकी बुिद्ध-शुिद्ध क्या? जो िवराज रहे थे िसहं ासन। डोल रहे अब भी श्वानो ं से, बफर् में दबे शव नोचं -खाने को। मानव ही दानव बन बैठा, िनजबं धुओ ं के अिस्थ-पं जर चबाने को। िकतनी भूख-िकतनी प्यास है, जो कभी भी िमटती ही नही।ं िकतनी छल-कपट की दीवारें , जो आपदाओ ं से भी ढहती नही।ं सब बहा ले गया पानी था, जीवन-आशा-िवश्वास-इच्छा के स्वणर्महल। िकन्तु एक भी पत्थर न िहला, भ्रष्टता-महल दृढ़ खड़ा अब भी प्रबल। 21


मन के कागज़ पर

पेट अपना और कागजो ं का भरने वाले, कहते काम हमने सब कु छ कर डाले। िजनके कु छ सपने पानी ने बहाये, उनकी बही आशाओ ं के कौन रखवाले। उन्ही ं के कु छ सपने बफर् ने दबाये, और कु छ सदर् हवाओ ं ने मृत कर डाले। ऐसा नही ं िक िसंहासन वाले िफर नही ं आएँ गे आएँ गें बफर् में दबे सपनो ं को कचोटने। और सदर् हवाओ ं से बेघरो ं को लगे िरसते-दख ु ते घावो ं पर नमक बुरकने।

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मन के कागज़ पर

िप्रय! यिद तुम पास होते! अगिणत आशा-पत्रो ं से लदा, प्रफु ल्ल कल्पतरु जीवन सदा, पतझड़ भी सुवािसत मधुमास होते, िप्रय! यिद तुम पास होते! झर-झर प्रेम बरखा बरसती, बूँद-बूँद न कोपं लें तरसती, झूलती असं ख्य किलयाँ, कामना प्रवास होते! िप्रय! यिद तुम पास होते! पुष्पगुच्छो ं के अधर पर, कु छ िततिलयाँ-चन्द भ्रमर, रं ग-स्वर लहिरयो ं के सहवास होते िप्रय! यिद तुम पास होते! ये रातें-िझगं ुरो ं की गान हैं जो, शैलनद ध्विनयो ं की प्रस्थान हैं जो, उनमें- आिलगं नरत धरती-आकाश होते, िप्रय! यिद तुम पास होते! जहाँ िचतं न है, वहाँ आनन्द होता! हृद्य भाव-िसन्धु स्वच्छन्द होता! 23


मन के कागज़ पर

छल की पीड़ा िमटाते, अटू ट िवश्वास होते। िप्रय! यिद तुम पास होते! पल-िदवस सं घषर् न होते, आह्वलादो ं के प्रसार होते। पूणर्ता की श्वासें, कामनाओ ं के प्रश्वास होते। िप्रय! यिद तुम पास होते! धड़कन-स्वर ककर् श न होते, चूर-चूर सब अवसाद होते। वृक्ष-झुरमुट, मधुर-तानें, राधा-कृ ष्ण से रास होते िप्रय! यिद तुम पास होते! अिविच्छन्न आयाम िनरन्तर साकार होते, रे खाएँ -सीमाएँ और िदशान्तर लाचार होते। अन्तहीन कल्पनाओ ं को; िवराम के आभास होते िप्रय! यिद तुम पास होते!

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मन के कागज़ पर

प्यासा पिथक

मीलो ं के पत्थर िगनते हुए बीते पहर, आँखें अब तक भी सोयी नही।ं एक भी धड़कन ऐसी नही ं जो, स्मृितयो ं में तेरी कभी खोयी नही ं । पल-पल गूंथ रही िससिकयाँ आँखें, परन्तु पलकें मैंने अभी िभगोयी नही।ं जीवन की कहानी कटु होती गयी, परन्तु आशा मैंने अभी डुबोयी नही।ं प्यासा पिथक बन रातो ं को, अंजुिलयाँ तुमने कभी सं जोयी नही।ं झूठ हैं ये प्रणय की लिड़याँ सपनीली, यथाथर् में तुमने कभी िपरोयी नही।ं अंकुरण हो न हो, तुम प्रस्फु टन चाहते, कै से हो, कतारें तुमने कभी बोयी नही।ं

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मन के कागज़ पर

िववश व्यवस्था

समय की गित में बहती रही है, दलालो ं के हाथो ं की लं गड़ी व्यवस्था िनिशिदन कहानी कहती रही है, बैशािखयो ं से कदमताल करती व्यवस्था। सुना है- अब तो गूँगी हुई है, मूक पीड़ाओ ं पर मुस्कुराती व्यवस्था। बहुत चीखता रहा आये िदन भीड़ की ध्विन में, िफर भी, सुनती नही ं िनलर्ज्ज बहरी व्यवस्था। िवषमताओ ं पर अट्टाहास, कभी ठहाके लगाती, समाचार-पत्रो ं में कराहा करती झठू ी व्यवस्था। यह नतर्की बेच आई अब तो घूँघट भी अपना, प्रजातन्त्र-राजाओ ं की ताल पर ठु मकती व्यवस्था। चन्द कौिड़यो ं के िलए कभी इस हाथ, भी उस हाथ, पत्तो-ं सी खेली जाती व्यवस्था। बहुत रोता रहा था, वह रातो ं को िचघं ाड़कर, झोपं ड़े जला, िदवाली मनाया करती व्यवस्था। रात सारी िडिग्रयाँ जला डाली ं उसने घबराये हुए, देख आया था, नोटो ं से हाथ िमलाती व्यवस्था। 26


मन के कागज़ पर

मन के रंगीन कागज़ पर

मन के रं गीन कागज पर, जब चली लेखनी िवचारो ं की। उद्गम से ही पूछ रहे हम, कौन गली हम बं जारो ं की। उठ कर चले गए साथी। अब क्या चाह बहारो ं की? दो चुिस्कयाँ चाय- सं ग पी लेते, हमें चाह न थी उपहारो ं की। पल-िछन, पल-िछन िनहार रहे हम, तुम िबन तस्वीरें दीवारो ं की, सं सार कहता है हमें भोगी, पर ये चाह नही ं आवारो ं की। उन्मुक्त हँ सी, स्नेह-भरी बातें, प्रतीक्षा है- सावन -फु हारो ं की। अब नही ं समय दो पल का भी, मौन कथा है बस- उद्गारो ं की। पिरचय मात्र ये जीवन है, मं द मुस्कान हृदय के मारो ं की।

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मन के कागज़ पर

वो धोती-पगड़ी वाला िनरन्तर गितशील जीवन, अब लड़खड़ाने लगा। िसफ़र् दो िनवालो ं के िलए, सं घषर् मुँह की खाने लगा। चमचमाते रजत अंश नही,ं ये पसीने के रक्त िबन्दु हैं। लुढ़क आये कपोलो ं पर दःु ख भरे ये िसन्धु हैं। वातानुकूलन में मदभरे प्यालो ं को पीने वाले। मोल मेरे श्रम का क्या जानो, तुम महलो ं में जीने वाले। सभी को जीवन।-दान िकया, मौन, हल ही खीचं ा सदा। अपनी ही रोटी ना िमली, दिरद्र मैं, अभावो ं में जीवन कटा। जीिवत रहा एक झोपं ड़ी में, जो मौसमी घासो ं से थी बनी। 28


मन के कागज़ पर

िसरिलपटा-आधेक मीटर पगड़ी में, कृ श देह दो मीटर धोती में। दो रोटी, दो मीटर कपड़े में, और दो-चार फु ट के झोपं ड़े में, कल रहा था जो जीिवत शव, मृत भूिम पर िलपटा आज दो गज कपड़े में। यह कपड़ा िजसे कफ़न कहते हैं, महलस्वामी-दिरद्र सभी िलपटेंगे कल इसमें। बहुत सोचा था सूखी भूिम पर चलूँगा, फावड़ा लेकर कु छे क डग और भरूँगा। जीवन पथ पर; िकन्तु न भाव िदया मुझे, अन्ततः थके हारे मौन अब पदचाप हुए। दस रुपया जो बचा था,बीज और खाद के बाद। उससे िवष भी जब ना िमला, तो खरीदा कु छ ले उधार। िनःशब्द अब पड़ा हूँ हे िप्रये! िशिथल हो तुम्हारी गोदी में। चन्द पुरानी पीतल की चूिड़याँ, तोड़ दोगी तुम िखन्न होकर। मैं तुम्हारा दोषी हूँ , िकन्तु न िधक्कारना, हूँ मैं व्यवस्था के लँ गड़ेपन का प्रमाण। 29


मन के कागज़ पर

त्याग रहा हूँ अब हारकर मैं, व्यवस्था की चन्द कौिड़यो ं में िसमटा प्राण। ऊँ चे- ऊँ चे उन कागज के महलो ं में, िनमग्न रहने वालो ं से एक बार तो पूछती है। मेरी देह- िस्थर, िनःशब्द और व्यिथत, िक वसीयत में अपने बेटे की, क्या िलखूँ मैं? वही दो मीटर कपड़ा, िवष की एक पुिड़या, या आत्मघाती कजर् का लम्बा-चौड़ा िचट्ठा। झकझोर कर मैं पूछता हूँ मैं, तुम िनरुत्तर क्यो ं खड़े हो? अपने अन्नदाता के शव को रौदं ते क्यो ं चल पड़े हो? िकन्तु हे प्रासादो ं के स्वामी! तुम भी आिखर इस गवर् में, िकतना िजओगे, अन्नदाता मर गया तो, तुम भी स्वयं ही मर जाओगे। क्योिं क…,िनरन्तर गितशील जीवन, अब लड़खड़ाने लगा। मात्र दो िनवालो ं के िलए, सं घषर् मुँह की खाने लगा। 30


मन के कागज़ पर

एक पुल जो इितहास बन गया

सौ योजन पर सेतु बाँधा था, इनसे अच्छे तो बं दर थे, मुँह िचढ़ा रहे आते-जाते चौरास पुल के अिस्थ पं जर थे। ित्रशं कु सा झूलता एक पुल जो इितहास बन गया, अपने भाग्य कोसता लोकतन्त्र का पिरहास बन गया। ढोती हुई िनष्पाप भूखे- मजदूरो ं के पं जर, अधर्िनिर्मत अवशेष लोहा-सिरये-िपल्लर। हर लहर भूखे लोकतन्त्र की कहानी कहती है, उपहास करती, नीचे इसके जो नदी बहती है। भूख उन मजदूरो ं की, िजनका पाप मात्र था-रोटी, भूख उनकी भी, असीम थी िजनकी पाचन-शिक्त । लोहा तो वे यूँ ही पचा जाते हैं, िबना जुगाली, और सिरया-सीमेंट तो प्रिशक्षण में ही चबा ली। सौ योजन सेतु बाँधा था, इनसे अच्छे तो त्रेता के बं दर थे, मुँह िचढ़ा रहे आते-जाते चौरास पुल के अिस्थ पं जर थे। ित्रशं कु सा झूलता एक पुल जो इितहास बन गया, अपने भाग्य कोसता लोकतन्त्र का पिरहास बन गया। अब सुनते हैं िक इस पुल की कथा पर इसके असफल िनमार्ताओ ं का क्या है अनुभव? िनलर्ज्ज कहते- हँ सी आती, उन मूखर् बं दरो ं पर, 31


मन के कागज़ पर

जो िकसी अपिरिचत की स्त्री के हरण पर। सेतु हेतु वषोर्ं भूखे-प्यासे सं घषर् करते थे, और सोने की लं का को जला डालते थे। हम तो कमीशन की मलाई, लालच-ब्रेड को लगाकर, कभी इस फ्लेवर और कभी उस फ्लेवर में खाते हैं । िफर भी हमारे लोहे, सिरया और सीमेण्ट के पुल कु छ कृ शकाय मजदूरो ं के शरीरो ं से ढह जाते हैं। यिद त्रेता में राम अपने पुल का टेंडर हमसे भरवाते, हम घाटे सौदा न करते पुल बनाकर भी नही ं बनाते और मूल्यवान् सोने की सम्पूणर् लं का बचा लेते। कु छ िबिस्कट ले-दे कर ही मामला िनबटा लेते।

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मन के कागज़ पर

दूर पहाड़ी गाँव में वीराने से एक मौन सी चीख िनकलती है, दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। िकसी के होने की गवाही देती, दो बूढ़ े शरीरो ं को ढाँढ़स देती बरखा-हवाओ ं से सं घषर् करती, िचम्नी काँपते हुए आह भरती, ।खं डहर की िखड़की में िववश मचलती है, दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। नौिनहाल हँ सी बीते िदनो ं की बातें, बूढ़े तन, पूस, करवट बदलती रातें। बस मुठ्ठी भर राख है बुझे चूल्हे में, तन में थमती हुई चन्द लम्बीसाँसें। झेंपती-एक धीमी िचगं ारी धुआँ उगलती है, दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। बफर् हो चुके हाथो ं की झुिर्रयाँ शेष, िसमटती धमिनयाँ, कु छ गिर्मयाँ शेष, खं डहर दीवारो ं पर दो बूढ़ी परछाइयाँ, िचम्नी-िशिथल प्रकाश सुस्त अँगड़ाइयाँ। 33


मन के कागज़ पर

कमजोर बुझती- सी लौ अब भी जलती है। दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझढलती है। बूढ़ी साँसो ं की इितश्री कर डाली, बसाने के िलए भावी युवा पीढ़ी। मेरे पहाड़ी गांवो ं की वह जवानी, महानगरो ं की चादरो ं में रे शमी। पैबन्द की तरह िसमट हाथ मलती है। दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। जागती है जवानी बसो ं में लदने के िलए, भगाती रहती,ं अन्तहीन नािगन -सी सड़कें । बू़ढ़ी नब्जो ं की आवाज़ दबती ही जाती है, बस के कोने वाली सीट पर, कोलाहल में, उधेड़बुन में, मं िजल की तलाश चलती है, दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। कदमो ं की आहटें पूछती हैं पता उसी का, जैसे जानते ही नही,ं और नही ं पाते बता, खो -सी जाती है हँ सी, रोटी का भार उठा, ओसं से नहायी रोशिनयाँ, कोहरे में लौटता, स्नेह-स्पशर् को तरसती, भावना उबलती हैं, दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है। 34


तुम और मैं

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िनजर्न नीलांचल की नदी मैं तुम प्यासे पिथक प्रेम प्रगाढ िलये। मैं सुरिभत स्वप्नो ं की स्वणर्-शृं खला तुम प्रहर प्रशान्त पुण्य प्रकाश िलये। िवरह वेदना रातो ं की मैं, तुम प्रतीिक्षत प्रणय के प्रयास िलये। मैं अप्रकट अधखुले अधरो ं की कामना, तुम प्रफु ल्लता का प्रशस्त प्रवास िलये। िनःसं ग िकंतु िनरं तर गित मैं, तुम प्रखर प्रितछाया का प्रितभास िलये। मैं िनष्पाप िनश्छल िनिमत्त िनबं धन, तुम प्रकृ ष्ट प्रयोजन के प्रत्याश िलये। लितका धरणीतल से उगती मैं, तुम प्लक्ष (वृक्ष) के प्रबल प्रसार िलये। मैं मूक मं त्र मानिसक जप में, तुम उच्चािरत प्राथर्नाओ ं का प्रसाद िलये । मं द मधुर लयबद्ध गीत मैं, तुम उन्मुक्त गान का प्रितध्विनत प्रहास िलये। 35


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एक भोर िरक्शे वाले की एक भोर िरक्शेवाले कीपीड़ाओ ं के िलए जब ठहरी थी, भोर के तारे के उगते ही, पगली -सी मटकती कहाँ चली थी ? इसी भोर की आहट को सुनते ही, खीचं ने को बोझ करवट धीरे से बदली थी। रात, िरक्शा सड़क के कोने लगा, धीरे सी चुभती कराह एक िनकली थी। शायद िकसी ने भी न सुनी हो, जो धिनको ं के कोलाहल में मचली थी। पांच रुपया हाथ में ही रह गया, लोकतन्त्र की थाली अपिरभािषत धुँधली थी। कोहरे की चादर में लेटा था, जमती हुई िससकािरयाँ कु छ िनकली थी। व्यवस्था की िनलर्ज्जता को ढकने को आतुर, वही कफन बन गयी जो उसने ओढ़ ली थी। 36


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द्रौपदी बना लोकतन्त्र

इितहास के कलुष पत्र में िदल्ली तो धृतराष्ट्र हो चुकी। द्रौपदी बना लोकतन्त्र और सत्ता कौरवदासी हो चुकी। प्रशासन जुए में हारे हुए पाण्डव सा, व्यवस्था सं न्यािसनी हो चुकी। न्यायपािलका भीष्म बनी है, िवदरु -नीित परास्त हो चुकी। कौरव-अट्टाहास, जनतन्त्र-रुदन, िसहं ासन की बीमारी हो चुकी। क्या कोई कृ ष्ण अवतिरत होगा, चीरहरण की तैयारी हो चुकी। घूँट अपमान प्रितपल और मीठा िवष, धीमी आत्महत्या लाचारी हो चुकी। फटे वस्त्र िसये या कृ ष्ण की प्रतीक्षा करे , यह अनसुलझी पहेली हो चुकी। आशा है- सम्भवतः वह पुनः आएगा, त्रािहमाम! कह जनता बेचारी हो चुकी। सं भवािम युगे-युगे, उसने ही कहा है, 37


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गुंजायमान पिरवतर्न की रणभेरी हो चुकी।

( सन्दभर्:लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयन्ती पर लखनऊ में अिखल भारतीय किव सम्मेलन -2013 में प्रस्तुत)

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मन के कागज़ पर

तुम कभी तो आ जाते तुम कभी तो आ जाते, प्रस्तर खं डो ं पर चलते हुए। इतनी रे लें चलती हैं भारत में, िगरते कभी सँ भलते हुए। अब हैं, आहटो ं की प्रतीक्षा करते, श्वासो ं के स्वर ढलते हुए। चुपचाप हँ सी िवदा हो गयी, अन्तद्वर्न्द्वो ं में मचलते हुए। कु छ झिर्ु रयो ं से था सं घषर्, चुनौितयो ं के स्वर बदलते हुए। झकझोर रही, िनलर्ज्जता से, बूँदें नयनो ं से िनकलते हुए। इन्ही ं िसकु ड़ी आँखो ं को िभगोकर, रातें बुढ़ापे ने िबतायी करवट बदलते हुए। तुम क्या जानो मेरी व्याकु लता, अभी तो जवानी आयी है, आँखें मलते हुए। अब भोर, िफर दोपहर, िफर जजर्रता आएगी उछलते हुए। 39


मन के कागज़ पर

तुम्हारे पाले हुए िशशु युवा होगं ें, और तुम नर-कं काल समान जीणर् झूलते हुए। तब तुम्हें अनुभव हमारी पीड़ा होगी, जब तुम भी होगे िचता पर जलते हुए।

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ठे के का टेण्डर

मदमस्त हो रही हैं धीरे -धीरे पहािड़याँ, जीवन को िवदा कह रही हैं जवािनयाँ। कल ही तोड़े थे शीशे ठे के के उसकी माँ ने, नारे लगाये, लगवाया बाहर से ताला, बुआ ने । अब भी नही ं कर पाया वह मनन, िकसने की िवषैली यहाँ की पवन? चार िकताबें हाथो ं में िलए कॉपी और एक पेन, भेजा था बेटे को स्कू ल और पढाया था ट्यूशन। कु शासन ने उसको रोटी नही ं कई बरस दी, कड़वे घूँट, कई बोतलें िव्हस्की की परस दी। अबके रोया था वह माँ की गोदी में िबलखकर, क्या उसमें खूबी नही ं रोटी खाने की कमाकर? आज सोया है िचरिनद्रा में थककर, न उठे गा न माँगेगा रोटी कभी िफर। बैठी मन में जो ठे का बन्द करना, ठानकर चिकत थी माँ उसकी आज यह जानकर, िजस सखी ने उठाया था ठे के पर पत्थर, उसी के नाम खुला है अबके ठे के का टेण्डर।

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नीरवता के स्पं दन मन-ध्विनयाँ प्रितध्विनत करते, ओढ़कर एकाकीपन प्रचुर सं ख्या में, चले आते हैं नीरवता के स्पं दन। नीरवता के स्पं दनो ं को िनजीर्व िकसने कहा है? प्रितक्षण इन्होनं े ही मन को रोमांिचत िकया है। साँझ के आकाश पर कु छ बादल िवभा के घनेरे से, स्मृितयो ं में प्रणय-क्षण कु छ उस साथी के -मेरे से। अन्तद्वर्न्द्वो ं के भँ वर में खोया उिद्वग्न सा मन, बीते कल सं ग खोजता ही रहा उन्मुक्त क्षण, और अब, चादर की सलवट से कभी बोलते हैं, मेरे बनकर, परदो ं की हलचल से बहुत डोलते हैं। हैं प्रितबद्ध, यद्यिप हो िनशा की कल-कल, हैं चेतन प्रितक्षण, यद्यिप िदवस जाये भी ढल। मानव स्वभाव में व्यथर् इनको न कहना, ध्विनमद के अहं स्वरो ं में कदािप न बहना। अिस्तत्व में िवमुखता-अिनिश्चतता है ही नही,ं परन्तु सं दे ह-उद्वेगो ं की िवकलता है ही कही।ं अिस्तत्व रखते हैं-नीरवता के स्पं दन, िनःसं देह, हाँ वही-नीरवता के स्पं दन42


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िजनमें है प्रशं सा, माधुयर्, स्मरण, िचतं न, अपने भाव अपनी ही प्रितिक्रया के टंकण। सफलता-असफलता में वे ही पुचकारते हैं, धीरे से- अधर माथे स्पशर् कर िससकारते हैं। रात को िनश्छल िकंतु सकु चाए चले आते हैं, नीरवता के स्पं दन अकस्मात् मेरा दर खटकाते हैं।

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बूढ़ा पहाड़ी घर तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर। माना तुम्हारे आस-पास होगं ें आकाशचुम्बी भवन, परन्तु क्या ये घरौदं ा नही ं अब तुम्हें नही ं स्मरण? खेले-कू दे िजसकी गोदी में, धूल-िमट्टी से सन जहाँ तुमने िबताया, अपना प्यारा-नन्हा सा बचपन। तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर। तुम्हारे िपता को मैं अितशय था प्यारा, उन्होनं े उम्र भर मेरी छत-आँगन को सँ वारा। चार पत्थर िचने थे, लगा िमट्टी और कं कर, लीपा था मेरी चार दीवारो ं पर िमट्टी-गोबर। उन्होनं े तराशे थे जो चौखट और लकड़ी के दर, लगी उनमें दीमक हुए जीणर्-शीणर् और जजर्र। तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर। चार पौधे लगाए थे जो पसीना बहाकर, िसफ़र् वे ही खड़े हैं मुझ बूढ़े के पास बूढ़े वृक्ष बनकर। 44


मन के कागज़ पर

जो सं दूक रखे थे मेरी छत के नीचे ढककर, जं ग खा गए वो पठाि़लयो ं से पानी टपककर। उसी में रखी थी तुम्हारे बचपन की स्मृितयाँ सँ जोकर, धगुिलयाँ, हँ सुल़ी, कपड़े तुम्हारी माँ ने सँ भालकर। तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर। थी रसोई, चूल्हा बनाया था, माँ ने लगा िमट्टी-गोबर, मुं गरी-कोदे की रोटी बनाई थी करारी सेंककर। मेरी स्मृितयो ं में कर रहा है िवचरण, तुम्हारा ठु मकना, रोटी का टुकड़ा हाथो ं में लेकर। काल-पिरवतर्न का मुझे आभास न था तब, तुम्हें ले जाएगा, यह रोटी का टुकड़ा मीलो ं दूर अब। और खो जाएँ गी तुम्हारी अठखेिलयाँ िसमटकर, रह जाओगे तुम कं क्रीट के भवनो ं में खोकर। तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर। तुम्हें तो मैं िवस्मिरत हो चुका हूँ , िकंतु तुम्हारी प्रतीक्षा में मैं बूढ़ा घर खड़ा हूँ । अभी भी मैं हर घड़ी-पल यही सोचता हूँ , अभी भी मैं रोता हूँ और समय को कोसता हूँ । क्या अब मैं मात्र भूखापन ही परोस सकता हूँ ? 45


मन के कागज़ पर

या वह रोटी का टुकड़ा तुम्हें मैं पुनः दे सकता हूँ ? कही ं न उलझ जाना इन प्रश्नो ं में खोकर, अब भी रह सकते हैं हम सहजीवी बनकर। तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर। तुमको मैं दँ ू गा िबना मोल आश्रय-प्रेम जी भर, और तुम मुझको देना वही बचपन का आभास भर। अपनी सं तानो ं के बचपन में जाना ढल, और दे देना मुझे बचपन का वह प्रेम िनश्छल। आ सकोगे मुझ बूढ़ े का ममर्स्पशीर् िनमं त्रण पाकर? माता-िपता की अंितम इच्छाओ ं को सम्मान देकर। िनणर्य तुम्हारा है़...........आमं त्रण मेरा है! तुम्हारी प्रतीक्षा में मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर, कं क्रीट-अरण्यो ं से चले आओ िनकलकर।

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मन के कागज़ पर

िकतने िदन बच पाएगा? अपने लाचार बूढ़ े वृक्ष साथी से िससकते हुए पहाड़ की चोटी से, बोला एक बूढ़ा-जजर्र वृक्ष हाँफता। िसमटती नदी-घाटी की ओर झाँकता। अबके जब सावन आएगा, तुम्हारे -मेरे अंग सहलायेगा। आओ हम-तुम शुभेच्छा करें । अमृत धाराओ ं की प्रतीक्षा करें । िचतं ातुर- अतीत और भिवष्य में डू बा, स्वयं के िछन्न-िविछन्न रूप से ऊबा। बोला-मैं उन्मुक्त था, प्रफु ल्ल था, शीतलनीर-समीर से चुलबुल था। नृत्य करती थी-मेरी पत्ती-शाखाएँ , और मेरे उर में थी- पिक्षयो ं की मालाएँ । अकस्मात् हो उठा प्रकु िपत मानव-मन, िजसका साक्षी है मेरा अधजला तन। अपनी क्षिणक स्वाथर्वशता में, या िकंिचत् सं वेदनहीन मूखर्ता में। 47


मन के कागज़ पर

अहंवश छोड़ी एक दग्ध-क्रूर ज्वाला, िजसने तुम्हें और मुझे झुलसा डाला। जला डाले हमारे सं ग कु छ घोसं ले, और कु छ चहकते मचलते घरौदं े। िफर रहे-अब वे पशु िबदकते, भय से- लाचार और िसहरते। उनका ही मानव से अन्तहीन सं घषर् होगा, हमसे िनिर्मत सं तुलन का िवध्वं स होगा। साथी! हम दो पग भी चल सकते नही,ं अपनी ददु र्शा का प्रितशोध ले सकते नही। िकन्तु, सभी हमारे साथी पशु घरौदं ो ं वाले, मानव से सं घषर् करें गे प्रितशोध के मतवाले। िकन्तु; दःु खद है, हाय! दःु खद, हश्र हो जायेगा, जीवन-सं घषर् जब मानव िवरुद्ध कहा जायेगा। िनरीह पशुओ ं में से कोई भी न बचेगा, तो व्यूह-रचियता मानव भी िकतने िदन रहेगा?

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मन के कागज़ पर

पसीना काले रंग का सं गमरमर के चमकते घरौदं ो ं को सजाने वाले, झोपिड़यो ं को भी तरसते हैं, महल बनाने वाले। युग बदल गए इितहास तो बदले नही,ं शाहजहाँ के अध्याय अभी हुए धुंधले नही।ं काट डाले हाथ सहस्रो ं काठ के पुतले नही,ं क्या इन िनिमषो ं में सजते सपने सुनहले नही।ं उचकते िफरते हो िजन बं गलो ं में तुम, उन्ही ं में ही हुए हैं अपने सपने गुम। चार कौिड़याँ ही है मूल्य हमारा, तुम्हारा क्या दोष ये है भाग्य हमारा। अथक पिरश्रम तन का तो कोई मोल ना, एक ओर मिस्तष्क को रख इसे तोल ना। क्या भूखापन, और क्या नं गापन काले रं ग का, बदबूदार ही होता है पसीना काले रं ग का। तुम्हारे गोरे रं ग की नीवं में पत्थर-काले रं ग का, तुम्हारे तन की सुगन्ध में बदबूदार पसीना काले रं ग का। 49


मन के कागज़ पर

िप्रय जब तुम पास थे!

आँचल फै लाए, िनःशब्द-मूक पड़े थे, दो बूँदो ं की आशा में, अधखुले नैन-स्वप्नाकाश थे! रुक्ष-धरा को नीर भरे घन बरसने के िवश्वास थे। िप्रय जब तुम पास थे। कामनाओ ं के झरते िनझर्र, धरा के घषर्ण करते झर-झर। कु छ तृिप्त तो कु छ मृगतृष्णा जैसे ये आभास थे। िप्रय जब तुम पास थे। उष्ण अधर स्पशर् को व्याकु ल, िकन्तु नैनो ं में कु छ सं कोच-चपल! हृदय-ध्विन सकु चाई, िकन्तु साहसी-प्रेम के उच्छवास थे। िप्रय जब तुम पास थे। उन्मुक्त हँ सी की स्वणर्-शृं खलाएँ , गूँथ रही ं थी ं मन में नव-अिभलाषाएँ प्रितध्विनत हो चले स्वर-लहिरयो ं के पल अनायास थे। िप्रय जब तुम पास थे। अिवस्मरणीय, अकिल्पत, अद्भतु ! प्रेम चरम िशखर आरूढ़ होने को उन्मुख। िवगत िवछोह- िवदा, दःु ख-िवस्मरण के आभास थे। 50


मन के कागज़ पर

िप्रय जब तुम पास थे। रुदन प्रारम्भ में और रुदन अंत में िमलन सुखद िकन्तु नीर-जल दःु खद अंत में। एक ओर सं योग,िकन्तु कही ं िवरह के भी तीक्ष्ण त्रास थे। िप्रय जब तुम पास थे। क्या होगा क्या पुनिर्मलन अब िनत्यप्रित है यही प्रश्न िनरुत्तर तुम्हारे -मेरे अधरो ं के उसी िदन से प्रयास थे। िप्रय जब तुम पास थे।

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मन के कागज़ पर

उन पाप के नोटों का क्या होगा? प्रस्तर खं डो ं से टकराती, चल रही मेरी व्याकु ल धारा। िहमाला से िवदा हो रही, सागर ही मेरा प्रेमी प्यारा। असं ख्य कामनाएँ िमलन की तन पर अपने शृं गार िलये। सोचा- स्नेहमय ससुराल होगा, िकंतु तुमने मायके में भी व्यिभचार िकये। मुझे कै द कर डाला तुमने, रे त सीमेंट की दीवारो ं में। अपनी सुख-सुिवधा के िलए अपने फै लते अन्धे व्यापारो ं में। मूक कहानी सुना रही हूँ , मीलो ं चलकर ये क्या पाया? धाराओ ं में झनझना रही हूँ । काली कर दी चम्पयी काया। स्वच्छ धवल नीर बहाया था, स्तब्ध खड़ा- पवर्त मेरा िपता लाचार। 52


मन के कागज़ पर

फू ट-फू ट रोता और अश्रु बहाता, देख अपनी बेटी का हाय! ितरस्कार। कहने को कु म्भ नहाते हो, अगिणत मुझमें पाप बहाते हो। उन पाप के नोटो ं का क्या होगा? जो तिकयो ं में िछपाये जाते हो।

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मन के कागज़ पर

मेरे टू टे मकान में क्या मेरे टू टे मकान में वो िफर से आएँ गे, िजनके आते ही मेरे सपने रं गीन हो जाएँ गे। वो आये और आकर चले गए, मेरे मन में अपनी याद जगाकर चले गए। जब मैंने उन्हें िवदाई दी तो उनकी याद आती थी, जब आयी मैं अपने िमट्टी और पठाि़लयो ं के बरसात में- िरसते-टपकते मकान में, उन्हें छोड़कर वापस तो उसकी याद सताती थी। िकचन-बाथरूम न कोई सुिवधा िजसमें, टीवी, िफ्रज, कम्प्यूटर न ही मोबाइल। चारो ं ओर घने पेड़ थे देवदार-अँयार के , और िमट्टी पत्थर के उस घर मेंवह कु छ न था जो उन्हें चािहए था, पर मेरे उसी घर में सुख-शांित थे जहाँ मैं आती थी खेतो ं से थककर, खाती थी रोटी कोदे कीघी और हरी सब्जी लगाकर, दूध पीती थी मन भर कर और, 54


मन के कागज़ पर

िफर सोती थी गहरी नीदं ें लेकर, जबिक मेरे पास नही ं थे िबस्तर। मैंने सोचा शायद वे, अपने घर चले गए । कु छ िदन बाद पता चला िक, दो चार िदन सुिवधाओ ं में कही ं और रुक गए। मैंने सोचा अब मैंने उनको भुला िदया, पर उसकी यादो ं ने मुझको रुला िदया। अब सोचती हूँ यही रह-रह कर िक क्या? मेरे टू टे मकान में वो िफर से आएँ गे? िजनके आते ही मेरे सपने रं गीन हो जाएँ गे।

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मन के कागज़ पर

पटेल की स्मृित में ितनका-ितनका िबखरे राष्ट्र को, जोड़ा तुमने चहकते घोसं लें सा। सम्बल िदया िवकट घड़ी में, िससकते िशशु को बुलंद हौसले सा। लौहपुरुष! हे नायक-अिधनायक! राष्ट्रवाद, एकीकरण के पिरचायक! शत्-शत् नमन तुम्हें, हे! िनजस्वाथर् से िवमुख वैरागी। कृ षक-पुत्र अमर िवभूित तुम दृढ़ देशानुरागी।

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मन के कागज़ पर

अंितम कामना

तुम्हारी स्मृितयो ं का आलम्बन िलये, गिर्वत हो चलती हूँ जीवन पथ पर तुम ही तो हो-िजसने चुन डाले, अपनी पलको ं से मेरी राहो ं के कं कर िनज स्वाथर् से िवमुख िवलग हे! आलं बन में िलये- तृष्णा िमटाते िनझर्र तुम ही तो हो जो िबना शतर् के पोिषत करते हो स्वप्नो ं के नवांकुर िशिथल कभी गितशील कभी प्रफु ल्ल कभी उन्माद के कभी स्वर मधुमास के आते ही जैसेसुगंध की रट िलये होठं ो ं पर िनरं तर तुम ही तो हो िजसने मृत दे ह में जीवन प्राण फूँ के प्रितपल आकर अंितम सं ध्या जीवन की जब होवे, और शेष नही ं होगा कोई भी प्रहर। अंतस् में पिवत्र कामना ये ही रहेगी, सं ग तुम्हारा, स्पशर् तुम्हारा अधर पर ! 57


मेरे आलाप

मन के कागज़ पर

जब भी सूनी राह में मुड़कर देखा िवकल दृिष्ट ने तुम्हें ही पाया इसको मन का भ्रम कहूँ झूठा या अंश स्वयं के पदचापो ं की प्रितध्विन का अिधकांश िनरुत्तर ही रहती हूँ बस खोयी हुई चलती रहती हूँ कभी आगे-कभी पीछे देखते हुए तुम्हारे ही अनुभव का भाव िलये। भाग्य नही ं दयालु इतना मेरा िक तुम्हें मुझे वह दे दे पूरा अंशो ं में जीती हूँ िकन्तु यह बं धन, तुम्हारे आभास का एक पूरा जीवन। इसी में पीड़ा लेकर मुस्काना, अधर्चेतन सा तुम्हें रटते जाना। कु छ सीमाओ ं की घनघोर िववशता, और कु छ अपनी ही अिनश्चतता। सम्भवतः िववशता कभी तो टू टेगी, पल-पल की अिनश्चतता छू टेगी। तब तुम पूणर् मेरे ही होओगे, जब मेरे आलापो ं में खोओगे। 58


मन के कागज़ पर

मानवता का मनु से िनवेदन

िवकृ त मानव- त्रस्त मानवता को कही ं मनु िमल गए , व्याकु ल मुख पर आशा छायी भाग्य जैसे िखल गए । प्रणाम तुम्हें हे मानव-िपतृ! कह तिनक सकु चायी, क्या पीड़ा की औषध होगी या रोग रहेगा िचरस्थायी? न कहना चाह रही थी, िकन्तु पुत्रो ं से िववश तुम्हारे , िवचर रही िचर काल से-िनराश अब मात्र तुम्ही सहारे । िकंिचत रे खाएँ िचतं ा की मनु-भाल उभर आयी, बोले स्पष्ट कहो मानवता क्यो ं तुम िवकल सकु चायी? बोली मानवता आकाश-चुम्बी भवनस्वामी- मानवो ं के , पीिड़त हूँ मैं िनम्न होते- अधोगामी चेतना स्तरां◌े से। मन-कलुिषत, िहय- उद्वेिलत, अब हुए तुम्हारे पुत्रो ं के , िकतना सुना पाऊँ गी दिु श्चतं न मैं इन अन्तिरक्ष चरो ं के ? नभ-िवजय का उद्घोष करने, ग्रह-नक्षत्र जीतने वाले, जीत सके न मन स्वयं के , ईष्यार्-द्वेषो ं के मत वाले। घृिणत, भ्रष्ट, कलुिषत वसुधा-कु टुम्ब िवखं डन का हेतु, भौितक िवकास-िनरं तर, कहाँ नैितक िचतं न का सेतु? अब नही ं सौहादर्, श्रेयस् युक्त तुम्हारे पुत्रो ं का व्यवहार, मात्र त्रासदी-मूल्यो ं की, मेरा िनत्य घोर- ितरस्कार। भार उपेक्षा का, अित िवषाद इस युग में मेरे मन पर है, 59


मन के कागज़ पर

क्या तुम िनवारण कर पाओगे जो दःु ख इस जीवन पर है? जान मानवता के िवषाद का कारण मनु तिनक मुस्काए, क्या तुम यह न समझ पायी युग-पिरवतर्न होते आए। सं क्रमण का युग है यह नही ं रहेगा अिधक अविध तक, करे गी प्रकृ ित सं तुलन मेरे पुत्रो ं का सृिष्ट पिरिध तक। होगा नवीन युग का आगमन वही होगा सुखदायी, धरणी पर पाप है अिधक पर नही ं यह िचरस्थायी। पुनः मूल्यो ं का प्रितस्थापन होगा उन्मूलन सं क्रमण का, आओ हम-तुम पथ िनहारें मानव के नव-सृजन का।

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मन के कागज़ पर

इस आशा में कभी रातो ं में जुगनूँ सी िटमिटमाती है, कभी सूरज कभी चं दा कभी तारो ं में िझलिमलाती है, है अँधेरो ं को बहुत गुस्सा इस पर िफर भी किवता तो हर हाल में मुस्कुराती है। हमेशा आँचल में काँटे ही आया करते हैं, और फू लो ं के होठं ो ं को ओस ही झुलसाती है। हर बार तुषारापात हुआ नयी पं खुिड़यो ं पर िफर भी डाली है िक माली को िनहारे जाती है। आज होगा नही ं तो कल होगा, किवता के फटे आँचल में भी मखमल होगा, पत्थरो ं के ककर् श सीने पर सोती है ये, इस आशा में िक कभी तो बसन्ती हवाओ ं का टहल होगा।

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मन के कागज़ पर

भूखा िशशु िहमाला िसहं ासन के कड़वे सच के धरातल पर पथरीले, सरकता, भूखा िशशु िहमाला, घुटने लहूलुहान िछले। प्रजातन्त्र राजाओ ं के फशर् पर िफसलता हुआ, ठोकरें खाता, िगरता कभी- सम्भलता हुआ। थककर, रुककर कभी भूख से मचलता हुआ, उच्छ्ववासें कभी और कराहता िससकता हुआ। चुपड़ी न िमले सूखी ही सही, भूख मेरी िमट ले, दूध पीकर, शैशव होसुपोिषत, झटपट िखले। काँपती हुई िववश हथेिलयो ं को फै लाकर, 62


मन के कागज़ पर

माँगता एक टुकड़ा रोटी का सकु चाकर। व्यिथत, व्यग्र और क्रिन्दत दृिष्ट उठाकर, छलावे-भरे घोषणापत्रो ं को साक्षी बनाकर। कु छ िदन ही तो बीते, अभी क्या वो भूले? या चाहते नही ं रखना याद, पन्ने सपनीले । सपना तो भोर का था और लोग हैं कहते, भोर के सपने तो हैंसच में सच होते। तो िफर सपनो ं का क्या इस िशशु के ? क्या दोष इसी का है, क्यो ं देखे सपने? या उनका- िजन्होनं े बनाए झठू े कािफले, 63


मन के कागज़ पर

िजनके िसहं ासन जड़े मोती, माला-फू ल िखले! गरजदार हुई थी बरसात, चुनावो ं के बाद अबके , वायदो ं के कागज, आपदा में-चीथड़ें बन बह गए । जो बचे थे बहाव से, दब गए - बफर् के भार तले, चलो अच्छा ............ठं डे पड़े और कु छ गल गए । िसहं ासन बैठे दानव, िशशु-रुदन पर हँ सते ही रहे आश्वासन-दत्क ु ारो ं में िशशु-सपने फँ सते ही रहे। अरे मूखर्! तुम्हारी िजस रोटी का था बहाना उसे तुम्हारे िलए नही ं अपने िलए था सजाना। क्या तुम्हें इसीिलए जन्मा ओ िशशु िहमाला। तुम रोटी माँगो, नही ं

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मन के कागज़ पर

अब मत यह दोहराना। हम तेरे सपनो ं के सौदागर, सपनो ं का सौदा करते, तो िफर हो अकारण ही......... हमसे क्यो ं हठ करते? अब हैं कहतेघोषणाओ ं के झोले वाले, मेरी चाँदी कीचौखट से जाओ चले। सपने मत देखना अब, कभी तुम रं गीले, चुपड़ी खा गए हम, तेरे पथ कं करीले। तू भटक आधी खुदी हुई सड़को ं पर या िफर, पटक- चीखते हुएमेरी चौखट पर अपना िसर। तुझे रोटी- चुपड़ी क्यासूखी भी न िमलेगी, चुनाव की लोरी और, कु छ घूँट रम ही चलेगी। 65


मन के कागज़ पर

सुनता रह, आँखें मूँदे, एक-दो चम्मच पी ले। तुझे हम िजतना कहते हैं, उतनी साँसें जी ले। सपनो ं में नही ं यथाथर् में, िफर आज रात को सो जाओ, खो जाओ तुम......खो जाओ िचरिनद्रा में सो जाओ। खो जाओ तुम......खो जाओ िचरिनद्रा में सो जाओ।

( सन्दभर्: उत्तराखण्ड की ददु र्शा पर)

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तुम्हारी प्रतीक्षा में ठं डी रातो ं को पेड़ो ं के पत्तो ं से टपकती व्यथा है बसन्त की आगन्तुक रं गीन परन्तु मौन कथा है तुम्हारी प्रतीक्षा में...... चौकं कर जागती हूं जब कभी रात में पास अपने न पाती हूं तुम्हें रात में िवरिहणी बनी मैं न अब सोउं गी इसी पीड़ा के कड़ुवे सच में खोऊँ गी तुम्हारी प्रतीक्षा में...... बसं त है परन्तु उदास है बुरांसो ं की लाली रं गो ं की होली होगी फीकी खाली थी िदवाली खुिशया॥ण खोखली और हथेिलयाँ हैं खाली राहें देख लौटती आँखें उनीदं ी ,बनी हैं रुदाली तुम्हारी प्रतीक्षा में...... प्रेमी पवर्त के सीने पर िसर रखकर सोती नदी ये धीमे से अँगड़ाई लेकर पलटती सरकती नदी ये कहती मुझे िचढ़ा कहाँ गया प्रेमी िदखाकर सपने झूठे चाय की मीठी चुिस्कयाँ िबस्तर की चन्द िसलवटें हैं 67


मन के कागज़ पर

तुम्हारी प्रतीक्षा में...... अब तो चले आओ ं तािक साँसो ं में गमीर् रहे मेरे होठं ो ं पर मदभरी लािलयो ं की नमीर् रहे चाहो तो दे दो चन्द उष्ण पलो ं का आिलंगन बफीर्ली पहाड़ी हवाओ ं से िसहरता तन-मन तुम्हारी प्रतीक्षा में...... अपने प्रेमी पहाड़ के सीने पर िसर रखकर करवटें बदलती नदी, बूढ़े-ककर् श पाषाण-हृदय पहाड़ सं ग, बुदबुदाती, िहचकती, मचलती नदी। तुम्हारी प्रतीक्षा में......

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पिरचय डॉ. किवता भट्ट

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जन्म ितिथ एवं स्थान :06 अप्रैल, 1979, िटहरी गढ़वाल, उत्तराखं ड शैिक्षक योग्यता- स्नातकोत्तर (दशर्नशास्त्र, योग, अंग्रेजी, समाजकायर्), यू .जी .सी. नेट – 1-दशर्नशास्त्र, 2- योग ;पी-एच. डी. (दशर्न शास्त्र–योग);िडप्लोमा- योग, मिहला सशक्तीकरण, आई.टी.आई. एवाडेर्ड: जे० आर० एफ०, आई सी पी आर, नयी िदल्ली , जी०आर०एफ०, आई सी पी आर, नयी िदल्ली , पी०डी०एफ० (मिहला), यू जी सी, नयी िदल्ली। ध्यापन-अनुसन्धान अनुभव- क्रमश: सात/ग्यारह वषर्, दशर्नशास्त्र एवं योग िवभाग, हे०न० ब० गढ़वाल िवश्विवद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखं ड प्रकािशत:पुस्तकें :1- रं ड सं िहता में षट्कमर्, योगाभ्यास और योग 2- योग परम्परा में प्रत्याहार, 3- योग-दशर्न में प्रत्याहार द्वारा मनोिचिकत्सा, 4- योग के सैद्धांितक एवं 69


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िक्रयात्मक पक्ष ;(कु छ पुस्तकें िवश्विवद्यालयीय पाठ्यक्रम में सिम्मिलत हैं) 5- सूयर् (ज्ञानिवज्ञान) 6-चन्द्रमा (ज्ञान-िवज्ञान) दो काव्य सं ग्रह- 1- आज ये मन 2- मन के कागज़ पर प्रकािशत शोध-पत्र/आलेख: -अनेक राष्ट्रीय-अंतरार्ष्ट्रीय शोधपित्रकाओ/ं पित्रकाओ/ं समाचार-पत्रो/ं पुस्तको ं में लगभग पचास से अिधक शोध पत्र/अध्याय/साक्षात्कार/लोकिप्रय लेख/पुस्तक समीक्षा आिद , अनेक राष्ट्रीय-अंतरार्ष्ट्रीय पित्रकाओ में तथा ऑनलाइन अनेक लोकिप्रय िहदं ी किवताएँ /हाइकु तथा ज्ञान-िवज्ञान सम्बन्धी कु छ अध्याय पाठ्यक्रम में सिम्मिलत। शैक्षिणक/सािहित्यक/सामािजक गितिविधयाँ:िविभन्न राज्यो ं की सािहत्य अकादिमयो ं हेतु लेखन-व्याख्यान आिद शैक्षिणक गितिविधयो ं के सिक्रय/ िविभन्न राष्ट्रीय-अंतरार्ष्ट्रीय सं गोिष्ठयो ं आिद में शोध-पत्र प्रस्तुतीकरण, आमं ित्रत व्याख्यान और किव सम्मेलनो ं में किवताओ ं का प्रस्तुतीकरण, योग िशिवर आयोजन, आकाशवाणी से समकालीन िवषयो ं पर वातार्ओ ं का प्रसारण्। राष्ट्रीय महासिचव :उन्मेष : ज्ञान-िवज्ञान िवचार सं गठन, भारत प्रितिनिध (भारत) : ‘िहन्दी चेतना’ (िहन्दी त्रैमािसक), िहन्दी प्रचािरणी सभा, कै नेडा। प्रान्तीय अध्यक्ष (उत्तराखं ड) -कायाकल्प सािहत्य-कला फाउं डेशन, नोएडा, उ. प्र.(भारत) सह सं पािदका :िजज्ञासा (ज्ञान-िवज्ञान लोकव्यापीकरण की शोध -पित्रका), उन्मेष : ज्ञानिवज्ञान िवचार सं गठन, जबलपुर, मध्य प्रदेश, भारत स्थानीय सं पािदका (उत्तराखं ड) : ‘सािहत्य ऋचा’ सािहित्यक पित्रका (वािर्षक), नोएडा, उ. प्र.( भारत)

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सम्मान:1- िशक्षा एवं सािहत्य हेतु नारी अलं करण सम्मान, आप और हम चेतना मं च, उ०प्र०,2017 2- शैिक्षक एवं सािहित्यक गितिविधयो ं हेतु, कायाकल्प सािहत्य भूषण सम्मान, कायाकल्प सािहत्य- कला फाउं डेशन, नोएडा, उ प्र, 2017 सदस्या: िहमालय लोक नीित मसौदा सिमित, उत्तराखं ड सम्प्रित : फै कल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी.,प्रशासिनक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल िवश्विवद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखं ड सम्पकर् सूत्र- mrs.kavitabhatt@gmail.com, 09760979043 पत्राचार हेतु पता : डॉ० किवता भट्ट ,फै कल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी., प्रशासिनक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल िवश्विवद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), 246174 उत्तराखं ड।

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