Khirkee Voice (Issue 4) Hindi

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खिड़की आवाज़

पतझड़ संस्करण

अंक #4

3

दिल्ली, भारत

लघु अर्थव्यवस्था पर विशेष अंक

स्मार्ट सिटी की आत्मा

जर्मन अर्थशास्त्री स्थानीय अर्थव्यवस्था से प्रभावित हुआ

मौसम की रिपोर्ट स ि त म्ब र से न वं ब र 2 0 1 7

12 पन्ने

आगाज़ के साथ सीखने के नए तरीके

11

9

“एक देश , एक टैक्स” से जूझते स्थानीय व्यापार

तस्वीर: महावीर सिंह बिष्ट

गर्म और नम, नवम्बर के अंत तक ठं डा डेमेरारा, गुयाना

गर्म, ज़्यादातर धूप, हल्की-फुल्की बारिश

हेडलबर्ग, जर्मनी

आं शिक धूप, बादल से घिरा हुआ, नवम्बर तक ठं ड और बारिश

महावीर सिंह बिष्ट

लो

लेगोस, नाइजीरिया

गर्म, आं शिक धूप, बीच-बीच में बारिश

मोगदिशु, सोमालिया

गर्म, आं शिक धूप, बीच-बीच में बारिश

चित्रण: अनार्या

पटना, भारत

हल्की बारिश, धूप, धीरे-धीरे तापमान में कमी

गगन सिंह के सहज रेखा चित्र

3

घटते मुनाफे के बीच, हँ सी मज़ाक और एक दस ू रे का साथ, हाल ही में लागू किये गए जीएसटी को समझने की जद्दोजहद और दवु िधा से उबरने में मदद करते हैं।

अपनी खराब आर्थि क स्तिथि के बीच खिड़की की बहुत-सी कबाड़ी की दुकानों में से एक के कर्मचारी मस्ती-मज़ाक करते हुए।

काबुल, अफगानीस्तान

ज़्यादातर धूप और गर्मी, नवंबर में ठं ड

के सहयोग से

गों को अक्सर बोलते सुना है कि मोदी जी एक अनोखे नेता हैं। जो मन में आये, करके दम लेते हैं । हाल ही में उनके नेतृत्व वाली केंदरी् य सरकार ने ‘एक देश, एक टैक्स’ के नारे के साथ जी.ऐस.टी. बिल को लोगों के सामने पेश किया। कई लोगों ने इसे क्रांतिकारी बिल कहा, कई समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आख़िर यह बला क्या है! सरकार का कहना है कि इससे व्यापार करना आसान हो जाएगा। खिड़की जैसे मध्यम और छोटे वर्ग के व्यापारियों वाले समुदाय पर इस बिल के प्रभाव को समझने के लिए हमने खिड़की गाँव के व्यापारियों से बात की। सबसे पहले हम यह समझ लें कि खिड़की एक शहरी गाँव हैं, जहाँ मध्यम और छोटे वर्ग के व्यापारियों की जनरल स्टोर, केमिस्ट, रेस्टोरेंट, बिजली, कपड़ा तथा अन्य ज़रूरती सामानों की दक ु ानें हैं। ज़्यादातर दक ु ानें असंगठित क्षेत्र के दायरे में आती हैं। जी.ऐस.टी. की रूपरेखा इस तरह से बनाई गई है कि कहीं ना कहीं इन दक ु ानों को नियमित करना भी इस बिल का एक उद्देश्य है। बिल लाना एक बात है, पर उसे लागू करने में बहुत सी अड़चनें हैं। भारत जैसे देश में एक बिल को लाना और सभी को एक नज़रिए से देखना ग़लत है। ऐसा सोचना भी विरोधाभास है। उसी तरह जी.एस.टी. में कई विरोधाभास हैं। पहला; इस टैक्स को लागू करने से पहले माना जा रहा था कि सभी सामानों और सुविधाओं पर एक ही टैक्स लागू किया जायेगा ताकि इसे लागू करने और समझने

में आसानी हो । लेकिन इसमें चार स्लैब हैं, 5%,12%, 18% और 28%। ऐसा माना जा रहा था कि 28 % टैक्स सिर्फ लक्ज़री सामानों पर लगाया जायेगा लेकिन मूलभूत चीज़ों पर भी इसे लागू किया गया है। कई वस्तुओं के लिए स्लैब निर्धारित कर पाना भी कठिन है।

हमने उनसे कहा कि ऐसा माना जा रहा है कि जी.एस.टी. से सबको फायदा होगा, उन्होंने तपाक से जवाब दिया कि इसके फ़ायदों को समझ पाना अभी मुश्किल है। साथ ही एक छोटे व्यापारी को साल में 36 रिटर्न भरने के लिए एक और आदमी को नौकरी पर रखना पड़ेगा। खर्च बढ़ेगा।

हमने खिड़की के जे-ब्लॉक के ‘वर्मा मेडिकोज़’ के एस.के. वर्मा से बात की। वे कहते हैं कि जी.एस.टी. आने के बाद परेशानी बढ़ गई है। यह टैक्स एक दोहरी मार की तरह है। अभी तक हम विमुदरी् करण से उबर भी नहीं पाए कि इस नए टैक्स को समझने में लगे हुए हैं । उनका मानना है कि इस तरह के बिना तैयारी के लगाए हुए टैक्स से डीलरों से आने वाली सप्लाई कम हो जाती है। हम दवाई जैसी ज़रूरी सामानों को बेचते हैं, ऊपर से माल ही नहीं आएगा तो ग्राहक को बेचेंगे क्या? कई बार ग्राहक को खाली हाथ जाना पड़ता है। दस ू री दर्जे की दवाओं के दाम बढ़ने से दवाओं की सप्लाई भी कम हो गयी है।

दस ू रा; माना जा रहा था कि इस टैक्स से गरीबों को फायदा होगा । अगर मूलभूत चीज़ें जैसे कि तेल, साबुन आदि पर 18 से 28 % टैक्स हैं और काजू, पिस्ता बादाम जैसी चीज़ों पर 5% टैक्स है,तो गरीबों को किस तरह का फ़ायदा होगा इसका अनुमान लगाना कठिन है। इस टैक्स को छोटे और मध्यम वर्ग के व्यापारियों को समझने में वक़्त लगेगा, साथ उनके ही यह उनके छोटे-छोटे मुनाफ़े में सेंध कि तरह है। जिसका सीधा प्रभाव मध्यम वर्ग और निचले वर्ग के ग्राहकों पर पड़ेगा। हमने हौज़ रानी में इलेक्ट्रि कल्स की दक ु ान चलाने वाले तनवीर अहमद से बात की । वे कहते हैं कि बड़े व्यापारियों को इस टैक्स से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बिजली के सभी सामानों पर 28% टैक्स है। खरीद ही अगर महंगी होगी तो बेचेंगे क्या? कमाएं गे क्या? अचानक आये इस से टैक्स से पुराने स्टॉक को निकालना एक सरदर्दी है। साथ ही एकाउं ट्स को मेन्टेन करने का खर्च बढ़ेगा। कम से कम एक कंप्यूटर-ऑपरेट करने वाला लड़का चाहिए। ऑपरेटिंग कॉस्ट बढ़ने से सीधा-सीधा मुनाफा कम होगा। तो सवाल यह उठता है कि, क्या यह टैक्स उन लोगों के लिए है जो पहले से ही बड़े व्यापारी हैं? यह किस तरह का आँ कलन है जिसमें सबसे निचले स्तर का व्यापारी और ग्राहक ही पिसता है।

इसके बाद मैं अश्वनी जी से मिला,जिनकी हौज़ रानी के बग़ल वाली गली में ज्वेलरी की एक दक ु ान है। उन्होंने कहा कि सरकार को टैक्स बढ़ाने की बजाय व्यापार बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। टैक्स यदि कम होगा तो छोटा व्यापारी ख़ुद ब ख़ुद नियमित हो जाएगा। इससे एक बात तो समझ आयी की हमारे देश के मध्यम वर्ग के व्यापारियों की बुद्धि पॉलिसी बनाने वाले लोगों से बेहतर है। टैक्स सरल करने की बजाय, पुराने टैक्स को नए जामे में पेश करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। तीसरा विरोधाभास, अशिवनि जी की बातों से ख़ुद ब ख़ुद बाहर आया। शराब और पेट्रोल जैसी वस्तुओं पर फ़्लोटिंग टैक्स जी.ऐस.टी. के सरलीकरण के मूलभूत सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ाता हुआ नज़र आता है। जहाँ एक ओर दनि ु या भर में पेट्रोल के दाम घटे हैं, वहाँ पेट्रोल का जीएसटी की जद में ना आना कई सवाल खड़े करता है। सी.ए. गुलशन शर्मा कहते हैं कि छोटे व्यापारी पर इसका सीधा असर होगा क्योंकि उनके लिए यह टैक्स समझने और लागू करने में कई अड़चने हैं । उनकी सेल्स में गिरावट आएगी और बुक कीपिंग का खर्चा बढ़ेगा । सभी से बात करने पर यह समझ आने लगा कि जी.एस.टी. एकीकरण करने वाला सरल टैक्स तो नहीं है। इससे हर बार की तरह छोटे व्यापारियों के लिए कोई आश्वासन नहीं है। उन्हें इससे होने वाली असुविधा और इसके फ़ायदों को समझने में वक़्त लगेगा।


खिड़की आवाज़ • पतझड़ अंक 2017

नर्सरियाँ

1. सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट गवर्नमेंट नर्सरी, महरौली* एफ-9, शहीद जीत सिंह मार्ग, ब्लॉक ए,कटवारिया सराय, दिल्ली-110016 2. डिपार्टमेंट ऑफ़ फॉरेस्ट एं ड वाइल्डलाइफ हौज़ रानी फॉरेस्ट नर्सरी* महरौली-बदरपुर रोड, सैनिक फार्म नई दिल्ली-110044 3. डी.डी.ए. चिराग नर्सरी* चिराग दिल्ली, नई दिल्ली- 110017 4. रत्ना नर्सरी -9313221268 एस-145, पंचशील पार्क , मालवीय नगर, नई दिल्ली-110017 5. निर्मल गार्डन सेंटर 9810888537 ए 1 श्री औरोबिन्दो, अदचीनी, ऍनसीईआरटी के सामने, दिल्ली-110017 6. न्यू गार्डन शॉप - 9312509635 ए 1 श्री औरोबिन्दो, अदचीनी, ऍनसीईआरटी के सामने, दिल्ली-110017 7. संतोष क्रॉकरी शॉप 9910562052 शॉप न. 1, 268 एफ/19 मालवीय नगर, नई दिल्ली-110017 8. श्री बालाजी क्रॉकरी शॉप 9911539477 शॉप न. 2, 268 एफ/19 मालवीय नगर, नई दिल्ली-110017 9. शाहरुख़ ( कबाड़ीवाला ) 9958254015 जे 4/70 ए, खिड़की एक्सटेंशन, मालवीय नगर, नई दिल्ली-110017 *सरकारी नर्सरियाँ सोमवार से शुक्रवार सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक खुलती हैं

म खिड़की आवाज़ के चौथे संस्करण को लेकर काफी उत्साहित हैं। मानसून में पानी से भरे गड्ढे तो सूख गए हैं, लेकिन सारा देश नए टैक्स सिस्टम को समझने में लगा हुआ है। बदलते हुए आर्थिक हालात के बीच, पतझड़ के इस संस्करण में

खिड़की की

अर्थव्यवस्था की

अनुकूलनशीलता 2

खिड़की आवाज़ हमारी दनि ु या के इस छोटे से हिस्से को सूक्ष्म-अर्थव्यवस्था- पैसों के लेन-देन के पारिस्थितिकी तंत्र में आजीविका के साधन- के रूप में पड़ताल करेगा। खिड़की हमारे देश की जटिल और विविध अर्थवयवस्था का लघु रूप है- उसकी बहुत सी असमानतायें, विविध पैमानों और विशाल असंगठित क्षेत्र और तेजी से बदलती हुई रफ़्तार। यह आर्थिक ढाँचे के सबसे निचले स्तर पर है। यह असंगठित क्षेत्र के व्यापारों और सुविधाओं का सघन मिश्रण है, जहाँ रोजमर्रा के ज़रूरी सामानों से लेकर, महंगी और विशेष सुविधाओं का लाभ उठाया जा सकता है। यहाँ हम इन व्यापारों के छोटे से हिस्से की पड़ताल करेंगे, साथ ही यह समझने की कोशिश करेंगे कि आजीविका के ये साधन किस तरह संबधित हैं और यहाँ की अर्थव्यवस्था को अनुकूलनशील और सतत कैसे बनाये रख पा रहे हैं। भारत के असंगठित क्षेत्र के पैमाने और पहुँच का वर्ष 2008 की मंदी से देश को बचाने का लोहा पूरी दनि ु या ने माना, जिसमें आरबीआई

की पारंपरिक नीतियों और छोटे स्तर का लेन-देन, उत्पादन और वितरण भी शामिल है। यहाँ आये एक सामाजिक अर्थशास्त्री ने खिड़की की स्वायत्तता और अनुकुलशीलता के बारे में लिखा है और यह चाहता है कि उसके देश में भी इस तरह की लघु-उद्योगों की प्रणाली हो, जो अपनी जरूरतों को पूरा कर सके। खिड़की आवाज़ ने इस संस्करण के लिए बहुत से छोटे व्यापारियों से बात की और पाया कि पिछले वर्ष से हमारी अर्थव्यवस्था में आ रहे नाटकीय बदलावों से असंगठित क्षेत्र के व्यापारियों को सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। एक छोटे व्यापार को बनाने और चलाने के सरलीकरण से दरू , ज़्यादातर लोग अपने बिज़नेस के डिजिटाईज़िंग के बढे हुए खर्चे और ज़्यादा संख्या में रिटर्न भरने को लेकर परेशान हैं। सप्लाई-डिमांड में थोड़ा-सा भी फर्क आने पर छोटे व्यापारों के प्रॉफिट में बड़ा बदलाव आता है। ऐसे हालात में, सभी इस बात पर सहमत हैं कि एक सरल टैक्स और नीति जिसमें व्यापारों को आश्वासन

और सुरक्षा देना सरकारी टैक्स के विस्तार को बढ़ाकर ज़्यादा प्रभावी होगा।बल्कि, ऐसी नीतियाँ जो लोगों पर शक करे, उससे सिर्फ सरकार का ही नहीं बल्कि गरीब आम जनता का भी नुकसान होगा। जबकि 20 लाख से काम का व्यापार जीएसटी के दायरे में नहीं आता, लेकिन उनके लिए इस छूट की ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है। उन्हें उत्पादकों, सप्लायरों और ट्रांसपोर्टरों के साथ व्यापार करना पड़ता है, जिन्हें टैक्स देना पड़ता है और इस बढे हुए मूल्य का बोझ सीधा छोटे व्यापारी पर आता है, जिससे उनका मुनाफा कम हो जाता है। इस अनिश्चितता के बीच खिड़की का पहिया घूमता रहता है।आपस में गुथी हुई दक ु ानें, गलियों में फेरीवाले और आते-जाते लोग, वक़्त निकालकर हमदर्दी दिखाते और हँसी-मज़ाक करते नज़र आ जाएं गे। यह ज़िन्दगी की कठोर सच्चाई को आसान बना देती है- यह जानकर कि सभी एक-सी लहरों से जूझते हुए एक ही नाव पर सवार हैं, सभी सामान्य होने का जामा ओढ़ लेते हैं।


पतझड़ अंक 2017 • खिड़की आवाज़

मेरा जर्मन शहर खिड़की की लघु-अर्थव्यवस्था से सीख क्या सीख सकता है

शा

म सात बजे का वक़्त है, मैं खिड़की की भीड़ भरी मुख्य सड़क पर टहलने निकलता हूँ। मुझे इन गलियों में कई लोग खरीदारी करते, गप्पे-लड़ाते या मोमोज़ की स्टॉल पर चटकारे उड़ाते दीखते हैं। इस भीड़ से दरू जब मैं स्टेशनरी की दक ू ान में घुसता हूँ तो दक ु ानदार सैना जी, अपना रीतिबद्ध नमस्ते करती कुछ चिड़चिड़ाहट में मुझसे पूछते हैं, “आप यहाँ क्यूँ हैं? ऐसा क्या विशेष है खिड़की की इन गलियों में कि आप विदेशियों ने इसे अपना अड्डा बना रखा है।” यह बात मुझे सोचने पर मजबूर करती है कि मेरे लिए खिड़की को इतना विशेष क्या बनाता है? जर्मनी का अर्थशास्त्र का एक छात्र जिसे हाल ही में एक स्थानीय मित्र ने इस मोहल्ले से वाक़िफ़ कराया है। सैना जी कहते हैं, “आपका देश काफी विकसित, संगठित और साफ़ सुथरा है. तो आपको यहाँ क्या आनंद आता है?”

मैं एक ऐसे देश से आता हूँ जिसे अक्सर “विकसित” माना जाता है, जिसकी अर्थव्यवस्था सफल, संपन्न और ग्लोबल है। पर यह निश्चित रूप से एक सटीक विवरण नहीं है। जर्मनी जैसे देश भले ही अमीर हों पर उनकी अर्थव्यवस्था को अपनी खर्चीली जीवनशैली और इंफ्रास्ट्र क्चर (जैसे की बड़े घर, सड़कें और गाड़ियाँ) और लम्बी दरू ियों पर माल के आयत और निर्यात की निर्भरता के कारण बहुत से संसाधनों की ज़रूरत पड़ती है। मेरे जैसे देशों के लिए यह सब एक बड़ी समस्या का कारण बन रहे हैं, क्योंकि ईध ं न, धातु और कई तरह के संसाधन बहुत तेज़ गति से घट रहे हैं, हमारी ज़्यादातर नौकरियाँ, हमारी उपज और उपभोग के उत्पाद और हमारी आमदनी सब इन संसाधनों की उपलब्धता पर आश्रित है। यह मॉडल जिसका हम जर्मनी में पालन करते हैं, भविष्य में कारगर साबित नहीं होगा। इसी कारण कई नागरिक, राजनेता और अर्थशास्त्री इन समस्याओं का हल “लोकल इकॉनमी” यानी “स्थानीय अर्थव्यवस्था”

में ढू ँढ रहे हैं। लोकल इकॉनमी जहाँ ज़्यादातर लोगों की ज़रूरतें स्थानीय उत्पादित माल से पूर्ण हो जायें, जहाँ लोग एक ही जगह रहें और काम करें और पूरी अर्थव्यवस्था कम संसाधनों पर काम करे। लोकल इकॉनमी अपने लोगों के लिए कई फायदे लाती है: वे काफी सस्ती और सतत हैं क्योंकि वे कम प्राकृतिक साधन और सामग्री का प्रयोग करती हैं, इसके अलावा अर्थव्यवस्था के मामले में काफी स्थिर हैं क्योंकि लोग अपना व्यापार खुद संचालित करते हैं। मैं जर्मनी के एक छोटे शहर हीडलबर्ग में रहता हूँ, जिसकी जनसँख्या लगभग खिड़की जितनी है, पर वह एक लोकल इकॉनमी नहीं है। ज्यादातर दक ु ानें वहां स्थानीय व्यवसाय ना हो कर बड़ी व्यापार श्रृंखलाओं का हिस्सा हैं, ज्यादातर उपभोग होने वाली वस्तुएँ बाहर उत्पादित की जाती हैं और वहाँ दक ु ानदार और उपभोक्ता में बहुत ही कम बातचीत और सामाजिक रिश्ता है। इन सब मामलों में खिड़की जर्मनी की ही नहीं और बल्कि दिल्ली की भी काफी जगहों से “विकसित” है क्योंकि यहाँ काफी स्थानीय व्यवसाय हैं और संसाधनों का प्रयोग भी कम है। यह बात है, जो मुझे खिड़की की तरफ आकर्षित करती है: यहाँ मैं वो चीज़ें सीख सकता हूँ जो मेरे शहर की अर्थव्यवस्था से नदारद हैं। खिड़की में टहलते हुए जिस पहली चीज़ पर मेरा ध्यान गया वह थी यहाँ के निवासियों की विविधता, जो की विश्व और भारत की अलग-अलग जगहों से यहाँ आये हैं। ऐसा लगता है की हर व्यक्ति को यहाँ की विविध सेवाओं और यहाँ उत्पादित वस्तुओं से काफी फायदा होता है, जैसे अफगानी से लेकर केरलाई खाने की विविधता, और ऐसे दर्ज़ी जिनकी खासियत भारतीय, पश्चिमी से लेकर अफ्रीकी परिधानों तक हैं। अलग-अलग पृष्ठभूमि और कौशल के लोगो के कारण ही यहाँ यह स्थानीय विविधता संभव है। इससे यह भी फायदा है की खिड़की में ज्यादातर ज़रूरत का सामान पैदल दरू ी पर मिल जाता है क्योंकि यहाँ सब्ज़ीवालो, किराने और अन्य रोज़मर्रा

खिड़की की गलियों में बातचीत

जब मैं यहाँ घूमता हूँ तो बड़ी आसानी से मुझे यह एहसास होता है की यहाँ दक ु ानदारों और ग्राहकों में काफी जान पहचान और दोस्ती है, और दक ु ान मालिक भी अपने ही ग्राहकों जैसे यहाँ की गलियों के स्थानीय निवासी हैं। जब मैं गौतम (जो की पेशे से एक दर्ज़ी हैं) से उनके अपने ग्राहकों से रिश्ते के बारे में पूछता हूँ तो वह कहते हैं “ सबको जानते हैं।” दक ु ानें सार्वजनिक बैठक बन जाती हैं और मोहल्ला जीवंत। अगर इसकी जगह यहाँ लोकल इकॉनमी नहीं होती, तो सड़के सूनी और उबाऊ हो जाती और ऐसी सार्वजनिक बैठकों के लिए लोगों को महंगे कैफे खरीदने पड़ते। खिड़की में इस विविधता के अनोखे मेल, स्थानीय उत्पाद/व्यवसाय और सामाजिक जीवन से एक सतत स्थानीय अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ है, क्योंकि यह सब मापदंड यहाँ रहने को सस्ता बनाये रखते हैं, निवासियों को रोज़गार देते हैं और वस्तुओं ै ा और सेवाओं को कम संसाधनों में मुहय कराते हैं। मेरा शहर हीडलबर्ग खिड़की की स्थानीय सम्मिलित अर्थव्यवस्था के कई विचार अपना सकता है। जर्मन शहर भी खिड़की जैसी जीवंत अर्थव्यवस्था बन सकते हैं, अगर वे खिड़की जैसे थोड़े विविध और लचीले हो जाएँ , वे पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के मायनों में और सतत हो सकते हैं। हेडलबर्ग की शांत गलियों में टहलना

रेखा-चित्र को पढ़ना

की ज़रूरतों की दक ु ानों का नेटवर्क सारी गलियों में फैला हुआ है। हालाँकि हर चीज़ जो यहाँ बिकती है वह स्थानीय उत्पाद नहीं, पर काफी चीज़ें जैसे की विभिन्न तरह के शिल्पकर्म, बढ़ईगीरी, सिलाई और छोटे उद्योग, स्थानीय नौकरियों के उत्पादक हैं, और यह स्थानीय नौकरियां काफी कम संसाधनों के प्रयोग से, बदले में मोहल्ले में ही ै ा कराती हैं। खिड़की में सुरक्षित आय मुहय रीसायकल और रिपेयर की काफी दक ु ानें हैं , जो इस बात की पुष्टि करती हैं की वस्तुएँ बार-बार लम्बे वक़्त तक काम में ली जा सकें, यह सब इसे किफायती और सतत बनाता है।

गगन सिंह

ह चित्र सोचने, पात्रों की कल्पना करने और वस्तुओं के नाटक में अभिनय के तरीके हैं, जिनमे मैं शब्द और छवि में मतभेद नहीं कर सकता। दोनों आपस में एक रिश्ता बनाते हैं। कागज़ पर खींची लकीरों को शब्द एक निश्चित अर्थ देते हैं। यहाँ चित्र पूर्ण रूप से यादों से नहीं बल्कि शायद खिड़की गाँव में बिताये उस विशेष

दिन के प्रति एक सहज प्रतिक्रि या से बनाये गए हैं। इसका मतलब, एक अलग दिन और समय एक नया अनुभव निर्मित करेगा यह प्रस्तुत किये गए रेखाचित्र एक ख़ास बातचीत पर केंद्रित हैं, जिसने उस दिन के भ्रमण के बाकी के संवेदी अनुभवों को बाहर निकाल दिया। भीम सिंह, खिड़की के एक इलेक्ट्रीशियन ने; अपने गलियों में घूमने के रिश्ते और इस गाँव में रोज़मर्रा के जीवन को शान्ति से गुज़र-बसर करने के लिए, किये जाने वाले सामंजस्य की कहानी बताई। इससे एक काल्पनिक मानसिक छवि का निर्माण हुआ, जहाँ आकृतियां एक निश्चित शैली में टकराती हैं । शब्द,क्रि या, या मेरा "उछालने" शब्द का अर्थ और अन्य शब्दों और चित्रों के

नए अर्थ आने लगे। मुझे इसमें दिलचस्पी है की हम अपना जीवन कैसे जीते हैं, कैसा व्यव्हार करते हैं, कैसे समाज काम करता है और कैसे मैं कभी-कभार इस कामकाज के तरीके को बदलता हूँ।

रूढ़िवादी सोच

चित्रण: इता मेहरोत्रा

को बदलती महिला शेफ

उसने मेरे पूर्वचिन्तित विचारों को गलत साबित किया और काफी ड़की में काम करना मेरे कुशलता से अपना काम संभाला लिए काफी चुनौतीपूर्ण है। शुरू में हमारे पास कोई सहायक रहा। इससे पहले मैं नहीं था, तो वे खुद ही बर्तन धोती मोहल्ले के एक कैफ़े में काम करती थीं और वह सब काम भी करती थी थी जहाँ मेरे ऊपर ज़्यादा ज़िम्मेदारी जो उसके नौकरी का विवरण में नहीं नहीं थी। कुछ महीने पहले मैंने थे। जब मैंने पूछा कि उसे खिड़की में नौकरी बदली और अब मैं एक छोटी इस नौकरी का पता कैसे चला, तो कैंटीन को अपने आप मैनेज करती उसने बताया की उसकी दोस्त मीना हूँ। जहाँ यह कैंटीन स्थित है, उस ने बताया (नाम बदला हुआ है ) जो स्टूडियो के प्रबंधक एक महिला शेफ की उस ऍन.जी.ओ. में काम करती को नौकरी पे रखना चाह रहे थे, है, उसकी अच्छी दोस्त है और इसी पर मेरी अपेक्षा के बावजूद- उसी के मोहल्ले में रहती है। मीना मुझे लगता था की कोई महिला उस ऍन.जी.ओ. में में एक साल काम शायद इस काम की कठिनाई को कर रही है और उसे आगे बढ़ने के संभाल नहीं पायेगी। लम्बे घंटों तक लिए प्रोत्साहित करती है। खड़े रहना, बेसब्र ग्राहक और एक साथ कई बड़े ऑर्डर, यह सब कुछ कैंटीन में काम करने से पहले सुमन ऐसे कारण थे जिससे मुझे लगता अपने पति के साथ एक थोक की था कि कोई महिला शायद ही यह दक ु ान चलाती थी। कई कारणों के नौकरी कर पाए। मेरी पृष्ठभूमि एक चलते, जैसे की अपने बीमार ससुर औरतों के हित में काम करने वाले की देख रेख, वे अपनी दक ु ान के गैर सरकारी संगठन से है, इसलिए खर्च नहीं उठा पा रहे थे, इसी कारण यह मेरे लिए यह काफी झूठी सी बात उन्हें दक ु ान बंद करनी पड़ी। दक ु ान थी। इस संस्था में मैंने अपने जीवन के बाद, उसने और उसके पति ने के तीन साल काम किया, और मुझे घर के पास की एक स्कू ल कैंटीन में लगता था की नारीवादी सोच मेरे काम किया। बावजूद इसके की वह दिमाग में घर कर गयी होगी, पर इतनी ही साक्षर है की सिर्फ अपना नाम लिख सके, कैंटीन के खर्चों का निश्चित रूप से ऐसा नहीं था। प्रबंध उसी के ज़िम्मे था। कॉन्ट्रैक्टर असल में, यह बात मेरे दिमाग में के टेंडर ख़त्म होने के कारण उसे बचपन से थी कि महिलायें कभी वह नौकरी छोड़नी पड़ी। शेफ नहीं बन सकती, और वे सिर्फ घर पर खाना बना सकती हैं। शेफ भारत में कई महिलाओं को का काम काफी पुरुष प्रधान होता पारिवारिक दबाव में आकर नौकरी है, ऐसी जगह औरतें मुश्किल से छोड़नी पड़ती है, खासकर अगर ही दिखती थी। इस व्याकुलता के उनके बच्चे हैं और वे संयुक्त परिवार बावजूद, मैंने एक लड़कियों और में रहते हैं। सुमन इन कारणों से हटने महिलाओं के साथ काम करने वाली वाली नहीं थी, उसने कहा की वह स्थानीय गैर सरकारी संगठन से ऐसे परिवार से आती है, जो उसके बात की और उनसे एक उपयुक्त प्रयासों का समर्थन करते हैं। पर उम्मीदवार ढू ंढने में मेरी सहायता उसके विस्तृत परिवार को इस बात करने की गुज़ारिश की। कुछ ही हफ़्तों भी भनक भी नहीं की वह रोज़ काम में उन्होंने मेरे लिए एक महिला ढू ंढी पे जाती है, और वो कहती है की जो इससे पहले एक स्कू ल कैंटीन में अगर उन्हें पता चला तो उसे काम काम करती थी। वह एक परीक्षण के पर आने की अनुमति नहीं मिलेगी, लिए ऑफिस आयी, और उसने एक और इसीलिए वह यहाँ गुमनाम रहने बहुत ही उम्दा चिकन करी बनाई, की ज़रूरत समझती है। जैसी हम में से किसी ने काफी वक़्त से नहीं चखी थी। मैं आश्वस्त थी, हर रोज़ सुमन सुबह 5 बजे उठकर कुछ विचार-विमर्श और प्रबंध के घर के सभी काम निबटाती है।फिर साथ एक इंटरव्यू के बाद, हमने उसे तीन बस बदल या मेट्रो ले, दो घंटे नौकरी पे रख लिया। अभी भी मैं इस में खिड़की पहुँचती है। शुरू के दिनों फैसले लेकर संदेह में थी। में मीना ने उसे रास्ता दिखाया, पर सुमन देवी( नाम बदला गया है) ने अब वह खुद ही अपना आना-जाना कैंटीन की नौकरी जून में शुरू की, कर रही है। सुमन एक संयुक्त परिवार इस बात को दो महीने हो गए हैं। में रहती है, और वह बताती है 9 देविका मेनन

खि

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खिड़की आवाज़ • पतझड़ अंक 2017

ख़ास पेशकश

बलपूर्व क समुद ्र में ले जाया गया एक कलाकार की अपनी पर्दे के जबरन प्रवास की गाथा की चौथी किश्त

डेमेरारा में और भीतर तक शब्द और कलाकृतियाँ

एं ड्रू आनंदा वूगेल

मने हमारा आखिरी अध्याय पोलो पर छोड़ा था, वह एक स्थानीय गन्ने के खेत का करे् न चालक है, जो की जोखिम उठाकर बाग़ान में अपनी दैनिक नौकरी छोड़ एसेक्विबो नदी में उतरने को एक नाववाला ढू ंढ रहा है। कुछ हफ्तों पहले, एक शाम जब बाग़ान के घरों की दीवारों तक से पसीना टपक रहा था, पोलो अपनी रात की ड्यूटी ख़त्म कर एक रम और मछली की दक ु ान में गया। दक ु ान खाली थी, बस एक ज़ोर से ख़र्राटे लेते व्यक्ति के अलावा, जो की स्पष्ट रूप से काफी रम पिये, और अपर्याप्त मछली खाये हुए था। पोलो ने अपनी रम मंगवाई और वह दक ु ान के बाहर बैठे हज़ारों कीड़े मकौड़ों की टर्र -टर्र , कटकट के स्वर वाले जोर के ऑर्के स्ट्रा को सुनने लगा। उसने इनमें कई लय और राग ढू ंढे, इसी बीच उसका ध्यान उस व्यक्ति पर गया जो खर्राटे छोड़ अपनी झपकी से उठ रहा था। उस व्यक्ति ने अपनी अस्पष्ट आँ खों से पोलो को देखा, और कुछ बड़बड़ाता हुआ, धीरे से खुद को उठा के दक ु ान के बाहर अँधेरी रात में निकल गया।पोलो 4

की आँ खें उसका पीछा करती रहीं, जब तक वह घुप्प अँधेरे में ओझल न हो गया, फिर उसकी खाली की हुई जगह पर आराम करने लगा। उसी जगह, उसका ध्यान एक मुड़े हुए कागज़ के टु कड़े की तरफ गया।उसने कागज़ को उठाकर मेज़ पर सपाट किया। टंगस्टन की धूमिल रौशनी में उसने नज़र पर ज़ोर दिया। ध्यान से देखने पर एक नक्शा नज़र आया। उसे घसीट कर लिखी हुई रेखाएँ , कागज़ के छोरों से अंदर-बाहर जाती हुई नज़र आई। ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था ‘एसेक्विबो नदी’। नदी के एक घुमाव पर तीर का सा निशान इशारा कर रहा था।तीर का निशान बारीकी से बनायीं हुई आकृति की तरफ इशारा कर रहा था और नज़दीक से देखने पर चित्रलिपिसी नज़र आ रही थी। उसे यह कोई अमज़ोनियाई देवता सा लगा, यहाँ की किसी स्थानीय जनजाति का पूर्व ज या आदिवासी राजा। पोलो को उस व्यक्ति की पहचान नहीं थी, लेकिन उसे मालुम था कि डेमेरारा में कुछ नक्शों पर चलचित्रों का एक ही मतलब होता है: सोना। पोलो ने रम की दक ु ान में इधर-उधर सिर घुमाया, बार के पीछे खर्राटे लेते हुए दक ु ानदार के

अलावा, कुछ छिपकलियां ही थी, बाकी कोई नहीं। उसने नक़्शे को तह किया और अपनी जेब में डाला और झींगुरों की आवाज़ के बीच वहाँ से निकल पड़ा। कुछ हफ़्तों बाद उसके गाँव में मानसून की बारिश हुई। उसने बारिश के तीसरे दिन तक कम होने का इंतज़ार इंतज़ार किया, ताकि अपनी शिफ्ट से बिना बताये निकल जाये। सुबह उठकर उसने थोड़ी सी रम, एक कुल्हाड़ी और दाल रोटी एक पोटली में लपेटी और निकल पड़ा। अपने सोते हुए बच्चों से गुजरते हुए, उसने अपनी पत्नी को, “ माला, वक़्त हो गया है, अपना सामान उठाओ और स्कू ल जाओ”, पुकारते हुए सुना। उसकी सबसे छोटी बेटी सुबह-सुबह जंगल की तरफ गयी होगी। उसने दो हफ्ते पहले कृष्णा फार्म से उसे कॉफ़ी के चुराए हुए बीजों की पोटली के साथ पकड़ा था। उसने सोचा वह फिर से कोई शरारत कर रही होगी। इस उम्मीद में कि उसकी पत्नी को पता ना चले, पोलो झोपड़ी की पिछली खिड़की से कूदकर निकल गया। जैसे-जैसे वह नदी किनारे नाविक के घर की तरफ जा रहा था, तो सुबह की ओंस की बूँदें बागानों के

पौधों पर मोती की तरह चमक रही थीं।नाविक सवारी और किराये का इंतज़ार कर रहा था।पोलो थोड़ी अतिरिक्त रम और सरकारी राशन लाया था। उसे उम्मीद थी कि वह नाविक को नक़्शे में दर्शायी हुई जगह तक ले जाने के लिए मना लेगा। पोलो छोटे और जीर्ण घाट की तरफ बढ़ा जिसमें आवारा और रंगबिरंगी नावें सजी हुई थी। पहली नज़र में नावें, नावें कम और डोंगियाँ ज़्यादा लग रही थी जिसमें बाहर की तरफ मोटर लगी हुई थी।देखने पर इनमें पानी में उतरने की हिम्मत ख़त्म हो जाये। पोलो को राम मिला, जो अपनी फिरोज़ी रंग की नौका पर अखबार पढ़ रहा था। पोलो ने पूछा,”कैसे हो राम?” “मैं ठीक हूँ”, राम ने जवाब दिया। राम ने पोलो की तरफ देखा, उसके हाथ पर कुल्हाड़ी और कंधे पर पोटली को देखा तो तुरत ं समझ गया कि पोलो के दिमाग में कुछ तो चल रहा है।”मुझे टहलने जाना है”, पोलो ने राम को कहा। “हाँ, और मिस्टर पोलो आप टहलने पर कहाँ जाना चाहते हैं?” राम ने तपाक से पूछा।”मुझे पीछे की तरफ जाना है”, पोलो ने जवाब दिया।”हे जीसस, यह

पीछे की तरफ जाने के लिए बहुत जल्दी है”, राम ने संकोच में कहा। पोलो को पता था कि इस बात को समझाना मुश्किल होगा, तो उसने तुरत ं एल डोराडो रम की बोतल निकाली “ओह मुझे समझ आ गया!”, राम ने प्रसन्न होकर जवाब दिया। पोलो राम की नाव की तरफ बढ़ा और जल्दी से बोतल खोली और दो कप निकाल लिए।”आओ मजे करते हैं।”पोलो ने रम का एक बड़ा शोट राम के लिए उड़ेला और एक अपने लिए। जैसे ही वे दोनों रम की बोतल खाली करने लगे तभी चुप-चाप उफनती कोला क्रीक, जिसका काले रंग का पानी अमेज़न नदी से आता है, सुबह के ज्वार से भरने लगी। “अच्छा जी, अब कहाँ की ओर चलना है मिस्टर पोलो” राम ने मुस्कु राते हुए पूछा। “ यह रम मेरे दिल में गहरी उतर चुकी है राम, और यह जंगल आज हमारे लिए कुछ लेकर आया है।” पोलो बोला। “चलो ठीक फिर, लो ये चले हम।” इसी के साथ राम ने अपनी नाँव कोला क्रीक में उतार एसेक्विबो नदी की ओर बढ़ा ली। एसेक्विबो और अमेज़ॉन की छोटी बहन, कोला क्रीक, धीरे धीरे बल


पतझड़ अंक 2017 • खिड़की आवाज़

खाती हुई भीतरी क्षेत्र से तट की ओर जाती है। एसेक्विबो से जुड़ने से पहले कई गाँव और मंदिर इसके किनारों पर देखे जा सकते हैं। एसेक्विबो पर पहुच ं ने पर पेड़ आसमान को छूने लगते हैं और आप किनारों में भीतर चुप चाप बैठे जीवों की आपको घूरती नज़र महसूस कर सकते हैं। और भीतरी भाग में उतरने से पहले कुछ रम और पेट्रोल की चौकियों के अलावा वहाँ कोई गाँव बस्ती नहीं है। हरा भरा जंगल आपके आस पास मंडराता है और एक घनी नम हवा अपने साथ जंगल की भिन्न निराली खूशबूएं ले आपकी नाक में प्रवेश करती है। एसेक्विबो अपनी धुन में बल खाती, कभी किसी तालाब जितनी चौड़ी, और कभी किसी रस्सी जितनी पतली, कभी शांत और कभी उफान खाती, अपने सभी यात्रियों को और गहरे जंगल में खींचती है। पोलो और राम नदी के एक अजीब घुमाव पर पहुच ं े जहाँ नक़्शे पर तीर, अंदर की ओर इशारा कर रहा था, पोलो ने एक शांत किनारे पर राम को नाव लगाने का इशारा किया। राम से उत्सुकता से आस पास देखा। उसने इन जंगलों में कई नरभक्षियों और काले जाद ू की कहानिया सुनी थी। जैसे ही उसने अपनी नाँव किनारे पर लगायी उसका ध्यान जंगल के किनारे पर बंधे एक लाल कपडे पर गया। यह उन दोनों के

साक्षात्कार

पूजा सूद

पोलो ने अपनी कुल्हाड़ी उठायी और नाँव से कूद जंगल में ओछिल हो गया। पेड़ों और ज़मीन पर बैठे जीवों की नज़रों से खुद को बचाता हुआ, दबे पाँव वनस्पति मालिनी कोचुपिल्लै द्वारा और लताओं से जुझता हुआ वह तेज़ गति से जंगल के भीतरी भाग से निकल गया। लगभग एक घंटे हरियाली में चीर फाड़ करने के बाद उसे पानी गिरने की सौम्य ध्वनि सुनाई दी, जैसे वह उस ध्वनि के और करीब पहुँचा, उसे एक खुला मैदान दिखाई दिया। वह खुले मैदान की ओर बढ़ा तो वह सौम्य ध्वनि एक प्रचंड गर्जना में बदल गयी। उसने नीचे देखा तो उसे जंगल के किनारे से लगभग एक मील नदी में गिरता एक बलपूर्व क झरना दिखाई दिया। आसमान स्पष्ट और चमकदार नीला। पोलो ने अपनी बांह पर बैठे मच्छर मारते हुए नीचे गड़गड़ाते हुए भूरे पानी को देखा। अब पोलो, राम और एसेक्विबो से दो घंटे की दरू ी पर था। उसने वह नक्शा निकला और खोला जिसके कारण वह इस असामान्य प्रातःकालीन यात्रा पर था। उसने ध्यानपूर्व क उकेरी गयी उस लकीर को देखा। उसकी नज़रें खिड़की में, खोज पिछले 15 सालों से है और उसने खिड़की और अपनी उपस्तिथि को नक़्शे की सतह से गुज़रती हुई उस खतरीले झरने पर पहुच ं ी। पोलो बदलते देखा है। हमनें खोज की डायरेक्टर, पूजा सूद से समुदाय के साथ पिछले कुछ की नज़र दस ू री ओर चट्टान पर बने एक पतले, शायद तराशे हुए, वर्षों में उनके बदलते रिश्तों और भविष्य की योजनाओं के बारे में बात की। पथ पर गई । उसने अपनी शैतान

“हम यहाँ मुख्य रूप

से कलाकारों के लिए

हैं, और समुदाय से अगर

किसी की दिलचस्पी या

जिज्ञासा है तो उसका

आपसी सद्भाव के साथ भरपूर स्वागत है।”

सामने पृष्ठ पर, बायें: नाविक, सिल्वर जिलेटिन प्रिंट, 2007 सामने पृष्ठ पर, दांयें: ओमेरोस,सिल्वर जिलेटिन प्रिंट, 2017 नीचे: नेलमै ्प की आत्मा, 2017

मालिनी कोचुपिल्लै: खोज यहाँ खिड़की में वर्ष 2002 में आया, तब खिड़की कैसा था ? क्या आपको शुरू में हैरानी हुई जब आप यहाँ आये ? क्या-कुछ बदला है ? पूजा सूद: मैं 2001 में, यहाँ बसने से एक साल पहले एक रेजीडेंसी के लिए आई थी। मॉल के आने से पहले, यहाँ गाँव जैसा ही माहौल था। मेरे लिए हैरान करने वाली बात यह थी कि यह पूरी तरह पुरुष प्रधान था, सडकों पर औरतें नज़र ही नहीं आती थी। शाम को बेसमेंट की वर्क शॉप में काम कर रहे कारीगरों के झुण्ड, जो दिन में नज़र नहीं आते थे, गलियों में चाय और किराने की दक ु ानों के अपने अड्डों पर जमा हो जाते । कभी-कभी गली में हाथापाई की खबरें आतीं, पर लोगों की चहल-पहल के कारण हम सुरक्षित महसूस करते।

2004-05 के आसपास मॉल और अस्पताल आने से खिड़की के माहौल में तेज़ी से बदलाव आने लगा। इससे यह समस्या हुई कि इलाके का भूजल सूख गया। इसके आलावा जनसांख्यिकी में उल्लेखनीय बदलाव दिखने लगा। यहाँ अलग-अलग संस्कृ तियों के लोग, स्टाइलिश छात्र और कामकाज़ी युवाओं के आलावा महिलायें भी नज़र आने लगी।

लिए संकेत था कि उन पेड़ों के पर वूडू (काला जाद ू ) किया गया है। कोई नदी छोड़ जंगल में और गहरा उतरना चाहे, तो उसके लिए वह चेतावनी के रूप में बाँधा गया होगा। “मैं और भीतर नहीं जाऊंगा” राम ने पोलो से कहा। पोलो को पता था कि इस गहरे जंगल में किसी को अपने साथ ले जाने के लिए मनाना बहुत ही मुश्किल होगा। पोलो ने बची हुई रम राम को दी और कहा, “ मेरे लिए यहीं प्रतीक्षा करो, मैं कुछ घंटों में वापस आता हूँ। “

बेटी माया और उनके पड़ोसियों के कॉफ़ी फार्म में उसके सुबह के नटखट अभियानों को याद किया। वह मुस्कु राया और चट्टान वाले पथ से होता हुआ झरने के मुँह की ओर बढ़ चला।

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मालिनी: इस दौरान, एक संस्थान के रूप में खोज का विकास कैसे हुआ है ? समुदाय से संवाद करने के पीछे आपकी प्रेरणा क्या रही? पूजा: जब हम यहाँ आये तो शुरू-शुरू में हम केवल सहज महसूस करना चाहते थे और यहाँ के लोगों के साथ विश्वास बढ़ाना चाहते थे। हम से पहले प्रदीप सचदेवा का लोगों के साथ बहुत अच्छा रिश्ता था, हम उसी भावना को आगे बढ़ाना चाहते थे। शुरुआत से हमें इस बात की जिज्ञासा प्रेरित करती रही कि कला और कलाकार किस तरह समुदाय में बदलाव ला सकते हैं। हमने आस्था चौहान के साथ गलियों में म्यूरल, दक ु ानों का नवीनीकरण और मंदिर के साथ काम किया, ताकि

हम पंडित जी और समुदाय के मुख्य लोगों को जान पायें और एक कला के संसथान के रूप में अपनी पहचान को उन्हें बता सकें। इसके आलावा, हर रेजीडेंसी के साथ कुछ कलाकार, खिड़की के माहौल से स्तब्ध होकर, समुदाय के साथ काम करते। मुझे याद है एक इन्डोनेशियाई कलाकार ने एक कमर्शियल ड्राइवर के टेम्पो को पेंट करना अपने प्रोजेक्ट के तौर पर चुना। वह दिन में पूरे दिन सोता और रात को टेम्पो पेंट करता। ओपनिंग के दिन उसका अपने नए दोस्त टेम्पो ड्राइवर के साथ भोजन करना ‘ओपनिंग’ से ज़्यादा महत्वपूर्ण था। हमारे बहुत से परफॉरमेंस कलाकार ऐसे होते हैं, जो खुद को पेंट कर गलियों में जाते हैं। मुझे लगता है लोग हमें पागल कलाकार समझते हैं, जो हमेशा कुछ अजीबोगरीब करते रहते हैं, साथ ही हम उनके लिए हानिरहित और दखल न करने वाले कलाकार हैं। हमने समुदाय के साथ हमेशा एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाये रखा है, हम चीज़ों को हमेशा प्रोफेशनल रखना चाहते हैं, ताकि लोग हमारी स्पेस की इज़्ज़त करें। हम मुख्य रूप से यहाँ कलाकारों के लिए हैं, यदि समुदाय से कोई कला के प्रति जिज्ञासा और रूचि दिखाता है तो उसका तहे दिल से स्वागत करते हैं, कि आए और हमसे आपसी सद्भाव का एक रिश्ता जोड़े।

मालिनी: समुदाय के साथ आपका संवाद किस तरह से बढ़ा है, क्या आप समुदाय से जुड़े हुए मौजूदा प्रोजेक्टों पर प्रकाश डालेंगे और आपको क्या प्रेरित करता है? पूजा:पहले हमारी कोशिशें और संवाद बिखरे हुए होते थे, जो मूल रूप से रेसिडेन्सियों, कलाकारों और प्रोजेक्टों पर निर्भर होते थे । मैं निरंतरता के आभाव से संतुष्ट नहीं थी, और ऐसा प्रतीत होता था कि बराबर का आदानप्रदान नहीं है- हमेशा कलाकार को समुदाय के मुकाबले ज़्यादा फायदा मिलता था।समय के साथ हमनें ऐसे

प्रोजेक्ट करने शुरू किये जिनसे दोनों को फायदा पहुँचे। इसीलिए हम इस अखबार को मदद कर रहे हैं, जो कि समुदाय और समुदाय की विविधता के बारे में है, इससे कलाकार और लोगों को बारबार फायदा हो रहा है। यहाँ हम उनके मतलब की चीज़ों पर ध्यान दे रहे हैं।यह खोज के लिए मायने रखता है क्योंकि हम कलाकारों और उनके सिर-चकराने वाले विचारों को हमेशा मदद करना चाहते हैं और समुदाय के साथ एक सकारात्मक संवाद स्थापित करना चाहते हैं।

स्वाति जानू की फ़ोन रिचार्ज की दक ु ान, अब एक रिकॉर्डिंग स्टूडियो में विकसित हो गई है, जिसका मूल; बहुत ही सरलता से अन्तर में विश्वास ढू ंढना- म्यूजिक, वीडियो और कहानियाँ को साझा करने के माध्यम से । जहाँ समुदाय के लोग फुर्सत से मिलकर बातचीत कर सकें। यह एक जैविक प्रक्रि या की तरह है। इसने मुझे दीर्घकालिक संबंधों के बारे में सिखाया है, जिसकी लय को मैं बदलकर धीमा और सोचा-समझा हुआ करना चाहती हूँ। हमारे पुराने प्रयासों की अच्छी बात यह रही कि इनमें हमने अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाई और समुदाय के बारे में बहुत कुछ सीखा। इसने हमें अपनी कार्यप्रणाली को बदल कर दिलचस्प प्रोजेक्ट करने के लिए प्रेरित किया।

मालिनी: इन प्रयासों से आप क्या हासिल होता हुआ देखते हैं ? पूजा: मेरी प्रेरणा ‘मालेगाँव का सुपरमैन’ नाम की एक डाक्यूमेंट्री है जो मालेगाव के लोगों का सिनेमा के प्रति जूनून को दर्शाती है।मालेगाँव, महाराष्ट्र का एक छोटा-सा गाँव है। हमनें हाल ही मैं उसे खिड़की के लोगों को जामुन पार्क में स्क्रीन किया। अगर हमारे प्रोग्राम के जरिये हम बच्चों को एक छोटी फिल्म बनाना सीखा पायें, लेकिन कला की संवेदनाओं के साथ, तो कितना अच्छा होगा।

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खिड़की आवाज़ • पतझड़ अंक 2017

ऊषा, टेलर

मनोहर गुप्ता, रद्दी का बिज़नेस

अमित कुमार, फोटो स्टूडियो

मुराद अली, आर्टि स्ट और टीचर

सलमान, मीट शॉप और रेस्टोरेंट

मैरिस, हेयर ड्रेसर

राजेश काज़ी, चौकीदार

यास्मिन खान, टेलर

एम. डी. मुक्तसर, कॉन्ट्रैक्टर

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पतझड़ अंक 2017 • खिड़की आवाज़

अब्दुल रहीम, अफगानी आइस-क्रीम पार्लर

अनीता, शेफ

प्रकाश, कचौड़ी विक्रेता

आशा परमार, टेलरिंग मटेरियल सप्लायर

खुदा देत, मोची

शिक रज़ाक, दिहाड़ी मज़दूर

एम. डी. राहिल, दिहाड़ी मज़दूर

शहरी गाँव के जीवन और पेशे

तस्वीरें: विनीत गुप्ता, शब्द: मालिनी कोचुपिल्लै

स्वीरों के माध्यम से खिड़की को समझने की कोशिश में, हम यहाँ व्यवसायों, वस्तुओं, सुख-सुविधाओं की एक झलक प्रस्तुत कर रहे हैं, जो खिड़की की पतली गलियों में फलते-फूलते हैं। हर रंग और देश के बाहर से आये हुए प्रवासी अपने आसपास के बदलते माहौल के बीच, अपनी रोज़ी-रोज़ी कमाने की कोशिश में लगे रहते हैं। विनीत गुप्ता खिड़की अक्सर आते हैं और इस सीरीज़ के माध्यम से वे आने वाले अंको में खिड़की की कहानियों और चर्चाओं का आगाज़ कर रहे हैं। खिड़की की सबसे ख़ास बात यहाँ की सांस्कृतिक विवधता, सामाजिक वर्गों और जातियों का इतनी छोटी जगह में एक साथ रहना है। हर कोई यहाँ जीने के लिए एक छोटा सा कोना ढू ंढ ही लेता है।

यहाँ दिन, बिज़नेस की डिमांड को पूरा करने, मन-मुटाव दूर करने, पड़ोसियों की मदद करने, उधारी इकठ्ठा करने, चाय की चुस्की पर लड़ते और हँ सी-मज़ाक करने में बीतता है। ज़िन्दगी से भरपूर, खिड़की अनोखे इतिहास और कहानियों का पिटारा है, जो खोजे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। चलिए इन कहानियों के साथ इसकी शुरुआत करें।

गुलाम अली आयाम, अफगानी ब्रेड बेकर

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खिड़की आवाज़ • पतझड़ अंक 2017

व्यस्त तहखाने

तस्वीर: वेनेसा लोवेल

खिड़की के प्रॉपर्टी बाजार की नब्ज़ महावीर सिंह बिष्ट ड़की के प्रॉपर्टी बाजार में उतार-चढ़ाव आता रहता है। 2004 में मॉल आने के बाद प्रॉपर्टी की कीमतों में एकदम उछाल आया। किराये और प्रॉपर्टी की कीमतें आसमान छूने लगी। पहले कोई भी रिटायर होता था, तो खिड़की में रहने के लिए मकान लेने के बारे में सोच सकता था। लेकिन आजकल सिर्फ निवेशक और बिल्डर खिड़की में प्रॉपर्टी खरीदना चाहते हैं।निवेशकों के लिए किराये से होने वाली आमदनी मुनाफे वाली होती है। 8-9 साल पहले जहाँ एक 3 बीएचके का किराया 8-9 हज़ार रुपये होता था, आज वही 20-22 हज़ार रुपये में मिलता है। मकानों की कीमतों में भी दोगुने से ज़्यादा उछाल आया है। पुराने और नए निर्माण की कीमतों का फर्क भी लगभग दोगुने से भी ज़्यादा है। पहले एक मध्य-वर्ग का आदमी खिड़की में मकान लेने के बारे में सोच सकता था, लेकिन

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एथनिक लुक्स में हैंड ब्लॉक प्रिंट बनाता कर्मचारी

वेनेसा लोवेल उसे एहसास हुआ कि यदि सिलाई और उत्पाद भी घर में ही होगा तो ड़की की पुरानी इमारतों ज़्यादा मुनाफा होगा और इस तरह के तहखानों में झरोखों ‘एथनिक लुक्स’ का जन्म हुआ। से दिखने वाले एग्जॉस्ट इस क्षेत्र का ज्ञान न होने के बावजूद फैन से अगर आप झाँकेंगे, तो तेज़ी मोहम्मद ने इसकी संभावनाओं को से चलती उँ गलियाँ आपको सिलाई समझा और वक़्त के साथ अपने करती नज़र आ जायेंगी, या कुशल अनुभव को बढ़ाया। अब बिज़नेस कारीगरों द्वारा कपड़े के टु कड़ों पर अच्छा चल रहा है, लेकिन मोहम्मद काम करते या ब्लॉक प्रिंट उकेरते ज़ोर देते हैं कि सब इतना आसान दृश्य नज़र आ जायेंगे।अगर आप नहीं था।शुरुआत में उन्हें निवेश आधुनिक उत्पाद पर मनुष्य की में नुकसान हुआ और वे मानते हैं कारीगरी की क्षमता की जीत देखना कि उन्होंने गलत लोगों पर भरोसा चाहते हैं तो खिड़की एक्सटेंशन किया। कर्ज़े के बावजूद, उनके आईये। ऐसी ही एक जगह ऐथनिक अनुभवों से उन्हें सफलता मिली। लुक्स है, एक कपड़ा उत्पाद कंपनी जो लेडीज़ कुर्ता बनाने में माहिर है। मोहम्मद की कहानी उन बहुत से खिड़की की बहुत सी अंडरग्राउंड लोगों की तरह है, जो शहर बेहतर वर्क शॉप में से एक, ये जबोंग, ज़िन्दगी की तलाश में आते हैं। गाँव स्नैपडील और अमेज़ॉन जैसी में नौकरियाँ न होने और विश्व के कंपनियों को मॉल सप्लाई करते हैं। उद्योगों की जानकारी न होने के बहुत ही छोटी जगह में ये डिज़ाइन, कारण, जबतक वे शहर में नई ब्लॉक प्रिंट, कढ़ाई, काटना, ज़िन्दगी की शुरुआत नहीं करते, सिलना और पैकजिंग एक ही जगह उनके पास मौकों की कमी होती है। करते हैं। एक ही क्षेत्र के होने के कारण उनके बीच अपनापन होता है, यही बात झारखण्ड में टेलरों के एक परिवार ‘एथनिक लुक्स’ के ब्लॉक प्रिंट में जन्मे, मोहम्मद अख्तर ने पहले बनाने वाले कारीगरों में नज़र आती तो पोलिटिकल साइंस में डिग्री ली, है। वे बताते हैं कि पिछले 6 वर्षों अपने परिवार में पहले थे जिन्होंने से साथ में काम कर रहे हैं, वे सभी खानदानी पेशा नहीं चुना। सरकारी यू.पी. और बिहार से हैं। वे साथ नौकरी पाने की चाह में, वे मुंबई रहते हैं और मुश्किल काम को भी चले गए और गुजर-बसर के लिए आसानी से कर लेते है। वे खिड़की बच्चों को पढ़ाने लगे। नौकरी पाना के अनगिनत कामकाज़ी कारीगरों बहुत मुश्किल हो रहा था, तो में से हैं। चाहे ‘एथनिक लुक्स’ उन्होंने सिलाई मशीन बेचना शुरू के डिज़ाइन उम्दा कारीगरी न हों, किया, उसमे उन्हें नुकसान होने लेकिन उनका मकसद यह है भी लगा। फिर परिवार के दबाव के नहीं। वे आजकल, अंतराष्ट्रीय स्तर चलते, 1998 में उन्होंने पैटर्न- पर ‘मास मार्किट’ के लिए उत्पाद मेकिंग का एक कोर्स किया और बना रहे हैं। कंपनी की ऑनलाइन मानेसर में एक पैटर्न मास्टर के यहाँ मार्किट पिछले तीन सालों में काम करना शुरू किया। 6,000 मज़बूत होती जा रही है, और रुपये के मासिक वेतन पर उन्होंने उनकी वर्क शॉप को देखकर रफ़्तार दो साल तक अपने कौशल को धीमी होती नज़र नहीं आ रही है। निखारा। मौका मिलते ही उन्होंने अपना बिज़नेस करने की ठानी और बहरहाल, स्थानीय बिज़नेस ‘एक एक मास्टर ब्लॉक प्रिंटर को 25 % देश-एक टैक्स’ से जूझ रहे हैं। मुनाफे की हिस्सेदारी पर नौकरी पर रखा। बिज़नेस शुरू करने के बाद

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आदित्य कौशिक खिड़की के अपने दफ्तर में

अब बढ़ी हुई कीमतों से उनके लिए यहाँ मकान लेना बहुत कठिन है।अगर किराये-दारों की बात करें तो यहाँ हर वर्ग , धर्म और समुदाय का व्यक्ति घर लेने में सक्षम है।लेकिन समय-समय पर यहाँ कुछ समुदाय बहुतायत में आ जाते हैं। स्थानीय लोगों और प्रॉपर्टी डीलरों से बात करने पर पता चला कि एक वक़्त यहाँ नार्थ-ईस्ट राज्यों के काफी लोग रहते थे। फिर एक दौर ऐसा आया जब अफ़्रीकी मूल के निवासियों की बहुतायत थी। आजकल बहुत से अफगानी यहाँ आकर बसने लगे हैं। लेकिन, यह सामाजिक संरचना बाकी दिनों में मूल रुप से मिश्रित ही रहती है। दिल्ली की बाकी जगहों के मुकाबले किफायती होने के कारण, लोग खिड़की में रहना पसंद करते हैं। हमने यहाँ के स्थानीय प्रॉपर्टी डीलर आदित्य कौशिक से प्रॉपर्टी के मौजूदा हालात जानने के लिए बात की। उनका कहना है कि प्रॉपर्टी का मार्किट सिर्फ

खिड़की ही नहीं पूरी दिल्ली में ठंडा चल रहा है। एक मकान को बेचने में कई साल लग जाएं गे। वे इसका मुख्य कारण विमुदरी् करण को मानते हैं। खरीदारों की कमी हो गई है। बेचनेवाले को कई बार कम दाम में प्रॉपर्टी बेचने पर मज़बूर होना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि यहाँ पानी और सीवेज की बड़ी समस्या है। अगर सुविधाएं बेहतर हो जाएँ तो यहाँ रहना और आसान हो जायेगा। यहाँ गलियों में गाड़ी लाना बहुत बड़ी चुनौती बन जाती है। यदि कहीं आग लग जाती है, तो दमकल गाडी का आना मुश्किल हो जायेगा। आने वाले समय में प्रॉपर्टी मार्किट धीमा होने के कारण इनसे जुड़े लोग दस ू रे विकल्प तलाश रहे हैं। फिलहाल आदित्य कौशिक ने भी एक रेस्टोरेंट खोल लिया है। वे कहते हैं, मौका मिलते ही सब बेचकर वे हरियाणा में ‘बाइक की एजेंसी’ लेकर रहना चाहते हैं। तस्वीर: मालिनी कोचुपिल्लै

अफगानीस्तान के ख़ास ज़ायके

सु

समीर शहज़ाद अमीरी

ल्तान एक ऐसे देश से आता है जहाँ बेगुनाहों को मारने वाले व्यक्तियों से घिरे रहना एक आम बात है। उसने कई समय तक इंतज़ार किया कि उसके देश के हालात सुधरें, कोई अच्छा नेता आये और ज़रूरी बदलाव लाये: पर यह एक सपना ही रह गया और सुल्तान एक शांत और बेहतर जीवन की तलाश में भारत आ गया। अलबत्ता, बिना किसी साधन के एक नए देश में गुज़र-बसर कर पाना काफी मुश्किल है, इसलिए सुल्तान ने एक रेस्त्रां खोलने की सोची, जिसका नाम उसने ‘बामियान बर्ग र’ रखा। बामियान अफ़ग़ानिस्तान का एक प्रांत है जहाँ सुल्तान पैदा और बड़ा हुआ। मोहल्ले में अच्छी अफगानी आबादी को ज़हन में रखते हुए, सुल्तान ने कई तरह के अफगानी फ़ास्ट फ़ूड परोसने का सोचा, जैसे की अफगानी बर्ग र, बोलानी, सम्बुसा, आइस क्रीम और अफगानी चिकन-सूप, जो कि ठण्ड के मौसम में बर्ग र का बखूबी साथ देता है।

अकेले रेस्त्रां खोलने में खुद को असमर्थ पाकर, सुल्तान ने एक बिज़नेस पार्टनर ढू ंढने का सोचा, भाग्य से उन्हें अपने एक रिश्तेदार हबीब का साथ मिला। हबीब ने सुल्तान की कल्पना और रेस्त्रां की संभावनाओं से प्रभावित हो कर सुल्तान का भागीदार बनने का फैसला किया।अब वे दोनों मिलकर रेस्त्रां को चला रहे हैं, और इतने कम समय में जो सफलता मिली है, उससे वे काफी खुश हैं।

हबीब और सुल्तान एक दस ू रे का बराबर हाथ बटाते हैं, अगर एक पकवान बनाने में मशरूफ़ होता है, तो दस ू रा ग्राहकों को संभालता है। वैसे ग्राहकों में मोहल्ले के अफगानी ही ज्यादातर होते हैं, पर आस पास के भारतीय, नेपाली और अफ़्रीकी भी रेस्त्रां की तरफ आकर्षित होते हैं। अफ़ग़ान बर्ग र और चिकन-सूप पूरे अफ़ग़ानिस्तान में एक लोकप्रिय मेल है, इसे स्नैक के जैसे दिन के किसी भी वक़्त खाया जा सकता है- और ऐसा लगता है की इसने खिड़की में अपनी जगह बना ली है। यह बर्ग र, हम जो पारंपरिक बर्ग र देखते हैं उससे अलग है,

यह यहाँ की सबसे बिकने वाला व्यंजन है, बन की जगह इसे रैप से बनाया जाता है, और इसके ऊपर अफ़ग़ानिस्तान से ख़ास लाया गया मसाला छिड़का जाता हैं, जो कि 1000 रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से आता है। सुल्तान का कहना है कि इसी मसाले के कारण बर्ग र को अपना विशेष स्वाद मिलता है, जो कि इसे सबका पसंदीदा बनाता है। चिकनसूप को इन गरम महीनो में बेचना बहुत मुश्किल है, इसलिए सुल्तान सर्दियों का इंतज़ार कर रहा है ताकि वह ये सूप अपने ग्राहकों को परोस सके।

सुल्तान और हबीब दोनों ही इस रेस्त्रां से बहुत खुश हैं, एक हाथ पर जहाँ वो इससे खुद को आर्थिक रूप से संभाल पा रहे हैं, तो वहीँ दस ू री ओर अफगानी खाने और संस्कृ ति का भारत में प्रतिनिधित्व कर दनि ु या भर के ग्राहकों की सराहना बटोर रहे हैं। ‘बामियान बर्ग र’ मोहल्ले के स्थानीय युवाओं का अड्डा बन गया है, सुल्तान की आशा है की वे ऐसे ही कठिन परिश्रम करते रहें और अपने ग्राहकों की बर्ग र की भूख को शांत करते रहें।


पतझड़ अंक 2017 • खिड़की आवाज़ पूजा सूद का साक्षात्कार / पृष्ठ 5 से

आगाज़ की संयुक्ता भी बच्चों को संगीत और नाटक सिखाकर, स्थानीय संगीतकारों की खोज कर रही है। हम समुदाय में खान-पान से जुड़े इवेंट्स कराना चाहते हैं- एक बार एक स्थानीय औरत के साथ करेले की रेसिपी को लेकर बातचीत मुझे याद है। मैं इस तरह के और इवेंट्स कराना चाहूँगी जिसमें अलग-अलग वर्गों के लोग साथ आ सकें।

मालिनी: क्या भविष्य में आपके समुदाय के साथ कोई विशेष प्लान हैं ? पूजा: हम दिसंबर में समुदाय के साथ एक फेस्टिवल प्लान कर रहे हैं, हमारे 20 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में। हमें समुदाय को सम्मिलित करना अनिवार्य लगता है क्योंकि ज़्यादातर वक़्त हम उन्हीं के बीच रहे हैं। यह फेस्टिवल कलाकारों और स्थानीय व्यवसाय के सहयोग से सार्थक होगा- हमें हाल ही में बुनाई करने वाली एक अफगानी महिलाओं के समूह के बारे में पता चला है। हम उन्हें मेले में स्टाल लगाने के लिए बुलायेंगे। हम अपनी छत्त पर एक छोटी मार्किट लगाएं गे, जिसमे स्थानीय लोग; कारीगरी, भोजन इत्यादि के स्टाल लगाएं गे।अगर यह काम कर गया तो इसे सालाना इवेंट बना देंगे। हमारी जड़ें खिड़की में हैं और हम समुदाय के साथ काम करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते, इस संवाद को निरंतर और दीर्घकालीन बनाना चाहते हैं।

स्मार्ट सिटी की आत्मा

स्मा

र्ट सिटी मिशन वर्तमान भारत का शहरी विकास का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। सरकारी और निजी कंपनियों के मिले-जुले आर्थिक सहयोग से बनने वाली, लगभग 90 शहरों के लिए 19 अरब रुपये का बजट निर्धारित किया गया है। इस मिशन का मुख्य मकसद शहरों की आधारभूत संरचना को सुधारना और उनमें आईटी निकाय जोड़ना है ताकि वे कुशल और रहने लायक बन जाएँ । इस मिशन का मुख्य उद्देश्य पूर्ण त: संरचनात्मक है, जो सामंजस्य और एकीकरण सरीखे पहलुओं को पूरी तरह नकारता है। यह लेख खिड़की के उदहारण से एक वैकल्पिक स्मार्ट सिटी की कल्पना करेगा। स्मार्ट सिटी मिशन ने-महत्वकांक्षा और अस्पष्टता- से लोगों की कल्पना को बाँध लिया है। इस मिशन का मुख्य कथन है,” एक स्मार्ट सिटी को परिभाषित करने का कोई तरीका नहीं है...”, ताकि शहरों को अपने हिसाब से इसे परिभाषित करने का मौका मिल सके। ज़्यादातर शहर जिनमें दिल्ली भी शामिल है, ने इस दी गई आज़ादी का पूरा फायदा नहीं उठाया है, साथ ही शहरी विकास के कहे-सुने प्रोजेक्ट ही प्रस्तावित मैरिस का सैलून / इता मेहरोत्रा द्वारा

लेडी शेफ/ पृष्ठ 3 से

सांस्कृ तिक विवधता है। शायद यह साधनों के नज़दीक हैं, जो शहर के दिल्ली के सबसे वैश्विक हिस्सों में दस ू रे हिस्सों तक लोगों को आसानी से है। यह काफी बंटा हुआ भी है। से पहुँचने में मदद करता है। मिशन यहाँ लोगों और उनकी ज़िन्दगियों सस्ते दरों वाले घरों पर खर्च कर को सार्थक और शांतिपूर्ण तरीके से रही है, ताकि लोगों में समग्रता जोड़ने वाले पुलों की कमी है। यह का भाव आये, लेकिन खिड़की में विविधता सिर्फ सांस्कृ तिक ही नहीं पहले से ही हर वर्ग के लोगों के लिए बल्कि आर्थिक भी है। यहाँ मज़दरू उचित दरों पर घर मौजूद हैं। अगर और मध्य-वर्ग एक साथ रहता इस मिशन ने इन क्षेत्रों में पहले से है। यह कॉलोनी गेटों और दीवारों मौजूद संरचनाओं और सुविधाओं से बाँटने वाले शहर के हिस्सों से (सड़क, जल निकास प्रणाली, कहीं ज़्यादा समन्वय और एकीकृत सीवेज, पानी की सप्लाई, बिजली करने वाली जगह है। यहाँ अलग- की तारों को बदलना, स्कू ल और इसके लिए यह तर्क दिया जा रहा है अलग लोग साथ तो रहते हैं, परन्तु कौशल विकास केंदों्र के निर्माण) कि ये छोटे क्षेत्र विकास के ‘प्रकाश विश्वास की कमी के कारण सतह के के सुधार और स्थानीय समुदाय स्तम्भ’ बनेंगे और अन्य शहरों और क्षेत्रों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनेंगे। “अगर मिशन शहर के कम विकसित हिस्सों को ध्यान यहाँ हम खिड़की की बात कर में रखता तो विकास ज़्यादा न्यायसंगत होता, और सकते हैं, क्योंकि, अगर मिशन ने प्रेरणा के लिए उचित उदहारण होता।” कम विकसित इलाकों की तरफ ध्यान दिया होता, तो विकास न्यायसंगत और सही मायनों में नीचे लोगों में गुस्सा भी है। स्मार्ट के लोगों को एक दस ू रे के साथ प्रेरणादायक होता। आखिरकर, सिटी मिशन के विकल्प के रूप काम करने और रिश्ते सुधारने के दिल्ली की घनी आबादी वाले इलाके में, किसी खिड़की जैसे इलाके को लिए प्रेरित किया होता, तो विकास खिड़की के नवीनीकरण से ज़्यादा चुनकर उनकी संरचना सुधारना प्रभावी, सतत और अनुकरणीय सीखेंगे या कनॉट प्लेस के ? और तनाव को दरू कर लोगों में होता। विश्वास को मजबूत करना एक शहरों को नीरस संरचनातक खिड़की के शहरी नवीनीकरण की अच्छा कदम होगा। विकास की बजाय इस मिशन योजना को इस क्षेत्र के फायदों और नुकसान को ध्यान में रखना होगा। खिड़की में बहुत सी विशेषताएँ की संभावनाओं को खोजते हुए, यह घनी आबादी वाला इलाका है हैं, जो इस मिशन को आगे बढ़ा एक सम्मिलित, समग्र और स्मार्ट और यहाँ सीवेज और जल निकास- सकती हैं। यह पैदल चलने योग्य शहर बनाने की ओर कदम बढ़ाना प्रणाली सुचारु नहीं है, साथ ही पानी है। सभी सुख-सुविधायें आस- चाहिए। जैसी मूलभूत सुविधा का आभाव पास हैं। आजीविका के साधन या है। यहाँ के स्थानीय निवासियों में तो दो कदम पर हैं, या यातायात के

पर्सिस तारापोरवाला किये हैं। टॉप 90 शहरों के बजट के

विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि ज़्यादातर फंड (लगभग 80 प्रतिशत ) बहुत ही कम क्षेत्र (शहर का 3%) पर लगाया गया है। जिन शहरों को फं डिंग के लिए चुना गया है, वे पहले से ही संपन्न और अमीर क्षेत्र हैं। जैसे कि दिल्ली ने कनॉट प्लेस को चुना है। इससे मिशन की आलोचना की जा रही है कि अमीर इलाकों का ही उद्धार होगा और वे अति-उत्कृ ष्ट क्षेत्र बन जाएं गे।

मैरिस खिड़की की तंग गलियों के एक छोटे से तहखाने से एक हे यर ड्रेसिंग सैलून चलाती है । जगह कम है , लेकिन वह उसका पूरा फायदा उठाती है ।

कि उसकी सास उसके काम के लिए इतनी दरू जाने पर कई बार शिकायत कर चुकी है। इसपर उसका जवाब होता है की कम से कम वह परिवार की ज़िम्मेदारी की उपेक्षा तो नहीं कर रही, और इसलिए नौकरी छोड़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता। एक दिन मैंने उसे उत्सुकता से पूछा की आज के ज़माने में औरत का काम करना ज़रूरी भी है क्या।उसने जवाब दिया, “घर में बैठ कर क्या करेंगे? अपने और बच्चे का खर्च देख सकते हैं।एक सैलरी से कुछ नहीं होता। खर्चा ज्यादा है। मैं अपने बेटे के लिए मेहनत कर रही हूँ कि वो पढ़ ले बस.” यह शब्द मेरी सोच बदलने के लिए काफी थे। मुझे अंदर से अच्छा महसूस हुआ, और एहसास हुआ कि कैसे कोई महिला कड़ी मेहनत कर अपने परिवार को समर्थन दे सकती है। सुमन अभी भी अपने पति के लिए व्रत रखती है, और अपने परिवार के प्रति समर्पित है। पर यह बात कि वह रोज़ अपने घर से निकल काम पर आती है अपने आप में एक सफलताहै।

मैंने एक बिज़नेस वीज़ा ले लेकर चार साल पह या कि रू शु ना कर म का ा ... यह वीज़ा मिलन ... है ा होत ल कि श् मु बहुत हिए चा कई दस्तावेज़ होते हैं ...

उसके छोटे से कमरे की दीवारें हर रं ग और स्टाइल के हे यर एक्सटें शन और विग के पैकेटों से भरी हुई है । औरतों के बालों को स्टाइल करने में 1 घंटे से 3 दिन तक लग जाते हैं !

मैरिस की अलमारियां अलग-अलग रं ग के बालों के अलावा निराली चीज़ों से भरा हुआ है डिब्बाबंद मछली

मैरीस बहुत से प्रोडक्ट अपनी कोंगो की यात्राओं से लाती है ।

और मैरिस को लगता है कि खुद को यहाँ बनाये रखने के लिए उसे अलग-अलग काम करने पड़ेंगे।

जो प्रोडक्ट मैं घर से लाती हूँ , वे यहाँ के उत्पादों से बढ़िया काम करते हैं ।

टमाटर सॉस हेयर डाई

और डिब्बाबंद मछली

मैरिस कपडा भी निर्यात करती है । सैलून की कमाई घटती-बढ़ती रहती है । उसपर पूरी तरह निर्भर नहीं हो सकती।

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खिड़की आवाज़ • पतझड़ अंक 2017

क्षितिज एक काल्पनिक रे खा है एक शरणार्थी की कहानी संकल्पना और लेखन: बानी गिल और राधा महेन्द्रू सहयोग: फ़ातिमा हसन, मुहम्मद कूफ़ और हाफ़िज़ सचित्र और रूपरेखा: पिया अली हज़ारिका

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पतझड़ अंक 2017 • खिड़की आवाज़

सीखने के नए तरीके

संयुक्ता साहा हैं। इन शिक्षा के इच्छु क युवाओं के माध्यम से हम अपना ध्यान छले वर्ष एक सहयोगी के ‘प्रक्रि या’ पर निर्धारित कर रहे साथ खिड़की में घूमते हैं, साथ ही कलात्मक पर्फ़ोर्म न्स हुए इस घनी आबादी कराना चाहते हैं। थीयटर और वाले इलाक़े की विविधता संगीत के माध्यम से हम भाषा को देखकर मैं हैरान रह गई। की बारीकियों को तलाश रहे हैं, यह इलाक़ा दिल्ली के वर्तमान जो शब्दों और अनुभूति से परे है। सिटीस्के प का सुंदर झरोखा भाग लेने वाले सिर्फ़ ‘क्या’ से ही सा लगता है। यहाँ के स्थानीय नहीं जूझेंगे , पर दर्शकों को बाँधने लोगों में उतनी ही विविधता है, वाला अभिनय भी करेंगे। जितनी बाहर से आए हुए लोगों ( मुख्य रूप से कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता) में होती है। मेरे दिमाग़ में यहाँ की छवि में मंदिर, छोटी दक ु ानें, वॉल-आर्ट और छोटी खुली जगहें आती हैं। मैं सोचती थी कि हम यहाँ कैसे एक सामुदायिक कला प्रोजेक्ट की कल्पना करेंगे।

पि

उम्मीद के मुताबिक़, थोड़ा वक़्त लगा, लेकिन आज हम तांगेवाला समुदाय से 4 से 12 वर्ष के 25 बच्चों के साथ काम कर रहे हैं। युवा लोगों के लिए सामुदायिक लाइब्रेरी प्रोजेक्ट है। वयस्कों के साथ अलग-अलग तरीक़ों से सामुदायिक जगहों पर संवाद और सम्पर्क किया जा रहा है। ‘खिड़की डाइयलॉग्ज़’ विविध, संवेदनशील और जिज्ञासु युवाओं का एक समुदाय तैयार कर रहे हैं, जो कला और सीखने के नए तरीक़ों से आपस में और समाज के साथ नए संवाद करेंगे। युवा बच्चों के लिए आग़ाज़ के प्रोजेक्ट का नाम ‘अन्लर्निंग अनसेंटर्ड’ है, जो कला और खेल के अनुभवों से सीखने के नए तरीक़े खोज रहा है। यह पढ़ाने और सीखने के पारम्परिक तरीक़े जो अक्सर ‘निर्देश रूप’ में होते हैं, से हटकर कल्पनाशीलता और रचनात्मकता को महत्व देती है। अगर सप्ताहांत में आप जामुन पार्क में वयस्कों, युवाओं और बच्चों के झुंड को गाते, झूमते, कुछ बनाते और हँसते देखेंगे तो वे हम हैं। हम युवाओं का एक ऐसा समुदाय बनाना चाहते हैं जो सीखने के तीन ‘आर’ ( रीडिंग, राइटिंग और ऐरिथ्मेटिक) सीखें और साथ ही विचारों का शब्दकोश बनायें, और ख़ुद और आसपास की दनि ु या से सवाल पूछ सकें। प्रगति धीमी है, पर हम लम्बी दौड़ के लिए तैयार हैं।

ऑस्ट्रेलियाई कलाकार डेविड ब्रेज़ियर, खिड़की में दोबारा आये हैं, इस बार उनके प्रोजेक्ट में ‘खिड़की की स्ट्रॉन्गेस्ट महिला’ और ‘खिड़की का स्ट्रॉन्गेस्ट पुरुष’ के खिताब के लिए पंजा लड़ाने की प्रतियोगिता होगी। यहाँ एक सामुदायिक कलाकार के रूप में वे अपनी कला के बारे में बात करेंगे।

‘खिड़की के बाहुबली’, आसिम के साथ डेविड।

ऑस्ट्रिलियाई कलाकार की धमाकेदार वापसी डेविड ब्रेजियर

मैं

हमारा तीसरा प्रोजेक्ट,’क़िस्से कनेक्शन’ है, जो ‘ह्म यू न लाइब्रेरी प्रोजेक्ट’ से प्रेरित है, जो लोगों को एक-दस ू रे की कहानियों से जोड़ती है। पहली बार इसे निज़ामुद्दीन बस्ती में शुरू किया गया। इस प्रक्रि या में वॉलेंटियर जो किताबों का किरदार निभाते, अपनी स्मृति में से एक कहानी दर्शकों को सुनाते हैं। पाठक, कहानी के संदर्भ में ‘बुक’ से सवाल पूछ सकते हैं। सवालों की प्रकृति, पाठक के लिए कहानी की गहराई को उजागर करती है।’क़िस्से कनेक्शन’ के माध्यम से हम लोगों में संवाद के लिए एक मंच तैयार कर रहे हैं, ताकि एक दस ू रे के प्रति सद्भावना हो। इस गतिविधि का मुख्य बिंद ु ‘लेटर बॉक्स’ है। पाठक किताबों के लिए पत्र लिखते हैं। किताबों को पत्रों की एक पोटली मिलती है।

एक ऑस्ट्रेलियाई कलाकार हूँ और ख़ोज में एक रेजीडेंसी के लिए आया हूँ। ख़ोज के साथ मैं पहली दफा नहीं जुड़ा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आगे भी जुड़ता रहूँगा। दनि ु या में मैंने जहाँ भी रेसिडेन्सी की हैं, खिड़की सबसे जीवंत, जटिल और प्रेरणादायक रही है। मैं सोच रहा था कि एक रेजिडेंट कलाकार के रूप में वापस आना कैसा होगा। पहली दफा मैं खोज वर्ष 2009 में आया था। मैं पहले कभी भारत नहीं आया था, यहाँ की चहल-पहल, ऊर्जा, कोलाहल और गंध मेरे पहले के अनुभव में नहीं थी। इस अनुभव ने मेरी संवेदनाओं को झटका सा दिया और दनि ु या को देखने का मेरा नजरिया बदल गया। मेरी पहली यात्रा में मैंने अंतर ढू ंढने का प्रयास किया और दस ू री में समानताओं को।मुझे मालुम था कि

क्या अपेक्षा रखनी है। इन्द्रियों के सैलाब को मैंने पुराने मित्र से मिलने जैसा महसूस किया और जल्द ही उसके ताल और संगीत पर थिरकने लगा।

मेरे काम का एक हिस्सा लोगों से संवाद करना है। खिड़की में समाज से जुडी कला न करना एक अपवाद होगा।लोग काफी मौजूद और मिलनसार हैं। 2009 में केल्दा फ्री के साथ सतपुला बाँध में, मैंने एक क्रि केट मैच कराया था, जिसमें प्रोफेशनल कमेंट्री कराई गयी । कमेंट्री को धूल भरी पिच पर ब्रॉडकास्ट कराया गया और खेल देखने के लिए लोगों की भीड़ जुटने लगी। सतपुला सुपर सीरीज को बाद में खोज ने फुटबॉल मैचों के रूप में आगे बढ़ाया। मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि कैसे क्रि केट जो अंगरेज ् ी हुकूमत के वक़्त अपनाया गया था, आज उपनिवेशवाद का प्रतीक बन गया है। खेल का हिंदी कमेंटरी में विवरण इस बात को ज़ाहिर कर रहा था कि कैसे अंगरे्ज़ों के दौर का यह खेल अब पूरी तरह

भारतीय हो गया है। इस रेजीडेंसी में, मैं बहुत से प्रोजेक्ट कर रहा हूँ, उनमें से एक ‘एक्सेंट न्यूट्रीलाइज़ेशन’ है, जिसका मकसद अंगरे्जी का एक ऐसा उच्चारण ढू ंढ़ना है, जिसका कोई देश न हो, जो किसी जगह से जुड़ा हुआ न हो।’एक्सेंट न्यूट्रीलाइज़ेशन’ मेरे सौंदर्यशास्त्र और नीतिशास्त्र में समकालीन श्रम पर शोध का हिस्सा है, जो वैश्विक स्तर पर कर्मचारियों को एकीकृत करने में इस्तमाल होता है। साथ ही दनि ु या भर में पंजा लड़ाने की प्रतियोगिताओं का भी आयोजन कर रहा हूँ। महिला और पुरुष विजेताओं को नकद पुरस्कार मिलता है। इस इवेंट से स्थानीय रहन-सहन और सामाजिक ढाँचे को समझने का मौका मिलता है। यह समुदाय को एक ‘स्थान’ के महत्त्व को समझने के लिए मंच प्रदान करता है। मैं खोज और खिड़की को मुझे फिर बुलाने का धन्यवाद देना चाहूँगा। मेरा अनुभव बहुत उम्दा रहा। आप बहुत अच्छे मेज़बान हैं और फिर मिलेंगे।

हमें उम्मीद है कि खोज के सहयोग से, हम युवा कलाकारों और शिक्षकों का एक समूह तैयार कर रहे हैं, जो सामुदायिक बदलाव लाने के लिए तत्पर हैं। हम अपने काम को खोज, जामुन वाला पार्क और सलेक्ट सिटी वॉक में प्रदर्शित करेंगे। साथ ही ‘अन्लर्निंग अनसेंटर्ड’ की तर्ज़ पर, आने वाले खिड़की फ़ेस्टिवल के हम खिड़की के युवाओं के साथ लिए कई कार्यक्रम तैयार करेंगे। दो थीयटर प्रोडक्टशन और एक म्यूज़िकल बैंड पर काम कर रहे जामुन वाले पार्क में ‘अन्लर्निं ग अनसेंटर्ड’ सेशन में बच्चे खेलते हुए।

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खिड़की आवाज़ • पतझड़ अंक 2017

खिड़की के फिल्मकार का सफर बड़े पर्दे तक अपनी मेहनत और लगन से नसीम ने मॉलीवूड में नाम कमाया और अब नई बुलंदियाँ छू रहे हैं!

महावीर सिंह बिष्ट सीम अहमद ने कभी एक फ़िल्मकार बनने का नहीं सोचा था। उन्हें बचपन से ही फ़िल्में देखने का शौक़ तो ज़रूर था, पर उन्हें कभी लगा नहीं की वे भी फ़िल्में बना सकते हैं। वे पिछले 25 साल से खिड़की में रह रहे हैं और पिछले 17 सालों से फिल्म के क्षेत्र में हैं । वर्ष 2000 के आस पास, जब बॉलीवुड तकनीक और चकाचौंध के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा था, उसी वक़्त मेरठ और आस पास के इलाक़ों में सी.डी. पर रिलीज़ की जानेवाली फ़िल्मों का एक नया बाज़ार तैयार हो रहा था। यह सुन कर हैरानी होती है कि देहात के इलाक़ों में इन फ़िल्मों को बड़े चाव से देखा जाता है। लोगों का एक तबका ऐसा है, जो बड़े स्तर की बॉलीवुड फिल्मों से ख़ुद को जोड़ नहीं पाता। उनके लिए ज़मीन से जुड़े विषयों पर उनकी भाषा की फिल्में को समझ पाना बहुत आसान होता है। इस उभरती हुई इंडस्ट्री को लोगों ने ‘मॉलीवूड’ नाम दिया। लगभग इसी दौर में, नसीम अपने दोस्तों के साथ सिनेमा घर में बॉलीवुड की बड़े बजट की फ़िल्में देखने जाते और वापस आकर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जुट जाते। उनके एक दोस्त ने उन्हें बताया कि फ़िल्मों को छोटे स्तर बना सी.डी. पर रिलीज़ कर पैसा कमाया जा सकता है। इन फिल्मों का बजट 1 लाख से 10 लाख रुपये तक होता है और आम तौर पर ये फिल्में अपनी लागत वसूल लेती हैं। नसीम को यह आइडिया काफ़ी दिलचस्प लगा और उन्होंने इसमें हाथ आज़माने की सोची। उन्होंने छोटे म्यूज़िक वीडियो से

शुरुआत की । धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने पूरी फ़ीचर फ़िल्म बनाना शुरू किया। मॉलीवूड में, वर्ष 2009 ऐसा दौर आया कि यह इंडस्ट्री पूरी तरह ख़त्म होने की कगार पर थी। पायरेसी की वजह से फ़िल्मकारों को बहुत नुकसान होने लगा और लागत को वसूल पाना मुश्किल होने लगा। लेकिन इन फ़िल्मों की लोकप्रियता के चलते, कई निवेशकों और प्रोड्यूसरों इसमें मुनाफ़े की संभावनाओं को खोजने लगे। टी-सीरीज़ जैसी बड़ी कंपनियों और स्वतंत्र निवेशकों के दखल से सी.डी. फिल्में फिर से बनाई जाने लगी। नसीम के अनुसार इन फिल्मों के लिए बजट मुताबिक एक्टर ढू ंढने में परेशानी नहीं होती। दिल्ली के मंडी हाउस में युवा थिएटर अभिनेता आसानी से मिल जाते हैं।आजकल कम दाम में उम्दा तकनीक मिल जाने से फिल्म बनाना आसान हो गया है। वे अक्सर अदाकारों, संगीतकार, एडिटर और अन्य टेक्निशयनो की दिल्ली और मुंबई की एक ही टीम के साथ काम करते हैं। नसीम बताते हैं कि सी.डी. पर रिलीज़ करने से पहले फ़िल्म को सेंसर बोर्ड भेजना पड़ता है। इन फिल्मों के विषय ‘पारिवारिक ड्रामा’ और ‘सामाजिक कुरीतियाँ’ आदि होती हैं, तो सेंसर से सर्टिफिकेट मिलने में ज़्यादा दिक्कत नहीं आती। इसकी फ़ीस भी थिएटर पर रिलीज़ होने वाली फिल्मों से काफ़ी कम होती है। इन सी.डी. फिल्मों को दिल्ली और एन.सी. आर, मेरठ और पश्चिम यू.पी. के सेंटरों पर 25 से 40 रुपये प्रति सी.डी. के दाम में डिस्ट्रि ब्यूट किया जाता है। फिल्म की पब्लिसिटी के लिए वे जगह-जगह पोस्टर

ऊपर: नसीम अहमद खिड़की में अपने स्टूडियो के सामने। नीचे: फिल्म इं डस्ट्री में उनके 17 वर्षों को दिखाता एक पोस्टर।

लगाते हैं। देहात में पारिवारिक और सामाजिक विषयों पर बनी इन फ़िल्मों को बड़े ही चाव से देखा जाता है। ये फिल्में हिंदी, हरयाणवी और यू.पी. की क्षेत्रीय भाषाओं में होने से काफी लोकप्रिय हो जाती हैं। नसीम का मानना है कि फिल्में समाज का आयना होती हैं। अगर आप एक पॉजिटिव मकसद से फिल्म बनाते हैं, तो लोगों को ज़रूर पसंद आएगी। वे ‘ज़ख़्मी सिकंदर’ नाम की अपनी फ़िल्म को इस साल पहली बार थिएटर में रिलीज़ कर रहे हैं। वे कहते हैं, सी.डी. के साथ-साथ एक-दो स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज़ करने से फ़िल्म की लोकप्रियता और मुनाफ़ा बढ़ जाता है।

रईसी का अनुभव अभी बाद की देखी जायेगी

Layout design by Malini Kochupillai

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Edited by Malini Kochupillai & Mahavir Singh Bisht [khirkeevoice@gmail.com]

Supported & Published by KHOJ International Artists Association


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