Khirkee Voice (Issue 5) Hindi

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शीत संस्करण

खिड़की आवाज़ अंक #

12 पन्ने

भारत और अफ्रीका संबंधों का विशेषांक

संस्कृतियों के बीच बालों की डोर

‘हब्शी’ शब्द कहाँ से आया ?

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3

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दिल्ली, भारत

तस्वीर: महावीर सिंह बिष्ट और मालिनी कोचुपिल्लै

डेमेरारा, गुयाना

याHउं डे , कैमरून

ऊपर से घड़ी की सुई की दिशा में: अब्दुल और अरविन्द बातचीत करते हुए; ऐविस और राम देवी खानपान की चर्चा में; शाइस्ता अपने विचारों को प्रकट करती हुई; लोगों की भीड़।

गर्म और सवत्र धूप

नुक्कड़ की छोटी-सी दक ु ान मुश्किल और तीखे सवालों का अड्डा बना। साथ ही दोस्ती और सौहार्द के नए रास्ते खोले।

काबुल, अफगानीस्तान

बारिश और बर्फ के साथ कड़ाके की ठण्ड,मार्च में थोड़ा गर्म लेगोस, नाइजीरिया

गर्म, धूप और हलकी बारिश मोगदिशु, सोमालिया

गर्म, धूप और मार्च में अधिक गर्म पटना, भारत

गर्म, धूप और मार्च में अधिक गर्म

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बातचीत की नई संभावनाएं

ठं डा और शुष्क, मार्च तक गर्म

ज़्यादातर गर्म और नम, आवर्ती आं धीतूफ़ान

जहाजी की गाँव वापसी

‘खिड़की खोल, खुल के बोल’

मौसम की रिपोर्ट ज न व र ी - म ा र्च 2 0 1 8

रेखा चित्र: अनार्या

शिकारगाह का दिलचस्प इतिहास

के सहयोग से

महावीर सिंह बिष्ट

क्टू बर की धुध ं भरी दोपहरी में ‘खोज’ के बगल वाली ‘फ़ोन रिचार्ज की दक ु ान’ में काफी भीड़ थी। लोगों की भीड़ को हटाकर देखें तो नज़ारा देखने लायक था। तीन दिनों तक यहाँ ‘खिड़की टॉक शो’ का आयोजन किया गया। इसके मुख्य किरदार दो अफ़्रीकी मूल के निवासी ‘मोहम्मद अब्दुल’ और ‘ऐविस ता बी द्जे’ और ‘खिड़की की जनता’ है। अब्दुल सोमालिया से हैं। वे पिछले 19 सालों से यहाँ हैं। पहले उन्होंने पुणे से स्नातक किया और अब दिल्ली यूनिवर्सिटी से ‘सोशल वर्क में एम.ए कर रहे हैं।वहीँ द ूसरी तरफ ऐविस, आइवरी कोस्ट के निवासी, वे यहाँ एक छात्र के रूप में आये और कई वर्षों से यहीं रहते और काम करते हैं। दोनों ही वर्तमान में खिड़की निवासी हैं। खिड़की आवाज़ के हर अंक से पहले हम अक्सर आत्म-चिंतन और विचारविमर्श करते हैं कि समुदाय में लोग एक द ूसरे से किस तरह जुड़ते और बातचीत करते हैं। हमारी दिलचस्पी अलग-अलग समुदाय के लोगों की एक द ूसरे के प्रति आम-धारणाओं और गलत -फहमियों को समझने और परखने की भी होती है। हम यह भी जानना चाहते हैं कि अलग-अलग

देशों और समुदायों के बीच ऐतिहासिक और समकालीन ढाँचे में किस तरह की समानताएँ और अंतर हैं। स्वाति जानू की ‘फ़ोन रिचार्ज की दक ु ान’, यहाँ काफी मशहूर है। पहले दिन जब लोगों ने देखा कि हरे परदे की पृष्ठभूमि में कुछ कुर्सियाँ और मेज़ सजी है, जिसमें एक अफ़्रीकी कुछ लोगों के साथ बैठा हुआ है, तो उनकी उत्सुकता का ठिकाना नहीं रहा और धीरे-धीरे भीड़ जुटने लगी। लोग पूछने लगे की क्या हो रहा है ? हमने उन्हें बताया कि ‘हम चाहते हैं कि आप अपने अफ़्रीकी साथियों से बातचीत करें और किसी भी तरह का सवाल पूछें।’ शुरूशुरू में लोग हिचके। धीरे-धीरे कुछ लोगों ने रूचि दिखानी शुरू की। इस तरह दो अलग-अलग समुदायों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। जिसमें खानपान, संस्कृ ति, व्यवहार, वाद-विवाद सरीखे विषयों पर राय रखी गई और सवाल पूछे गए। खिड़की के कई अनूठे लोगों से हम रूबरू हुए, जिनमें से कुछ हम आपके सामने ला रहे हैं। “आप अपने देश के बारे में कुछ बताईये”, अरविन्द ने कहा। इसपर अब्दुल ने कहा,”मेरे देश में लड़ाई चल रही है और हालात काफी ख़राब है।”उन्होंने फिर अरविन्द को बताया कि इसी कारण उन्हें अपना देश छोड़ना पड़ा। हाल में उन्हें अपने देश जाने का मौका मिला, जिसका अनुभव

शानदार रहा। अरविन्द स्वयं बिहार के दरभंगा जिले से हैं और दिल्ली पढाई करने आये हैं।उन्होंने पूछा “आपके देश की क्या खासियत है?” इसपर ऐविस ने जवाब दिया,”भारत की ही तरह अलग-अलग धर्म और समुदाय के लोग एक साथ रहते हैं।” यह जानकार अरविन्द को बहुत ख़ुशी हुई और उन्होंने दोनों को बिहार आने का न्योता दिया। फिर अरविन्द ने ऐविस से पूछा कि अगर वे उनके देश में घूमना चाहें तो कहाँ जाना चाहिए? ऐविस ने कहा, “ आप वहां की राजधानी यमासूक्रो जाएँ । वहाँ काफी पंजाबी लोग रहते हैं।” “अफ़्रीकी पुरुष राह चलती महिलाओं को इस तरह क्यों देखते हैं?”, शाइस्ता पूछती हैं। इसपर ऐविस कहते हैं कि, “हममें से ज़्यादातर बुरी नज़र से नहीं देखते, हम उनकी खूबसूरती से प्रभावित होकर देखते हैं। हमारा इरादा गलत नहीं होता।”शाइस्ता अफ़ग़ानिस्तान से हैं और उनके कई अफ़्रीकी मूल के दोस्त हैं। शाइस्ता ने पुणे में अपना ग्रेजुएशन पूरा किया है। व्यवहार और बातचीत से वे काफी बेबाक और साहसी प्रतीत होती हैं। वे कहती हैं, “हमारे देश में आज भी महिलाओं को पूरी आज़ादी नहीं मिलती।” इसपर ऐविस और बाकी लोग सोच में पड़ जाते हैं। इसके बाद दोनों खान-पान और व्यंजनों की चर्चा करने लगे। शाइस्ता ने अपने मित्रों के साथ कॉंगोली मीट, सूप

और चिकन के व्यंजन चखे हैं। ऐविस ध्यान से सुन रहे थे। वे बताती हैं,”कॉलेज में जब भी कोई कार्यक्रम होता था तो अलग-अलग देशों के लोग पारम्परिक पोशाकों में आते और डांस करते। नज़ारा देखने लायक होता।” रंगभेदी घटनाओं को लेकर हमने राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा,”रंग को लेकर भेदभाव करना सरासर गलत है।” सबसे दिलचस्प लोगों में से एक थी राम देवी। वे लगभग 60 -65 बुजुर्ग महिला रही होंगी।”आपके खाने में बू क्यों आती है?”, राम देवी ने पूछा। ऐविस ने कहा, “हम तेज़ मसालों का प्रयोग करते हैं इसलिए। हमारे खाने में ज़्यादा माँस और मछली होती है।”स्वीकृति में सिर हिलाते हुए उन्होंने बताया कि उनके कुछ पडोसी अफ़्रीकी रह चुके हैं। फिर रामदेवी ने ऐविस से परिवार के बारे में पूछा। इसपर ऐविस बोले, “मेरी माँ ऐवोरी कोस्ट में रहती हैं और पिता गुज़र चुके हैं।” बाद में उन्होंने कहा कि रामदेवी में उन्हें अपनी माँ नज़र आती हैं, तो वे प्रसन्नता से मुस्कराने लगी। “आप यहाँ 7-8 साल से हैं, तो आपका अफ्रीकियों से कैसा संबध ं रहा है?”, ऐविस ने जामिल से पूछा। जामिल ने कहा,”मेरी ज़्यादा बातचीत कभी नहीं हुई। लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि जब लोग आपको ‘हब्शी’ बुलाते हैं तो 3


खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2017

एशिया और अफ्रीका के बीच लाल राजमा का सफर। रेखा चित्र: अनार्या / शब्द: देविका मेनन

मैं सभी पौधों में प्रोटीन का सबसे अच्छा स्त्रोत हूँ । मुझसे भरे एक कप में 15 ग्राम प्रोटीन होता है।

मैं काफी बहुमुखी हूँ , हज़ारों सालों में मुझे अलग-अलग सभ्यताओं ने अपनाया है।

आपकी सेहत ख्याल रखने के लिए, मुझमें जीरो कॉलेस्ट्रॉल होता है।

मुझे मीठा, नमकीन या किसी भी स्वाद में खाया जा सकता है।

राजमा यूरोपिय उपनिवेशी ताकतों के उत्तरी अमेरिका के मुख्य उत्पादों की ‘तीन बहनों’ में से एक है। अमेरिका के मूल निवासियों ने मक्के , फलों और राजमा का सहरोपण किया और सभी फसलों की खूबियों से एक सेहतमंद माहौल का खूब फायदा उठाया। दुनिया भर में इसकी उपज 1.87 करोड़ टन आँ की गई है। इसे लगभग 150 से भी ज़्यादा देशों में 2.77 करोड़ हेक्टेयर में उगाया जाता है।

संस्कृतियों को बाँधने वाली कड़ी 2

जै

से-जैसे दिन छोटे हो रही थे और रातें ठण्डी हो रही थीं, हमारे मोहल्ले का प्रवासी समुदाय, घर से दरू , गर्मी को याद करता है। हमारे अफ़्रीकी दोस्त अपने देश के गर्म मौसम को याद करता, दक्षिणी ध्रुव में अभी गर्मी का मौसम होगा। खिड़की आवाज़ के पाँचवे अंक में, हम एक बार फिर पिछले साल की तरह, भारत और अफ़्रीकी महाद्वीप के बीच ऐतिहासिक और समकालीन सम्बन्धों को समझने की कोशिश करेंगे। जबकि पूरे देश में अफ़्रीकी मूल के निवासियों पर हमले की छिटपुट खबरें आ रही हैं, रोजमर्रा का हल्का-फुल्का भेदभाव और बुरे बर्ताव को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। हमने सोचा कि रंगभेद के मुद्दे को एक बार फिर दोहराया

जाए और गहरी और मज़बूत श्रृंखलाओं को खोजा जाए। दोनों सभ्यताओं की संपन्न संस्कृ तियों से इतिहास के रोचक तथ्य और कहानियों को समकालीन परिपेक्ष्य में देखा जाये। इस अंक को प्रकाशित करने से पहले, हम नफरत और अविश्वास को सामने से समझना चाहते थे। एक ऐसा मंच चाहते थे, जिसपर बातचीत और चर्चा हो सके, अलग-अलग समुदायों के बीच। हमने स्वाति जानू की ‘फ़ोन रिचार्ज की दक ु ान’ के साथ मिलकर ‘द खिड़की टॉक शो’ की शुरुआत कर ऐसा मंच तैयार किया। जिसमें ऐवोरी कोस्ट और सोमालिया के दो मित्रों के साथ हमने गपशप और बातचीत के लिए खिड़की की आम जनता को बुलाया। इसमें बहुत सी ताज़ा और दिलचस्प बातें निकलकर आई।ं

कलाकार एं ड्रू आनंद वूगल, ने मध्य के पृष्ठ में जो कलाकृति बनाई है, जो एक सदी से पहले उपनिवेशी दौर में जबरन गुलामों के तौर पर सात समंदर पार ले जाये गए अनुबधि ं त मज़दरू ों की दशा का चिंतन करता है। वह खुद एक जहाजी का वंशज है और खोयी हुई पर न भुलाई हुई, उपनिवेशी काल से जुड़े इतिहास को बयाँ करता है। अफ्रीकियों के साथ निरंतर विवाद, अनभिज्ञता और समुदाय विशेष को न समझ पाने और सहानुभूति की कमी से है। हमने बातचीत में, अफ्रीकियों के प्रति आम धारणाओं और बारीक और जटिल सवाल सामने रखे। हम उम्मीद करते हैं कि इससे अज्ञान कम होगा और लोग इसपर विचार करेंगे। साथ ही, इससे नकरात्मकता कम होगी और दोस्ताना माहौल को बढ़ावा मिलेगा।


रेखाचित्र: नेहा नारायण

शीत अंक 2017 • खिड़की आवाज़

दक्षिणी दिल्ली के अफ़्रीकी चर्च

कि

सी भी रविवार को दक्षिणी दिल्ली के पेंटकोस्टाल चर्चों के किराये के हॉल की सर्विस में आपको ये अनोखी बातें देखने को मिलेंगी: चटक गुलाबी साड़ी में एक नाइजीरियाई महिला, एक भारतीय महिला अपने घुघ ं राले बालों वाले बच्चे को सहला रही होगी; जो उसके नाइजीरियाई पति से है, भारतीयों का एक झुण्ड इग्बो में गीत गाने की कोशिश कर रहा होगा और एक लम्बा अगबाड़ा पहने नाइजीरियाई हिन्दी में बात कर रहा होगा। पास्टर के हर उपदेश के खत्म होने पर, लोग एक साथ चिल्लाते हैं,” अमीन माई फ़ादह, माई फ़ादह,माई फ़ादह।” हर रविवार या सप्ताह के मध्य में, जब कोई पास्टर नाइजीरिया से आता है, तो दिल्ली एनसीआर में हज़ारों की संख्या में रह रहे अफ़्रीकी मूल के निवासी इस करिश्माई चर्च की सर्विस में आते हैं, जो तीन से चार घंटे चलती है।इनमें से ज़्यादातर लोग नाइजीरिया के होते हैं, परन्तु उपस्थित लोगों में कॉंगोली, यूगांडा वासी, तंजानियाई और अन्य अफ़्रीकी देशों के लोगों के साथ-साथ उत्तर-पूर्वी भारत के भी लोग होते हैं। ये चर्च एक बड़ी अंतराष्ट्रीय घटना का हिस्सा हैं। इनका जन्म यू.एस.ए. में हुआ, पर पूज ं ीवाद की वजह से समाज के तबकों में अंतर की वजह से अफ़्रीकी देशों में ये मशहूर हो गए। भारत में रहने

वाले अफ्रीकियों को ये आसरा देते हैं। अफ़्रीकी मूल के निवासी, ख़ास तौर पर नाईजीरियाई लोगों को अपराधी और ड्रग-डीलर के तौर पर देखा जाता है और हाल ही में नस्लभेद से जुडी कई हिंसक और जानलेवा घटनाओं का इन्हें शिकार होना पड़ा है। “नाइजीरियन को रस्सी से बाँधा गया, खूब पीटा गया, किसी ने मदद नहीं की”, किसी अखबार की हैडलाइन में लिखा था। प्रतिकूल माहौल के बावजूद, कई अफ़्रीकी शरणार्थी चर्च के समुदाय में सुख पाते हैं। एक नाइजीरियाई छात्र को मैंने इंटरव्यू कहा तो बताया कि अपने देश में वह चर्च नहीं जाता था, किन्तु भारत में जाता है क्योंकि यह “मूर्ति पूजने वालों का देश है”। स्थानीय लोगों की अफ्रीकियों के प्रति नकारात्मक सोच के कारण वह घुल-मिल नहीं पाता और अकेला महसूस करता है। हालाँकि, भारत में रह रहे ज़्यादातर अफ़्रीकी अपराधी तो नहीं होंगे ना। वे भारत में बिजिनेस या छात्र वीज़ा पर आते हैं और कई साल तक यहाँ रहकर बस जाते, विवाह कर लेते और बाल-बच्चे कर लेते हैं। साथ ही अपने देश भारतीय वस्तुओं का निर्यात करते हैं और अपने घर से खानपान की वस्तुओं, कपडे और सांस्कृ तिक प्रथाएं जैसे चर्च जाना; का आयात करते हैं। दक्षिणी दिल्ली में साकेत के ‘शिलोह

‘हब्शी’

क्या होता है? अनुष्का मैथ्यूस

मैं

ने जब पूछा कि ‘ हब्शी क्या होता है ?”, तो उसने जवाब दिया, “ वो नर-भक्षी होते हैं।” एक प्रचलित कहानी है कि एक अफ़्रीकी आदमी एक ऑटो चलाने वाले को अपने अपार्टमेंट तक सिर्फ़ इसलिए ले गया ताकि वो उसे खा सके। बल्कि पुलिस का दावा था कि उस अफ़्रीकी आदमी ने इंसानी मांस अपने फ्रीज़र में काटके रखा हुआ था। और कुछ कहानियाँ ऐसी थी जिनमें दावा किया गया कि कुछ अफ्रीकियों ने अपने नरमांस-भक्षण के लिए पड़ोस के कुछ बच्चों को अगवा कर लिया। किसीके पास कोई सबूत नहीं थे। लेकिन फिर भी सभी ये मान चुके थे कि सभी बातें और सुनी-सुनाई कहानियाँ सौ आने सच हैं। ऐसी ही कितनी कहानियाँ लोग सुनते सुनाते हैं. ऐसी ही कहानियाँ पक्षपात को बढ़ावा देती हैं जिससे सांप्रदायिक और सांस्कृ तिक मतभेद पैदा होते हैं। और इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है अफ़्रीकीयों को। आसपास के गांववालों के दिमाग में ये धारणा बन गयी है कि अफ्रीका एक ऐसा देश है जहाँ नर-भक्षी लोग रहते हैं। अपनी इस धारणा को वो हिलाना नहीं चाहते, इसलिए ऐसे किस्से-कहानियों में विश्वास करते हैं जिनका तथ्यों और इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं। एक अफ़्रीकी आदमी, जो इस शहरी मिथक का मुख्य किरदार है, उसके

पास ख़ुद की सफाई में कुछ कहने का कोई भी मौका नहीं रहता। माना जाता है कि वो अफ्रीका नाम के एक देश का रहने वाला है, और ज़्यादा से ज़्यादा नाइजीरिया का होगा। गांववालों की कम जानकारी के कारण, वो सभी अफ्रीकियों को एक ही समुदाय का समझ लेते हैं, भले ही कोई किसी भी देश का हो। इतिहास में पीछे मुड़ के देखे तो हब्शी एक ऐसा शब्द है जो भारत में रह रहे अफ़्रीकी लोगों के लिए इस्तेमाल होता था. ये अफ़्रीकी गुलाम बनाकर लाये गए थे और सैनिक, नाविक, डॉक कर्मी, घोडा सँभालने वाले, घरेलू सहायक, खेती का काम करने वाले, नर्स या वो जो पलायन करके व्यापारी, नौकरशाह या पादरी के तौर पे भारत आये थे। लगभग सभी अफ्रीका के निवासी थे। और खासकर इथिओपिया के कुछ हिस्सों से आये थे। और कुछ और थे जो तंज़ानिया, केन्या और दक्षिण अफ्रीका से आये थे। इथिओपिया, एक समय अब्निसिया के नाम से भी जाना जाता था। और हब्शी शब्द इथिओपिया या अब्निसिया निवासीयों के लिए एक अरब शब्द था। भारत में गुलाम बनकर आये हुए सभी अफ्रीकियों के लिए भी हब्शी शब्द इस्तेमाल होता था। जबकि इनमें से बहुत से इथिओपिया/अब्निसिया ने मूल निवासी नहीं थे। इसलिए इस सदियों से होता आ रहा इस शब्द का इस्तेमाल इस बात का सूचक है कि अफ्रीकियों के बारे में समाज में कितनी

ग्लोबल वरशिप सेंटर (चैपल ऑफ़ पॉसिबिलिटीज) के एक प्रार्थी ने लेगोस और दिल्ली में फैशन डिज़ाइनर के तौर पर खूब सफलता पाई है। एक बार यहाँ बस जाने के बाद अफ़्रीकी प्रवासी, सस्ते और अच्छे इलाज के लिए अपने परिवार के सदस्यों को यहाँ बुलाते हैं। एक नाइजीरियाई छात्र जो भारत में बॉलीवुड की चकाचौंध से आया था, ने अपनी माँ को इलाज के लिए कई बार यहाँ बुलाया है। वह औरत पारम्परिक पगड़ी के साथ नाइजीरियाई वेशभूषा पहनती थी। एक दिन वह खिड़की की गलियों में टहल रही थी तो किसी ने उनपर कूड़ा फ़ेंक दिया। इस घटना से उनकी बेटी का सिर चकरा गया, उन्होंने बताया कि उनके देश में भारतियों को सम्मान दिया जाता है, पर अफ्रीकियों को यहाँ ज़िल्लत का सामना

करना पड़ता है। भारत का वातावरण जटिल है। अफ्रीकियों के अनुभव को कम करके आँ का जाता है, क्योंकि यह देश गोरी चमड़ी का दीवाना है। आमतौर पर गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों का खूब स्वागत सत्कार होता है। काली चमड़ी के साथ उल्टा होता है, उन्हें ‘नीची जात’ के साथ जोड़ा जाता है। भारतीय, जिनकी शिक्षा अच्छी नहीं होती, वे अफ्रीकियों को टेढ़ी नज़र से देखते हैं। ज़्यादातर मध्य-वर्गीय अफ्रीकियों को दक्षिणीदिल्ली के कम-शहरी लोगों के बीच रहना पड़ता है। गहरे रंग वाले अफ़्रीकी और छोटी आँ खों वाले उत्तर-पूर्वी लोग, जिन्हे ‘नेपाली’ और ‘चाइनीज़’ कहा जाता है। ये दोनों वर्ग दिल्ली और एन.सी. आर. में काफी पिछड़े हैं। अफ़्रीकी और

लेखक की अनुमति से प्रकाशित। पहली बार http://africasacountry. com/ में को 19 अक्टू बर 2017 को प्रकाशित। कैसा लगता है?” इसपर ऐविस बोले, “मैं ऐसे लोगों को नज़रअंदाज़ कर देता हूँ क्यूंकि मुझे उसका अर्थ मालूम नहीं है। कई इसे शरारती भाव में कहते हैं, पर मेरा जवाब देना उन्हें सही साबित करेगा।”

सुल्तान मोहम्मद आदिल शाह अपने अफ़्रीकी दरबारियों के साथ, सन् 1640

अज्ञानता फैली हुई है। ज़्यादातर अफ़्रीकी जब भारत आते हैं, उन्हें इस शब्द, इसके मतलब और इसकी उत्पत्ति के बारे में ज़रा भी अंदाज़ा नहीं होता। लेकिन जब उन्हें इसका मतलब पता चलता है तो उन्हें एक धक्का सा लगता है। ख़ुद को नरभक्षी समझे जाने को एक अपमान की तरह लिया जाता है। इस तरह की अज्ञानता उनकी समझ के परे हैं। इस तरह के मिथक क्यों फैले हुए हैं और गाँव वाले ऐसे मिथकों पर आज भी कैसे विशवास करते ? शायद उसका कारण है कि वो लोग अफ़्रीकी समुदाय से आये हुए प्रवासियों के बारे में और गहराई से जानने की कोशिश भी नहीं करते। उन्हें ये भी डर है कि अगर अफ़्रीकी समुदाय को उनके बीच स्वीकृति मिल गयी, तो अफ़्रीकी गाँव छोड़कर नहीं जायेंगे। और शायद ये गांववाले बिलकुल भी नहीं चाहते हैं। खिड़की एक विभिन्नता से भरा हुआ गाँव है। यहाँ के निवासी अलग अलग रंग, नस्ल, और समाज से हैं। अलग

उत्तर पूर्वी लोगों को रंग भेद की वजह से घर ढू ँ ढना कठिन होता है, इसलिए ये मुनिरका, खिड़की, छत्तरपुर, सफदरजंग जैसे अव्यवस्थित और निचले मध्यम-वर्गीय इलाकों में साथ रहना पड़ता है। इसलिए इन इलाकों के आसपास इन चर्चों का तंत्र उग आया है। भारत में अफ्रीकियों की तरह ही, अफ्रीका महाद्वीप में भी लोग इन चर्चों का रुख कर रहे हैं। हो सकता है, वे भी इन्हीं कारणों से कर रहे हों: अफ़्रीकी देशों का अपने नागरिकों को अच्छे मौके और अच्छी ज़िन्दगी न दे पाने की अक्षमता। इसी कारणों से वे यहाँ आये हैं।

खिड़की टॉक शो /पृष्ठ 1 से

तस्वीर साभार: ब्रिटिश लाइब्रेरी बोर्ड

मेलेसा तण्डीवे म्यम्बो

अलग संस्कृ ति और जीवन शैली के कारण आपसी मतभेद और मनमोटाओ होना एक स्वाभाविक बात है। विभिन्न समुदायों से आये हुए लोग जब साथ रहने लगते हैं तो इसकी अपनी कठिनाइयाँ सामने तो आती ही हैं। लेकिन फिर भी, एक द ूसरे पर भरोसा न करना और नाराज़गी से रहना भी कोई दरू गामी उपाय नहीं हैं। आज के ज़माने में भी हब्शी शब्द का सभी अफ्रीकियों के लिए इस्तेमाल करना, उन ५४ अफ़्रीकी देशों के प्रति एक तरह का अनादर है जो पिछड़े हुए और असभ्य नहीं हैं। पीड़ी दर पीड़ी हुए इस शब्द के गलत इस्तेमाल पर अब रोक लगनी चाहिए और इसे इतिहास के पन्नों में अब दफ़न हो जाना चाहिए।अगर आज भी ये शब्द इस्तेमाल में लाया जाता है तो ये दर्शाता है कि कई भारतीयों का नज़रियाँ अफ़्रीकी समुदाय के लिए प्रतिकूल है और वो नहीं चाहते कि अफ़्रीकी अच्छे माहौल में रह सके, काम कर सकें और पढाई कर सकें।

ऐविस जानना चाहते हैं कि जामिल अपने बिहार के गाँव में किस तरह की खेती करते हैं। इसपर उन्होंने कहा,”मक्का, गेहूँ, गन्ना और बहुत सी सब्ज़ियां आदि उगाई जाती हैं।” इसके बाद दोनों भोजपुरी के गीतों की बात करने लगे और एक प्रसिद्ध भोजपुरी गाना स्टू डियो में चलाया गया और पूरा माहौल झूम उठा। इस तरह अन्य कई लोग आते जाते रहे। पर स्थानीय व्यापारी ‘आदित्य कौशिक’ से कई दिलचस्प पहलुओं पर बात हुई। अब्दुल ने उनसे पूछा,”यदि अफ़्रीकी आदमियों को आदमखोर और औरतों को देह व्यापर से कोई जोड़ता है, आप क्या कहेंगे?” तो उन्होंने जवाब दिया, “मैं कई अफ्रीकियों को जानता हूँ जो व्यापार करते हैं और कई महिलाएँ अस्पतालों में नर्स हैं और कई अनुवादक हैं। इस तरह की अफवाहें सिर्फ डर पैदा करने के लिए होती हैं।” ‘द खिड़की टॉक शो’ को लोगों ने खूब सराहा। इन दिनों को बारीकी से देखा जाये तो सामुदायिक सद्भावना का एक नया चेहरा सामने आता है। खिड़की गाँव को अक्सर कुछ दर्भा ु ग्यपूर्ण घटनाओं के कारण गलत नज़र से देखा जाता है।यदि एक मंच दिया जाये तो लोग किसी सी समस्या का हल बातचीत से निकालने को तैयार हैं। हम भविष्य में भी इस तरह के टॉक शो का आयोजन करते रहेंगे।

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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2017

ख़ास पेशकश

बलपूर्वक समुद्र में ले जाया गया एक कलाकार की अपनी परदादी के जबरन प्रवास की गाथा की पाँचवी किश्त

कैलिप्सो का द्वीप शब्द और कलाकृतियाँ

एं ड्रू आनंदा वूगल

मे

रे शब्द लुप्त हैं और घुप्प अँधेरा है।आपके आकर्षण की ख़ामोशी, बेरुखी और कैलिप्सो के दीपों की भाँति प्रतीत हो रही थी।उनकी बिखरी हुई आत्मा साहिलों को चकाचौंध करती होगी, सुबह से शाम भ्रमण करते हुए, जंगल को अवशोषित करते हुए, किसी दूसरी दुनिया में जाते हुए।उनके शरीरों के अवशेष पीछे छू ट जायेंगे। देह की सरहदों से परे, उनका रूमानी रूप जंगल के हर वृक्ष और पत्ते को निगलकर अँधेरे से प्रकाशित कर देगा। पोलो एक संकरी चट्टान की जड़ पर खड़ा था, नीचे जाती हुई वृक्ष-श्रंखला का मुआयना करता हुआ। ऊपर आकाश किनारों पर हलके बैंगनी रंग में पिघल रहा था और पोलो के चेहरे पर गर्म हवा के थपेड़े लग रहे थे। उसने अपना ध्यान जंगल के मुहाने से आ रही नम हवा की तरफ किया। वह थके हुए भूतों के समूह की तरह, बेचैनी से उठती और लुप्त होती रौशनी में टिमटिमाती। नपे-तुले कदमों से उसने जंगल में प्रवेश किया।पेड़ अपने पत्तों को झटके से हिलाते और पोलो के जंगल में प्रवेश करने पर जमी हुई धूल को झाड़ लेते।विशाल हरे जंगल में आगे बढ़ते हुए, उसने ज़ोर से साँस ली और उसे गहन सन्नाटे का आभास हुआ। उसे अपने इं तज़ार करते हुए नाविक, राम की याद आई, जो शायद खर्राटे लेकर सो रहा होगा। जैसे-जैसे वह भीतर घुसता जाता, वैसे-वैसे उसके कदम विघटित परतों पर पड़ते, जिन्हें वक़्त ने पूरी दोपहरी तेज़ी से जमा किया। शुरुआत में

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जंगल का प्रलोभन कम होता है। आपकी आँ खें अनंत तक जाती हुई लहरदार दरारों की तरफ आकर्षि त होती हैं।आपकी नाक मंद खुशबुओं की ओर आकर्षि त होती है।जंगल की छोटी चिड़ियों का चहचाना, छोटी घंटियों की तरह सुनाई देते हैं ।पोलो उन आवाज़ों का पीछा करताहै । हवा गर्म होती गयी और पोलो को अचानक पसीना आने लगा, और वह सोच रहा था, जब पिछले हफ्ते उसकी मंझली बेटी आं सुओं में भीगी घर आयी थी। उसका पड़ोसी स्कूल से घर लौटते हुए उसे चिढ़ा रहा था। जब वह घर पहुंची, तो उसका गुस्सा पोलो भांप गया था। उसने हथौड़ा उठाया और अपनी सातों बेटियों के साथ पड़ोसी के घर पहुँच गया। पड़ोसी और बाहर काम कर रहे उसके दो बेटों ने उन्हें आते हुए देख लिया। सभी के हाथों में हथौड़ा, बेलचा ईंट और लकड़ी थी, अहाते में पहुंचते ही उन्होंने आदमियों की तरफ कूच किया। घायल और पिटते हुए पडोसी ने पछतावा किया और लड़कियाँ घर लौट गईं। दूर जंगल में, अपने गाँव से दूर इस बात को सोचकर पोलो खुश हो रहा था। किसी छोटे जीव के कदमों की आवाज़ ने इस ख़ामोशी को तोड़ा और वह जंगल में आगे बढ़ता गया। ओस में लिप्त फूलों की कतारें, जंगल के कठिन रास्ते की अग्रगामी सी प्रतीत होती।जैसे-जैसे पोलो आगे बढ़ता रहस्यमय परछाई उसका पीछा करती। किसी के होने के आभास से वह इधर-उधर देखने लगता। जितना ज़्यादा वह इधर-उधर देखता, उसकी गति धीमी होती जाती,हरी लहार सी दिखने वाली झाड़ियाँ, जानी-पहचानी आकृतियों


शीत अंक 2017 • खिड़की आवाज़ और आकारों-सी नज़र आने लगी। पत्तों की दरारों और खाली जगहों से अँधेरे की अनंत गुफाएं -सी नज़र आती। वह घडी मनहूस सी थी, पर अंतिम नहीं।’तुम कौन हो?’, उसने पुकारा। पतली लम्बी लताओं में से निकलकर एक आकृति आगे बढ़ी, उसके एक हाथ में कुल्हाड़ी और दूसरी में पटसन की बोरी थी ।साफ़ नज़र आ रहा था कि वह दुर्लभ जंगली सामग्रियों से भारी है, जिन्हें सिर्फ जंगल पैदा कर पाता है। बोरी कमर से कूल्हे तक लटकी हुई थी। पोलो ने अलसाई नज़रों से उसकी त्वचा को निहारा, जो तारों के एक गुच्छे की तरह थी, एक ही पल में चमकती और धुंधुला जाती। दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा, पोलो को समझ नहीं आ रहा था कि आकृति कहाँ शुरू होती और कहाँ ख़त्म। जैसे ही उसने दोबारा सफ़े द पुरातन आँ खों में देखा तो उसे अपने सिर के ऊपर कुल्हाड़ी नज़र आई। उसने बड़ी ही सफाई से ऊपर उड़ते हुए एक जीव को धराशायी कर दिया। उस आकृति की आँ खों में क्षणिक चमक आई और उसने आगे बढ़कर उस जीव को अपनी पोटली में डाल लिया। पोलो की आँ खें कुछ समय तक एकटक रही और रौशनी की किरणों से उसे समझ आया कि आकृति जंगल की तरफ बढ़ चली है । पोलो पूरी तरह मन नहीं बना पा रहा था कि आकृति ने उसे देखा है या नहीं। एक पल के लिए वह रुका और सोच में डू ब गया।उसने अपनी जेब से नक्शा निकाला और उसमें अंकित आकृति को देखने लग गया।उसके माथे से नक़्शे पर पसीना टपकने लगा और वह भूल गया कि वह कहाँ से आया था। पोलो कि नज़र एक और दरार पर पड़ी।उसमें पेड़ों के बीच एक भट्टी दबी हुई थी। सावधानी से वह आगे बढ़ा। वह जीवंत फ़र्न और झक ु े हुए ताड़ के पेड़ों में छु पी हुई थी।उसमें हलकी रौशनी दीप्त होने लगी। पोलो नज़दीक गया और उसे वह विचित्र आकृति चूल्हे की भीतरी सतह पर नज़र आई। वह आकृति मुस्करायी और पोलो घबराया।उसने हाथ डालकर उस बौने से

व्यक्ति या गुड़िया के आकार की मूर्ति को बाहर निकाला।उसने उसे अपने तेज़ी से धड़कते दिल पर दबा लिया।आसमान की तरफ एक तेज़ धमाका हुआ और बारिश होने लगी। उसे टपकते और गिरते हुए पानी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। उसे अपनी छाती पर उस आकृति के वज़न महसूस हो रहा था, और वह तेज़ी से दूर आ रही रोशिनी की तरफ बढ़ रहा था।पेड़ों के तनों के बीच से रौशनी की किरणें बढ़ती गई, जब तक पैरों के तले ज़मीन दिखनी बंद न हो गई। ज़मीन की चमकती रेत को सफ़े द तरल झाग ने घेर लिया। पैरों के नीचे रेत को खिसकाते हुए इस तरल ने उसके पैरों को निगल लिया। आकाश नक्षत्रों की अनोखी चादर, और डेमेरारा मदिरा-सी काली, कीड़े-मकोड़ो और उड़ती चिड़ियों की आवाज़ों से गूँजने लगी। पोलो सोते हुए नाविक के पास गया और नाव को पानी में धकेला । राम ने फुर्ती से नाव के इं जन को शुरू किया और नाव को भगाया। वे नदी में ऊपर की तरफ बढ़े और गाँव फिर से नज़र आने लगे और क्लैस्पो की आवाज़ पेड़ों से टकराकर गूँजने लगी। पोलो ने अपने पंजों की पकड़ को हल्का किया तो जंगल में एक सुनहरी रौशनी बिखर गई। उसके हाथ में जो आकृति थी, सोने में गढ़ी गई थी। पोलो ने सोचा कि यह पुराने देवताओं में से एक है । जब वे एक दुनिया से दूसरी में जा रहे होते हैं तो उनके शरीर के एक छोटे से अंश को दबा कर सघन आकर में जंगल में रखा जाता है। वह सूखकर सोने का छोटा टु कड़ा बन जाता है। बहुत ही कम लोगों को ये सुनहरे टु कड़े मिल पाते हैं। वे विरले ही एक दुनिया से दूसरी दुनिया जाते हैं और जब यह होता है तो धरती में दरारें पड़ती हैं और तेज़ धमाका होता है। पोलो को मालुम है कि उस मूर्ति को पिघलाया जायेगा और उसका एक हिस्सा नाविक को दिया जायेगा, बाकी से उसकी बेटियों के ज़ेवर बनाये जाएं गे।साहिल में घुप्प अँधेरा था, उसमें रोशनी से नदी का पानी किरणों से चमक रहा था।

सामने और नीचे: 1 से 5 स्लाइड कलाकार कैरिबियन में बिताये हुए स्लइडों की पड़ताल करते हुए।

कविताओं में चिंतन अफ्रीका मेरा घर एफी बेंजामिन मेरा अफ्रीका, मेरा घर मैं ज़हन में पीछे को झाँकता हूँ मेरे जाने से पहले के दिनों में तुम्हारा मुझे नपुश ं क छोड़ दिए जाने से पहले युद्ध शुरू होने से पहले चोरों और लुटेरों से पहले जिन्होंने खुद को राजनेता बताया निजी ज़िंदगी में दखल दिया हौसले और उम्मीद के खोने से पहले तुम युवाओं ने, अपने साहिलों को छोड़ दिया ‘न जाने कहाँ’ के लिए जब में देखता हूँ कि इस आधुनिकीकरण ने तुम्हारे साथ क्या किया है; तो मैं रोता हूँ लोग सोच और रोज़ आविष्कार कर रहे हैं, नए और ज़्यादा उन्नत

हथियारों का अपने साथियों के ख़ात्मे के लिए। तीन दशक हो चुके हैं, मैं आज भी तुम्हारे बारे में सोचता हूँ, जैसे कल की बात हो।

उपनिवेशी मानसिकता एशे ओनोनुक्वे हम हमेशा कहते हैं कि हमारी ज़मीन पवित्र है कि सर्द देशों के गोरे लोग अपनी बड़ी मशीन गनों के साथ आए हमारी पुरानी सभ्यता पर यहाँ वहाँ गोलियां चलाई जैसे शाइलॉक ने एन्टोनियो के शरीर को चीरा और हम जल्द भूल गए कि हम अपनी गुलाम ज़मीन के लिए खून देकर लड़े जो उन्होंने हमसे मांगी थीवे जीते

फिर हम जीते निरंतर बेड़ियों में जकड़े हुए वक़्त के बाद चेनेके देवता की मदद से हम जीत गए। हम खुद पर राज करते हुए भी खुद को ग़ुलाम बना रहे हैं हमारी रगों में उपनिवेशी सोच है ‘बाँटो और राज करो’ प्लेटफॉर्म पर, बड़ा मुँह खोलकर, मानो स्वर्ग से बारिश होने को हो, हम भ्रष्टाचार मुक्त समाज की बात करते हैं जबकि हमारा मन भ्रष्ट है।

हाइकू बरनबास इकोलुवा अडेलेके दिन की बारिश एक गाय के पदचिन्ह प्यास बुझाये एक कबूतर की

भारतीय कपडे के व्यापर मार्ग की मजबूत विरासत

मयंक मानसिंह कौल वीं शताब्दी से बनारस की हाथ से बुने हुए कपडे के मशहूर ख़ज़ानों में से शिकारगाह भी है। इस शब्द का मूल हिंदी-फ़ारसी है, जिसका मतलब शिकार करने का मैदान होता है, जिनमें शेर, चीते और तेंदओ ु ं को शाही खानदान और कुलीनों के शिकार के मनोरंजन के लिए पाला जाता है। माना जाता है कि ये जानवर अफ्रीका से लाये जाते थे। इस आवर्ती डिज़ाइन को मुग़ल लघुचित्रों में देखा जा सकता है। ऐसे ही चित्र भारतीय उपमहाद्वीप में गुजरात से कोरोमंडल तक ऐतिहासिक कपड़ों, कला और सजावटों में नज़र आते हैं।

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लगभग दो दशकों से नज़र आ रहे ये चित्र प्रभावों के दक्षिणी एशिया के सार्वलौकिक होने की ओर इशारा करता है, जिसने वस्तुओं और कलाओं को आकार दिया है। इसे अगर प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए तो, शेर घनी झाड़ियों में और फूलों की क्यारियों में, कभीकभी घने जंगल में औरतों और आदमियों के साथ चिन्हित किया हुआ, शाही और राजनितिक शक्ति का प्रतीक होता है, इसके उलट अफ्रीकन सवानह में खुले और अनंत तक फैले मैदानों में वह विचरण करता है। इस प्रवास की जानकारी मुझे 7 साल पहले हुई, जब मैं खोज में एक दो

बनारसी सिल्क, रेशम मीणा साड़ी शिकारगाह प्रिंट के साथ

हफ्ते की रेजीडेंसी को क्यूरेट कर रहा था। हर सुबह अफ़्रीकी छात्रों का झुण्ड अपने देश की लहरदार अफ़्रीकी पोशाकें पहने गुजरता। जानवरों वाले बड़े प्रिंट, ज्यामिति आकारों में मड-रेसिस्ट और इंडिगो कॉटन, जटिल पोशाकों और पगड़ी के बीच नज़र आता। मैं उन्हें उन तेजस्वी शेरों की तरह देखता, इस बार शिकारगाह से उलट, अराजक और सिर चकराने वाली कंक्रीट, प्लास्टिक, मंदिर और बाज़ार के रूप बने हैं। हम भारत और अफ्रीका के बीच दास-व्यवसाय के बारे में बहुत काम जानते हैं। कभी-कभी कुछ कैदियों की कहानियाँ सामने आती हैं, जिन्हें पश्चिमी तट से यहाँ लाया गया था, जो बाद में दक्कन साम्राज्य के प्रभावशाली राजनैतिक नेता बने थे। ऐतिहासिक कपड़ों में भारतीय महाद्वीप का ज़िक्र 1920 के दशक में हैंड-ब्लॉक प्रिंट और पेंटेड कॉटन के रूप में कैरो के फुसताते शहर में नज़र आता है। माना जाता है कि 13 वीं से 17 वीं शताब्दी के बीच मम्लूक के साम्राज्य में इसके सुराग गुजरात और उत्तरी अफ्रीका के बीच फलते-फूलते व्यापार के रूप देखे जा सकते हैं। जिन्हें बाद में ‘गुलाम राजाओं’ के नाम से जाना जाता है। इंडिगो डाई वाले कपड़ों का भारत और अफ्रीका के बीच निरंतर व्यापार होता था: भारत से नाइजीरिया भेजे

जाने वाले वस्त्र को इंटौरिका कहा जाता था, इस शब्द को “इंडिया टू अफ्रीका’ शब्द से जोड़कर बनाया गया था। यह चारखानेदार ऊनी कपडे और चेक से बनते थे, ज़्यादातर लाल और सफ़ेद, इन्हें आमतौर पर ‘मद्रास चेक’ के नाम से जाना जाता था। ये स्थनीय कालीबाड़ी समुदाय के लिए काफी महत्वपूर्ण थे। कॉटन के सबसे शुद्ध किस्म को कालीबाड़ी भाषा में ‘इंज्री’ कहा जाता, अंग्रेज़ी में जिसका मतलब “रियल इंडिया” होता है। महिलाओं और पुरुषों द्वारा इसे अंगोछे की तरह इस्तेमाल किया जाता। माना जाता है कि इनके पुराने प्रारूपों को ब्रिटिश व्यापर मार्ग पर 17 वीं और 19 वीं शताब्दी के बीच अफ्रीका ले जाया गया था। आजतक प्राकर्तिक रूप से डाई किये हुए इंडिगो कपडे को गोपनीयता से जोड़ कर देखा जाता है। कपडे को जब पहना जाता है,तो मन जाता है कि इसकी डाई में चिकित्सीय गुण होता है। गौर करने वाली बात है कि काले रंग को भारत की पौराणिक कथाओं में नीले रंग से दर्शाया जाता रहा है, जो इंडिगो रंग के बहुत करीब है। कहीं हम हर बात को पश्चिम से जोड़कर, अपने गहरे और रोचक इतिहास को नज़र अंदाज़ तो नहीं कर रहे हैं? हमें इन दृश्यों पर गहराई से विचार करना चाहिए और अपने सार्वलौकिक इतिहास पर पुनर्विचार करना चाहिए।

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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2017

मध्य मार्ग एं ड्रू आनंद वूगल

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शीत शीत अं अंक 2017 •• खिड़की आवाज़

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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2017

तीन साल बाद घर का नज़ारा फेका अनेदि मार्क बर्ट्रांड

मैं

ने एशियन स्कू ल ऑफ़ मीडिया स्टडीज़, नॉएडा से सिनेमा में स्नातक किया। उसके बाद जब मैं अपने घर याउन्दे कैमरून वापस गया, तो यहाँ जाकर मुझे धक्का सा लगा। उस जगह, जहाँ मैं पैदा हुआ और बड़ा हुआ, वहां वापस जाकर मुझे एक अजनबी होने का एहसास हुआ। मुझे इस बात की हैरानी थी कि इतने कम समय में कैसे इतना कुछ बदल गया था. लेकिन हाँ, कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती। लोग, संस्कृ ति, खाना और भौगोलिक स्थिति हमेशा एक से रहते हैं। मेरे घर वापस आने पर सभी खुश थे। उन्होंने मेरा बहुत अच्छे से स्वागत भी किया। ये देखकर बहुत अच्छा लगा कि एअरपोर्ट कर्मचारी भी मुझसे ऐसे बात कर रहे थे जैसे वो मुझे बहुत समय से जानते थे और मेरे जाने के बाद मुझे याद करते थे। इतने सालों बाद अपने परिवार से वापस मिलना भी मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था, जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। गाड़ी में घर की ओर जाते हुए जो बात मुझे सबसे ज़्यादा खटकी वो ये थी कि सब कुछ कितना छोटा लग रहा था। दिल्ली में इतना समय बिताने के बाद, मुझे चौड़ी सड़कों और ऊँची इमारतों को देखने की आदत हो चुकी थी। और उससे भी ज़्यादा मुझे सड़के खाली-खाली सी लगती थी। वो इसलिए क्योंकी मुझे दिल्ली के ट्रैफिक और भीड़-भड़ाके की आदत हो चुकी थी। घर वापस आकर मुझे कुछ दिनों तक तो यहीं लगता रहा कि आं खिर यहाँ के लोग कहाँ गए। मेरे देश की जनसँख्या लगभग 20 मिलियन है जो की शायद

राधा महेन्द्रू

खो

मार्क (बायें) अपने नोएडा में अपने कॉलेज के मित्रों के साथ।

दिल्ली की जनसँख्या के बराबर हो। मेरे घर के मौसम ने मुझे एक तसल्ली सी दी। अगस्त के महीने में दिल्ली का तापमान 37 डिग्री था। उसी समय मैं दिल्ली छोड़ अपने घर वापस पहुँचा। वहां पहुच ं कर पंखे और एयर कंडीशनर की ज़रूरत महसूस ही नहीं हुई। जो खाना खाकर मैं बड़ा हुआ था, उसे वापस चखकर ऐसा लगा जैसे मैं उसे पहली बार खा रहा हूँ। वो सब खाना मुझे एक नए अनुभव जैसा लगा। अपने आसपास इतने सारे अफ्रीकियों को एक साथ देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। तब मुझे घर वापस आने का सही अर्थ समझ में आया। यहाँ भारत में भी, अपने किसी अफ़्रीकी भाई को देखकर सुरक्षित महसूस होता है। इसीलिए अपने जैसे दिखने वाले लोगों को आसपास देखकर एक अपनेपन का एहसास हुआ। आसपास इतना कुछ नया बन चुका था, ढाँचे बदल चुके थे कि मैं अपनी ही पड़ोस को पहचान नहीं पाया। कुछ समय तक मुझे ऐसा ही लगता रहा। लेकिन समय के साथ साथ ऐसा लगना बंद हुआ। दो हफ़्तों में ही जैसे मेरे बचपन का कैमरून वापस आ गया। सब कुछ

पहले जैसा लगने लगा सिवाय कुछ छोटे मोटे बदलाव के। लेकिन, मैंने ये महसूस किया कि वहां जितने भी भारतीय मुझे दिखे, उन्हें देखकर मेरा मन किया कि मैं उनसे जुडूं। मेरा मन करता था कि मैं उनके पास जाकर अपनी थोड़ी बहुत सीखी हुई हिंदी में बात करूं और देखूं कि उनके चेहरे के भाव कैसे बदलते हैं. भारतियों को दरू से ही पहचान लेना एक अच्छा अनुभव था। मेरे देश में मिडिल ईस्टर्न और भारतीय लोगों को कई लोग अरब कह देते हैं। तब मैं उन्हें टोकते हुए कहता हूँ, “ नहीं वो अरब नहीं हैं, भारतीय हैं। ” अब मैं भारत वापस आ गया हूँ। मुझे अपने घर की बहुत याद आती है लेकिन फिर भी मुझे भारत में रहना बुरा नहीं लगता। अब जब भी मैं घर वापस जाता हूँ, मैं उस जगह की और भी सराहना करता हूँ और मुझे वहाँ जाकर कुछ चीज़ें भी सीखने को मिलती हैं, जिनके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी. नयी संस्कृ ति और नए लोगों को जानने का अनुभव अद्भुत है। इससे हमें अपनी और द ूसरों की समानताएं और भिन्नताएं और अच्छे से समझ आती हैं।

ज़ीज़ बामियान, अफ़ग़ानिस्तान से हैं, टीटो, लाओस, नाइजीरिया से और मैं पुणे से, खिड़की हम तीनो की तिकड़ी के लिए एक अनोखा अनुभव रहा है। हम कलाकार के रूप में यहाँ खोज में एक महीने से रह और काम कर रहे हैं, और अक्सर यहाँ के छुपे ख़ज़ानों को खोजने और नए दोस्त बनाने लम्बी सैर पर निकल पड़ते हैं, चाय की कई प्यालियाँ हमारा इन सैर पर साथ देती हैं। जहाँ हम रहते हैं वहां नज़दीक में दो चाय की दक ु ाने हैं जो दिन रात सबको गरम चाय परोसती रहती हैं और पूरी गली को ताज़ा ऊर्जा से जीवंत रखती हैं। ऐसे ही चाय की आदी मैं अपने घर पुणे में हूँ जिसकी दधिय ू ा मिठास आपकी ज़बान पर कई देर तक मंडराती है। मेरी राय में इसकी जोड़ी पार्ले-जी बिस्कु ट के साथ खूब जमती है। अफगानी चाय साफ़ और कड़क होती है और सिर्फ पानी और चायपत्ती से बनती है। स्थानीय रेस्त्रां और घरों में हम इसका खूब लुफ्त उठा रहे हैं। कुछ दिन पहले मैं काफी भावुक हो गयी जब एक अफगानी परिवार ने हमे अपने काबुल से लाये हुए

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ज इं टरनेशनल आर्टि स्ट एसोसिएशन ने एक समकालीन कला संगठन के रूप में दो दशकों से समुदायों, कलाकारों और लोगों को कल्पना और रचनात्मकता में सक्षम बनाने का प्रयास किया है।

सांस्कृतिक विविधता का जश्न मनाना है। साथ ही प्रदर्शनी, बातचीत, संगीत, रंगमंच, खेल, बाजार और व्यंजनों के माध्यम से समुदाय की कहानियों को सामने लाना है। ‘खिड़की महोत्सव’ खोज स्टूडियो, साई बाबा मंदिर और जामुन वाला पार्क में सक्रिय रहेगा।

एक कला सेंटर के रूप में खिड़की जैसे समाज में होना क्या होता है ? एक कला का केंद्र समुदाय में और समुदाय के साथ, दोनों को फायदेमंद, निरंतर और सतत कैसे बन सकता है ?

खोज स्टूडियो में कलाकृतियाँ, वीडियो, वर्कशॉप और खोज के सहयोग से किए, खिड़की के चार दीर्घकालीन प्रोजेक्टों के आसपास संवाद होगा: “खिड़की स्टोरीटेलिंग प्रोजेक्ट” स्वाति द्वारा, “खिड़की खोज का संपर्क खिड़की से सन वॉइस/ खिड़की आवाज़” मालिनी 2002 में इस मोहल्ले में आने से जुड़ा कोछु पिल्लै और महावीर सिंह बिष्ट था। खिड़की एक निरंतर बदलती हुई द्वारा, “खिड़की डायलॉग्स और किस्से जगह है, जहाँ भारत और बाहर से कनेक्शन” आगाज़ थिएटर ट्रस्ट द्वारा प्रवासी आते जाते रहते हैं। सांस्कृतिक और अरु बोस के सौजन्य से स्थानीय विविधता अक्सर तनाव, भेदभाव और बच्चों के साथ “द यंग आर्टि स्ट ऑफ़ नस्लभेदी घटनाओं का कारण होती खिड़की” प्रोजेक्ट। हैं, लेकिन इस जगह को संपन्न और

सुरश े पाण्डे

चाय और मेलजोल का सिलसिला राज्यश्री गुडी

महोत्सव में स्थानीय कलाकारों की धूम

बायें से दायें: राज्यश्री, टीटो, अजीज़ और कर्मा खिड़की में चाय का मज़ा लेते हुए।

सुनहरे किशमिश और बादाम चाय के साथ परोसे। कई कुबद, एक स्थानीय रेस्त्रां में काम करने वाले नौजवान हैं जो की बताते हैं की अगर इस चाय को नीम्बू के साथ परोसा जाये तो ये अस्थमा के मरीज़ों को ठीक कर सकती है। जब भी कोई उनका जानकार अफ़ग़ानिस्तान से दिल्ली अपना इलाज कराने आ रहा होता है तो कई पुख्ता कर लेते हैं की वह अपने साथ 5-10 किलो काबुल से चायपत्ती लेता आये ताकि उनके ग्राहकों के लिए नियमित आपूर्ति बानी रहे। संयोग से, चीन ने भारतीय और अफगानी चाय की संस्कृति में एक बहुत अहम भूमिका अदा की है। अफ़ग़ानिस्तान में कहा जाता है की स्थानीय कबीले चीनी व्यापारियों से अपना सामान चाय और रेशम के बदले में बेचते थे। आसानी से ढोए जाने और मादक ना होने के कारन चाय यहाँ बहुत जल्दी सबका पसंदीदा पेय बन गयी। चीनी एकाधिकार को तोड़ने के लिए 11 वी शताब्दी के शुरू में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे भारत से परिचय करवाया। उन्होंने चीनी रोपण और खेती की तकनीक काम में ले यहाँ चाय का उद्योग शुरू किया जो की 1920 के दशक में स्थानीय भारतियों ने उपयोग

में लिया। अफ़्रीकी महाद्वीप के भी कुछ हिस्सों में चाय का आं नद लिया जाता है जैसे की मोरक्को, सहेल और सोमालिया। असल में, सोमालिया में चाय ऊंट के दध ू , इलायची, लौंग, दालचीनी, और अदरक से बनायीं जाती है जो की भारतीय मसाला चाय से काफी मिलती जुलती होती है। यहाँ तक की कई बार इसे वहां ‘चाय’ के नाम से ही सम्बोधित किया जाता है। टीटो ने मुझे बताया की नाइजीरिया में जोबो टी, एक गुड़हल के फूलों की हर्बल चाय और लिप्टन ब्लैक टी बहुत लोकप्रिय है। लोग लिप्टन को सीधे डब्बे में से पीते हैं। असल में, उन्हें लगता है की नाइजीरियन अगर चाय को पहली बार किसी और रूप में देखेंगे, और खासकर दध ू के साथ तो वे हक्के बक्के रहा जायेंगे। आने वाले कुछ हफ़्तों में मैं अपनी खिड़की की सैर पर गुड़हल वाली ज़ोबो टी चखने की आशा कर रही हूँ, और शायद मैं दनिय ु ा के अलग अलग हिस्सों की और दिलचस्प चाय से रूबरू हूँ। और ऐसा करने से खिरकी के भिन्न भिन्न श्रेणी के निवासियों से मुझे चर्चा और दोस्ती करने का रास्ता चाय दिखलायेगी।

जीवंत बनाती हैं। पिछले कुछ सालों में खोज का समुदाय के साथ संबंध निरंतर और सतत रूप में बढ़ा है। इसका अंदाजा आप स्थानीय लोगों की खोज द्वारा चलाये जा रहे अल्पावधि और दीर्घावधि कार्यकर्मों में प्रतिक्रिया और भागीदारी से लगाया जा सकता है। ये रिश्ते दोस्ती, निर्भरता और लोगों के आपसी सहयोग, आर्थि क लेनदेन और अनौपचारिक संस्थागत मदद से बने हैं। पिछले तीन साल में खोज ने प्रबुद्धता के साथ प्रयास किये हैं कि दीर्घावधि वाले प्रोजेक्टों की मदद की जाए। इससे समुदाय के साथ संबंध और प्रगाढ़ हुए हैं। खोज का सामुदायिक संपर्क, भागीदारी से बढ़कर अब समुदाय में से ही सक्रिय नागरिक और हितधारक का है। खोज ने दीर्घकालीन प्रोजेक्टों का एक ऐसा वातावरण बनाया है, जो शाखाओं का रूप लेकर एक दूसरे के साथ मिलकर कला के सूत्रों को बाँटते, अलग-अलग माध्यमों में समाज के साथ एक-दूसरे के सहयोग से काम करते। इन गहरे और विविध प्रयासों से खिड़की के लोग इस जगह को अलग नज़रिये से देखते हैं, जो जगह, संसाधन और मदद मुहय् ै या कराएगा, किसी भी तरीके की, यदि काम कला से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ हो। ‘खिड़की महोत्सव’14-17 दिसंबर तक चार दिन का कला महोत्सव होगा। खोज द्वारा आयोजित, इस महोत्सव का मकसद खिड़की की

साथ ही खोज स्टूडियो के रेसिडेंटो की प्रदर्शनी खुलेगी, जिनमें टीटो आदरमी-इब्तेला (नाइजीरिया), अज़ीज़ हाज़रा (अफ़ग़ानिस्तान), राज्यश्री गुडी ( भारत ) ने खिड़की को देखकर प्रतिक्रिया कर चार हफ्तों की रेजीडेंसी में कला के कुछ नमूने बनाये हैं। यहाँ की विविधता को भोजन के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है। खोज की छत्त पर फ़ूड मेला और बाज़ार लगेगा, जिनमें घरेलु रसोइये और खिड़की के स्थानीय ढाबों से अफगानी, सोमाली, कॅमेरूनी, बिहारी और अन्य व्यंजनों को परोसा जायेगा। सप्ताहांत में जामुन वाला पार्क में पब्लिक परफॉरमेंस होंगी। “द सर्वाइवर क्रू ’ खिड़की का एक स्थानीय बी-बॉयज ग्रुप और “द खिड़की एन्सेम्बल”, एक पाँच सदस्यीय बैंड परफॉर्म करेंगे। स्थानीय युवा “आगाज़ थिएटर ट्रस्ट” के साथ मिलकर दो नाटक करेंगे: दुनिया सबकी और किताबें। साथ ही “द खिड़की स्टोरीटेलिंग” प्रोजेक्ट के साथ बनाये गए म्यूजिक वीडियो और फिल्मों की स्क्रीनिंग होगी। इसके साथ मिस बाहुबली और म्यूजिक टैलेंट शो का आयोजन होगा। विजेताओं को पुरस्कार दिया जायेगा।हम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की भागीदारी की उम्मीद कर रहे हैं। हम चाहते हैं की हमारे प्रयासों से समुदाय में सौहार्द और आपसी बातचीत का माहौल बने।


शीत अंक 2017 • खिड़की आवाज़

जहाज़ी की गाँव वापसी शब्द और कलाकृतियाँ

एं ड्रू आनंदा वूगेल

गाजिकपुर राई बरेली के गन्ने के खेत।

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नवंबर 2017 के सप्ताहांत में, मैं दिल्ली से अपने पुरखों के खोये हुए घर को ढू ंढने निकला। साथ ही पिछले सौ सालों से अधिक समय से हमारे परिवार पर मडराते रहस्य को सुलझाने निकला। मेरी परदादी को, अंग्रेजी राज की अनुबध ं वाली प्रणाली, जिसमें बिहार, उत्तरप्रदेश और अन्य इलाकों से अनुबधि ं त गुलामी के तहत, उत्तर प्रदेश के उनके गाँव से ले जाया गया था। इसमें लाखों लोगों को ले जाया गया। ज्यादातर को उपनिवेश की वेस्ट इंडीज, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण प्रशांत की कॉलोनियों में भेजा गया। मैंने अपने ड्राइवर और गाइड भूपेंद ्र बिष्ट के साथ सुबह 8 बजे निकला। यह मुश्किल था पर मैंने इस सफर पर जाने मन बना लिया था। मैं अपने पूर्वजों के गाँव के बहुत नज़दीक था। पिछली शाम को मैं अपनी माँ से बात कर रहा था, जिन्होंने 15 साल पहले एहि प्रयास किया था। वे कानपुर तक तो पहुँच गई थी, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। इस सफर से पहले सन्दर्भ के लिए मेरे पास उस अनुबध ं का एक सौ साल पुराना दस्तावेज था, जिसे 10 साल पहले मैंने वेस्ट-इंडीज़ की यात्रा में खोजा था। हमारी पहली मंज़िल, दिल्ली से कुछ सौ किलोमीटर दरू , ग़ज़ियापुर था। एक अमेरिकन होने के नाते, भारत की मेरी सड़क यात्रा में, घुमावदार पतली सड़कें, हर तरह के वाहन, सर्दी की धुध ं , सडकों के किनारे स्टॉप को

समेटे रहतीं, साथ ही सड़क के दोनों तीन दिन तक तरफ मन मोहने वाले सुन्दर नज़ारे थे। हम यू.पी. की धूल भरी सडकों पर, शाहजहांपुर से कुछ दरू , दोपहर तक अपने पहले पड़ाव पर पहुच ं े। सुन्दर देहाती नज़ारों के बीच, दोनों तरफ गन्ने के खेतों को बाँटते हुए पतले रास्ते को देख मेरा मन गदगद हुआ-वेस्ट इंडीज में मेरे गाँव में इसी तरह गन्ने की फसल थी। जैसे ही हम आगे बढे तो स्थानीय किसान हमारा स्वागत करने के लिए आये। वे हमारी यात्रा का कारण जानने के लिए काफी मिलसार और उत्सुक थे। मेरे सवालों का जवाब ना मिलने पर, मुझे समझ आ गया था कि हम गलत गाँव में हैं। शाम को जब हम कहीं रुके तो मेरे गाइड ने इस मिशन का कारण समझने की इच्छा जताई, वह कई सवाल करने लगा। अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी और मेरी टूटी-फूटी हिंदी से उसने जात, डिस्ट्रिक्ट, गाँव, थाना और नामों को अपनी स्मृति में अंकित कर लिया। अगली सुबह हम दस ु रे ग़ाजियापुर को ढू ंढ़ने निकले, जो लखनऊ से लगभग 5 घंटे की दरू ी पर है। जैसे ही हम गाँव के द्वार पर पहुच ं े तो, भूपेंद ्र ने अपनी खिड़की खोली और आसपास मौजूद लोगों से याद की हुई जानकारी से जुड़े सवाल करने लगा। जब मेरी परदादी को यहाँ से ले जाया जा रहा था तो उन्हें जबरन अपनी बेटी को पीछे छोड़ने को कहा गया और आज तक यह इस परिवार का सबसे बड़ा ग़म है। उनकी बेटी को क्वारिया के नाम से सूचीबद्ध किया गया है, लेकिन मेरे परिवार को

जग्गू का परिवार और रिश्तेदार एं ड्रू से मिलने उमड़ पड़े।

बताया गया था कि उसका औपचारिक नाम इन्द्राणी था। इस गजियापुर में हमें एक इन्द्राणी चौहान के घर की तरफ भेजा गया। गायों के झुड ं ों के पास और सुन्दर झील के बगल से गाडी को बढ़ाते हुए, हम उनके घर पहुँचे। अगर इन्द्राणी अभी जीवित होंगी तो लगभग 100 साल की होंगी, इसलिए मैं काफी उत्सुक था की ये वही हैं या नहीं। मैंने बेचन ै ी से दरवाज़ा खटखटाया और लगभग 50 साल की एक औरत ने दरवाज़ा खोला और खुद का परिचय इन्द्राणी के रूप में दिया। मैंने उनसे और उनके पति से बात किया तो निष्कर्ष निकला की हम फिर से गलत ग़ज़ियापुर में हैं। बीस मिनट के भीतर स्थानीय पंचायत बैठ गयी। चाय पीने के बाद, सभी अपने सेल फोन से उत्तर प्रदेश के अपने संपर्क सूत्रों को फ़ोन करने लगे। दोपहरी तक, तीसरे गजियापुर की जानकारी पुख़्ता हो गयी थी। स्थानीय वकील श्री उदय प्रताप सिंह ने गजियापुर के अपने जानने वाले को संपर्क किया, जो यहाँ से लगभग 4 घंटे वापसी की दिशा में था। भूपेंद ्र घबरा रहा था कि हम सूरज ढलने से पहले नहीं पहुँच पाएं गे, तो उन्होंने गाड़ी को भगाया। दो घंटे बाद हम लालगंज नामक जगह पहुँच गए थे। चिंतित भूपेंद ्र ने खिड़की को निचे किया और पहले राहगीर से गजियापुर के बारे में पूछा, जिसका थाना बछरावा था। प्रताभ सिंह अपने बाजार के सामान से लदा हुआ था, ने बताया कि ग़ाज़ियापुर उसका खुद का गाँव है। भूपेंद ्र ने तुरत ं उन्हें गाडी में बिठा लिया और हम डूबती रौशनी में आगे बढे। कुछ अलग

महसूस हो रहा था। शाम के लगभग 6 बज रहे थे और हम सफर से बुरी तरह थके हुए थे। मैं इस खूबसूरत रौशनी और नज़ारे में पूरी तरह डूबा हुआ था। कुछ असफल प्रयासों के बाद, हमें श्रीधर मिश्रा मिले। ये वही थे जिनका नंबर पिछली पंचायत से मिला था। वे हमें गाँव के किसी बुजुर्ग के घर लाये थे, फिर अपने आप पंचायत जुटने लगी। जब में विजय शुक्ला और उनके बेटे अमन के साथ बैठा था, तो मैंने अपना लैपटॉप निकला और दस्तावेज़ को ज़ूम किया, स्थानीय बुजुर्ग उसकी सूचना को पढ़ने लग गए। उन्होंने तुरत ं त ं अनुबधि गुलामी व्यापर के दख ु द इतिहास का ज़िक्र किया, जो गुयाना,सूरीनाम और मॉरिशियस तक जाता था। यह सुनकर मेरा दिल खुश हुआ-जब कभी आप इतिहास में भीतर तक गोते लगाते हो, रास्ते नज़र आने लगते हैं और तथ्य गल्प-कहानियों का रूप लेने लगते हैं। लेकिन पंचायत सही रास्ते पर थी और उन्हें अच्छी और साफ़ जानकारी थी। उनके फ़ोन लगातार काम पर लगे हुए थे। विजय शुक्ला ने बताया कि मेरी जानकारी के मुताबिक उन्होंने एक सुराग निकाला है: मेरी परदादी एक चमार थीं और उनका पति जग्गू था, उनकी एक बेटी थी क्वैरिअ या इन्द्राणी वे ग़ाजियापुर से थीं, डिस्ट्रिक्ट राई बरेली, थाना बछरावा। हमने अगली सुबह फिर से गाँव के बुज़ुर्गों से मिलने का प्लान बनाया। पास के इकलोते होटल में बेचन ै ी से मैं भूपेंद ्र के साथ सिगरेट जला रहा था।

होटल का भीतरी हिस्सा नीली रौशनी से चमक रहा था। ऐसा लग रहा था कि कोई एक अरसे से यहाँ नहीं आया था। अगली सुबह हम पंचायत से एक ढाबे पर चाय के लिए मिले। जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे हम वापस कल वाले रास्ते पर गए और विजय एक युवक की तरफ बढ़ा। उसने जग्गू के बारे में पूछा और उसकी उम्र जाननी चाही। उस युवक, जितेंद ्र प्रसाद ने कहा लगभग 140 साल। यह वही उम्र थी जो फॉर्म में सूचीबद्ध थी। विजय ने फिर जग्गू की बेटी और पोती के बारे में पूछा। जितेंद ्र ने बताया कि उसकी बेटी को कुछ हो गया था इसलिए, वह अपनी पोती को लखनऊ के पास अपने पुश्तैनी गाँव ले गया। यह शुरूआती 1900 का साल रहा होगा। मैं व्याकुल था, मैं रोना चाहता था और उस नौजवान को गए लगा लेना चाहता था, जिसने सालों से हमारे परिवार को परेशान कर रहे राज़ से पर्दा उठाया था। लेकिन गाँव के सैकड़ों नए दोस्तों के सामने मैंने अपनी भावनाओं को बाद के लिए संभाल कर रखा। भूपेंद,्र मेरा संकल्पी और दृढ गाइड ने बीच में सूचना पुख्ता करने के लिए दस्तावेज से जुड़े सवाल पूछने शुरू किये। उस नौजवान ने अपने पिताजी को बुलाकर बाकी जानकारी पुख्ता की। यह जानकार की हमारे सामने सही गाँव, डिस्ट्रिक और थाना है और सामने कई लोग जो जग्गू के रिश्तेदार हैं, ने मेरे दिल को सुकून दिया। मैं जग्गू के घर पहुच ं ा तो चाय और मिठाई का सिलसिला शुरू हुआ। स्थानीय पंचायत ने मुझे आश्वासन दिया कि वे हर जानकारी को पूरी तरह आश्वस्त और पुख्ता करेंगे। इस पल में मुझे अपने सिर से सैकड़ों सालों के बिछड़ने और खोने का दर्द उठता हुआ महसूस हो रहा था। दो हफ्ते पहले ही मेरे दादाजी गुजरे थे। वे वेस्ट इंडीज में जहाजियों की पहली पीढ़ी से थे। जब मैंने अपनी माँ को ये सब बताया तो उन्हें वे भारत में अपनी बहन को ना खोज पाने की बात पर पछतावा करने लगी। मुझे बहुत दःु ख हुआ। दिल्ली आते हुए मुझे अपना सीना हल्का लग रहा था। मैं जल्द ही दोबारा उत्तर प्रदेश जाना छुंगा और गजियापुर में और अधिक वक़्त बिताना चाहूगं ा। न सिर्फ अपने इतिहास के बारे में जानने के लिए बल्कि, उत्तर प्रदेश के अच्छे और उदार लोगों के साथ समय बिताने के लिए, जोहोने इस सफर में मेरी मदद की।

एं ड्रू जग्गू के परिवार और रिश्तेदारों के साथ

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खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2017

महीनों से मैं नौकरी की तलाश कर रही हूँ । लेकिन हर बार कोई समस्या आ जाती है।

क्षितिज एक काल्पनिक रे खा है

आपके पास वीज़ा नहीं है।

एक शरणार्थी की कहानी

संकल्पना और लेखन: बानी गिल और राधा महेन्द्रू सहयोग: फ़ातिमा हसन, मुहम्मद कूफ़ और हाफ़िज़ सचित्र और रूपरेखा: पिया अली हज़ारिका

मुझे बताओ, तुम्हें हमेशा ऐसे ही रहना है?

एक सोमाली होने की वजह से, यहाँ मेरे कोई अधिकार नहीं है। मैंने वापस नहीं जा सकती पर एक भारतीय नागरिक भी नहीं बन सकती। मेरी पढाई का कोई फायदा नहीं हुआ। माँ बचपन से कहती थी कि मेहनत करने से सफलता मिलती है। अब मुझे एहसास हो गया है कि नाम और नागरिकता ज़्यादा मायने रखती है।

आपके पास बैंक खाता नहीं है।

हमारे जैसे रिफ्यूजियों को यहाँ काम करने का अधिकार नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा छोटे-मोटे काम मिल जाते हैं, जैसे होयो जमा मस्जिद में बर्तन धोने का काम करती है। आपको हिज़ाब उतारना पड़ेगा।

अब मुझे समझ आया कि दिन प्रतिदिन इतने सारे लोग यू.एन. एच.सी.आर. के बाहर किस कारण खड़े होते हैं । हम सब जवाब ढू ढं रहे हैं। हम अपने घर वापस नहीं जा सकते। भारत में हमारा कोई भविष्य नहीं है। हम कहाँ के नागरिक हैं?

बधाई हो!

अंततः मुझे आर.सी.पी.* में कम्युनिटी वर्क र के तौर पर नौकरी मिली। मैं बहुत खुश थी। दो महीने बाद हम मेरे दफ्तर के नज़दीक, हौज़ रानी शिफ्ट हो गए। रिफ़्यूजी कम्युनिटी प्रोग्राम, जो एक सामुदायिक विकास से जुडी पहल है।

23 नवंबर 2009 को 5 महीने और 3 दिन बाद हम भारत पहुँ चे- हमें शरणार्थी होने के दस्तावेज़ दिए गए। मेरा पूरा परिवार खुशियाँ मना रहा था, पर में दुखी थी। हमारा अपना घर क्यूँकि हम भी इं तज़ार करने के इस खेल का हिस्सा बन चुके हैं।

...और इस इं तज़ार का कोई अंत नहीं है।

...मैं कु छ लोगों से मिली जो यहाँ दस साल से भी ज़्यादा समय से रह रहे हैं। अगर आप उनसे पूछेंगे कि ये दस साल कै से काटे, तो वे कहेंगे-

मैं तुरंत सजाना चाहती थी। पर होयो ने हमें रोका। वो सही थी। हम शरणार्थी हैं। हमें जल्द ही कहीं और जाना पड़ेगा।

...इं तज़ार

यू.एन.एच.सी.आर. के बाहर इं तज़ार

हमें कभी भी प्रवास मिल सकता है।

घर के लिए खरीदा सामान: पुनर्वास का इं तज़ार

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तो मैं भी अपनी ज़िन्दगी फिर से शुरू करने के मौकों का इं तज़ार करने लगी

टेबल लैंप प्लास्टिक की कुर्सि याँ सिंगल गद्दा


शीत अंक 2017 • खिड़की आवाज़

संस्कृतियों को जोड़ती बालों की डोर

बड़ी रकम देने वाले विग निर्माता को ये बाल सौंप दिए जाते हैं। इन बालों से दनिय ु ा भर की श्याम रंग महिलाओं के फैशन के मुताबिक विग वगेहरा बनाये जाते हैं। “बालों से बहुत फ़र्क पड़ता है। खासकर हम अफ़्रीकी महिलाओं के लिए तो बाल ही सब कुछ हैं। इन्हीं से तो हमारा किरदार बनता है, हमारी पहचान बनती है”, फतौमता ने कॉलेज जाने की तैयारी करते हुए कहा। अपने विग पर ध्यान से कंघी चलाते हुए और बड़ी कुशलता से उसे अपने हर पर ठीक से रखते हुए उसने आगे कहा, “ बाकी औरतों को ये बात समझ नहीं आएगी कि हम अफ़्रीकी औरतों के लिए बाल ही सब कुछ हैं। ” फतौमता के लिए ये ज़रूरी नहीं कि विग सुन्दर लग रहा है कि नहीं। लेकिन, बाकी श्याम रंग महिलाओं की ही तरह, वो भी अपने प्राकृतिक बालों को लेकर चिंतित रहती है। उसने मुझे बताया कि वो अपने बालों को छुपाये बिना घर से कभी बाहर नहीं निकली। कुछ ही सेकंड में वो अपना विग ठीक कर लेती है। उसका रूप बदल जाता हैऔर वो आत्मविश्वास से भर जाती है। इस तरह वो पूरे दिन को जीतने के लिए तैयार हो जाती है। 20 वर्षीय फतौमता मलियन से आई हुई है। वो दिल्ली में बी। बी। ए कर रही है। फतौमता के पास अलग अलग स्टाइल और रंग के लगभग आधे दर्जन विग हैं। वो इस बात का ख़याल रखती है कि वो कौनसा विग कब पहने। वो अपने

मिज़ाज और मौके के हिसाब से विग का चयन करती हैं। फतौमता बताती है, “ लम्बे और कले विग में मैं क्लासी लगती हूँ। इसलिए मैं औपचारिक अवसरों पर ऐसे विग को पहनती हूँ ताकि मैं अच्छी लगू।ं छोटे विग अनौपचारिक अवसरों पर काम आते हैं, ख़ासकर गर्मियों के मौसम में जब दिल्ली में बहुत गर्मी होती है। ” फतौमता ने अपनी बालों के फैशन की इस रूचि को एक कारोबार बना लिया। अब वो यूरोप में रहने वाली निर्वासित मलियन महिलाओं को बल्क आर्डर भेजती हैं। वो बताती हैं, “ मैं इस उत्पाद के करीब हूँ। और बाहर देशों में मेरे अच्छे सम्बन्ध भी हैं। इसीलिए मैंने सोचा कि मौके का फायदा उठाया जाया और पैसे कमाए जाएँ । ”अपने दोस्तों के बीच फातू नाम से जानी जाने वाली, बाज़ार से सबसे उत्कृष्ट किस्म के बाल खरीदती हैं। सिर्फ़ एक कट से इकठ्ठा हुए बालों को रेमी बाल कहते हैं। इन्हें काटते समय इनके बढ़ने की दिशा को संरक्षित किया जाता है जिससे इनका सबसे प्राकृतिक रूप बना रहता है और इस्तमाल करने वाले के सर पर अच्छा भी लगता है। लम्बे बाल एक औरत के लिए बहुत ज़रूरी हैं। खासकर कुछ समाजों में। इसीलिए ऐसे लम्बे बाल मिलना बहुत मुश्किल होता है। दक्षिण भारत की इस पुरानी परंपरा में महिला और पुरुष भक्त दोनों ही अपने भगवान् के लिए अपने बालों की कुर्बानी देते हैं। और मानते हैं कि नके भगवान् ने उन्हें पीड़ा से मुक्त किया है।

दक्षिण आं ध्र प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरतिरुमाला में मैं एक सुबह मीना से मिली। वो अपने पति और दो बच्चों के साथ अपने इष्ट देव और तिरुमाला के स्थानिक भगवान् वेंकटेश्वर से प्रार्थना करने आई थी। मीना के पेट में ट्यूमर है। उसे विश्वास था कि वो ठीक हो जायेगी। लेकिन डॉक्टरों ने उसके बढ़ते ट्यूमर को देखते हुए अपने हाथ खड़े कर दिए। डॉक्टरों की असमर्थता से निराश होकर मीना ने भगवान् वेंकटेश्वर पर अपना विश्वास जगाया। और अपनी ज़िन्दगी वापस मिलने के बदले एक कुर्बानी देने का प्रण ले लिया। जब में उससे मिली तो पूरी तरह गंजी हो चुकी थी। उसने अपने बाल अपने भगवान् के नाम कुर्बान कर दिए थे। बात करते हुए, वो अपनी बिमारी को पीछे छोड़ चुकी थी। उसकी बातों से लग रहा था कि वो अपने ठीक होने का जश्न बना रही थी। लेकिन कुछ ही हफ़्तों पहले उसने मुझे बताया था कि वो शय्याग्रस्त थी। उसे विश्वास है कि भगवान् ने ही उसे अपने तमिल नाडू के घर से, पूरे एक रात का सफ़र कर तिरुमाला आने की हिम्मत दी। मीना बताती हैं कि अपने बाल भगवान् के लिए कुर्बान करने में उसे किसी तरह का बोझ महसूस नहीं हुआ। उसकी मुस्कराहट उसके भीतर की शांति और संतुष्टि को दर्शा रही थी। उसने मुझे बताया, “ जीते रहने के लिए अपने बाल भगवान् को कुर्बान कर देना बहुत छोटी बात है। इसके बदले मुझे नया जीवन भी

तस्वीरें: कैरोलिन बर्टराम

कैरोलिन बर्टराम ज की सार्वभौमिक दनिय ु ा में जहाँ हम उँ गलियों के इशारे से चीज़ें खरीद सकते हैं, वहाँ हमारे और उपभोगीय चीज़ों के बीच की दरू ी कम होती जा रही है। इसी के चलते, इन चीज़ों के इतिहास और इनके सफ़र को आसानी से नज़रंदाज़ कर देना एक आम बात है। सभी चीज़ों के पीछे एक कहानी होती ही और जो भी हमारे पास आज है, वो कई हाथों से गुज़रा होता है और मैं जिसकी बात कर रहा हूँ, किसी के सर में उगा हो सकता है। मैं कुछ सालों से भारत में एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म बना रही हूँ और उसी सिलसिले में मैंने बहुत शोध किये। इसी दौरान मुझे बालों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के बारे में रूचि होने लगी। क्योंकी बाल एक बायोमटेरियल और इंसानी उत्पाद है,मूझे अचानक ख़याल आया कि ये बाल किसके रहे होंगे और किन हालातों में इन्हें हासिल किया गया होगा। हलाकि पाठकों के लिए ये एक हैरानी की बात होगी, लेकिन बालों के निर्यात का उद्योग काफ़ी फैल रहा है। विग, वीव और हेयरएक्सटेंशन जैसी चीज़ें बनायीं जा रही हैं। इसके लिए दक्षिण भारत के कई हिन्दू मंदिरों से, जहाँ भक्त अपने बाल भगवान् को चड़ा देते हैं, वहां से बेहतरीन किस्म बालों को चुना जाता है। इन मंदिरों में नए बनी नीलामी प्रणाली के ज़रिये बालों की बोलियाँ लगायी जाती हैं। सबसे ज़्यादा

nनई दिल्ली मु

टीटो आदेरम े ी-इबिटोला

झे रात में घूमना पसंद नहीं है। मैं कोशिश करती हूँ कि 11 बजे के बाद कहीं ना जाऊं। परछाई इतनी गहरी होती है कि आपको निगल जाए। मैं बेहतर महसूस कर रही हूँ क्योंकि स्टेफनी मेरे साथ है। वह काफी

खुशमिज़ाज है।” तुम काफी अच्छी हो। मुझे पता है, ज़्यादातर विदेशी लोग अच्छे नहीं होते। क्या मैं तुमसे कुछ पूछूँ? मैं मॉडलिंग करना चाहती हूँ, मैं तुम्हारे जितनी लम्बी तो नहीं हो सकती पर पतली ज़रूर हो सकती हूँ।”हम दोनों जानते हैं कि मेरा शरीर मॉडल का तो नहीं है पर मुझे ये सुनकर बहुत ख़ुशी

थी, मैं समझ नहीं पायी। जबतक हम कॉम्प्लेक्स पर पहुच ं े, स्टेफनी ने रास्ता बदलने की गुहार लगायी, मुझे याद था कि बहुत देर हो चुकी थी। “प्लीज़, मैं जल्दी आऊंगी”, मैं इस अँधेरे में उसे अकेला कैसे छोड़ सकती हूँ। “ठीक है”, वह मल्लम में रिचार्ज कार्ड लेने गई। मैं इंतज़ार कर रही थी। एयरटेल 200 नाइरा का। उसके पास नहीं है। एयरटेल सिर्फ 500 वाला है। स्टेफनी के पास पैसे नहीं हैं।”मैं पैसे नहीं लाई हूँ।” हमें तेज़ चलना होगा। मैं वापस जाना चाहती हूँ। मैं एयरपोर्ट पर हूँ। गार्ड ने मुझे पहचान लिया,”आप यहाँ पिछले हफ्ते थीं, आप वापस कब आ रही हैं?” “एक महीने में।” “मेरे लिए कुछ लेकर आना।””ठीक है।” जिस आदमी ने मुझे फ्लाइट तक पहुँचने की दिशा बताई, उसने सामान उठाने में भी मदद करने कोशिश की। मैंने मना किया। टिकट प्रिंट करने वाली औरत ने इशारे से एक्सप्रेस लाइन की तरफ जाने को कहा,”बहन औरतों के लिए कुछ भी।” “मैं आई!” नए और पुराने लोगों का सारा पैसा जा चुका होगा। यहाँ दिल्ली में, मैं एयरपोर्ट के बाहर टैक्सी वालों की कतारें देखकर हैरान थी, वे मेरे सामान में मदद करते और बाहर की दिशा में भेज देते। जैसे ही मैंने गाडी की बायीं तरफ से प्रवेश करते ही मेरे दिमाग में सब उल्टा था। लेगोस में

हम दायीं तरफ गाडी चलाते हैं, सड़क एक दस ू रे को प्रतिबिम्बित करतीं। घरों को जोड़ती बिजली की तारें, सिर्फ लकड़ी के एक खंभे से लटकती। मैं नीचे से गुज़रती हूँ। मोटर बाइक और रिक्शे वाले पुकारते हैं जब में गली से निकलती हूँ, ये आवाज़ें जानी पहचानी हैं। यहाँ कोई भी पटरी पर नहीं चलता। गली में लोगों ने सिम कार्ड के स्टाल लगाए हैं। मुझे एक सिम चाहिए, मैंने उस व्यक्ति से पूछा। 500 रुपये। मुझे मालूम है, मैंने गलती की है और मैं ऑनलाइन चेक करती हूँ। सिम 50 रुपये ज़्यादा महँगा नहीं होना चाहिए, मैं बेवकूफ हूँ, मुझे सावधान रहना पड़ेगा, मैं बहला-फुसलाकर “मेरे भाई” तो नहीं कह सकती। मैं उससे मोलभाव करते हुए बोलती हूँ,”ये इतना महँगा नहीं है।”, सौ रुपये का है। मेरी दोस्त इससे सस्ता देने की बात करती है। ये जगह गलत भी तो हो सकती है। नहीं ये जगह गलत नहीं है। लेकिन ये बाजार है। मैं लेगोस से हूँ। मैं बेवकूफ हूँ। मैं विरोध करती हूँ, वह थोड़ा कम करता है, 400 रुपये। मैंने ज़्यादा पैसे दे दिए हैं। मैं नाराज़ हूँ, पर खुश हूँ कि मेरी दोस्त मेरे साथ है। मेरे पास सिम कार्ड है पर इसमें सर्विस नहीं है। एक हफ्ता हो गया है। एक हफ्ता लेकिन कोई संपर्क नहीं। मुझे नहीं लगता ये चालू होगी, पर मैं इंतज़ार करुँ गी।

nनई दिल्ली

लेगोस की लेकि/जाकेन्डे मार्किट

हुई। शरीर में कोई खिंचाव या परेशानी नहीं रहती, एं डोर्फिन निकलता है और मेरा माथा गर्व से फूल जाता है। जब कोई आपके बारे में अच्छी बातें कहता है तो ये सब होता है। मैं निहत्थी हूँ। मुझे पता है ये सब झूठ है। कुछ नए और पुराने लोगों को यह बात कभी समझ नहीं आती। मुझे पश्चिमी देशों के लिए अक्सर बुरा लगता है। उन्हें समझ नहीं आता कि उनका तरीका हमारा तरीका नहीं है।”मैं अपने बोलने के तरीके को सुधारना चाहती हूँ, क्या मेरी मदद करोगी।” मेरी ज़्यादातर पढाई अमेरिका में हुई, न कि लेगोस में, मेरे बोलने के लहज़े से यह समझ आता है। लेगोस जैसी जगह में, मेरा बोलचाल का तरीका कीमती है। स्टेफनी का उं च्चारण लगभग मेरी ही तरह है, शायद इसलिए उसे नौकरी पर रखा गया है। वह साफ़ बोल लेती है। “मैं अच्छे से बातचीत करना चाहती हूँ।” मैंने अपना उच्चारण स्थानीय किया। “मैं अच्छे से बातचीत करना चाहती हूँ।” मैंने अपना उच्चारण स्थानीय किया। “आपका मतलब क्या है?” स्टेफनी अच्छे लहज़े में बोली,” ओह, हम यहाँ से टु क-टु क ले सकते थे”, मैं हैरान थी। हम रिक्शा को कीकी बोलते हैं।”आप वापस कब जा रही हैं? आप अगली बार जब वापस आओगे तो कुछ लेकर आना।” मुझे समझ आया कि वह मेरे उच्चारण से प्रभावित नहीं थी, वह मुझे प्रभावित करना चाहती

लेगोस

लेगोस

फोटु मटा अपनी विग को एडजस्ट करती हु ई टीटो आदेरम े ी-इबिटोला

मीरा मुड ं न के बाद तिरुमाला में

तो मिला है। ” मीना आत्मविश्वास से भरी हुई लगती है और अपने इस नए रूप मैं सुन्दर और स्वाभिमानी लगती है। वो कहती है, “ ये सच है कि बाल औरत की खूबसूरती को बढ़ाते हैं। लेकिन इन्हें त्याग देने में भी एक खूबसूरती है। भगवान् ने हमें पहले ही सुन्दर बनाया है, चाहे बाल हों या न हों। ” मैं उससे पूछती हूँ कि क्या उसे ये पता है कि इन बालों के साथ कट जाने के बाद क्या होता है। वो मुझे बताती है, “ मुझे मालूम है कि मंदिर प्रबध ं न लम्बे बालों को अलग कर देते हैं और बेच देते हैं। लेकिन इसके बाद ये बाल कहाँ जाते हैं, इसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा। और वैसे भी मुड ं न करा लेने के बाद हमारा काम ख़त्म हो जाता है। अगर हम बालों के साथ क्या होता है इसकी चिंता करने वाले होते तो हम उन्हें कभी दान ही नहीं करते। ” मीना की पीड़ा और मुक्ति की कहानी ऐसे हजारों कहानियों में से एक है, जो तिरुमाला में रोज़ घटती हैं। लेकिन जब फतौमता दिल्ली में विग की खरीदारी के लिए निकलती है तो ये साड़ी कहानियाँ ग़ायब हो जाती हैं, या धुध ं ली पड़ जाती हैं। उन औरतों के बाल, जो कभी उनकी पहचान थे, अब सफ़ाई की प्रक्रिया से गुज़रते हुए एक उत्पाद बन चुके होते हैं, जो अब किसी नए सर की सोभा बढ़ाएं गे। इन विग के पीछे की कहानियाँ इस वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के कारण एक ही समय में संगत और असंगत होती संस्कृतियों के बीच कहीं खो जाती हैं।

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महावीर सिंह बिष्ट

खिड़की आवाज़ • शीत अंक 2017

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मिलिए रोमियो से

हमारे इलाके में दनि ु या भर से आई हुई प्रतिभाएं रहती हैं. कुछ समय पहले हम मिले कौंगो से आये हुए एक युवा गायक और गिटार वादक से, जो पिछले एक साल से यहाँ रह रहे हैं. खिड़की आवाज़ ने बात की रोमियो किसके लेम्बिसा से और जाना उनके बारे में- उनकी रुचियाँ, प्रेरणास्त्रोत, उनके सफ़र और एक संगीतकार के तौर पे दिल्ली में उनके जीवन के बारे में कि इस नए शहर में वो अपना रास्ता कैसे बना रहे हैं.

रोमियो किसिके लेम्बासा

खि.आ.: कौंगो में अपने जीवन के बारे में बताइए। आपके भारत आने का कारण ? रोमियो: मैं, कौंगो की राजधानी किंशासा से हूँ, जो की मध्य अफ्रीका में है। मैं वहां का प्रसिद्ध संगीतकार था। मैं वहां के राष्ट्रपति के ख़िलाफ़ गाने गया करता था। वो वहां मासूमों की हत्या करते रहते हैं, बिना किसी कारण ही। मैं इन्हीं हत्याओं के ख़िलाफ़ गाने गया करता था। इसीलिए मेरा वहां रहता खतरनाक हो गया। मुझे जान से मार डालने की धमकियां आने लगी। इसीलिए मुझे अपना देश छोड़ना पड़ा। पिछले साल मैं एक शरणार्थी के तौर पे भारत आया। खि.आ.:दिल्ली जैसे शहर में एक संगीतकार के तौर पे आपको किन मुश्किलों का सामना करना ? रोमियो:क्योंकी मैं यहाँ एक अजनबी हूँ, मुझे कई दिक्कतें आई। यहाँ नयी शुरुआत करने के लिए मुझे बहुत सी चीज़ों का इंतज़ाम करना है। मुझे एक अच्छा गिटार चाहिए। अभी जो गिटार मेरे पास है, वो इतना अच्छा नहीं है। एक साल बहुत कम है, लेकिन मुझ में धैर्य है। मुझे यकीन है कि मैं नए सम्बन्ध बनाऊंगा और कुछ नया करूँ गा। मैं अफ़्रीकी हूँ,

लेकिन मुझे संस्कृ तियों का मिश्रण पसंद है। मैं चाहता हूँ कि मैं भारतीयों से मिलकर रहूँ ताकि नयी ध्वनियाँ और नए ख्याल बना सकूं। संस्कृ तियों के मिश्रण से एक फ़ायदा ये होता है कि दनि ु या में फैला नस्ल का भेदभाव कम होता है। अभी दनि ु या में बहुत नस्लवाद भरा हुआ है। लेकिन अगर हम इस तरह कला के ज़रिये संस्कृ तियों का मिश्रण करें तो मेरा विशवास है कि धीरे धीरे दनि ु या में नस्लवाद कम होने लगेगा। काले और भूरे लोगों को समाज में स्वीकृति मिलेगी। एक द ूसरे से प्यार करने लगेंगे, खुश रहेंगे और ये रिश्ता और मज़बूत होगा। खि.आ.: आप जब बड़े हो रहे थे, आप किस तरह का संगीत सुनते थे? रोमियो: मैं शास्त्रीय संगीत बहुत सुनता था। लोको अकान्ज़ा, फ्रंसिका बुएल, जो की एक फ़्रांसिसी गायक है, आर केली वगेहरा। मुझे माइकल जैक्सन बहुत पसंद थे। मैं जब छह साल का था, मैंने उन्हें पहली बार देखा था। और देखते ही मुझे उनसे प्यार हो गया। खि.आ.: आपको अपना पहला गिटार कैसे ? क्या आप और भी वाद्य यन्त्र बजाते ?

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रोमियो ( मध्य में ) किरण नादर म्यूजियम ऑफ़ आर्ट में अपने मित्रों के साथ जैम करते हुए।

रोमियो: मैं गिटार के अलवा ड्रम, बास, परकशन भी बजाता हूँ। मैं जब करीब 10 साल का था, मैंने सबसे पहले ड्रम बजाया। और जब मैं १३ साल का हुआ तो गिटार। अब जब मैं २५ साल का हो गया हूँ, मैं आज भी इसे बजाता हूँ। खि.आ.: अपनी संगीत की यात्रा के बारे में कुछ बताइए। आप वहां प्रसिद्ध कैसे ? रोमियो: मैंने कई गाने बनाये। कभी कॉन्सर्ट में गया, कभी सार्वजनिक जगहों पर, कभी चर्च में, तो कभी स्टू डियो में। मेरा कोई बैंड नहीं था, और न ही किसी के साथ कोई कॉन्ट्रैक्ट। मैंने बहुत से अलग अलग लोगों के लिए काम किया। जैसे कुछ फ़्रांसिसी संगीतकार, कुछ स्थानीय संगीतकार। मैंने बहुत से अलग अलग कलाकारों के साथ जैम किया। शुरुआत में बहुत मुश्किल होता है। उं गलियाँ थक जाती है। लेकिन जैसे जैसे आप अभ्यास करते रहते हो, सब कुछ ठीक लगता है। आप खुश होते हो। खि.आ.: क्या आपको बॉलीवुड संगीत पसंद ? रोमियो: मुझे बॉलीवुड संगीत से प्यार है। आप विश्वास न करें शायद, पर मैं एक भारतीय लड़की से शादी करना चाहूँगा।

मैंने स्कू ल में भारत के बारे में कुछ कुछ पढ़ा है। बहुत से लोगों ने मुझसे कहा कि भारतीय लोग अच्छे नहीं होते। लेकिन मैं इस बात को नहीं मानता। मैं किसी भारतीय लड़की से शादी करने को कभी भी तैयार हूँ। खि.आ.: क्या आपके पास हमारे पाठकों के लिए कोई सवाल ? रोमियो: क्या आप नस्लवाद रोक सकते हैं ? क्या आप किसी के चमड़ी के रंग के आधार पर उसके साथ भेदभाव बंद कर सकते ? खि.आ.: आपको कैसा लगता है जब आपसे कोई नस्लवादी बात करता है? रोमियो: अगर कोई मुझसे ऐसे पेश आता है तो मैं ये समझने की कोशिश करता हूँ कि कहीं न कहीं ये उनकी अज्ञानता के कारण हो रहा है। उन्हें मेरे बारे में पता नहीं है, और न ही मेरी संस्कृ ति के बारे में। इसीलिए उन्हें लगता है नस्लवाद एक आम बात है। अगर हमारी और बाकियों की संस्कृ ति एक द ूसरे को जाने और अफ्रीकियों की संस्कृ ति के बारे में लोगों को हमारे संगीत, खाने और बाकी चीज़ों के जरिये और जानकारी मिले तो मुझे लगता है, बाकी सब हमें हमना

दशु ्मन समझना बंद कर देंगे। खि.आ.: क्या आपको लगता कि जो आपसे भेदभाव करते हैं, आप अगर उनसे हिंदी में बात करें तो उनके मन में आपके लिए नाजिया बदलता ? रोमियो: बिलकुल। मैं कोशिश करता हूँ कि मैं थोड़ी बहुत हिंदी में बात करूं । उन्हें मुझे सुनके अच्छा लगता है। मैं अक्सर कहता हूँ, “ मेरी हिंदी अच्छी नहीं है। ” तो वो ये सुनते ही मुझसे दोस्ताना व्यवहार करते हैं। उन्हें ये देखकर ख़ुशी होती है कि कम से कम मैंने थोड़ी तो कोशिश करी। खि.आ.: आपकी भविष्य की योजनायें क्या क्या ? रोमियो:हमारा भविष्य भगवान् के हाथ में है। मैं चाहता हूँ कि मैं एक अच्छा कलाकार बनूँ। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे मेरे संगीत के ज़रिये समझे। मेरा सन्देश सुनें। मैं चाहता हूँ कि दनि ु या एक अकेला देश बन जाए जहाँ कोई भी कहीं भी बिना किसी परेशानी के जा सकता है। आप कहीं भी हों, पर आप आज़ाद महसूस कर सकें। हम अलग अलग संस्कृ तियों को मिला कर नए ख्याल ला सकते हैं। मैं यहीं देखना चाहता हूँ।

ज्ञान की किसे जरूरत जब पैसा बोलता है

Edited by Malini Kochupillai & Mahavir Singh Bisht [khirkeevoice@gmail.com]

Supported & Published by KHOJ International Artists Association


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