शीत संस्करण
खिड़की आवाज़ अंक #8
12 पन्ने
सामान्य नज़रों से ओझल
हौज़ खास का प्रेत
2
3 मौसम की रिपोर्ट
फ र व र ी - अ प्रै ल 2 0 1 9
आबिजान, ऐवेरी कोस्ट
मु र ि ए ल्ले अ हू रे
के सहयोग से
मेहरौली के छुपे खिड़की की मातृसत्ता हुए रत्न की कहानियाँ
5 11
वं श ावली के
रखवाले से
एक मुलाकात
गर्म, बादल से घिरा और बीच-बीच में आँ धी-तूफ़ान
दिल्ली, भारत
च ि त् रा व ि श्व न ा थ
शहर के विस्तार में फै ले हुए हमारे शहरी गाँ व , अनोखे तरीक से जु ड़े हुए हैं , पारम्परिक रिकॉर्ड रखने वालों के अभिले ख ों में । एकता चौहान हमें इन इतिहास का रिकॉर्ड रखने वालों और इस विलु प्त होती परं प रा के बारे में हमें बता रही हैं ।
इ
ठं डा-शुष्क अप्रैल तक गर्म
काबुल, अफगानीस्तान
रा न ी सु रै य् या
बारिश के साथ ठण्ड अप्रैल तक गर्म
किन्शासा, कॉन्गो
अ र्ले टे सौदान - न ो न ॉ ल्ट
तिहास की छात् रा होने पर, मैं ने कई बार अपने गाँ व के इतिहास को जानने की कोशिश की। कोई भी समु द ाय अपने इतिहास, सं स ्थापकों और रीतिरिवाज़ों पर गर्व करता है । लेक िन मु झे यहाँ की इमारतों पर कु छ पठन समाग्री के अलावा कु छ भी नहीं मिला। हमारे क्षेत्र का कहीं भी कोई निशान नहीं था, सिवाय दिल्ली सरकार की सू ची के , जिसमें इसे एक ‘शहरी गाँ व ’ का दर्जा दिया गया है । महीनों तक किताबों और इं ट रने ट पर खोजने के बाद मैं ने अपने पिताजी से पू छ ा,”गाँ व की हिस्ट्री मु झे मिल नहीं रही है , आप लोगों को कै से पता
है ? ” खिड़की गाँ व और आसपास के गाँ व के लोग, अपने वं श ावलीसम्बन्धी रिकॉर्ड , भट्ट की सहायता से बड़ी बारीकी से सं भ ाल कर रखते हैं । भट्ट लोग एक घु म क्कड़ समु द ाय है , जो एक गाँ व से द स ू रे गाँ व , कहानियाँ सु न ाते जाते हैं , और परिवारों के वं श वृ क्षों का रिकॉर्ड रखते हैं । खिड़की गाँ व के वर्तमान भट्ट, नाथू राम राय हैं । वे यहाँ 2010 में आये थे , अपने रिकॉर्ड द रु ु स्त करने के लिए। अपनी पीढ़ी के अन्य लोगों की तरह, मु झे उनके यहाँ आने की बिलकु ल भी जानकारी नहीं थी। अब जब मु झे इनके बारे में पता चल गया है , तो
‘दिल्ली की खिड़की’ नाम का, मौखिक इतिहास का प्रोजेक्ट सिटीजन्स आर्काइव ऑफ़ इं डियाके सहयोग से संभव हो पाया। दायें: नाथूराम भट्ट अपनी पोथी में से पढ़ते हुए। नीचे: चक्रवर्ती लिपि में खिड़की गाँव की पोथी।
मु झे इन्हें खोजना ही था। वे सोनीपत के पास झखोली गाँ व में रहते हैं , तो उन्हें खोजने के लिए मैं निकल पड़ी।
गर्म, बादल से घिरा और बीच-बीच में आँ धी-तूफ़ान
लेगोस, नाइजीरिया
च ि म ा मं ड ा न ् गो ज ़ी अ ड ी च ी
गर्म और आं शिक धुप, छिटपुट बारिश
मोगदिशु, सोमालिया
ड ॉ ह ावा अ ब् दी ढ ि ब लावे
गर्म और आं शिक धुप, अप्रैल तक गर्म
पटना, भारत
प्रेरणादायक महिलायें, रेखाचित्र: अरु बोस
शहरी गाँव विशेषांक
आशा खे म क ा
गर्म और सूखा, अप्रैल तक गर्म
वे एक चटाई पर बै ठे , बीड़ी फँू क रहे थे , जै से ही मैं वहां पहुँ ची, उन्होंने तु रंत पोथी निकाल ली। उनके पास बहु त सी पोथियाँ थी, उसके अधीन सभी गाँ वों के लिए एक एक। उसका घर एक रिकॉर्ड रूम की तरह ही था, बल्कि उसका पू र ा घर इस तरह के दस्तावे जों से भरा हु आ था। लेक िन हर व्यक्ति को सिर्फ अपने ही गाँ व के रिकॉर्ड दे ख ने की इज़ाजत होती है , तो उन्होंने मु झे खिड़की गाँ व की पोथी दिखाई। उस पुस्ति का को कलावा से
बां ध ा हु आ था और उसके कवर को स्वास्तिक के निशान से सजाया गया था, मानो कोई धार्मिक किताब हो। पोथी में , मे री पहली नज़र उसकी ख़ास लिपि पर पड़ी। मु झे लगा ये दे व नागरी होगी, लेक िन वह चरक्र वर्ति लिपि थी, यह इतनी रहस्यमय है कि स्टेट के रिकॉर्ड दस्तावे जों में भी इसका कोई ज़िक्र नहीं है । नाथू बाबा ने यह लिपि अपने पिता से सीखी थी और अब वे इसे अपने छोटे बे टे को सीखा रहे हैं । यह लिपि हिंदी, उर्दू, सं स ्कृत और पं ज ाबी के टु कड़ों से मिलकर बनी है और इसे मु ठीभर भट्ट और पां ड ा ही पढ़ और समझ सकते हैं । मैं एक भी शब्द नहीं समझ 8
नीतियों का राष्ट्री य और अं त र्राष्ट्री य मं च पर प्रत िनिधित्व करती थी। इसके बाद हैं मानव अधिकार कार्यकर्ता और फिजिशियन डॉक्टर हवा अब्दी ढिबलावे , जिनका ग् रा मीण सोमालिया में औरतों के स्वास्थ्य से जु डी से व ाओं को रूप दे ने में अहम योगदान रहा है । नाइजीरिया की चिमामं ड ा न्गोज़ी अडीची एक नारीवादी लेख िका हैं , जिन्हें “व्हाई वे शु ड आल बी फेमिनिस्ट” और “पर्पल
हिबिस्कु स” जै सी कविताओं के लिए 2008 में मै क आर्थर ग् रां ट से सम्मानित किया गया है । कोंगो की टू रिज्म और एनवायरनमें ट की मं त्री अर्ले टे सौदाननोनॉल्ट कोंगोली राजनीती में आने से पहले एक बड़ी पत्रकार और न्यूज़ एं कर थीं। मुर िएल्ले अहू रे आईवरी कोस्ट की बड़ी एथलिट हैं , जो अपने दे श का ओलिंपिक, वर्ल्ड और अफ़्रीकी चैंपि यनशिप जै सी प्रत ियोगिताओं 3
दनिया भर की साहसी औरतें ु
अ
अरु बोस
गर आप एक अलग दनि ु या की कल्पना करेंगे , या एक समां त र वास्तविकता या एक खास विश्व ने त ा के बारे में सोचें गे , तो आपके जहन में क्या चित्र आये ग ा? हम सभी के साथ यह अक्सर होता है कि हमारी कल्पना वास्तविकता और जो हम जानते हैं से आगे नहीं
जाती। इसलिए, गाँ धी, ने ह रू, मडिबा या मार्टिन लू थ र किंग की छवियाँ हमें दिखाई दें गी। अगर मैं आपसे खास औरतों की कहानियाँ साझा करूँ तो, जिन्होंने खुद के लिए एक अलग ज़िन्दगी चु नी, जै सी की हम आज कल्पना कर पा रहे हैं , उसे प्र भ ावित किया- 1920 के दशक में , अफ़ग़ानिस्तान की रानी सोराया पहली औरत थी, जो अफगानी
खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2019
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छुपे ग्राम
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गुरुग्राम क े श
तस्वीरें और शब्द: लोकेश डैंग
हरी गाँ व खे ती वाले ऐसे गाँ व होते हैं , जिनका शहरीकरण, आसपास शहरों के विकास के साथ होता है । भारत के शहरी परिवे श में साठ पप्रत िशत ऐसा हिस्सा है , जिसकी सं र चना क्र मबद्ध रूप में नहीं हु ई है , समानां त र रेख ाएं , समकोण और चिकनी सतह से बिल्कु ल परे। गु रु ग् रा म दनि ु या के सबसे ते ज़ी से विकसित होने वाले मे ट् रो शहरों में से एक है , यहाँ लगभग दस लाख लोग रहते हैं , पिछले दस सालों में , इसका विकास दोगु न ा हु आ है । यहाँ ऑफिस काम्प्ले क ्स, हाउसिंग एस्टेट और शॉपिंग मॉल-पर-स्क्वायरमील के हिसाब से दे श के अन्य किसी भी शहर से ज़्यादा हैं । द र्भा ु ग्य से , यह शहर इस ते ज़ विकास को ठीक से सं भ ल नहीं पाया है । आधारिक सं र चना अपेक्षित मानदं डों से कोसों द रू है । कहते हैं इस शहर में भारत का भविष्य दिखता है -
क्षितिज तक गगनचु म ्बी इमारतें । मे रे लिए यह समझ पाना काफी दिलचस्प था कि कै से विकास की इस ते ज़ रफ़्तार ने शहरी ढाँ चे और आसपास के वातावरण को प्र भ ावित किया है । कु छ नए क्षेत्र उभरने लगे हैं , जहाँ पहले कु छ नहीं था, वहाँ भी सु ध ार हो रहा है । इसकी मु ख ्य वजह सरकारी नीतियाँ और यहाँ के लोगों की सु ध रती आर्थिक स्थिति है । शहरी गाँ वों के चित्र खींचने से मु झे ‘बीच में ’ को अनु भ व करने का मौका मिला, क्या था और क्या है , को समझने का मौका मिला। मु झे यह बात ख़ास लगी कि कोई भी, कै सी भी आवास श्रे णी या रहनसहन का क्यों न हो, सभी ने एक ही तरह की समस्याओं की ज़िक्र किया- सड़कों की हालत, से व ागे सिस्टम और राजनीती। इन शहरी गाँ वों में छठ पू ज ा को तन्मयता और निष्ठा से मनाया
जाता है , मे रे लिए ये एक नया अनु भ व और समाज को दे ख ने समझने का अलग नजरिया था। छठ पू ज ा सू र्य की पू ज ा अर्च ना का त्यौहार होता है और नवविवाहित, द ल्ह ु नों की तरह सजकर बड़े ही गर्व के साथ यह पू ज ा करती है । वहाँ रह रहे लोगों के साथ समय बिताना, जो इन दो दनि ु याओं के बीच की कड़ी हैं , मानो एक अद्वितीय सं तु ल न बना रहे हों, तरक्की और विकास के अं त र पर विचार करने को मजबू र करता है । जबकि उनके आसपास ऊँ ची इमारतें ते ज़ी से पै द ा हो रही हैं , वे आज भी खे ती करते हैं । इस तरह के अस्तित्व के विरोधाभास और कभी-कभी अं त र, तस्वीरों में दर्शाने का प्र य ास है - एक इं ट रने श नल स्कू ल के पास जटिल चारदीवारी, शहरी गाँ व का जनजीवन; आधुनि क इमारतों के सापे क्ष में ।
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1. गुरुग्राम की ऊँची इमारतों के सामने बेहरामपुर के सरसों के खेत 2. गगनचुम्बी इमारतों के घंटा गाँव की बस्तियाँ। 3. बसाई गाँव में छठ पूजा के दौरान एक आदमी पारम्परिक परिक्रमा करते हुए। 4. बसाई गाँव की बुजुर्ग औरतें अपने घर के सामने विश्राम करते हुए और बीड़ी पीते हुए। 5. सिकंदरपुर गाँव में शहर और गाँव के कपड़े सूखते हुए। 6. छठ पूजा में बसाई गाँव की नवविवाहित औरतें शादी के जोड़ों में। 7. बसाई गाँव में एक इं टरनेशनल स्कू ल की दीवार के सामने गाँव की चौपाल का दृश्य।
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शीत अंक 2019 • खिड़की आवाज़
हौज़ खास मदरसे का कि टे क्टों आर् से नफरत करने वाला भूत राम रहमान
मे
रे पिता हबीब रहमान, एक आर्किटे क ्ट थे , जिन्होंने 1950 के दशक में , क़ुतु ब मस्जिद के खभों के बीच मे री माँ के भरतनाट्यम नृ त ्य करते हु ए कु छ तस्वीरें खींची थी। ये तस्वीरें पोस्टकार्ड के रूप में काफी चर्चित रही। वे स्तंभ एक गिराए गए हिन्दू मंदि र से थे । 1970 में हु आ ज खास मदरसे की महराब के बीच वे दो भाइयों, दे वी लाल और द र्गा ु लाल की तस्वीरें ले रहे थे तो पीछे खिसकते हु ए , वे गिर गए और उनकी रीढ़ की हड्डी पर चोट आ गयी। लेक िन इसके पीछे भी एक कहानी है । हौज़ ( झील या टं की ) को सु ल्ता न अलाउद्दीन खिलजी ने स. 1296 से 1316 ई. तक खाली करवा दिया था। उस वक़्त की ज़्यादातर इमारतें और उसका मकबरा सु ल्ता न फ़िरोज़ शाह ने बनवाई थीं, जिसे वहां 1388 ई. में दफनाया गया था। फ़िरोज़ शाह को वस्तुकला में उनकी दिलचस्पी के लिए जाना जाता है और उन्होंने दिल्ली में बहु त सी इमारतें बनवाई ।ं 13 वीं सदी में बगदाद की लू ट के बाद हौज़ खास के मदरसे को पू री दनि ु या में इस्लामी शिक्षा का एक बड़ा कें द ्र मन जाता था। दिल्ली की दौलत और शान-ओशौकत के चर्चे पू री दनि ु या में मशहू र थे और चढ़ाई करने वालों का मु ख ्य आकर्ष ण , जब तै मू र ने 1398 ई. में दिल्ली पर हमला किया, तो उसकी से न ा ने हौज़ खास में विश् रा म की सोची और बाद में उसने सु ल्ता न मामु द तु ग़ लक़ को हराया और दिल्ली को लू ट कर लगभग एक लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया। तै मू र के अपने शब्दों में : “मैं जब दिल्ली के दरवाज़ों पर पहुँ च ा, मैं ने बढे ध्यान से उसकी मीनारों और दीवारों का जायज़ा लिया और फिर वापस हौज़ खास आ गया। यह एक जलाशय है जिसे सु ल्ता न फ़िरोज़ शाह ने बनवाया था, यह चारों
साहसी औरतें / पृष्ठ 1 से में प्रत िनिधित्व करती हैं और उन्होंने बहु त से पु र स्कार और खिताब भी जीते हैं । चित् रा विश्वनाथ बैं ग लोर में स्थित आर्किटे क हैं , जो पर्यावरण और आर्किटे क ्चर सरीखे विषयों पर काम करती हैं । आशा खे म का, भर से हैं और हाल ही में उन्होंने नॉटिंघमशायर कॉले ज , यू न ाइटे ड किंगडम से 2017 प्रिंसिपल पद से रिटायरमें ट ली है । 2017 में खे म का को शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘एशियाई बिज़ने स वु म न ऑफ़ थे ईयर’ ख़िताब से सम्मानित किया गया है । आइये अपनी ज़िन्दगी को पू री दनि ु या से इतिहास और अलग-अलग क्षेत्रों से ऐसी ही मज़बू त औरतों की कहानियों से सजायें , जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी और दनि ु या को अलग नज़रिये से दे ख ने की कल्पना की।
तरफ से पत्थर और चू ने घिरा हु आ है । जलाशय की हर बां ह तीर एक निशाने जितनी लं बी है और उसके चारों और इमारतें हैं । यह तालाब बारिश के पानी से भरता है और पू रे शहर को सालभर पानी पहुँ च ाता है । सु ल्ता न फ़िरोज़ शाह का मकबरा इसके एक छोर पर है ” .... (तु ज़्क़ -ए-तै मू री ) 1960 के दशक में इस जगह तस्वीर खींचने और कोई कला समारोह की इजाज़त आसानी से मिल जाती थी। किशोर पारीख ने एक अमेर िकी एम्बेसडर द्वारा आयोजित कार्यक्र म में मे री माँ की नृ त ्य करते हु ए तसवीरें ली थीं। उसी साल हार्पर बाजार मै ग ज़ीन के लिए न्यू यॉर्क के मशहू र फै शन फोटोग् रा हे र हीरू ने भी उनकी तस्वीरें खींची थी। उस वक़्त हौज़ खास के आसपास सरसों के खे त होते थे । तस्वीरों में कई बार किसानों की गाय और भैं स भी नज़र आ जाती थी। उस समय शहर ने इसे निगला नहीं था और दिल्ली सू खी और कम पे ड़ों वाली थी। 1970 की जनवरी में , मे रे पिताजी उन्हें और कत्थक नर्तक दे वी और द र्गा ु लाल को उनकी मे ह राबों में , उनके फ् रांस का आने वाले टू र के लिए तसवीरें खींचने के लिए लाये थे । उनके पीछे खाई थी और पीछे की और जाते हु ए वे गिर गए, उनके कै नन कै मरे ने उनके जबड़े को तोड़ दिया। दे वी लाल किनारे की तरह बढे और उन्हें गिरते हु ए दे ख ा। वे मज़बू त पै रों वाले नर्तक थे और 25 फीट नीचे कू द पड़े और उन्हें नीचे गिरने से रोक लिया। उनकी रीढ़ टू ट चु की थी और उन्हें छाती के नीचे लकवा पड़ गया था। पू री पोशाकों में तीनों नर्तक उन्हें सफदरजं ग अस्पताल ले गए, जहाँ उनका छः महीनों तक इलाज चला और वे कु छ हद तक ठीक भी हो गए। उसके गिरने की खबरें अखबारों में छपी और फिर मदरसे और आर्किटे क ्ट के मिथक बनने लगे । पहले दो गिरकर इसी जगह मर चु के थे । जो, भारतीय था उसकी ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है । द स ू रा, फें्र च ; आं दरे ् बलोच
था, जो 1966 दिल्ली दर्शन के लिए आया था, गिरा और उनकी गर्दन टू ट गयी और उसी जगह निधन हो गया था। बलोच ने , ले कोर्बुसिएर के साथ प्रस िद्ध वास्तुकला जर्नल ल’ आर्किटे क चर डी’ अउजू र्ड ’ हु ई की सहस्थापना की थी। एक मिथक सामने आने लगा कि वहाँ जलाली बु र्जु ग की आत्मा रहती है , जो अर्कीटे क ्टों से नफरत करती है और उन्हें धक्का दे क र मारना चाहती है । मे रे पिता जो ज़्यादा धार्मिक या अं धविश्वा सी नहीं थे , ने याद करते हु ए बताया कि वहीँ की एक छत्तरी के नीचे , उस शाम वे मार्था ग् रा हम के नृ त ्य की नक़ल कर रहे थे , तभी हिना के रंग की दाढ़ी वाले एक बु र्जुर्ग उनकी तरफ बढे और कहा कि यहाँ पहले एक कब्र होती थी, जो अब नज़र नहीं आती!! शायद ये वही आत्मा थी!! ये यहाँ आने वाले आर्किटे क ्टों के लिए चे त ावनी है ।
ऊपर: लेखक द्वारा कोलाज दायें: मेरी माँ, इन्द्राणी रहमान, 1966 में, हौज़ खास मदरसे में भरतनाट्यम की प्रस्तुति करती हुई। हाँ, उन दिनों यह संभव था। किशोर पारीख का दुर्लभ सिल्वर जेलाटिन प्रिंट। 1970 में, इसी जगह, दुर्गा लाल और देवी लाल की तस्वीरें लेते हुए गिरकर अपनी रीढ़ की हड्डी तोड़ बैठे थे।
बायें: मेरी माँ 1966 में हॉपर्स बाजार के लिए मॉडलिं ग करती हुई। हौज़ खास के खण्डरों में हीरु द्वारा खींची तस्वीर ( पीछे आप हौज़ खास को प्राकृतिक अवस्था में भैंसों के साथ देख सकते हैं)। यह मार्लोन ब्रांडो की पूर्व पत्नी एना काशवी के समन्वय से संभव हो पाया था। हीरु ने काँच के टू टे हुए टु कड़ों को हाईलाइट के लिए इस्तेमाल किया था। उन्होंने मुझे 45 के दशक के पहले बीटल्स दिए थे ( मेरे पास अभी भी हैं!)।
ज़्यादा जानकारी के लिए पढ़ें : https://s3.amazonaws.com/ media.archnet.org/system/ publications/contents/3354/ original/DPC1013. PDF?1384774373
दिल्ली में शहरी गाँव कैसे? मालिनी कोचुपि ल्लै बहु त पु र ानी बात नहीं है , शोर करने वाले , उथल-पु थ ल से भरे राक्षक बनने से पहले , दिल्ली में सु न ्दर हरे चरगाह और बड़े-बड़े खे त होते थे । 50 साल पहले तक; सरकारों, राजवं शों और उपनिवे शों की उठापटक में ज़मीनों पर दवा ठोकने वालों से पहले , गाँ व में रहने वाले किसान यहाँ घास काटते और खे ती करते । ये किसान समु द ाय गाँ व के आबादी वाले इलाकों में घर बनाकर रहते , साथ ही यहाँ मवेश ियों के लिए बाड़े होते , गाँ व की चौपाल, चरागाह और जल स्त् रोत भी होते । अक्सर ये गाँ व नदियों या सहायक नदियों के आसपास होते । ये जल-प्र ण ाली पू रे शहर में फै ली
होती। वर्त मान में या सीवे ज की बदबू द ार नालियों का रूप ले चु की हैं । दिल्ली का 1807 का यह नक्शा दर्शाता है कि ज़्यादातर गाँ वों के नाम आज भी वही हैं , लेक िन नामकरण थोड़ा अटपटी सी अं गरे् जी में है । आज़ादी के बाद जब शहरों का विकास ते ज़ी से होने लगा, और ज़मीन अधिकरण विभागों ने नया शहर बनाने के लिए ज़मीन अधिकृ त करनी शु रू की तो गाँ व के आबादी इलाकों को नहीं छु आ गया। ये शहर के नए नियमों से अछू ते रहे । इन्हें ‘लाल डोरा’ क्षेत्रों का नाम दिया गया। ये गाँ व भी ते ज़ी से विकसित हु ए , फै ले और इनकी जनसँ ख ्या बढ़ने लगी और इन्हें हम ‘शहरी गाँ व ’ कहने लगे । ज़्यादातर
‘अनधितकृ त’ कॉलोनियाँ , इन गाँ वों के चौपाल या साझा इस्तेमाल की जगहें होती थीं, जिनपर कई लोगों ने अलग-अलग तरीकों से अपना दावा पे श किया और आज की घनी आबादी वाले , अस्त-व्यस्त क्षेत्रों का जन्म हु आ । इस तरह का निर्धारण आप खिड़की जै से इलाके में दे ख पाएं गे , जहाँ खिड़की गाँ व , मौलिक रूप से लाल डोरा क्षेत्र है , जिसमें आज भी आप ग् रा मीण ढाँ च ा दे ख सकते हैं , जबकि खिड़की एक्सटें श न, इसका अनधिकृ त इलाका है , जो पिछले कु छ दशकों में पनपा है । इसका विकास इतिहास और परंप रा से कोसों द रू शहर के साथ हु आ है । सर्वे ऑफ़ इं डिया का एक नक्शा, 1807
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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2019
ख़ास शृंखला
समुद्र में जबरन ले जाया गया एक कलाकार की अपनी परदादी के जबरन प्रवास की 8वीं क़िस्त
तख्तापलट से बच निकलना शब्द + कलाकृति एं ड्रू अनंदा वूगेल
सू
रीने म अस्तव्यस्त हो चु क ा था और माला की बहन एक दिन पहले ही गु य ाना चली गयी थी। जब माला मिस्टर जोशी के आम के बगीचे में सो रही थी,तब गुर िल्ला फौज ने राजधानी पर कब्ज़ा कर लोगों में डर और और चिंता का माहौल पै द ा कर चु की थी। जब से न ा राजधानी की तरफ कू च कर रही थी, तो बाहर के गाँ वों को बु री तरह लू ट ा गया। जो भागे नहीं, वे छु पे बै ठे थे । जै से - जै से सु ब ह की धू प आम के पे ड़ों से छनकर आने लगी, माला की आँ ख खुली। उसने अपनी चारों तरफ दे ख ा तो महसू स किया कि सोते वक़्त उसने अपने आसपास सू ख ते पत्तों का घोंसला सा बना लिया। उसने खुद को पके आमों से लदी हु ई झू ल ती टहनियों के नीचे पाया। उसने कमर सीधा करने की कोशिश की तो उसके ते ज़ धड़कते दिल की धड़कन धीमी पड़ने लगी। उसकी आँ खों ने एक पल के लिए उन्हें निहारा और सोचने लगी कि इन्हें अब तक तोडा क्यों नहीं गया। उसने पिछले दिन की घटनाओं को याद किया और महसू स किया कि उसके गाँ व के ज़्यादातर लोगों ने हिंसा की वजह से गाँ व छोड़ दिया होगा। इनमें मिस्टर जोशी भी शामिल होंगे , जिन्होंने एक दिन पहले आम के पे ड़ों की दे ख रेख करना बं द कर दिया होगा। मिस्टर जोशी और उनके परिवार के उठने से पहले , सु ब ह काम पर जाने से पहले माला चु प के से कु छ आम तोड़ ले ती थी। बगीचे में इस तरह अके ले अजीब लग रहा था, न
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कोई डाँ ट ने के लिए था और न ही आमों की तरफ उसकी ललचाती हु ई नज़रों को टोकने लिए। उसने बगीचे से जं ग ल की तरफ दे ख ा जहाँ सु ब ह की रौशनी पे ड़ों के सिरों को छू रही थी। नीचे , ज़मीन काली थी, छिटपु ट जगहों पर रौशनी की रेख ायें रास्ता बना रही थीं। जै से ही माला उठी, उसने मिट्टी और कीड़े-मकोड़ों को झाड़ा, जो रात को उसके एकमात्र साथी थे । आम उसकी नज़रों और पहुँ च में थे । सबसे नज़दीक वाले को उसने चीते से फु र्ती से तोड़ा। उसने टहनियों से दो आम और तोड़े और मिस्टर जोशी के फार्म से बाहर निकलने लगी। जै से ही बगीचे से निकलकर वह गाँ व की तरफ बढ़ी, उसे सु ब ह की उज्जवल रौशनी में फै ले हु ए गाँ व की परछाई दिखने लगी। मिलिट्री के डर से वह सड़क की तरफ सावधानी से आगे बढ़ी। उसने नज़रों से पू री सड़क को नापा, एक भी व्यक्ति नज़र नहीं आया। कु छ आवारा कु त्तों के अलावा पू र ा गाँ व खाली था। वह सोचने लगी कि क्या हु आ होगा, क्या तख्तापलट हो चु क ा होगा, क्या उसका परिवार सु रक्षित होगा और अब वह क्या करेगी। वह मिस्टर जोशी के बाड़े पर सहारा ले क र खड़ी हो गई और आम खाने लगी। उसने दां तों से आम के छिलके को चीरा और ज़मीन पर थू क ा। आम का छिलका ज़मीन में धँ स गया और चीटियों के एक झु ण ्ड ने उस मीठे इनाम पर हमला कर दिया। उसने आम पर दाँ त गड़ाये तो उसका रस ज़मीन पर गिरने लगा। जै से ही उसने पू रे आम को खा
लिया, तो खाली गाँ व की एक अजीब शांत ि ने उसके दिमाग को घे र ना शु रू किया। उसने इसे कभी इतना स्थिर और शां त नहीं दे ख ा था। उसने रुककर सोचा और महसू स किया कि बिना यह जाने कि क्या हो रहा है , उसे किसी सु रक्षित जगह पर पहुँ च ना होगा। माला ने दिमाग दौड़ाया और उसे याद आया कि गाँ व से लगभग पाँ च किलोमीटर द रू एक ननों का घर है । वह गाँ व के बाहर है और बड़े दरवाज़ों और रूखी ननों की वजह से सु रक्षित है । उसे यह योजना सही लगी और वह खाली सड़क
पर आगे बढ़ी। वह पे ड़ों की कतार के करीब चलने लगी, ताकि किसी गस्त लगाती मिलिट्री की नज़र में ना आ पाये । माला अपने रात का सपनों के बारे में सोचने लगी, उसे वे अजीब और रहस्यमय लगे । उ सने अपनी ज़िन्दगी में , सपनों जै स ा आदमी कभी नहीं दे ख ा था और न ही उस साड़ी की द क ु ान जै सी जगह कभी दे खी थी । वह सोचने लगी कि यह सब कहाँ से आया, जै से - जै से वह आगे बढ़ी, पिछले रात के सपनों की जगह वर्तमान में उसके अस्थिर
हालात के विचारों ने ले ली। सु ब ह का सू र ज सिर पर चढ़ने लगा तो माथे का पसीना बहकर आँ खों में गिरने लगा। माला ने इधर-उधर दे ख ा तो आसपास की द क ु ानों को तोड़ा-फोड़ा गया था। वह मोड़ वाली द क ु ान की तरफ बढ़ी, जहाँ से काम के बाद वह अक्सर सोडा खरीदा करती थी। उसके दरवाज़े तोड़ दिए गए थे और द क ू ान लू ट ली गयी थी। वह भाग्यशाली थी कि वह जं ग ल में छु प गयी थी, वरना ना जाने उसका क्या हश्र होता। जिस द क ु ान में फिश फ् राय, कोला, मिठाई, आटा, द ध ू और सिगरेट
मिलती थी, वह बिल्कु ल खाली थी। माला ने कोला बोतल के एक धड़ को टू टे काँ च में दे ख ा। उसने बोतल को उठाया और भाग्य से उसके भीतर के मीठे तरल को किसी प्र क ार का नु क सान नहीं पहुं च ा था। उसने ढक्कन को खोला और जल्दी से पू री बोतल गटक गयी। चलो सु ब ह अच्छी रही, उसने सोचा। फ्री कोला और ताज़ा आम ! इस वक़्त तक वह गाँ व के लगभग बाहर पहुँ च गयी थी, और ननों के घर तक के बाकी के सफर पर वह खुली सड़क पर रहे गी। यह खुली सड़क सु रक्षित नहीं थी, साधारण दिनों में भी वह इस पर नहीं जाती थी, अराजकता के इस माहौल में तो ज़रूर खतरा है । भाग्य से ज़्यादातर सडकों के साथ-साथ किसानों के लिए सिंचाई पानी ले जाने के लिए गड्ढे खोदे गए थे । वह गड्ढों की दीवारों से सटकर चलने लगी, इससे सफर मुश ्किल तो हो गया था, लेक िन उसकी गति धीमी नहीं हु ई । वह कीचड एक गड्ढे से दस ू रे गड्ढे पर आगे बढ़ रही थी। हर कु छ मिनटों में गु ज रते हु ए किसी ट्र क का शोर सु न ाई पड़ता। कहीं उसमें सैनि क न हों, इस डर से वह सिर ऊपर नहीं उठाती। उसे पू र ा यकीन था कि पकड़े जाने पर उससे सवाल जवाब किया जाये ग ा या उससे भी कु छ बु र ा हो सकता है । मिट्टी के इन गड्ढों में आगे बढ़ते हु ए , उसका दिल ते ज़ी से धड़क रहा था, कु छ डर की वजह से और कु छ अज्ञात की उत्तेजना से । जै से - जै से माला मिट्टी के गड्ढों में आगे बढ़ रही थी तो बचपन में
नानी की सु न ाई एक कहानी याद आयी। वह उसकी नानी की एक कठिन रास्ते पर नीचे आगे बढ़ने की खुद की कहानी थी। उस रास्ते ने उसकी नानी को गजियापु र उत्तर प्र दे श से सात समं द र पार, दक्षिण अमरीका के जं ग लों में अनं त तक फै ले हरे गन्ने के खे तों में पहुं च ा दिया था। अगर उसकी नानी इतने समं द र पार कर सकती थी, तो वह ज़रूर ननों के घर तक पहुँ च ही जाएगी। उसके विचारों का प्र व ाह, गाड़ी के अचानक ते ज़ ब्रे क की आवाज़ से टू ट गया। पकडे जाने के डर से वह घबरा गयी। एक परछाई ऊपर आयी और उसने ऊपर दे ख ा। एक आदमी का चे ह रा नज़र आया,वह साफ़ सु थ रा औरकिनारों पर झुर् रियों से भरा था। उसका चे ह रा दयालु लग रहा था, मगर उसकी पै नी नज़र से वह घबरा रही थी। “अरे लड़की, तु म क्या कर रही हो?”, वह चिल्लाया। माला ने धीरे से हिम्मत कर जवाब दिया,”कु छ नहीं, टहलने निकली हूँ । ”। उसने असं त ोष में सिर हिलाया। “ठीक है , कहाँ जा रही हो?”, उसने पू छ ा। “मैं टहलने , ननों के घर की तरफ”, माला ने हिचककर कहा। आदमी ने अपना हाथ बढ़ाया। उसने हाथ को थामा और उसने माला को सड़क पर खींच लिया। माला अब भी थोड़ी घबराई हु ई थी, लेक िन उसने दे ख ा कि उसकी पु र ानी खटारा वै न में उसकी बीवी और बच्चे भी थे । “हम तु म ्हें छोड़ दें गे ” , उसने कहा। माला हिचकते हिचकते मान गयी और पहले से भरी उस वै न में बै ठ गयी।
सामने के पृष्ठ पर, 2018 सामने के पृष्ठ पर नीचे, सूरीनाम गाँव, लगभग 1970 के दशक में नीचे: माला, 1973 में, 17 साल
महावीर सिंह बिष्ट
शीत अंक 2019 • खिड़की आवाज़
क्या आप गाँव से हैं ?
भा
महावीर सिंह बिष्ट
रत का मं ग लयान घू म घू म कर उसकी कक्षा में द रू बीन से पानी के निशान ढू ँ ढ रहा होगा। शायद भारत सरकार एक ऐसा उपग्र ह भी बनाती जो बुं दे ल खं ड , विदर्भ और पं ज ाब के सू ख ाग्र स ्त इलाकों में पानी खोज ले त ा या मौसम के मिज़ाज़ के बारे में गाँ व में रह रहे किसानों को सही वक़्त पर बता दे त ा, तो लगभग एक लाख किसानों का अपने गाँ वों से निकलकर, सू खे और ख़राब सरकारी नीतियों की वजह से सं स द की ओर ना आना पड़ता। ऐसे में एक गाड़ी वाले शहरी बाबू ने मार्च की वजह से सड़कों पर जाम में फ़सने पर खीजकर कहा,”ये तो किसान लोग हैं , गाँ व से आए हैं , इनमें थोड़ी अक्कल होनी चाहिये । इन्हें नी पता शहरों में टाइम की कितनी क़ीमत होती है . ..।” आगे बढ़ती हु ई रैली के बीच भौंहें भींचकर मैं ने उसकी तरफ़ दे ख ा।उसने तसल्ली से अपनी गाड़ी का काला शीशा चढ़ा लिया। मैं विचार करने लगा कि हौंडा सिटी गाड़ी का यह मालिक शायद कैं ड फ़ूड खाता होगा। पतले - द ब ु ले किसानों की रैली से इसे ना तो डर लगता है और ना ही इनसे सहानु भूत ि जागती होगी। ये ज़रूर उनमें से होंगे जो लालबत्तियों पर किसी धीमे चल रही साइकिल पर तो रौब जमाते होंगे , लेक िन, किसी वी.आई.पी. की वजह से सड़क के जाम पर सलामी ठोकते होंगे । खै र रैली आगे बढ़ी और सं स द मार्ग लोगों से खचाखच भर गया। पै र रखने की जगह भी नहीं थी। जहाँ रैली का मं च था, उसके पीछे पुलि स का एक दस्ता वाटर कै नन गाडी और बैर िके ड के पीछे खड़ा था, यह पु ख ्ता करने के लिए कि कोई नज़रों से निकल कर सं स द की ओर आगे न बढ़ सके । कु छ पुलि स वालों के चे ह रे शं क ा से भरे थे , कु छ व्याकु ल और कु छ दविध ु ा में नज़र आ रहे थे । मैं ने एक से पू छ ा कि उसकी इस किसान मार्च पर क्या राय है , उसने कहा,” जब तक ये शांत िपू र्ण तरीके से कर रहे हैं , तब तक ठीक है । हम भी गाँ व से हैं , समझते हैं । हम तो बस अपनी ड्यू टी कर रहे हैं । ” शाम होते - होते किसान ने त ाओं के भाषण के बाद कां गरे् स , आप जै सी पार्टियों के ने त ाओं ने भाषण दे क र सहानु भूत ि जताते हु ए अपना राजनैत िक मकसद भु न ा लिया। मैं रैली से निकल कर कें दरी् य सचिवालय मे ट् रो स्टेशन की ओर बढ़ा और चाय पीने के लिए एक द क ु ान पर
रुका। पास में ही नाले का एक ढक्कन खुल ा हु आ था, जिसके चारों ओर कु छ लोग खड़े थे । कु छ कमर तक नं गे थे और कु छ के हाथ में रस्सियाँ थी। बगल में कु छ फावड़े और बाल्टियां रखी हु ई थीं। चाय की चु स ्की ले ते हु ए मैं उनकी बातें सु न ने की कोशिश कर रहा था। वे भोजपु री में बात कर रहे थे , मैं पू री बात समझ नहीं पाया। कु छ वक़्त बीतने पर खुले नाले से बीस-पचीस साल का कीचड में लथपथ एक युव क बाहर आया। बाहर निकलकर वह थोड़ी दे र चु प चाप खड़ा रहा। कपडे के नाम पर उसने सिर्फ एक जांघि या पहना हु आ था। थोड़ी दे र बाद वह सं स द मार्ग पर खाली हो चु के किसान मं च की ओर बढ़ा। उसकी चाल धीमी और गं भीर थी और सिर झु क ा हु आ था। ऐसा लग रहा था,मानो वह नशे में हो। लगभग सत्तर-अस्सी मीटर चलकर वह रुक गया और सड़क पार करने लगा। फिर वह मु ड़ कर सं स द भवन की ओर बढ़ने लगा। इस बार उसकी चाल मजबू त और कदम सधे हु ए लग रहे थे । लगभग सौ मीटर चलकर वह रुका और सिर उठाकर सं स द की ओर दे ख ने लगा। मैं मे ट् रो की तरफ बढ़ा और एक च्युइं ग गम खरीदने के लिए रुका। सं स द के सामने वाली इस छोटी द क ु ान पर खाने - पीने का सारा सामान मिलता है । ये आसपास के सरकारी दफ्तरों के लिए टिफ़िन सर्विस भी दे ते हैं । दक ु ान का मालिक काफी रौब वाला नज़र आता है । वह हर समय अपने खानसामों,कर्मचारियों और लड़कों को निर्देश दे त ा रहता है । उसे दे ख कर मु झे कभी-कभी लगता है कि वह किसी खुफि या एजें सी के लिए काम करता है । मैं आगे बढ़ा तो द क ु ान में काम कर रहे लड़कों को बात करते हु ए दे ख ा। मैं रुककर उनकी बातें सु न ने लगा। काफी दिलचस्प बातें हो रही थीं। पहला लड़का बोला,”ये अं गरे् जी लेट्रि न बढ़िया नहीं होता। इससे पू र ा पे ट साफ़ नहीं होता।” वह ज़मीन पर बै ठ कर बाकियों को समझाने लगा कि किस तरह इंडि यन लेट्रि न पर बै ठ ा जाता है और उसके कितने सारे फायदे हैं । सं स द की तरफ से झींगु रों की आवाज़ आ रही थी और गार्ड की पोस्ट के ऊपर चाँ द चमक रहा था। मे ट् रो में रोज़ की तरह काफी भीड़ थी।” गाँ व से आये हो क्या, गं व ार कहीं के !”, एक अधे ड़ -सी लगने वाली तीखी आवाज़ आयी। एक आं टी पु र ाने से कपडे पहने एक युव क को लताड़ रही थीं। “ठीक से खड़े नहीं हो सकते ? ”, आं टी बोलीं। “गलती हो गई, सॉरी आं टी!”, युव क ने अपनी
गन्दी-कु चली पोटली को सँ भ ालते हु ए कहा। वह मु ड़ कर दरवाज़े के कोने में खड़ा हो गया। आं टी को एक सीट मिल गयी। मैं ने एक थपकी को अपने कं धे पर महसू स किया। मु ड़ कर दे ख ा तो जाना पहचाना चे ह रा नज़र आया। एक युव क मु स ्कराकर मे री तरफ दे ख रहा था। “आप कै से हो ? बहु त टाइम हो गया?”, उसने कहा। मैं ने बहु त कोशिश की पर नाम याद नहीं आ रहा था। “मैं बढ़िया, बस काम धाम..। आप कै से हो? क्या चल रहा है ? ”, मैं ने पू छ ा। “ज़्यादा कु छ नहीं। मु झे एम.सी. डी. में काम मिल गया है । आज सफाई कर्म चारियों की हड़ताल थी। वहीं से आ रहा हूँ । मु झे तो सै ल री मिल गयी है । लेक िन मे र ा एक दोस्त बहु त परेश ान है । उसी को हौसला दे ने गया था।”अच्छा, क्यों ?” मैं ने सिर हिलाकर पू छ ा। “वो कॉन्ट्रै क ्ट पे है ना! सरकार ने फं ड रिलीज़ नहीं किया ना, बे च ारा….”, वह सोच में पड़ गया।”दरअसल आज मे र ा जन्मदिन है , सर्टिफिके ट वाला”, वह बोला। “क्या?”, मैं ने पू छ ा। “मे रे दो जन्मदिन हैं । गाँ व में जब में पै द ा हु आ था, तो ज्येष्ठ का महीना था। माँ को तारिख ठीक-ठीक याद नहीं। यहाँ शहर आया तो सरकारी स्कू ल में दाखिले के लिए, चच्चा ने जल्दबाज़ी में , अगस्त का 14 तारीख लिखवा दिया।”, उसने बताया। मैं ने उसे जन्मदिन की शु भ कामनायें दीं और मे र ा स्टेशन आने पर फिर मिलने का वादा करते हु ए उससे विदा ली। अगली सु ब ह एक इं ट रव्यू के लिए मु झे रेख ा से मिलना था। रेख ा मदनपु र खादर में एक एन.जी.ओ. में कोऑर्डिने ट र का काम करती है । में ठीक दस बजे मदनपु र खादर पहुँ च गया। मदनपु र खादर दिल्ली और नॉएडा के बीच एक पु न र्वास कॉलोनी है । यहाँ पानी जै सी मू ल भू त सुविध ा का भी आभाव है । आपको बदबू द ार नाले और जगह-जगह कू ड़े के ढे र नज़र आ जायें गे । ज़्यादातर घर एकदम सटे हु ए हैं और अविकसित से नज़र आते हैं । हम एक ऐसे ही घर में पहुँ चे । हाल ही में यहाँ शिक्षा का स्तर बे ह तर हु आ है । रेख ा छोटे बच्चों और किशोरों को दाखिला दिलाने में मदद करती है । “नमस्ते, आप कै से हैं ? चाय ठं ड ा क्या लें गे ? ”, रेख ा बोली। तभी दरवाज़े पर एक बच्चे ने रेख ा को बु ल ाने का इशारा किया। “मु झे पं द ह ्र मिनट दीजिये , इस बच्चे को एक डॉक्यूमें ट दे न ा है । ”, बोलकर वह गली की तरफ उस बच्चे का हाथ पकड़कर चल दी।
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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2019
दि
ल्ली में दो बहनें रहती हैं . पु र ानी दिल्ली और महरौली. जितनी इनमें समानताएं हैं , उतनी ही ये अलग भी हैं . ऐतिहासिक नज़रिए, मिजाज और मं ज़ र में , इन सभी में महरौली पु र ानी दिल्ली की बड़ी बहन है . पु र ानी दिल्ली से भी पु र ानी है . उससे ज़्यादा धीरगं भीर है , इसलिए शायद कम पॉपु ल र (ऐसा मे र ा मानना ). पर ढे रों गहरी यादें कबसे ढोती आ रही है . तो आज बात महरौली की. तो जब ज़िक्र -ए-महरौली हो, तो क़ुतु ब मिनार से बात शु रू होती है . पर महरौली की हर छत से दिखने वाली ये ऊँ ची नायब ईमारत महरौली के बाक़ी ख़ज़ाने को छु पा दे ती है . इसलिए हम आज क़ुतु ब से आगे जायें गे . आगे जाते हु ए आपको फै शन डिज़ाइनर्स की चकाचौदं दनि ु या दिखे गी. रोहित बाल, सब्यसाची, ग़ज़ल गु प् ता वगे ह रा के शोरूम्स पर लगे चमचमाते कपड़े दिखें गे . पर बस
इन्हें ही महरौली का ख़ज़ाना समझने की भू ल मत करना. असली ख़ज़ाना इससे बस थोड़ा द रू शु रू होता है . वहाँ जहाँ , महरौली आती हर बस अपने आं खिरी पड़ाव पर पहुँ च ती है . महरौली टर्मिनल. वहाँ कदम रखते ही, एक विशाल पोस्टर से रमे श कु मार कल्लू भाई ( महरौली ब्लॉक कां गरे् स समिति के अध्यक्ष) आपको मु स ्कु राते हु ए त्यौहार अनु स ार बधाई सन्देश दे ते दिखें गे . अब वो दिवाली हो, ईद हो, क्रि समस हो या लोहड़ी. महरौली टर्मिनल का ये चौराहा हर त्यौहार की धू म धाम का साक्षी होता है . और यहीं से शु रू होती है महरौली की विविधता. महरौली का आज जितना विविध है , उतना ही विविध है इसका कल. दाए ओर है आधम खां का मकबरा. हाँ , वहीँ आधम खां जिसे ‘जोधा-अकबर’ फ़िल्म में अकबर बने ऋतिक रोशन ने आगरा किले की दीवार से सिर के बल नीचे फें क दे ने
का हु क ्म दिया था। हमे श ा इस ईमारत को दे ख मु झे तो यहीं ख़याल आता है और आधम खां का नाम याद रह जाता है . वरना तो लोग इसे भू ल भु लै य ा के नाम से ही जानते हैं . खै र . अब ज़रा बाएँ मुड़ि ये . एक गली जाती है क्रिस्चियन कॉलोनी की ओर. थोड़ी ही द रू चलिए और आपको दिखे गी एक अनू ठी ईमारत. नाम है सैं ट जॉन चर्च . पर गौर से दे ख ने पर आप पाएं गे कि ये चर्च से बढ़कर है . इसकी ख़ासियत है इसकी वास्तुकला. इसका गुं ब द मंदि र जै स ा है . और द्वार, झरोखे , खिड़कियाँ इस्लामिक वास्तुकला की याद दिलाते हैं . बल्कि द्वार पर अरबी में कु छ लिखा भी हु आ है . पर अन्दर प्र वे श करते ही ये चर्च बन जाता है . यहाँ के पादरी रेव रेंड डॉ. भास्कर बताते हैं : “हमें लगता है कि अँ ग रेज़ आये , और (भारतियों को )ग़ु ल ाम बना के
चले गए. पर सब नहीं. कु छ लोग ऐसे भी आये थे जो सिर्फ़ मानवता की से व ा करना चाहते थे . ये चर्च इसी उद्देश्य से बनाया गया था. १९०७ में जब ये बना तो, रेव रेंड एस. एस. अलटू , जो एक ब्रिटीशर थे , वो यहाँ के पहली प्री स्ट बने . वो सैं ट स्टीफे न कॉले ज के फाउं डिं ग फादर भी थे . उस समय से ले क र आजतक यहाँ सभी धर्मों के लोग आते हैं . बल्कि सन्डे मास भी हिंदी, पं ज ाबी , उर्दू और कभी कभी सं स ्कृत में होता है . ” महरौली में और भी धार्मिक जगहें हैं . जै से योगमाया मंदि र. और रोचक बात या है कि 12वीं शताब् द ी के जै न ग्रंथों में महरौली को योगिनीपु र ा के नाम दिया गया है . मु ग ल बादशाह अकबरशाह (द्वितीय) ने इसका नवीनीकरण कराया था. फिलहाल मंदि र की इमारत एकदम नयी है . इसके किसी भी हिस् स े से इसकी पु र ातनता के सबू त नहीं मिलते . इसके अलावा महरौली ख् ़व ाजा
कु तु बु द्दीन बख्तियार काकी की दरगाह का स्थान भी है . ख् व ाजा कु तु बु द्दीन बख्तियार काकी अजमे र शरीफ के ख् ़व ाजा मोइनु द्दीन चिश् ती के मु रीद थे और उनके बाद चिश् ती सिलसिले के मुख िया बने . उनके शिष् य हु ए बाबा फरीद और बाबा फरीद के शिष् य हु ए हजरत निजामु द्दीन. यह दरगाह फू लवालों की सै र का प्र मु ख के न् द ्र होती है . और फू लवालों की सै र योगमाया मंदि र होती हु ई भी जाती है . दरगाह से निकलकर आप ज़फर महल जा सकते हैं . वहाँ आपका स्वागत एक विसाल दरवाज़ा करेग ा. पर ये उम्मीद मत रखिये कि कोई ये दरवाज़ा खोलने भी आएगा. नीचे की तरफ़ से ज़रा टू टा हु आ है , उसी छे द से बस प्र वे स कर जाइये . अन्दर जाकर है र ानी भी होगी और परेश ानी भी. मु ग़ ल सल्तनत के आं खिरी चिराग बहाद रु शाह ज़फर का महल है . उन्हीं की लिखी पंक् ति है - ‘कितना
ऊपर बायें: महरौली की एक छत्त से कुतुब मीनार का नज़ारा। ऊपर मध्य में : बुजुर्गों की एक टोली ज़फर महल के खण्डरों में ताश खेलते हुए। ऊपर दायें: हिजड़ों के खानगाह की कब्रें। मध्य दायें: श्री, हिजड़ों के खानगाह के दरवाज़े पर अपने नाम की ओर इशारा करते हुए। नीचे दायें: जे.पी. वहाल मोर वाली हवेली में। सामने पृष्ठ पर, नीचे: महरौली बस टर्मि नल पर आधम खां का मकबरा। नीचे: महरौली के एक पार्क में बच्चे खेलते हुए। बायें: सेंट जॉन चर्च की वास्तुकला।
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शब्द: प्रकृति करगेती
मंज़र- ए- महरौली
शीत अंक 2019 • खिड़की आवाज़
चित्र: वैभव भारद्वाज
बदनसीब है ज़फर दफ़्न के लिए/ दो ग़ज जमीन भी न मिली कू -ए-यार में ’ . ज़फर चाहते थे कि वो अपनी बाप-दादाओं की कब्र के पास ही दफ्न हों. पर वो हो न सका. पर एक ख़ाली कब्र ज़रूर है वहां , उनके नाम की. यूँ कहिये कि, उनका जिस्म नहीं, उनकी ख्वाइश भर दफ़न है . पर ज़फर महल की इस मायू सी को ज़रा कम करते लोग भी वहाँ दिखें गे . खासकर ताश खे ल ते उम्र द राज़ लोग. इतवार के दिन तीन से चार अलग अलग समू ह आपको मिल जायें गे . ज़रा बात छे डि ये तो पता चले ग ा कि उनमें से कई १९४७ के विभाजन के समय पाकिस्तान से आये थे . उन्होंने महरौली में कस्टोडियन से कौड़ियों के दाम घर ख़रीदे और वहीँ के हो गए. सब कोई न कोई सरकारी नौकरियाँ करते थे . पर तब भी उनके मनोरंज न में ज़फर महल में आकर ताश खे ल ना शामिल था, और अब भी है . उनकी बातें सुनि ए ज़रा: मैं ने जब एक से पू छ ा : ‘चाचा, कब से आ रहे हो यहाँ ? ’ तब द स ू रे ने मज़ाक में कहा : ‘अरे ये तो ४७ से यहीं बै ठे हैं .’ तु रंत पहले बु ज़ुर्ग का जवाब आया : ‘हाँ , हम तो ४७ से हैं . और ये तो अभी अभी यहाँ की कबर से निकले हैं . ’ बु ज़ुर्ग जनाब की बात से याद आया कि महरौली में कब्र मौत नहीं
है . बल्कि मौत से आगे की ज़िन्दगी है . आप ‘हिजड़ों का खानकाह’ जाइए, तब आप ये बात जान जायें गे . बाहर परिसर में किन्नरों की 50 कबें्र हैं । इन सभी को लोदी वं श के शासनकाल में 15वीं सदी में यहां दफनाया गया था। जो बात इसे सबसे अलग और खास बनाती है , वह ये है कि पिछले एक सदी से इसकी दे ख भाल करने वाले किन्नर हैं । किन्नरों के लिए यह जगह बहु त खास है , जो यहां समू हों में आते हैं , दआ ु करते हैं , कब्रों पर फू ल चढ़ाते हैं और अगरबत्तियां जलाते हैं । ये जगह बाहर की चहलपहल से बिलकु ल अलग, शां त है . पिछले ३५ सालों से इस खानकाह की दे ख भाल श्री कर रहे हैं . जो बिना पू छे ही बता दे ते हैं कि वो तो असल में हिन्दू हैं . वो कहते हैं , ‘मैं तो ख़ुशी ख़ुशी यहाँ की दे ख रेख करता हूँ . हमको इन्होनें बहु त कु छ दिया भी है . ६ बच्चे हैं . उनमें से चार बे टे . एक बे टे से दो पोते भी हो गए.’ और एक बात तो वो बड़े गर्व से कहते हैं . कहते हैं , ‘ मे र ा तो नाम लिखा है इसकी दीवारों में . ’ फिर वो हमें प्र वे श द्वार पर चिपकाये गए टू टे टायल के टु कड़े दिखाते हैं . उनमें से एक टु कड़े पर लिखा हु आ है ‘श्री ’. वो इस खानकाह की दे ख रेख अपनी किस्मत समझते हैं . वै से महरौली में सिर्फ़ सार्व जनिक जगहें एतिहासिक नहीं हैं . कु छ निजी
हवेलि याँ भी हैं जो दे ख ते बनती हैं . जै से वहाल परिवार की हवे ली. जे . पी. वहाल और उनका परिवार आज भी यहीं रहते हैं . ये हवे ली १९२४ में बनकर तै य ार हु ई थी. इसे पहले से ही ‘मोर वाली हवे ली’ के नाम से जाना जाता था. क्योंकी इस हवे ली पर एक मोर के आकर का हवा की दिशा बताने वाला यन्त्र लगा था. महरौली में घु म ते हु ए आप इस हवे ली पर नज़र डाले बिना नहीं जा सकते . जे . पी. वाहल बताते हैं , ‘वै से तो हवे ली को सरकार ने ‘हेर िटे ज स्टेटस’ दे दिया है , पर इसके रखरखाव के लिए कु छ ख़ास नहीं करती और न हमें करने दे ती है . अपने ही घर की मरम्मत के लिए हमें पहले सरकार की मं जू री चाहिए’ वो आगे बताते हैं , ‘ मे रे पिता और दादा के समय इस हवे ली को हमने सरकारी किराये पर डाला था. एक सरकारी दफ्तर हु आ करता था इसमें . पर जब किराया हटा, तो मैं यहाँ आया. मे रे आँ सूं निकल गए. उन्होनें इस हवे ली की बहु त बु री हालत कर रखी थी.’ वहाल साहब हमें इसी बात का दस ू रा पहलू भी बताते हैं . असल में ‘मोर वाली हवे ली’ की अवस्था, उसे इतना वास्तविक बना दे ती है कि हवे ली भी अपने आप में एक किरदार बन जाती है . आप उसकी अवस्था को शीर्ण कह लें , पर यहीं इसे सिने मेटि क सु न ्दरता भी दे ती 9
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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2019
वंशावली के रखवाले से एक मुलाकात / पृष्ठ 1 से पा रही थी, लेक िन मु झे अपनत्व का एहसास हो रहा था, इन शब्दों में अपनापन महसू स हो रहा था। मैं यकीन नहीं कर पा रही थी कि इन धू ल भरे और फीके पड़े कागज़ों में लगभग 900 साल का इतिहास छु पा हु आ है । जो पोथी मैं ने दे खी वह पू री तरह खिड़की गाँ व को समर्पित थी और उसके रिकॉर्ड में खिड़की का पू र ा इतिहास समाया हु आ था; सं स ्थापक से 2010 में पै द ा हु ए मे रे सबसे छोटे भाई तक। पु र ाने ज़माने में ये रिकॉर्ड भोजपत्र पर लिखे जाते थे , अब इन्हें कागज़ों पर उतारा जाता है । अगर इन रिकॉर्ड की मानी जाए तो, खिड़की गाँ व को 1150 ईसवीं में खू बी सिंह ने बसाया , जब वह इं द ौर से दिल्ली भाल कबीले के साथ आया था। उसे ‘राजा’ कहकर पु क ारा जाता था, उस समय जमीनदारों को यह उपाधि दी जाती थी। भट्ट क्षत्रिय राजाओं के कु लगु रु होते थे , सफर में उनके साथ चलते और उनकी विजय गाथाओं को रिकॉर्ड करते और गाते हु ए आगे बढ़ते ।
1. हरिद्वार के ब् रा ह्मण पां ड ा जो हिन्दुओं के लिए वशां व ली का रिकॉर्ड रखने का काम करते हैं । वै से ही भट्ट और पां ड ा भी हैं , फर्क सिर्फ इतना है कि भट्ट अपने यजमानों के पास जाते हैं और यजमानों को पां ड ा के जाना पड़ता है । 2. भोजपत्र का पे ड़ उत्तरी भारत में बहु त ायत में पाया जाता और कागज़ के इस्तेमाल से पहले इसे लिखने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है ।
एक समर्पित अभिले ख पाल होने के साथ-साथ नाथू बाबा एक उम्दा कहानीकार भी हैं ; एक ऐसी कला जिसे सालों के प्रश िक्षण और अभ्यास के बाद ही सीखा जा सकता है । हर एक भट्ट कई गाँ वों का कु लगु रु होता है और समय-समय पर वहाँ जाता रहता है । नाथू बाबा के पास दिल्ली, उत्तर प्र दे श और हरियाणा के 150 गाँ व हैं । भट्ट जब भी किसी भी गाँ व में भें ट करने जाता है तो वहां जश्न का सा माहौल हो जाता है , रोज़ अलग-अलग परिवार उनकी मे ह मान नवाज़ी करते हैं और उपहारों से लाद दे ते हैं , खासतौर पर वे परिवार, जहाँ कोई बच्चा जन्मा हो। पु र ाने दिनों में , पू र ा गाँ व भट्ट की कहानियाँ , पू र्व जों की गाथाएं और अनु भ वों को सु न ने के लिए रात को इकठ्ठा होता। यह द ःु ख की बात है कि इस तरह की सामूहि क सभाओं और कहानियों का स्थान आधुनि क मनोरंज न के साधनों ने ले लिया है । नाथू बाबा इस तरह की सं स ्कृ ति के गायब होने और रोज़ी-रोटी के साधन में कमी आने ओर द ःु ख व्यक्त करते हैं । नाथू बाबा बतातें हैं कि उनके यजमान हर शाम खे तों से निकलकर कहानियाँ सु न ने के लिए उन्हें घे र ले ते और खू ब इज़्ज़त दे ते । शहरी दौड़भाग की इस ज़िन्दगी में , ज़्यादातर यजमान गाँ व छोड़कर चले गए हैं या इन कहानियों में उनकी दिलचस्पी खत्म हो गयी है । वं श ावली को रिकॉर्ड करने की यह प्रक ्रि या यांत ्रिक-सा प्रतीत होता है , मानो उसकी चमक ख़त्म हो गयी हो। मैं सोचती हूँ यह परंप रा कब तक चले गी।
एक बार फिर.. एक नई शुरुआत
मु
मु र वारिद पै व न्द
झे हमे श ा से माधु री दीक्षित की फिल्में दे ख ना पसं द था। जब में माधु री को दे ख ती तो उसकी नक़ल करने की कोशिश करती। सबसे मज़ेदार बात यह थी कि मैं अपनी माँ का द प ु ट्टा लपे ट कर उसे साड़ी की तरह पहनती और माधु री की तरह डां स करती। उस समय मे रे बाल बहु त छोटे होते हु आ करते थे , तो मैं द स ु ट्टे को विग की तरह ू रे द प अपने सिर पर पहनती। इन सब चीज़ों की वजह से मैं ने पढाई पर ध्यान दे न ा कम कर दिया और मु झे अपनी टीचर और बड़े बहन से डां ट खानी पड़ती। जै से - जै से मैं कक्षाओं में आगे बढ़ रही थी, मे रे विषय भी मुश ्किल हो रहे थे । सबसे मुश ्किल विषय सिंधी था,
लेक िन अच्छी बात यह थी कि मे री सिंधी टीचर बहु त प्यारी थी और वह मे री स्थिति समझती थी- कि मैं पाकिस्तान से नहीं हूँ और सिंधी मे रे लिए मुश ्किल है । वे मु झ से बहु त प्यार करती थी और मु झे उसका सु न ्दर नाम भी याद है : मरुमा। मे रे स्कू ल के दिन अच्छे जा रहे थे , लेक िन मे री उर्दू की टीचर काफी सख़्त थी। वे छात्रों को डफर, बे ग़ै र त आदि नामों से पु क ारती और बच्चों को पीटती भी थी। उस वक़्त वो जो करती थी, मैं ज़्यादा सोचती नहीं थी। लेक िन बड़े होने पर, मैं कभीकभी सोचती कि उनका बर्ताव ऐसा क्यों है और वे ऐसी क्यों है . ..? मे रे बचपन के शु क्र वार की बहु त सी यादें हैं । मैं अपने अं क ल के घर जाती, जिनकी चार बेटि यां हैं , जिनके साथ
पलोमा अयाला
मिलकर मैं हिंदी के ‘क्यूंकि सास भी कभी बहू थी, कसौटी ज़िन्दगी की...’ और अन्य सीरियल के किरदारों की नकल करती। अगर खाने की बात करें तो, हमें हमे श ा निहारी, हलवा-पू ड़ी , गोलगप्पे आदि खाना बहु त पसं द था। ये हमारे पसं दीदा पाकिस्तानी व्यंजनों में से है । इन सब दिलचस्प चीज़ों के साथ मैं बड़ी हो रही थी। मु झे यहाँ की शिक्षा समझ आने लगी थी। साथ ही मु झे पाकिस्तानी तौर-तरीकों भी आदत पड़ने लगी थी। तभी अचानक अफ़ग़ानिस्तान से एक अं क ल का कॉल आया। उन्होंने हम सबको अफ़ग़ानिस्तान में अपनी बे टी की शादी के लिए बु ल ाया था। मे रे अब्बा जिन्हें घर की याद आती थी, को घर वापस जाने की एक वजह मिल गई थी। इस समय तक अफ़ग़ानिस्तान के हालात बे ह तर होने लगे थे । वहाँ अब शांत ि थी और अफगानी लोग पहले की तरह रह सकते थे । उस वक़्त मैं पाँ च वीं कक्षा में थी और सिर्फ मे रे अब्बा को मालू म था कि इस यात् रा के बाद हम वापस नहीं आएं गे । हम सभी को लग रहा था कि हम वापस आकर अपनी ज़िन्दगी पाकिस्तान में बिताएं गे । शादी के बाद हमने वापसी के लिए पैकिं ग करनी शु रू की। तभी पिताजी ने कहा कि कोई पाकिस्तान वापस नहीं जा रहा है । हम सब रोने लगे और माँ ने विरोध जताया। उनकी बहस हु ई । माँ हमारे भविष्य और शिक्षा के बारे में सोच रही थी। लेक िन, पिताजी ने किसी की एक नहीं सु नी और हमें वापस रुकना पड़ा। एक बार फिर, हमने वहाँ एक नई ज़िन्दगी की शु रु आत की... पाकिस्तान में बचपन
बिना नियम का खेल
खिड़की मस्जिद की सीढ़ियों पर दुल्हन का फोटोशूट।
पलोमा अयाला
खि
ड़की गाँ व में बारिश और तू फ़ा न आते हैं । गालियाँ , नदियों में तब्दील होने पर सडकों की अर्थव्यवस्था और लोगों की तादाद कम हो जाती है । सब्ज़ीवाला अपनी रेह ड़ी मंदि र की तरफ खिसका ले त ा है , जिसकी छत्त के नीचे आप तू फ ानों से बच सकते हो। टे ल र अपनी सिलाई मशीन, अपनी छोटी सी द क ु ान का अं द र छिपा ले त ा है । पराठाँ वाला, अपनी द क ु ान बढ़ा ले त ा है । एक भी इं स ान बिना किसी पु ख ्ता वजह के सडकों में नहीं आता। खिड़की को आप में आप योजना बनाकर नहीं आ सकते हो। खिड़की की पतली गालियाँ आपके जी.पी.एस. का द रु ु स्त तरीके से काम करना मुश ्किल कर दे ती है । कहीं जा पाना, तो हे भगवान! स्मार्ट फ़ोन के साथ दिशा का सही अं द ाजा होना और दृश्यों की को याद रख पाना, सबसे ज़रूरी है । मैं इन गलियों से बु री तरह हार मान ले ती हूँ । मैं ने कोशिश जरूर की थी। कहीं
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भी जाने से पहले , खो न जाने के डर से , मैं सोचविचार करती हूँ । इस वक्त मैं हिसाब लगाती हूँ कि चलना है या टु कटु क ले न ा है , चाहे जगह कितनी भी नज़दीक क्यों ना हो, मोटर हमे श ा जीतती है । मैं सोचती हूँ कि ड् राइवर को कितना पै स ा दे न ा चाहिए, मोलभाव के लिए हमे श ा तै य ार। पर जानती हूँ कि बाद में मु झे पै स ा ज़्यादा ही दे न ा पड़ेगा। मे री हर आदमी पर नज़र रहती है , जो मु झे घू र कर दे ख ते हैं , या छू ने की कोशिश करते हैं , इसलिए मे रे चे ह रे के हावभाव हमे श ा गु स ्सैल रहते हैं और मैं कु छ अच्छी मु ल ाकातों को खराब कर दे ती हूँ । मैं अक्सर अपनी नाक और मु ह ढक ले ती हूँ , खुद को छु पाने के लिए नहीं बल्कि, प्र द ष ू ण के सिरदर्द से एहतियात बरतने के लिए। इस प्रक ्रि या में , एक जगह से द स ू री जगह जाने का मतलब, कु छ हारना। मे रे दोस्त ज्योतिदास ने बताया कि खिड़की जै सी जगह का विकास गाँ व की जमीनों के ते ज़ी से अधीनीकरण और गाँ वों से शहरों की ओर निरंत र प्र व ास से हु आ है । मु झे लगता है यहाँ जगह कम है
और लोग ज़्यादा हैं , इसीलिए इस तरह की जगहें सामाजिक रूप से बटीं हु ई नज़र नहीं आती। आर्किटे क ्चर और अर्बन प्लानिंग के नियमों से ज़्यादा को बड़ी हु ई जनसं ख ्या लोगों को हौसला को दे ती है । और अं त में , हर समस्या का जु ग ाड़ मिल जाता है । समस्या का हल या तो खुद -ब-खुद सामने आ जाता है या थोपे हु ई सं र चना को बदल कर दिख जाता है । शहरी गाँ व का उदहारण उनमें से एक है । इंस्टिट्यू ट ऑफ डे म ोकरे् सी और सस्टेनेबिलि टी के राजें द ्र रवि का मानना है कि ई-रिक्सा एक ऐसा ही उदहारण है । खिड़की एक छोटी अर्थव्यवस्था के जै सी है , जो मोटर के साधन पर इधरउधर जाने पर निर्भर करती है । यह पब्लिक ट् रांसपोर्ट और गै स की बढ़ी हु ई कीमतों का सस्ता विकल्प है । यह हवा को साफ भी रखता है और ड् राईवरों के लिए रोज़ीरोटी के साधन भी उपलब्ध करता है और कभी-कभी रात गु ज ारने के लिए छत्त भी दे त ा है । अगर मे र ा शक सही है , खिड़की गाँ व में बड़ी हु ई जनसं ख ्या कु छ नए नियम भी बना दे त ा है , तब औरतों की यहाँ की गलियों में उपस्तिथि और अनु पस्तिथि कई सवाल खड़े करता है : किन लोगों के बाहर की जगहें महत्वपू र्ण हैं ? उनकी परवाह कौन करता है ? उनका निर्माण और इस्तेमाल कौन करता है ? एक सरल और ज़रूरी सवाल यह होगा कि: औरतें कहाँ हैं ? औरतों का गलियों में न दिखना,
औरतों का सु र क्षा के कारणों पर विश्वास न होना, महत्वपू र्ण न महसू स करना और समाज में कोई स्थान न दे न ा, जै से अहम सवाल उठाता है । औरतें खुद को समु द ाय की अर्थव्यवस्था खुद को कहाँ पाये गी अगर सारी नौकरियों आदमियों ने घे र ा हु आ है ? औरतों का सड़कों पर अभाव, स्कू ल जाती हु ई युव ा लड़कियों की रचनात्मकता और स्वयं की छवि को कै से प्र भ ावित करता होगा, वे कहाँ और कै से खे लें गी ? और उन प्र व ासी औरतों का क्या, जो खिड़की में रह रही हैं ? बाद में मु झे एहसास हु आ कि जिन दिक्कतों का सामना मु झे खिड़की में करना पड़ा, वो शायद किसी जगह मे रे सं बं ध बनाने के तरीके की वजह से भी हो सकता है । मु झे अपनी आर्टिस्टिक प्रैक्टि स को स्थिति के हिसाब से ढालना पड़ेगा। एक टू रिस्ट की तरह इधर-उधर जाने मात्र से मु झे अपने सवालों के जवाब नहीं मिलें गे । मैं ने खुद के लिए एक कु र्ता खरीदा, माथे पर बिंदी लगाई और घू म ना शु रू किया। मैक्सि को की मे री सां व ली त्वचा होने पर मैं ने सोचा कि लोग मु झे भारतीय समझें गे और मैं भे द भाव से बच जाऊं गी। मैं ने मंदि र बाहर बै ठी औरतों से बातचीत करने कि कोशिश की। इस बदले हु ए रूप से मैं ने सोचा कि बातें शु रू कर पाऊँ गी। लेक िन काम नहीं चला। जिस तरह से मे री दोस्त प्रे र णा सब्ज़ीवालों और टु कटु क वालों से मोलभाव करती है , मैं ने नक़ल करने की कोशिश की। मैं ने हिंदी के कु छ रोजमर्रा के साधारण शब्द सीखे । लेक िन
मैं न तो लोगों से सहज बातचीत कर पाई, न ही पार्क में बै ठ कर तसवीरें ले पाई, न खोज से शे ख सराय और मालवीय नगर जै सी मार्किट अके ले जा पाई। जिस वक़्त को मैं सं बं ध बनाने और सीखने में बिता सकती थी, मैं ने खो जाने या छे ड़ छाड़ के बारे में सोचने में बिता दिया। शायद किसी को मैं समझ ही नहीं आ रही थी। मैं ने अपनी चाल को थोड़ा आं तरिक किया, बं द जगह के सन्दर्भ में , थोड़ा निजी अनु भ वों की तरफ सोचना शु रू किया। प्रे र णा ने मु झे बहु त सी औरतों से मिलवाया। जिनकी वजह से एक आर्टिस्टिक प् रो जे क ्ट का जन्म हु आ । हम जे . एन.यू . के महिला आवास में मिले (पू र ा प् रो जे क ्ट यहाँ दे ख सकते हैं : www. palomaayala.com/in-view-ofthe-normalcy.html) हमने मानसिक स्वास्थ्य, स्थानों को असमान स्वीकृति के अनु क्र म, सामाजिक सं बं धों और गतिशीलता का प्रत िनिधित्व; युव ा छात्रों की नज़र से , मे री चिंता और डर, मे रे और मे रे नए महिला दोस्तों के लिए एकदम जायज़ थे और जो रणनीतियाँ हम खुद को सु रक्षित रखने के लिए अपनाते थे , माहौल के हिसाब से होते हैं । औरत होने पर, सवाल यह है कि जिन जगहों में हम रहते हैं ( बदलकर, रहकर, समझकर, कल्पना कर, सक्रीय कर और बनाकर ), और जगहें हममें कै से समा जाती हैं , यह इस बात से जु ड़ा है कि पब्लिक प्ले स कितने आत्मीय और स्वीकरणीय हैं ।
शीत अंक 2019 • खिड़की आवाज़
मंज़र- ए- महरौली / पृष्ठ 7 से है . इसलिए तो जे . पी. वहाल हवे ली को फ़िल्मों, विज्ञापनों की शूटिं ग के लिए भी दे ते हैं . बल्कि बॉलीवु ड की चर्चित फिल्म ‘रॉकस्टार’ यहीं फिल्माई गयी थी. वहाल साहब कु छ याद करते हु ए बताते हैं , ‘ अरे वो…...वो...हाँ , रणबीर कपू र को जब घर से निकाला जा रहा था. वो यहीं बाहर शू ट हु आ है . उसका घर यहीं बनाया था.’ आजकल मे र ा घर भी महरौली हीं है . हर बार दफ्तर से घर आने पर कै ब वाले महरौली सु न कर डर जाते हैं . उनका एक ही डर होता है , ‘मै ड म, गलियों में तो नहीं ले जाओगे ? फँ स जाऊं गा वरना’. मैं हर बार यहीं बताती हूँ , ‘ नहीं भै य ा, बस टर्मिनल तक ही.’ उनकी भी गलती नहीं. यहाँ की गलियाँ बहु त पतली हैं . या कहिये पतली हो चु की हैं . खानकाह के के यरटे क र श्री ख़ु द कहते हैं , ‘ मैं तो यहाँ तां ग ा चलता था. तब यहाँ की सडकें बहु त चौड़ी होती थी. जहाँ आज एक गाड़ी चलाना दभ ू र है , वहाँ पर दो बसें आराम से चलती थी. पर लोगों ने अतिक्र मण कर रखा है अब. ट्रैफि क जाम लगा रहता है ’ तो इस शताब्दी की महरौली में पु र ाने और नए की नोक झोक सी लगी रहती है . पर क्या कीजे ? अब मं ज़ र-ए -महरौली की सचाई ही यहीं है .
पहचान
जै
से जै से सू र ज ढल रहा है ,सड़क किनारे एक अलग भाव से चीज़ें चल रहा थी। लोगों की आं खें और चाल में अलग सं दे ह , मानो कोई ऐसा जु र्म हो, जिसमें तु म ्हें सब पता भी हो, मगर कु छ ना करने की एक मजबू री भी हो, ऐसे में एक शां त चीख सु न ाई दे ती है । (चाय की द क ु ान के सामने लोग अशफाक के बारे में बात करते हैं ) पहला व्यक्ति: वह नहीं कर सकता, वह यह बिल्कु ल नहीं कर सकता ... दस ू रा व्यक्ति: वे हरामी लोग, इन लोगों ने उसको बिन बात के उठाया है , उसको उठाना आसान था क्योंकि वह हम सब में सबसे ज्यादा कमजोर था, तो उन्होंने उठा लिया। सत्य: मगर हु आ क्या है और किसको उठा लिया और अशफाक तु म लोगों के साथ क्यों नहीं आया? प: यह उसी के बारे में है , उसको पुलि स वाले उठाकर ले गए, एक 10000 की घड़ी है ; जो कि लापता है , इस वजह से वे लोग सोचते हैं कि अश्फाक ने किया... स: मगर इस दनि ु या में 10000 की घड़ी खरीदने की औकात किसकी है ? डी: अरे! इन लोगों के लिए आम-सी बात है , ये तो ढाई सौ रूपए की चाय पीते हैं । स: ये तो कु ल मिलाकर मु झे तु म लोग महीने का दे ते हो, मगर यह सब छोड़ो, अश्फाक के बारे में तु म लोगों को क्या पता है . .. प: वह हरामखोर चौकीदार खुद भी खिड़की में रहते हैं और हम जै से कई लोगों की तरह उनके पास भी खिड़की नहीं, एक पल भी उन लोगों को हमारा ख्याल नहीं आता... डी: कोई मौका नहीं छोड़ते वह लोग, हम लोगों को तं ग करने के लिए ,आज उन लोगों ने हम लोगो को नं ग ा कर दिया घडी ढू ं ढ ने के लिए। ... स: यह तो सचमु च इन लोगों ने हदें पार कर दी... प: क्या कहते हैं ? डी: चलो पुलि स थाने ही चलते हैं । स: ठीक है , मैं अपनी द क ु ान बं द करता हूं और साथ में चलते हैं ।
हर कदम पर वे तरबत्तर काँ प रहे थे । इनके दिल इतनी ते जी से धड़क रहे थे , मानो कोई ट्रे न एक ब्रिज के ऊपर से पार कर रही हो। इन लोगों के पास एक ही ताकत थी, किसी शक्ति का ना होना और शायद यही कमज़ोर की सबसे बड़ी ताकत है । ये कु छ मजद रू अपने आप को न्याय का ठे के दार मानकर नहीं गए थे , क्योंकि कानू न को टक्कर दे ने के लिए हरकुलिस भी कम पड़ जायें गे । हमारे दिमाग में जो पहली तस्वीर न्याय के बारे में आती है , जब हम सोचते हैं , तो वह ले डी जस्टिस आती है , न्याय के तराजू के साथ। मगर फिर एक थका हु आ गोल मटोल आदमी भू री वर्दी में है , जिसकी एक लं बी मूँ छ हैं और जिसकी भारी-सी आवाज है , जिससे वह अपना रौब जमाता है । ( वे लोग पुलि स थाने में घु स ते हैं , जहाँ वे दे ख ते हैं कि पहले से ही दो पुलि स अफसर आपस में बात कर रहे हैं ) सो: तु म लोग इस सिस्टम पर बोझ की तरह हो । ज्यादा ध्यान से नहीं दे ख सकते थे , जब रात को गाड़ियों को दे ख ते हो? पो: सर मगर वह गाड़ी एकदम सड़क पर नाच रही थी और वे लोग अपनी क्षमता से बहु त ज्यादा नशे में धु त थे । सो: तु म को उस गाड़ी के हाव-भाव को दे ख कर यह नहीं समझ आया कि वह गाड़ी किसी बहु त अमीर आदमी की है और जो गाड़ी चलाने वाला है वह किसी बहु त अमीर बाप का बे ट ा है और उसका बाप उसको किसी भी हाल में छु ड़वा ही ले ग ा । पो: सर बहु त सारे जूनि यर ऑफिसर थे वहाँ पर मु झे उ...उनको रोकना जरूरी था. ताकि मैं कार्र व ाई कर सकूं ... सो: सारे- के -सारे बे व कू फ! पता है कि रात भर से कितने कॉल आ रहे हैं मु झे , तु म ्हारी बे व कू फी के वजह से ! बहु त बड़े मं त्री का बे ट ा है वो, जानते हो ऐसी सारी चीजें कै से होती हैं , इतना वक्त हो गया तु म ्हे यहाँ पर। चलो ठीक है , आगे से ध्यान रखना और ज़रा दे ख ो थो वो कौन लोग आए है , मैं जा रहा हूं मु झे कल पे रेंट ्स टीचर मीटिंग में जाना है । पो: ओके सर, सॉरी सर। (सीनियर ऑफिसर बाहर जाते हैं ,
महरौली के सटे हुए मकानों के बीच मोर वाली हवेली।
एक्ट टू , चार एक्ट का दस ू रा भाग, स्टीवन एस जॉर्ज द्वारा रचित। प्रवासी समुदाय के अनुभवों पर आधारित। पुलि स ऑफिसर अपने आप को इन लोगों की तरफ केंद्रित करते हैं ) पो: क्या हु आ ? इतनी रात गए तु म लोग यहाँ पर क्यों आए हो? स: सर बात ऐसी है कि हमारे दोस्त को ऐसे जु र्म के लिए पकड़ा गया है जो उसने किया ही नहीं है , उसका नाम अश्फाक है । पो: वो... कु त्ते का पिल्ला आतं क वादी! प: सर मु झे लगता है आप किसी और के बारे में सोच रहे हैं , आपने आज सु ब ह उनको कै सल से उठाया था। पो: तु म लोग उसके साथी हो? बं द क ू ें किधर रखी हैं ? और किस-किस की हत्या करने का तु म लोगों का प्लान है ? प्रधानमं त्री का? स: सर मु झे लगता है आप गलत समझ रहे हैं , वह हमारा दोस्त है , एक मजद रू जो कि कै सल में काम करता है । पो: हाँ . ..हाँ . ..मैं सही से जानता हूँ , मैं किसके बारे में बात कर रहा हूँ और तु म लोग भी किसके बारे में बात कर रहे हो। मगर मु झे नहीं लगता तु म लोग यह जानते हो कि तु म लोग किसके बारे में बात कर। वो एक अवै ध बां ग ्लादे शी आप्र व ासी है , यह सारे लोग; हमारे दे श में घु स ना चाहते हैं , अपनी तादाद बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं और उसके बाद हम ही लोगों पर राज करेंगे । यह लोग हमारी सारी-की-सारी नौकरियाँ छीन रहे हैं और हमारा सारा-का-सारा पै स ा लू ट रहे हैं । तु म ्हें क्या लगता है ? हमारे दे श के ज्यादातर लोग भू खे क्यों सोते हैं ? और हमारे नौजवान बे र ोज़गार क्यों है ? इन आप्र व ासी लोगों की वजह से ! कु छ मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के वजह से हम इनको शहरों में महफू ज रख रहे हैं । इन सब को बड़े-बड़े आतं क वादी सं स ्थाओं से और विदे शी एजेंस ियों से पै स ा मिलता है । स: सर वह हमारा दोस्त है , एक मजद रू है , जिसकी रोज की मज़द रू ी ₹300 से कम है , वह रोज मे रे यहाँ से चाय पीता है , हमारे ही इलाके में रहता है । उसको पढ़ना तक नहीं आता। वह एक मच्छर को मारने की भी नहीं सोच सकता। पो: तु म कु छ भी नहीं जानते , ये सारे
हम लोगों जै से दिखते हैं , ये हमारे साथ रहते हैं । पू र ा दे श इन लोगों से भरा पड़ा है , लगभग 40% लोग हमारे दे श के ; इन्हीं लोगों से भरे हु ए है और यह सही वक्त है कि हम लोगों को सतर्क होने की जरूरत है , तभी तो सरकार सब कु छ आधार से लिंक करा रही है और आजकल तो सब कु छ यह स्मार्ट फोन में व्हाट्सएप पर आ जाता है । तु म भी कोई इन्हीं लोगों के साथ शामिल तो नहीं? तु म ्हारा नाम क्या है ? स: सत्या पो: पू र ा नाम स: सत्या चं द ौला पो: तू तो साले चं द ौली का चमार है ! तु म लोग भी सोच रहे हो ना...विद रो् ह पे श करने का! तु म लोग भी इन्हीं लोगों जै से आतं क वादी सं स ्थाओं से कोई कम नहीं हो! स: सर! मैं ऐसा कु छ भी नहीं कर रहा हूं , आप क्या बोल रहे हैं ! पो: बाहर निकलो वर्ण तु म लोगों को भी अं द र डाल दं गू ा उसके साथ! पो: बाहर निकलो...वरना तु म लोगों को भी अं द र डाल दं गू ा उसके साथ! पुलि स थाने के अं द र के माहौल और वहाँ के रौब ने , उसकी पहचान को उसकी जात से जोड़कर, कु छ ही क्षणों में , मानो सत्या से इं स ान होने का एहसास छीन लिया हो। पुलि स थाने के बाहर इन तीनों लोगों में भी एक आक् रोश पै द ा हो गया। डी: तु म ने कभी नहीं बताया कि तु म एक चमार हो... प: क्या तु म शां त हो सकते हो? और हम यह सोच सकते हैं कि हम क्या कर सकते हैं ? डी: अब मैं समझ गया हूं , वह कोई दोस्त या कु छ भी नहीं है । तु म ने सु न ा नहीं, वह पुलि सवाला क्या कह रहा था ? प: यह मत कहना कि तु म सचमु च उस पर विश्वास करते हो । वह (पुलि सवाला ) वही इं स ान है , जो 10 दिन पहले एक अप्र व ासी से , जोकी खिड़की में ही रहता है , गै र कानू नी कागज़ात के लिए पै से ले रहा था, जिससे वो आधार कार्ड बना सके । डी: जो भी हो मैं इन सारे चक्करो मैं नहीं पड़ रहा। हम लोग ,हमारे दे श के
लोग, ऐसे लोगों की वजह से बहु त ज्यादा तकलीफ में है । प: तु म सचमु च सोचते हो अश्फाक... ? तु म जानते हो ना, वो लोग क्या-क्या करने वाले हैं उसके साथ अं द र। स: और घड़ी का क्या? आखिर कर उन्होंने उसको चोरी के लिए उठाया था, अब वह अचानक से एक आतं क वादी है ? मे री बात तो सु न ो! डी: मु झे नहीं जाना, मैं कु छ भी नहीं करूं गा, जोकि मे रे दे श के खिलाफ हो और तु म ्हारे पास है ही क्या उसको बचाने के लिए तु म ्हारे पास पै स ा है ? वक्त है ? जिससे तु म कचहरी के चक्कर लगाओ या फिर कोई वकील है ? कु छ भी नहीं ! मैं बाहर हूँ ! और तु म ्हें भी बाहर हो जाना चाहिए! तीनों लोग एक इकाई में खिड़की की तरफ चलने लगते हैं । इन लोगों के बीच की गहरी चु प ्पी इनकी चाल और इनके शरीर में एकाएक झलक रही थी। ठं ड के मारे इनके जिस्म कां प रहे थे , मगर एक वजह और भी थी। सड़कों पर लोग इनके शरीरों से अपनी आं खों को अलग नहीं कर पा रहे थे , इस चु प ्पी को दे ख कर लेखक द्वारा वैचारिक चित्र
उनके अं द र भी एक गं भीर भय धीरे- धीरे विकसित हो गया था ।कि हु आ क्या है ? अश्फाक के साथ हु आ क्या है ? ये लोग इस प्र क ार क्यों व्यवहार कर रहे हैं ? अब क्या होने वाला है ? क्या पुलि स अफसर ने जो कहा वही सच है ? सच जानता ही कौन है ? सच और बाकी सारी चीजें जानने के लिए खिड़की का अगला अध्याय पढ़े ।
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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2019
अपनी प्रोब्लम्स को अगर लिख लूँ, तो सोचने में आसानी होगी।
उथल-पुथल में शांति की तलाश शब्द + कलाकृति मोहित कांत
वो देख पटाखा!
आपके पास ‘जानम समझा करो’
ओफ्फो, ये शोर! मैं
गाना है ?
कुछ सोच भी नहीं पा रहा हूँ ...
मेरे पास केवल लव सांग्स हैं ।
पापा तेज़ चलो!
वो दिखाते हो या मैं जाऊँ ?
ओये, देख देख!
शायद बाहर कुछ
जल्दी करो अंकल
सोच पाऊँ...
मॉल कैसा रहे गा?
सर, चाय दूँ आपको ?
अच्छा आंटी
पार्क चलता हूँ ..?
कम से कम, ट्रैफिक से तो छुटकारा मिलेगा।
थैंक यू, अभी नहीं।
हम्म..,मॉल और सुकून, मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है ।
चाय अच्छी है , लेकिन अभी मैं कुछ सोचने की कोशिश कर रहा हूँ , और वो मैं यहाँ नहीं कर पाऊँगा।
ये पार्क है ?
या पार्किंग? ओफ्फो! ये मैच नहीं हारना मुझे।
शर्त लगा ले, ये गुस्से में है ...
क्या कैच पकड़ा हीरो अंकल, खेलोगे ? 10
नाह, ये डर से काँप रहा है ...
ठीक है , अब मैं तुम्हें सिखाता हूँ , क्रिकेट कैसे खेलते हैं ...
हाहा! इसे तो पसीना आ रहा है !
नाह! ये तो खल्लास हो गया।
समाप्त
शीत अंक 2019 • खिड़की आवाज़
खिड़की की मातृ स त्ता की
कहानियों की खोज
कमला चौहान अपने मवेशियों के बाड़े में, लगभग 95-96 में । तस्वीर: लेखक के सौजन्य से
एकता चौहान
खि
ड़की में पै द ा होना अक्सर आपको दो भागों में बाँ ट दे त ा है । खिड़की गाँ व के माहै ल में हमारी दनि ु या ते ज़ शहरी बदलाव से बहु त द रू होती है । एक औरत होने पर हम हमे श ा लड़ रहे होते हैं , सं घ र्ष करते हु ए और शहर के अपने साथियों की ज़िन्दगी के साथ चलते हु ए , एकएक कदम बढ़ाते हु ए । हर पीढ़ी की औरत का अपना खुद का सं घ र्ष रहा है , साफ़ शौचालय से ले क र घरेलु हिंसा से लड़ना, ऊँ ची शिक्षा के विकल्प चु न ने से ले क र मर्द दोस्त होना, परदे से आज़ादी से ले क र ड् राइविंग सीखना। खिड़की की औरतें अक्सर साहसी, सहनशील और अक्सर विद रो् ही भी रही हैं । ये सं गठित विद रो् ह और क् रांत ियाँ नहीं कि न्यूज में आये लेक िन औरतों की रोज़ की लड़ाई है । पिछले एक साल से में ‘सिटीजन्स आर्काइव ऑफ़ इंडि या’ के एक मौखिक इतिहास के प् रो जे क ्ट दिल्ली की खिड़की से जु ड़ी हु ई हूँ । जिनका मकसद इन सु न ्दर यात् रा ओं और कहानियों को कै द करना है ( आदमी और औरतों, दोनों की ) खिड़की गाँ व एक छोटा सा समु द ाय है जिसमें लगभग 90 परिवार शामिल हैं , जो शहरी दिल्ली में रहते भी हैं , साथ ही अपने पु र ाने रीति-रिवाज़, मान्यतायें और प्रथायें सहे ज कर रखते हैं । गाँ व के पारम्परिक अभिले ख पाल के अनु स ार, खू बी सिंह नाम का एक आदमी, 14वीं सदी में अपने भाईयों के साथ मध्य प्र दे श से दिल्ली आया और खिड़की गाँ व को बसाया। यहाँ के बहु सं ख ्यक चौहान समु द ाय खू बी सिंह को गाँ व के पिता मानते हैं ( माँ कौन हैं , यह नहीं मालू म ) । पिछले
700 सालों में , चौहान समु द ाय साम् रा ज्यों के उठने गिरने , आज़ादी और आधुनि क सरकारों के उत्थान और पतन का साक्षी रहा है । मैं इस मध्यकाल के समु द ाय का हिस्सा हूँ और उनकी बे टी हूँ ( यहाँ आप अपने माँ - बाप की ही नहीं, बल्कि पू रे गाँ व की बे टी होते हो)। मैं विद रो् ही स्वभाव की महिलाओं के बीच बड़ी हु ई हूँ ; एक किसान दादी, जो काफी आध्यात्मिक हैं , एक पढ़ी-लिखी माँ , जो अपने तन्मयता के साथ ससु र ाल और मायके का बीच सं तु ल न बना कर रखती है । आपको ये उपलब्धियाँ नहीं लगें गी, लेक िन उन्हें इसके लिए लड़ना पड़ा था। उन्हें भगवान या मायके के लिए वक्त निकालना पड़ता था, ये उनकी मू ल ज़िम्मेदारियों के अलावा था, इसलिए अच्छा नहीं माना जाता था। मैं माजी ( दादी ) के सं घ र्ष और सपनों को पाने के लिए लड़ने की कहानियाँ सु न कर बड़ी हु ई हूँ । मैं उन्हें 4 साल पहले खो चु की हूँ , लेक िन इस प् रो जे क ्ट के ज़रिये मु झे गाँ व अन्य दादियों और अम्माओं से बात करने का मौका मिला। 5 साल की बच्ची को कहानियाँ सु न ाने की बजाये अब कै मरा और नोटबु क लिए 25 साल की एक युव ती को कहानियाँ सु न ाई जाएं गी। वक़्त का पता ही नहीं चलता। जब इस प् रो जे क ्ट की शु रु आत हु ई तो मे री ज़्यादातर बातचीत पु रु षों से ही हु ई । जब मैं ने अपने पिता से अपने अनु भ वों को बताने के लिए गाँ व के बु जु र्गों की एक सू ची माँ गी तो उनमें सिर्फ आदमी ही थे । मैं जितनी भी औरतों को जानती थी, उनसे इं ट रव्यू के लिए पू छ ा, उन्होंने झट मना कर दिया। औरतों की दनि ु या को भे द पाना मे रे लिए असं भ व से लग रहा था। कु छ बात नहीं करना चाहते थे , शायद उनकी कभी सु नी
ही नहीं गई थी। बाकियों को लगा कि उनकी कहानी इं ट रने ट के लायक है ही नहीं। वे कहतीं, “मे री कहानी कौन पढ़े ग ा?”। जै से ही उन्हें सहज महसू स कराया गया, बोला गया कि कै मरे को भू ल जाइये और मु झे अपनी पोती समझिये , कहानियाँ बहने लगीं। अं गू री माजी बताती हैं कि किस तरह अपनी सास और पति के ज़िंदा रहते न तो ज़्यादा बोलती थीं और न ही गाँ व की द स ू री औरतों के साथ उनका उठना-बै ठ ना ज़्यादा रहता था। एक बार उन्होंने अपने विचार सामने रखने की कोशिश की तो सास ने थप्पड़ मार दिया। मे रे लिए ये है र ानी की बात थी क्यूँकि मैं खुद स्पष्टवादी, मनमौजी और स्वछं द हूँ । उनकी खुद की बहू और पोती ( जो लगभग मे री उम्र की है ) काफी मशहू र हैं ( अच्छे और बु रे तरीके से ) अपने बातू नी स्वाभाव के लिए ( अगर आप उनके घर के सामने से गु ज रेंगे तो असं भ व है कि आं टी आपको बातचीत के लिए नहीं रोके गी ), गाडी चलाने के लिए ( दोनों स्कू टी चलाती और आदमियों की नज़र में आती हैं ) और पहनावे के लिए ( बाकी औरतें अक्सर चू ड़ी दार और सलवार की बजाय जीन्स पहनने के लिए उनका मज़ाक उड़ातीं हैं ) । उन्हें सु न कर मैं सोचती, उन्हें अपनी अगली पीढ़ी को इन छोटीछोटी आज़ादी को दे ने के लिए कितना लड़ना पड़ा होगा। वहीँ द स ू ी तरफ कृ ष्णा दादी ने मु झे अपने प्र गतिशील विचारों से प्र भ ावित किया। मैं उनसे पहले कभी नहीं मिली, लेक िन जब मैं उनके घर इं ट रव्यू के लिए गई तो लगा उन्हें सालों से जानती हूँ । वे मे री दादी की अच्छी सहे ली थी और उनके ज़रिये हम सभी को जानती थी। वे कभी स्कू ल नहीं गई, सामाजिक दबाव से
नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी से । उनके मु त ाबिक बचपन में उनका हरयाणा के एक स्थानीय स्कू ल में दाखिला तो हु आ ,लेक िन उन्हें ज़्यादा पसं द नहीं आया और कु छ ही महीनों में उन्होंने स्कू ल जाना छोड़ दिया। यह साफ़ तौर पर ज़ाहिर था कि स्कू ल के बाहर उनके लिए सीखने को बहु त कु छ था। उनका घर अब खिड़की मस्जिद के बगल में है । यह मस्जिद 14 वीं सदी की है जो अब स्थानीय लोगों और सरकार की उपे क् षा का शिकार है । जबकि ज़्यादातर लोग धरोहर को बोझ समझते , कृ ष्णा माजी धरोहर को सं पत्ति मानती है । एक ही वाक्य में उन्होंने धरोहर सं र क्षण को सरल शब्दों में समझा दिया। उनके मु त ाबिक,” ऐसी ईमारत तो बचनी ही चाहिए। हमारे बच्चों को भी पता चले ग ा कि पहले कै सी ईमारत होती थी। अब तो ऐसी ईमारत बन ही नहीं सकती। अभी सरकार की कोई रोकथाम नहीं है । अच्छे से सजा कर रखें तो हमारे बच्चे यहाँ खे ल सकते हैं , पढ़ सकते हैं । ” घर में रोज़ की जद्दोज़हद के अलावा, खिड़की गाँ व की औरतों ने बड़ी लड़ाईयों को भी दे ख ा है । 1947 के विभाजन की यादें एक पीढ़ी के जहन में आज भी ताज़ी हैं । मिश्री दे वी, जो अब 92 साल की हैं , गाँ व की सबसे उम्र द राज़ औरतों में से हैं , को विभाजन की धुं ध ली बातें याद हैं । वक़्त के साथ उनकी स्मृति कमज़ोर पड़ने लगी है और अपने पु र ाने दिनों की बातों को मिला दे ती हैं । उनके पति गु ज र गए थे , लेक िन साफ़-साफ़ याद नहीं था कि वे विभाजन की हिंसा में मारे गए या बाद में ( बाद में उनके बे टे ने स्पष्ट किया कि उनकी मृ त ्यु काफी बाद में हु ई थी। उन्हें ये बात याद है कि उन्हें 11 दिन के लिए, दं गे भड़कने
पर पड़ोस के गाँ व में रुकना पड़ा था। खिड़की गाँ व के सभी औरतों और बच्चों को चिराग दिल्ली भे ज दिया गया था, क्यूंकि वहाँ की दीवारें और दरवाज़े चौड़े और मजबू त थे । मिश्री दे वी उन्हें औरतों में से एक थीं, जानवरों की तरह झु ण ्ड में इकठ्ठा और अपने भविष्य की अनिश्चितता के बारे में सोचते हु ए । शहर के ते ज़ विकास के साथ खिड़की गाँ व एक ‘शहरी गाँ व ’ बन गया है और अब एक छोटा समरूप समु द ाय नहीं रहा है । खिड़की गाँ व का विस्तृत क्षेत्र खिड़की एक्सटें श न ते ज़ से विकसित हु आ है और क्षेत्रफल में अब गाँ व से बड़ा है । ये क्षेत्र पहले पालतू पशु ओं की चरागाह होता था, लेक िन अब छोटी-छोटी गलियों से भरा हु आ है और विविध समु द ाय के प्र व ासियों से भरा हु आ है । एक दोनों क्षेत्रों का सं बं ध माँ बे टी जै स ा है । बू ढी माँ पु र ाने रीतिरिवाज़ों को जब तक हो सके सं भ ाल कर रखना चाहती हैं ( चाहे वो अप्र चलित या उत्पीड़क क्यों न हों), और जवान बेटि याँ पं ख फै लाकर उड़ना चाहती हैं । मे रे परिवार में भी ऐसा ही है , पु र ाने खिड़की वालों और नए ज़माने के लोगों में , एक तनाव का सा माहौल रहता है । लेक िन इसके बिना रहा भी नहीं जा सकता है । इस गाँ व की साड़ियों और घूँ घ ट ओढे औरतें , नई लड़कियों को युव ा लड़कियों के दिमागों को भ्रष्ट करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराती हैं । लेक िन साथ ही कहती हैं , ” ये लड़कियाँ शहर में कु छ बनने आई हैं । हमारी रिस्पांसिबिलिटी है कि इनको सु र क्षा प्र द ान करें और इनका हौसला बढ़ायें । हमारी बे टी जै सी ही हैं । ” ये आखिरी बात मे री माँ प्रे म लता चौहान ने कही थी।
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कालकाजी टू खिड़की जगहों को ध्वनियों में ढूँ ढना
होते हैं । लेक िन मु झे अच्छा लगता है कि कालकाजी कभी सोता नहीं है । मैं ने हाल ही में एक पानवाले को खोजा जो रात 3 बजे तक खुल ा रहता है । इससे रिकॉर्डिंग सै श न और दिलचस्प हो जाते हैं । यह जगह चाय और सिगरेट के लिए हमारा अड्डा बन गए हैं । रात के रिकॉर्डिंग के बाद थकान द रू करने का सबसे अच्छा ज़रिया। वहीँ द स ू री तरह, खिड़की अभी
नया है और रोज़ नए और विचरित तरीके से खुद की जाहिर करता है । मु झे यहाँ की पतली और व्यस्त गालियां पसं द हैं क्यूंकि यहाँ रोज़ नए नज़ारे और आवाज़ें सु न ने को मिलती हैं । यहाँ समस्यायें बहु त सी हैं , लेक िन जो याद रहता है , वो है , इन सब के बीच लोगों की ऊर्जा और निरंत र प्र य ास। इन सबको में सहे ज कर रखता और बाद में ये सु रों और तालों के रूप में बाहर
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“हमारे दूरदर्शी नेता एक असली नेता हैं !” वोट फॉर ए ड्रीम ... वोट फॉर टु मारो
“हमारे दूरदर्शी नेता सब जानते हैं !” वोट फॉर ए ड्रीम ... वोट फॉर टु मारो
“दूरदर्शी लोगों की जय हो!” वोट फॉर ए ड्रीम ... वोट फॉर टु मारो
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“हमारे दूरदर्शी नेता हमेशा सही होते हैं !” वोट फॉर ए ड्रीम ... वोट फॉर टु मारो
ले आउट और डिज़ाइन: मालिनी कोचुपिल्लै
आता। खिड़की और कालकाजी में बहु त से अं त र हैं । हाल ही में मैं ने छोटी बातों पर ध्यान दे न ा शु रू किया है , आवाज़ें , लोग और सड़कों में लोगों की चाल, दोनों मोहल्लों में काफी अं त र है । मैं ने अपनी दनि ु या से बाहर आकर, खुद के लिए नए अनु भ वों के नए द्वार खोलें हैं । आप भी कोशिश कीजिये !
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अशीम बेरी, वेद के साथ, कालकाजी में वेष्टि पहने हुए।
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संपादन: मालिनी कोचुपिल्लै और महावीर सिं ह बिष्ट [khirkeevoice@gmail.com]
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ख सुविध ाओं के बीच बड़े होने के बाद, कु छ साल पहले ही मैं ने मन बनाया कि शहर को जानी पहचानी जगहों से आगे दे ख ा जाये । मे री ज़िन्दगी 2016 में पू री तरह बदल गई, जब कॉले ज ख़त्म करने के बाद में वातावरण से जु डी एक समाज से वी सं स ्था में काम करना शु रू किया। ज़िन्दगी को गं भीरता से ले ने के साथ मैं ने उन चीजों की ओर ध्यान दे न ा शु रू किया जो मु झे अच्छी लगती हैं । कु छ सालों से मु झे यह लगता है कि जगहों और स्थानों के साथ मे र ा अलग तरह का जु ड़ा व हो जाता है । जगहें जहाँ में पहले गया हूँ , जानी-पहचानी, कु छ अनजान, कु छ जिनको सपने में दे ख ा हो। मु झे ये महसू स होता है कि जिन जगहों को मैं लम्बे समय से जानता हूँ , वे मु झ से बातें करती हैं । कभीकभी में बालकनी में पौधों से बातें करता हूँ , मानो थे रेपी सै श न चल रहा हो, जिसमें पौधे तसल्ली से सु न रहे हों। सं गीत से मे रे प्यार की वजह से ही, मैं आज यह आर्टिकल लिख रहा हूँ । ऐसा लगता है , सं गीत के लिए मे र ा प्यार, जगहों से मे रे लगाव के साथ घु लमिल गया हो। हाल ही में सोलो प् रो जे क ्ट को बनाते हु ए , मैं ने महसू स किया कि, जिन जगहों से मैं वाकिफ हूँ और जहाँ मैं बड़ा हु आ हूँ , ने मे रे सं गीत को कई तरीकों से प्र भ ावित किया है । बल्कि मे री डे ब ्यू एल्बम का टाइटल ट्रै क , ‘कालकाजी टू
खिड़की’, दोनों स्थानों के बीच ऑटो रिक्शा के सफर से प्रेर ित है । दस ू रे ट्रै क का नाम ‘लै न ्डॉर की हवा’,मे री लै न ्डॉर की 2017 के सफर को समर्पित है । ‘बोधगाँ व बु ल ाये ’ , अरावली के पहाड़ों के बीच एक छोटे से सु न ्दर गाँ व के मे रे सफर को समर्पित है । मैं ने अपने वाद्ययं त्रों के खास नाम भी रखे हैं , ये सभी मे रे छोटे से परिवार का हिस्सा हैं । ‘लै ल ा’ मे री पहली दोस्त है , गोवा से है । ‘मीरा’ को अपना नाम वसं त कंु ज में एक समु द ाय के लोगों के साथ कॉन्सर्ट में एक पे ड़ के नीचे बिताये खू ब सू र त पलों से मिला है । ‘मच्छ्लू’ को डलहौज़ी के एक टी स्टाल से यह नाम मिला है , जो कि मे र ा द स ू रा घर है । ‘वे द ’ मे र ा सबसे नया साथी है , मे रे दादाजी के नाम पर है , जो वर्षों से मे रे सबसे बड़े चीयर-लीडर रहे हैं । ‘कालकाजी’ और ‘खिड़की’ दोनों ही मे री काम की जगहें हैं । मे रे दोस्त कहते हैं कि मैं दोहरी ज़िन्दगी जीता हूँ - ”दिन में एक सामजसे वी और अध्यापक और रात को सं गीतकार”। इस ‘दोहरी पहचान’ के निशान मे री जड़ों से जु ड़े हैं । यह सं गीत कहाँ बनता है ? यह प्रे र णा कहाँ से आ रही है ? ज़िन्दगी में मु झे सामाजिक कार्य कर्ता और शिक्षक होने के लिए कौन प्रे र णा दे त ा है । सारे जवाब स्थानों में छु पे हैं । ये बुनि यादी बातों में है , प्रे र णा के स् रोत इन दोनों जगहों में प्र त ्यक्ष और अप्र त ्यक्ष रूप में हैं । कालकाजी दिन के समय अनजान सा लगता है , क्यूंकि ज़्यादातर रिकॉर्डिंग सै श न रात को
फ र ए ट ो व ड्रीम ...
ॉर
अशीम बे री
अमाला दसरथी
खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2019
खोज इं टरनेशनल आर्टि स्ट एसोसिएशन द्वारा सहयोग और प्रकाशन