खिड़की आवाज़
शीत संस्करण 2020
अंक #11
कलाकार की गज़ब यात्रा पे ज़िम्बाब्वे पहुँ चा
12 पन्ने
खोये हुए वक़्त की सैर
2
6
नए भविष्य की कल्पना
के सहयोग से
2033 में खिड़की कैसा होगा ?
बी-बॉय-शिफ़ के साथ इं टरव्यू ?
10
12
नागरिक साथ आए
मौसम की रिपोर्ट ज न व र ी से अ प्रै ल 2 0 2 0 आबिजान, ऐवेरी कोस्ट
हाल ही में हौज़ रानी के गाँ ध ी पार्क में अलग-अलग समु द ाय के स्थानीय लोगों ने सी.ए.ए, एन.आर.सी. और एन.पी.आर. के मु द् दों पर जागरूकता फ़ै लाने के लिए एक रै ल ी का आयोजन किया। इन कानू न ों से जु ड़े मु द् दों पर महावीर सिं ह बिष्ट ने सवाल, समस्याएं और राय जाननी चाही।
ह्य प ॉ ल ि म न ा स म ों टे इ र ो न ि स
गर्म,बीच-बीच में धूप और बारिश
व ने स ा क ा र्डु इ
जनवरी में शुष्क और ठं डा, मार्च तक गर्म
काबुल, अफगानीस्तान
प र्न स ि य स ऑ ट ो क्रे ट र ( ख त रे में )
बर्फ और बारिश, मार्च तक गर्म
लेगोस, नाइजीरिया
हे ल ि क न ी ने अ क र ा इ य ा
गर्म,बीच-बीच में धूप और बारिश
मोगदिशु, सोमालिया
प्रे स ि स ल ि म् नो र ि य ा गर्म,बीच-बीच में धूप और मार्च के बाद और गर्म
पटना, भारत
जु न ो न ि य ा अ ल म ा न ा
गर्म,बीच-बीच में धूप और मार्च के बाद और गर्म
शोध और संकलन: कुणाल सिंह
यूनडे, कैमरून
ऑ ट् रॉ ए ड ा स ा फ् रा
गर्म और बीच-बीच में धूप
तस्वीर:मालिनी कोचुपिल्लै
दिल्ली, भारत
भा
रतीय संसद ने हाल ही में, भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में, प्रधान मंत्री नरेंद ्र मोदी के नेतृत्व में, नागरिकता संसोधन बिल (सी.ए.ए.) को पास किया। इसे 10 जनवरी को एक्ट के रूप में पूरे देश में लागू करने का गैज़ेटे भी जारी किया जा चुका है। इस बिल के पेश होने के बाद पूरे देश में बड़े स्तर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए। कुछ जगहों पर हिंसा की खबरें भी आई,ं जिसमें कई लोग जख़्मी भी हुए। अब तक पूरे देश में सी.ए. ए. के खिलाफ प्रदर्शन से जुडी घटनाओं में 31 लोगों की मौत हो चुकी है। न्यूज़ पोर्टल ‘द प्रिंट’ के अनुसार, “ पूरे भारत में सी.ए.ए. के विरोध में मुसलमानों की उल्लेखनीय उपस्थिति एक शक्तिशाली, प्रतीकात्मक, और रणनीतिक दावा पेश करती है जो आक्रामक हिंदतु ्व को चुनौती देता हुआ नज़र आता है । यह भारत में एक नए ‘समावेशी राष्ट्रवाद’ की ओर इशारा करता है।” सरल शब्दों में पहली बार भारतीय मुस्लमान इस तरह अपनी पहचान का दावा करते हुए, सिख, हिन्दू, दलित और अन्य समुदायों के समर्थन से सडकों पर विरोध करने के लिए उतरा है। प्रेस एन्क्लेव रोड के बगल में, मैक्स हॉस्पिटल के सामने, खिड़की एक्सटें शन से जुड़ा हुआ हौज़ रानी का इलाक़ा मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। जब से जामिया और शाहीन बाग में लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, यहाँ भी 4-5 छोटी रैलियाँ हो चुकी हैं। 6 जनवरी की खिड़की के जामुनवाला पार्क में विरोध मीटिंग की पब्लिक कॉल आई तो हम हौज़ रानी और खिड़की के लोगों से जानना चाहते थे कि उनके विरोध का कारण क्या है ? यह नया एक्ट उनके मुसलमान होने से किस तरह जुड़ा हुआ है ? इस एक्ट से
इस इलाके के समावेशी ढाँचे पर फर्क पड़ेगा या नहीं? जामुनवाला पार्क पहुँचकर पता चला कि परमिशन ना मिलने के कारण, पब्लिक मीटिंग को हौज़ रानी के गाँधी पार्क में ले जाया गया है । पार्क में प्रवेश करते ही देखा कि 700-800 लोग एक स्टेज के सामने कुर्सियों, ज़मीन पर बैठकर और खड़े होकर वक्ताओं को सुन रहे थे। काफी अच्छा माहौल था। हमने लोगों से पूछना शुरू किया कि इस पब्लिक मीटिंग का उद्देश्य क्या है। वहीँ मौजूद एक युवक आस मोहम्मद, 25, जो हौज़ रानी के निवासी हैं, से हमने पूछा, तो वे बोले,” यहाँ हम सी.ए.ए. और एन.आर.सी. के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। पहले भी हम छोटी-छोटी रैलियाँ निकालते रहे हैं। पर आज हमने बड़े स्तर पर इस तरह की पब्लिक मीटिंग का आयोजन किया।हमारा मकसद लोगों को इस बिल के बारे में जागरूक करना है।” युवाओं में जोश और उत्सुकता देखते ही बनती थी। बहुतों के हाथों में तिरंगे और प्लाकार्ड थे, जिसमें समावेशी शायरी से लेकर अंबेडकर, अब्दुल कलाम आज़ाद और भगत सिंह के पोस्टर देखे जा सकते। जहाँ पिछले की तरफ पुरुष और युवा खड़े थे वहीँ सबसे आगे महिलायें बैठी हुई थीं। वहीँ बैठी लॉ की स्टू डेंट शौर्या से हमने पूछा कि सी.ए.ए. और एन.आर.सी. क्या है और मुस्लिम समुदाय पर इसका क्या असर पड़ेगा, उन्होंने बताया,”सविंधान का प्रिएम्बल (उद्द्येशिका) जब शुरू होता है, उसी में धर्मनिरपेक्षता की बात होती है। लेकिन जब ये सी.ए.ए. और एन.आर.सी. लाये तो इसमें नागरिकता देने की जब बात होती तो सिर्फ मुसलमान को क्यों छोड़ा? यहाँ के मुसलमान ने आज़ादी के समय भारत
को चुना। हम अपने देश से प्यार करते हैं और यहीं रहना चाहते हैं। इसका सबसे ज़्यादा असर निचले वर्ग पर पड़ेगा। जब नागरिकता साबित करने की बात आएगी तो मिडिल क्लास और अपर क्लास के पास तो कागज़ होंगे ही। पर गरीब-अन-पढ़ इसमें पिसेगा। असल मुद्दों पर ध्यान देने की बजाय आप युवाओं पे जुल्म न करें। कानूनी शब्दावली में ये एक्ट संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन है, जो जीने की आज़ादी और निजी स्वतंत्रता की बात करता है।” शौर्या ने इस कानून और इसके प्रभावों को बारीकी से बताया। हम जानना चाहते थे कि बाकी युवा क्या सोचते हैं और इस विरोध में युवाओं की क्या भूमिका रहेगी, तो खिड़कीवासी मोहम्मद आतिफ़ खान, 24, ने कहा,” इस विरोध में यूथ की भूमिका सबको जागरूक करना है। आज का युवा घर में बैठकर चुप नहीं रह सकता। अगर इस बिल में ख़ामियाँ हैं तो सबको बताना पड़ेगा।” एक और युवक वासिफ से हमने यही सवाल पूछा तो वे बोले,”हम युवा इसके खिलाफ हैं। कई ऐसे लोग हैं जिनके पास कागज़ हैं ही नहीं। हम शांतिपूर्ण तरीके से इस कानून का विरोध करते रहेंगे।” वासिफ ने हमें बताया कि उनके बहुत से हिन्दू, सिख और अन्य धर्मों के दोस्त हैं जिनका इस विरोध में पूरा समर्थन रहा है। पूरा मैदान नारों से गूँज रहा था और चारों ओर तिरंगे लहरा रहे थे। इसी बीच आगे की कतार में हम डॉ सलमा से मिले, हमने महिलाओं की भागीदारी और भूमिका के बारे में उनसे जानना चाहा। उन्होंने कहा,”ये कानून संविधान के खिलाफ है। ये हमारी यूनिटी के खिलाफ है। ये किसी एक धर्म की लड़ाई नहीं है बल्कि हिंदसु ्तानी होने की लड़ाई है। हम यहीं पैदा हुए हैं,
इसी मुल्क के हैं और यहीं मरेंगे। हम महिलाओं को जैसे ही पता चला, हम तुरत ं इकट्ठा हो गए। ये विरोध कानून वापस लेने तक जारी रहेगा।” फिर वे वापस मीटिंग में वक्ताओं को सुनने के लिए चली गयीं। पास ही खड़े खिड़की निवासी सर्वेश, 45, से हमने पूछा कि उनकी क्या राय है और वे इस विरोध
डॉ सलमा,”यह कानून हमारी एकता के खिलाफ है।”
से किस तरह जुड़े, वे बोले,” मैं न्यूज़ में देखता हूँ कि हमारे देश में क्या हो रहा है। मेरे एक मित्र ने इस मीटिंग के बारे में बताया। सरकार द्वारा इस तरह का कानून सरासर गलत है। ये हम सबकी लड़ाई है, चाहे वो मुसलमान, हिन्दू, सिख, ईसाई ,जैन, दलित या किसी भी धर्म का हो। आप वोट लेकर चुने जाते हो, तब तो कागज़ नहीं 3
खिड़की आवाज़ • जनवरी 2020
ज़िम्बाब्वे के किस्से
अफ्रीका
हमने जिम्बाब्वे में उत्साह और दुविधा के साथ प्रवेश किया। मैं असल अफ्रीका को देखना चाहता था।
कहानी और चित्र: शिखांत सब्लानिया
ज़िम्बाब्वे
यह थे ग्रेट अफ्रीकन कारवां की 10 श्रृंखला का भाग 2 है , जो कला और यात्राओं का एक साझा प्रोजेक्ट है । 7 देशों के 12 कलाकारों के एक समूह ने केप-टाउन से काइरो तक, 8 महीने में 16000 किलोमीटर की,10 अलग-अलग देशों से गुजरकर यात्रा की।
हरारे बोत्सवाना
जिम्बाब्वे मोजाम्बिक
दक्षिण अफ्रीका
हमने जैसे ही बॉर्डर पार किया, भू -दृश्य तेज़ी से बदलने लगा, साउथ अफ्रीका के अर्ध-शुष्क क्षेत्र से हरियाली और बड़ी-बड़ी चट्टानों ने हमें घेर लिया।
तभी अचानक हमने पहला “बाओबाब” का पेड़ देखा-वह बचपन के विज्ञान की किताबों के चित्रों जितना ही अजीब था।
बाओबाब इस क्षेत्र के वातावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और पुराने आदिवासी ओझाओं द्वारा इस्तेमाल में लाया जाता है ।
बाद में पता चला कि भारत के गोंड क्षेत्र में भी बाओबाब की एक किस्म पाई जाती है ।
अफ्रीकन बाओबाब भारतीय बाओबाब अगली सुबह हम हरारे पहुंचे। यहाँ की सड़कों में आपको दफ्तर को भागते लोग नज़र आ जाते।
लेकिन यहाँ की बहुत सी इमारतें पुरानी और जर्जर थीं, जिन्हें मरम्मत की सख्त ज़रूरत थी।
बाहर देश में हैजा की महामारी फैली हुई है, इसका मतलब है कि हम बड़े इवेंट नहीं कर सकते। और आप लोग खुद को साफ-सुथरा रखें।
अगले दिन हम कुछ स्थानीय कलाकारों से मिलने हरारे के राष्ट्रीय म्यूजियम गए । म्यूजियम में कुछ दिलचस्प कलाकृतियां और एक सुन्दर मूर्ति कला पार्क था, जो बाद में हमारे मिलने का अड्डा बन गया।
अचानक सामने से हमें लोग भागते हुए नज़र आये।
ज़िम्बाब्वे में हमारे मेज़बान और पार्ट नर थे मिस्टर फिशर चियनिके, जो ज़िम्बाब्वे संयुक्त राष्ट्र एसोसिएशन के लिए सस्टे नेबल डवलपमेंट गोल्स के प्रोमोशन के लिए काम कर रहे थे। हम इस संस्था से ज़िम्बाब्वे आने से कई महीनों पहले से संपर्क में थे।
शहर का सबसे सुन्दर दृश्य जकरण्डा के पेड़ होते थे, बैंगनी फूलों से लदा हुआ, मानो सोच समझकर गलियों के मोड़ों पर लगाए गए हों।
मिसेस फिशर ने हम सभी क मक्के और रे प के पत्ते का एक सादज़ा बनाया। हमें गज़ब की लगी थी और ये एक वरदान
लिए व्यंजन भूख था।
मि. फिशर चियनिके
मक्के का आहार अफ़्रीकी देशों में सबसे प्रचलित और सस्ता खाना है । दरअसल यह मक्के के आटे को उबाल कर परोसा जाता है । लोग अपने बजट के हिसाब से इसे हरी सब्ज़ियों, मीट या सूप के साथ खाते हैं ।
मक्के के व्यंजनों से मेरा यह पहली दफ़ा आमना-सामना था। ।
वहाँ के कलाकार हमें शहर की स्थिति के बारे में खुलकर बता रहे थे। देश के हालात बहुत खराब हैं , अर्थव्यवस्था का विकास ना के बराबर है । लोग शिकायत भी नहीं करते। पादरी! इन पादरियों ने लोगों के दिमाग को भ्रष्ट कर दिया है ।
न्याशा हमें धार्मिक गुरुओं के बारे में बता रहा था। उसके मुताबिक ये लोगों को देश के विकास में भागीदार बनने से भटका रहे हैं ।
दक्षिण अफ्रीका की रोड
ज़िम्बाब्वे की रोड
मिस्टर फिशर और उनके परिवार ने दरियादिली दिखाते हुए हमें अपने घर में रहने का न्यौता दिया। जबकि उनका घर 11 लोगों के रहने के हिसाब से नहीं बना था। मुझे इसका स्वाद पसंद नहीं था, इसमें मसाले की कमी थी। लेकिन ज़िम्बाब्वे के मेरे दोस्त इसे मज़े से खाते थे। नाश्ते में सादज़ा दोपहर और रात के खाने में सादज़ा और रात को भूख लगे तो फ्रिज से निकालकर और खा लें। हाहा!
ज़िम्बाब्वे हाल ही में “लोकतांत्रिक ढंग से” चुने गए राष्ट्रपति रोबर्ट मुगाबे के 30 साल के कार्यकाल से बाहर आया है । शांतिपूर्ण तरीके से (?) तख्तापलट। इससे देश में अस्थायी अराजकता आयी है ।
रोबर्ट मुगाबे
सुना सुना-सा लग रहा है ।
पुलिस सड़क से ठेलों को हटाए जाने पर विरोध कर रहे लोगों पर आँसू गैस छोड़ रही है । इन्हें है जा की वजह से हटाया गया है । जो विरोध कर रहे हैं , उनके लिए यही रोज़ी रोटी का साधन है ।
ब्रदर क्या हो रहा है ?
ज़िम्बाब्वे की सड़कें साउथ अफ्रीकन हाईवे से बिल्कुल अलग होती हैं , इसमें ड्राइवर को भ्रमित करने वाली हज़ारों लकीरें नहीं थीं, बल्कि ये हमारे देश की तरह ही आढि-टे ढ़ी और गड्ढों भरी थीं
चलो देखने चलते हैं। ब्रदर! ये इं डिया नहीं है , और ना ही आप बी.बी.सी. से हो। हा हा! पुलिस आपको पकड़कर पीटे गी।
तुम्हें भी भागना चाहिए।
ये करें सी एक्सचेंज भाड़ में जाए। मैं इस ग्रुप का ‘मुनीम’ था, मुझे ये काम बिल्कुल भी पसंद नहीं।
दोस्तों, मुझे नहीं लगता हमारी कला साझेदारी यहाँ काम करे गी।
शायद यहाँ थोड़ा रुककर, आसपास के माहौल को देखकर समझकर, आगे ज़ाम्बिया के लिए प्लान करें । बाद में रात को
हाँ, हमें ज़ाम्बिया के लिए भी फण्ड जुटाने चाइये। अच्छा शिखांत ये बताओ, इन बॉन्ड नोट का क्या करें ? इसे एक्सचेंज किया जा सकता है क्या ? हालात दिमाग ख़राब करने वाले थे। मैं सोचता कि मेरे देश के हालात ऐसे हों, तो ऐसे में कैसे निकला जाए।
दरअसल, बात ये है कि हम हमेशा वस्तुओं का मूल्य अपनी मुद्रा में करते हैं । तो मैं दिमाग में ज़िम्बाब्वे बॉन्ड को डॉलर में बदलता, फिर डॉलर को रुपये में, ताकि खर्च समझा जा सके।
हाँ ये सच है , लेकिन एक देश होने के नाते, मैं खुश हूँ कि हमारे देश में एक जनतांत्रिक ढाँचा है , देश को बनाने वाले नेता अच्छे थे, मैं सोच भी नहीं सकता अगर 30 साल तक मुगाबे जैसा कोई नेता हमपर राज करता, तो क्या होता।
क्या मैंने आपको बॉन्ड के बारे में बताया? ये बहुत अजीब है , यहाँ की मुद्रा को “बॉन्ड” बोला जाता है , एक बॉन्ड नोट एक डॉलर के बराबर होता है । लेकिन ब्लैक मार्कि ट में आपको एक डॉलर के डेढ़ से दोगुना दाम भी मिल सकता है और यह कीमत रोज़ बदलती है । इस वजह से मेरी दुविधा और भी बढ़ जाती है । =
बाद में हमें “चिबुकु” शेक शेक नाम की ग़जब की चीज़ से रूबरू हुए। ये मक्के से बनी स्थानीय बीयर है । शेक शेक शेक इं टरनेशनल बीयर ,
सच में बताऊँ तो, इं डिया में भी ज़िम्बाब्वे जैसी कई जगहें हैं । लगता है , मैंने ज़रूरत से ज़्यादा पी लिया।
अगली सुबह मेरा पेट खराब था।
मेरे पेट से विक्टोरिया फाल्स!
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चिबुकु इं टरनेशनल
हाँ, यहाँ से सीख कर बहुत कुछ साथ ले जाया जा सकता है ।
हरारे का सफर विचारों को बढ़ावा देने, व्यस्त और काफी चुनौती पूर्ण था। मुझे ज़िम्बाब्वे के लोगों की ज़िंदगी की झलक मिली और समझ आया कि मुश्किल राजनैतिक और आर्थिक हालात में लोग किस तरह खुद को ढाल लेते हैं ।
बीयर! जल्द ही हमने ज़ाम्बिया के सफर की तैयारी शुरू कर दी, उम्मीद है इतना ही दिलचस्प हो!
अगला पड़ाव: ज़ाम्बिया
ज़्यादा जानकारी के लिए
www.thegreatafricancaravan.com पर जाएँ , या फॉलो करें @the_Choorma
साइड नोट: जैसे ही हम ज़िम्बाब्वे से निकले हालात और खराब हो गए। पूरा देश खाद्य और आर्थिक संकट से गुजर रहा है ।
अगले दिन, टीम मीटिं ग।
जनवरी 2020 • खिड़की आवाज़
जब सभी बार-बार एक ही तरह के सवाल पूछ रहे थे, तो एकता चौहान ने सोचा कि एक युवा लड़की की तरफ से आं टियों को एक ख़त लिखा जाये, ये ज़ाहिर करते हुए कि अब कुछ चीज़ें बदलने का वक़्त आ गया है।
नागरिक साथ आये/ पृष्ठ 1 से पूछते। हम सब इसके विरोध में साथ खड़े हैं।” इस तरह हिन्दू-मुसलमान को एक स्वर में साथ खड़े देखकर हमारे देश की खूबसूरती झलक रही थी। स्टेज पर एक लॉयर साहब सरल शब्दों में इस कानून का विश्लेषण कर लोगों को समझा रहे थे। उसी दौरान हमारी मुलाकात मुस्तकीम से हुई। वे हौज़ रानी के युवा हैं और पता चला कि इस प्रोग्राम के आयोजकों में से एक हैं। हमने इस कार्यक्रम के आयोजन की वजह और मुश्किलों के बारे में उनसे पूछा, तो उन्होंने बताया,”हम काफी समय से एक बड़े प्रोग्राम करना चाह रहे थे, लेकिन लोग बाहर नहीं आना चाहते थे। हम चार लोग पोस्टर लिए और सड़कों पे खड़े हो गए। शुरू में लोगों ने रोकटोक की, पर धीरे-धीरे लोग जुड़ते चले गए। फिर हमें अपने बुजुर्गों और बड़े लोगों का सहयोग मिला और ज़्यादा लोगों को जोड़ने के लिए हमने एक रैली निकाली। प्रेस एन्क्लेव रोड की पहली रैली में लगभग 1000 लोग आये। तब जाकर आज का ये कार्यक्रम हो पाया। शुरू में काफी लोग अलग-अलग कारणों से हिचक रहे थे। पर हम सबको साथ ले कर चल रहे हैं। इसमें हर धर्म के लोगों ने हमें सपोर्ट किया है। मैं ये साफ़ कर देना चाहता हूँ कि सिर्फ लोगों का विरोध है, इसमें कोई पोलिटिकल पार्टी या संस्था नहीं जुडी है। इसमें महिलायें और युवा बढ़-चढ़कर सामने आये हैं। ये विरोध जारी रहेगा।” मुस्तकीम और उसके साथियों ने इस कार्यक्रम का आयोजन बहुत अच्छे ढं ग से किया है। समझ आने लगा कि अगर इतने सारे लोग देशभर में विरोध कर रहे हैं तो इस एक्ट पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। हम जो लोग भाग नहीं ले रहे उनकी राय जानने के लिए खिड़की एक्सटें शन की ओर बढ़े। खिड़की
शौर्या,”यह धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई है।”
एक्सटें शन में हम गुरमीत, 28, से मिले वे बोले,”मैंने इसे बारीकी से नहीं पढ़ा लेकिन मेरी समझ में किसी भी धरम को फोकस कर अलग करना सही नहीं है। देश सबके लिए बराबर है। मैं इसके बारे में और पढ़ूँगा।” खिड़की की अनगिनत गलियों से गुजरकर हम खिड़की गाँव जा पहुँचे। रितु चौहान, 45, ने कहा,” ये दोनों कानून काफी बेवजह हैं।इसकी बजाय सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर ध्यान दे तो अच्छा है। विकास पर पैसा खर्च करने की बजाय आप लोगों को गिनने में लगा रहे हैं।” हमें समझ आया कि अन्य समुदाय में भी लोग इस कानून को तार्किक नहीं मानते। खिड़की से निकलते-निकलते हौज़ रानी के मोहम्मद इरशाद के शब्द याद आते हैं। उन्होंने कहा,” हिंदसु ्तान के हर नागरिक के दिलों में बेचैनी है कि जिस संविधान को बाबा साहेब आं बेडकर ने हर धर्म और जाति के लिए बनाया था और जिस देश को हमारे बुजुर्गों ने कुर्बानी देकर आज़ाद कराया था आज उसकी अखंडता पर हमला हो रहा है। इसलिए सब मिलकर इसके खिलाफ लड़ रहे हैं।”
संपादकीय
हौज़ रानी के गाँधी पार्क में सी.ए.ए.-एन.पी.आर.-एन.पी.आर. के खिलाफ रैली में महिलायें।
raju parmer
The Sophiatown of Delhi प्यारी आं टी, मैं जानती हूँ आप मेरा भला चाहती हैं। आप मेरे लिए ख़ुशी और समृद्धि चाहती हैं। लेकिन सोने का पिंजरा तो पिंजरा ही होता है ना। मैं तो उड़ना चाहती हूँ। मैं ऊँचा उड़ना चाहती हूँ और आसमान छूना चाहती हूँ। मुझे आज़ादी चाहिए। काश! मैं आपको आज़ादी कैसी महसूस होती है, समझा पाती। काश! आप अपने परिवार से आगे सोच पाते। काश! आपको खुद को जान पाती और एक इंसान होने के नाते ख़ुशी ढू ँ ढ़ पाती। एक माँ और बहू की बजाय आप एक इंसान होना समझ पाती। शायद आपको ये बातें समझ आतीं: 1.महिलायें पहले इंसान हैं। उनके कुछ निजी सपने और आकांक्षायें होती हैं। हो सकता है, एक परिवार होना उनका सपना हो। लेकिन यही सब कुछ नहीं होता। हम नौकरी कर काम इसलिए नहीं करते कि अच्छा रिश्ता मिले। हम इसलिए नहीं पढ़ते कि बच्चों को होमवर्क में मदद कर सकें। हम इसलिए पढ़ते हैं कि दनि ु या देखने का हमारा नजरिया व्यापक हो। हम जॉब इसलिए करते हैं, ताकि संतुष्टि मिले। 2.“ज़्यादा पढ़ने लिखने से घर टू ट जाते हैं।” औरतें ये सुन सुन के थक गई हैं। शादियाँ इस लिए नहीं टू टती कि
औरतें पढ़ने-लिखने लगी हैं। वे इसलिए टू टती हैं क्योंकि वे महिलाओं का व्यवस्थित तरीके से उत्पीड़न करने के लिए बनी हैं और औरतें इसके खिलाफ खड़ी हो रही हैं। क्या हमें सच में ऐसे परिवार चाहिए ? 3.औरतें कमज़ोर नहीं हैं। मैंने आपको, दादियों और माँ को घर के पुरुषों से ज़्यादा काम करते हुए देखा है। आप हमेशा सबसे पहले उठते हो और सबके सो जाने के बाद सोते हो। आप बीमार होने पर भी काम करते हो। आप माहवारी के समय भी काम करते हो। आप अपनी परेशानियाँ किसी से भी साझा नहीं करते। आप मजबूत हो। हम सब हैं! 4.अपने भाई और पिताजी को बताना कि हम माहवारी से गुजर रहे हैं, कोई बड़ी बात नहीं। किसी पुरुष दोस्त का पैड खरीद कर लाना कोई बड़ी बात नहीं। काम छोड़कर आराम करना भी बिलकुल ठीक है। मेरा शरीर प्राकृतिक तरीके से खून निकाल रहा है। यह खून नयी ज़िन्दगी लेकर आता है। 5. हम किसी को बुलावा नहीं दे रहे हैं। हम लड़कों या किसी और का ध्यान आकर्षित करने के लिए कपडे नहीं पहनते। मैं खिड़की की गलियों में नंगी छाती वाले अंकल को घूमते देखती हूँ। मुझे कभी-कभी मेट्रो में कोई लड़का भा जाता है। कभी-कभी मेरे साथी
हुआ है। मानो नीचे की तरफ गिर रहा हो। दे श के द स ू रे हिस्सों की तरह ही, खिड़की में भी सरकार द्वारा पारित सी.ए.ए, एन.पी.आर. और एन. आर.सी. कानू नों के खिलाफ पिछले महीने प्र द र्शन हुए हैं। खिड़की आवाज़ में , हमने सोचा कि घटनाएं किस तरह बदलें गी और मौजू द ा राजनैत िक और सामाजिक माहौल से शहरों और मौहल्लों के लिए भविष्य में क्या सं भ ावनाएं उभर कर आयें गी, इस पर बात की जाए। क्या हम एक अखंड , बहुसं ख ्यक और सत्तावादी भविष्य की ओर बढ़ें गे या फिर अधिक
समतावादी, समावे शी और सहभागितापूर्ण राजनीति वाले समाज की रचना करेंगे ? जैसे - जैसे ये सर्दी बसंत की ओर बढ़ेगी, हम उम्मीद के साथ आगे दे ख ते हुए, हमारे मोहल्लों और शहर के लिए एक वैकल्पिक कल्पना प्रस्तुत कर रहे हैं। एक समतावादी शहर कै सा महसूस होता है ? एक सत्तावादी सरकार मौहल्लों को कै से प्रभ ावित करती है ? लोगों के ज़हन में मौजूदा दौर की क्या यादें होंगी, जब भविष्य बिकु ल अलग होगा ? लोगों के पास अतीत की कै सी छवियाँ
मैं हर बात पर राय रखती हूँ।
चित्र: अलिया सिन्हा
बदन से लिपटे हुए टाइट कपडे पहनते हैं। मैं खुदको रोककर उन्हें दबोचती तो नहीं ना। तो वे भी ना करें। 6. अपने राजा बेटा को कहें कि अपना स्तर बढ़ाएं । हमें पढ़ना, खाना पकाना, सफाई करना, परिवार संभालना, बच्चे पैदा करना, विनम्र रहना, मुस्कराना, नौकरी करना, पैसा कामना, नज़रें नीची रखना, बहस न करना और अच्छा दिखने के लिए लाखों और चीज़ें करनी पड़ती हैं। जबकि आपका बेटा, जब कामवाली सफाई करे तो पैर ऊपर कर आलथी-पालथी मार ले तो उसे अच्छे राजा बीटा की डिग्री मिल जाती है। पूरी दनि ु या के मर्द घर के सारे काम के साथ परिवार और नौकरी भी देखते हैं। अब ज़रूरी है कि भारतीय पुरुष भी ये शुरू कर दें। आखिरी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण, कृपया, ऊँची आवाज़ में बात करने वाली, बातूनी और गुस्सैल औरतों को बुरा कहना बंद करें। हम ऊँचा इसलिए बोलते हैं क्यूँकि हमारी कोई सुनता ही नहीं। हम बातूनी इसलिए हैं क्यूँकि हमारी परेशानियों की सूची बहुत लम्बी है। हम गुस्सैल हैं क्यूँकि, पीढ़ियों से हमें चुप रहने को कहा गया है और अब हद हो चुकी है, हम नहीं सहेंगे। हम आज़ाद होना चाहते हैं। हम आपको और भविष्य की आपकी बेटियों को अपने साथ ले जाना चाहते हैं।
एक समावे श ी भविष्य की कल्पना
ल
गभग दस साल पहले , मे री दोस्त जू ली और मैं खिड़की में घू म रहे थे और लोगों से पूछ रहे थे कि उनकी खिड़की से क्या नज़र आता है और अगर उनके पास विकल्प हो तो वे क्या दे खना चाहें गे? ज़्यादातर लोगों ने सरल चीज़ों की बात की जैसे , ज़्यादा धूप या ज़्यादा हरियाली, पर अधिकतर के पास कु छ कहने को नहीं था। वे खिड़की से बाहर की समस्याओं के बारे में ही बोलते रहे , लेकिन ऐसे बहुत कम थे जो कुछ नया और अलग सोच पा रहे थे । मे रे
लिए ये हैर ानी की बात थी। एक आर्किटे क्ट के तौर पर, मे रे मन में अपने आप किसी भी नई जगह की स्थानिकता, पैम ाना, भौतिकता, अस्थिरता की नई पु नः कल्पना आने लगती है। ये एक जाग्रत ि का पल था जिसमे मु झे समझ आया कि हर किसी का दिमाग एक-सा नहीं होता, हर कोई जानकारी को अलग तरीके से समझता है। वर्तमान में हमारा दे श इतिहास के एक अहम मोड़ पर खड़ा है। अतीत दरू और विचित्र सा लगता है और भविष्य बहुत सी अनिश्चिततों से भरा
और यादें हैं ? एक ऐसा शहर कै से बनाया जाए, जिसमें जाति, धर्म, सं स्कृ ति या इतिहास से उठकर लोग, अपनापन और स्वामित्व महसूस कर पाएं , और मोहल्लों और शहर को घर कह पायें । इन कल्पनों को हमनें टु कड़ों में इन पन्नों में दिखाने की कोशिश की है। जैसे एक आर्किटे क ्ट किसी क्लाइंट के लिए एक विचार की तस्वीर बुन ता है, ऐसे ही हमने एक समावे शी भविष्य की सं भ ावनाओं की तस्वीर, ऐसे सच में बदलने से पहले बुन ना ज़रूरी है।
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खिड़की आवाज़ • जनवरी 2020
ख़ास शृंखला
समुद्र में जबरन ले जाया गया एक कलाकार की अपनी परदादी के जबरन प्रवास की 11वीं क़िस्त
लै ल ा का पहला अपहरण शब्द + कलाकृ ति एं ड्रू अनं द ा वू गे ल
मा
माला को ये माजरा पू री तरह समझ नहीं आया और वो उस हरे भरे माहौल में दिलचस्प रोमां च की सूचि याँ बनाने लगी। जब उसका पू र ा परिवार यहाँ बस गया, माला की नानी ने उसे फिफ्टी रॉड तालाब से पानी ले ने के लिए भे ज ा। इसे फिफ्टी रॉड इसलिए कहा जाता था, क्यूंकि यह गाँ व के कें द ्र से पचास रॉड की लम्बाई जितनी द रू ी पर था। माला ने एक बाल्टी उठाई और धू ल भरे रास्ते पर निकल पड़ी। जब वो तालाब पर पहुँ ची तो उसने कु छ स्थानीय बच्चों को तालाब के आसपास खे ल ते हु ए दे ख ा। सारे बच्चे भू रे रंग की मिट्टी में लिपटे हु ए थे । ऐसा लग रहा था कि बच्चे एक-द स ू रे पर मिटटी फें कने की लड़ाई कर रहे हैं । यह भू रे रंग की मिट्टी तालाब के चारों ओर थी। जै से - जै से माला पानी के पास जा रही थी, तो माला गीली मिट्टी महसू स कर पा रही थी। अचानक से उसे अपने पै र पर भारी और ठं डी छपाक-सी महसू स हु ई । उसने तु रंत अपना सिर घु म ाकर उस शै त ान लड़के की तरफ दे ख ा। उसने लड़के को हैर ानी से दे ख ा और दाँ तों को भींचकर ते ज़ आवाज़ निकाली। लड़के को हँ सी आ रही थी और उसके चे ह रे पर डर भी था। उसने भी हिचकते हु ए माला की तरफ दे ख ा और फिर वहाँ से भाग गया। अपनी ड्रे स पर लगे हु ए मिट्टी को उसने झाड़ा और फिर वह अपने परिवार के नए घर वापस लौटने लगी। जब वह गाँ व से गु ज़ र रही थी, तो उसने आम और कटहल के बगीचे दे खे और कॉफ़ी के पे ड़ों की कतारें दे खी। उसका मन उत्साह से भर गया, जब उसने खुद को उन धुं ध भरी सु ब हों में भागते हु ए महसू स जै से ही उन्होंने सामान को नए किया। उसने आम के पे ड़ों की घर ले जाना शु रू किया, माला ने सबसे ऊँ ची शाखों पर पके हु ए दे ख ा की गाँ व के बहु त से लड़के मोटे आम दे खे । उसे पू र ा विश्वास उनके घर सामने रुककर थोड़ी था कि उसकी बहन शीला ने पहले दे र घू र ते और फिर आगे बढ़ जाते । ही दे ख लिया होगा। माला ने कभी उसकी द स ू रे नं ब र की सबसे बड़ी किसी को नहीं बताया लेकि न बहन 16 साल की होने वाली थी शीला चालाक आम चोर थी और और ऐसा लग रहा था कि उसके उसे पकड़ पाना बहु त मुश्कि ल पिछले जन्मदिन के बाद से यहाँ था। शीला, माला की तीसरे नं ब र आसपास लड़के दिखने लगे थे । की बहन थी और उसे काफी
ला का परिवार हाल ही में , बागान से कै नाल नं ब र 2 की तरफ आये हैं, पू र्वी इंडि यन आबादी और पश्चिमी अफ़्रीकी समु द ायों के बीच तनाव बढ़ने की वजह से । जब ब्रिटिश ताकतों ने कैरिबिया हज़ारों की तादाद में लाये जबरन मजद रू ों को छोड़ दिया तो दंगे और हिंसा की घटना सामने आने लगी। इसलिए नहीं कि दोनों गु ट एक द स ू रे से नफरत करते थे , न ही उन्होंने कभी एक दस ू रे का कु छ बिगाड़ा था। असल वजह हाल ही में आये नए ने त ा लोग, जो जानते थे कि ताकत हासिल करने का तरीका है, शान्ति से रह रहे लोगों को आपस में लड़ा दे न ा। जै से - जै से गट बनने लगे , प्र द र्शन हिंशक होते गए। माला के पिता ने सोचा कि सबसे बे ह तर होगा अपनी सातों बेटि यों को शां त जगह, जं ग ल के पास ले जाया जाये । एक सु ब ह पोलो, उसकी सात बेटि याँ , पत्नी और उसकी माँ अपना सामान इकठ्ठा कर ग्रोव हाउसिंग स्टेट को छोड़कर चले गए। माला आठ साल की थी और इस नए रोमां च के लिए काफी उत्साहित थी। गाँ व की कच्ची सड़क आम के बगीचों, कॉफ़ी के बागानों और बड़े - बड़े घरों से घिरे हु ए थे , जो कोला जै से काले पानी वाली झरझर बहती नहर के शु रू होते ही गायब हो जाते । दरअसल इस नहर का असली नाम ही कोला क्री क है, क्यूंकि इसके पानी का रंग काला और सतह पर बु ल बु लों नज़र आते थे । माला अपने नए परिवे श से मं त्र मु ग ्ध थी। यह काफी जं ग ली और बागान के मु क ाबले कहीं ज़्यादा खुल ा था।
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बहाद रु माना जाता था। वह बचपन से ही एक कु ल्हाड़ी ले क र गाँ व में घू म ती थी। उसकी शै त ानियों की बहु त सी हनियाँ मशहू र थी। बागानों के मालिकों के बीच वह कु ख्यात थी, क्योंकि सभी को शक था कि सबसे ज़्यादा पके हु ए आम वही चु र ाती है। द र्भा ु ग्य से किसी भी बागान मालिक ने उसे आम के साथ पकड़ा ही नहीं था। इसलिए आज भी चोरी के फल के लिए उस पर कोई भी ऊँ गली नहीं उठा पाया है। माला ने अपनी बहन का इन चोरियों में कई बार साथ दिया है। उसका काम नज़र रखना होता था। उसे किसी की फसल से चोरी करना बु र ा तो लगता। लेकि न अगर वो मना करे तो, शीला उसकी पिटाई करती। तो जबतक वो थोड़ी बड़ी नहीं हो जाती, माला ने खुद को एक सहायक की तरह मान लिया था। सीता, उसकी नानी ने उसकी शार्ट पर भू रे धब्बे दे खे , ”बच्ची तु म ्हारी ड्रे स पर क्या लगा है? ”, उन्होंने पू छ ा। “किसी लड़के ने तालाब पर मिट्टी फ़ें क दी थी नानी,” माला ने कहा। उसकी नानी, जो उन भारतियों में से थीं, जिन्होंने भारत और कैरिबिया के कालापानी के सफर को तय किया था। वे माला की ड्रे स से मिट्टी के दाग एक कोने को पकड़कर अपनी उँ गलियों से हटाने लगी। “अब ठीक है बच्चे ” , वे बोलीं। नानी ने उसे अपनी बहनें लै ल ा और शीला के साथ जाकर कु छ और बाल्टी पानी लाने को कहा। माला ने लै ल ा और शीला को बु ल ाया और बाल्टियों के साथ फिफ्टी रॉड तालाब की तरफ आने को कहा। लै ल ा माला की चु च ाप रहने वाली बहन थी, पढ़ाकू और नरम स्वभाव की। वह बड़ी हो रही थी और उसकी सुं द रता के चर्चे नए गाँ व में सबकी जु ब ां पर थे । माला ने लै ल ा और शीला को बु ल ाया और बाल्टियों के साथ फिफ्टी रॉड तालाब की तरफ आने को कहा। लै ल ा माला की चु च ाप रहने वाली बहन थी, पढ़ाकू और नरम स्वभाव की। वह बड़ी
हो रही थी और उसकी सुं द रता के चर्चे नए गाँ व में सबकी जु ब ां पर थे । उसे इस बढ़ी हु ई नज़रों के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं थी। लेकि न उसकी नज़र दिन में उसे घू र रहे लड़कों पर ज़रूर पड़ी थी। पोलो की तीन बेटि याँ गाँ व से गु ज रीं, माला ने तृ त ्व करते हु ए । जिस भू री मिट्टी से माला का सामना हु आ था, उसे स्थनीय लोग दौब बोलते हैं और इसे घरों के भीतरी हिस्से को लीपने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था। इससे लकड़ी के खुर दरे कोने नरम हो जाते हैं और यह परत गर्मियों में घरों को ठं ड ा रखती है। यह एक ऐसा नु स ्खा था , जो सीता को उत्तर प्र दे श के अपने छोटे गाँ व गजियापु र से याद था। वह अक्सर अपने गाँ व के बारे में सोचती और वापस जाने की चाह रखती। उसने इन भावनाओं को दरकिनार किया, और अपनी नई और पु ख ्ता वास्तविकता में वापस आ गई। इस सच्चाई में उसके बच्चे और पोते - पोतियाँ थीं, इस अजीब परिवे श की ताप्ती गर्मी, बागान के कमर तोड़ दे ने वाली मे ह नत और इस प्र व ास के अके ले प न जे जू झ ते हु ए । माला, शीला और लै ल ा तालाब पर पहुँ चे । जं ग ल के पीछे की तरफ सू र ज ने ढलना शु रू कर दिया था। तालाब के पानी में शाम के आसमान के बैं ग नी, गु ल ाबी, नीले और सं त री रंग प्रत िबिंबित हो रहे थे । माला अपने हाथों से गीली मिट्टी को बाल्टी में डाल रही थी। लेकि न शीला और लै ल ा, इस नए माहौल में खोये हु ए थे । वे घू म कर तालाब के द स ू री तरफ चले गए, जहाँ उन्हें गाँ व के कु छ लड़के मिले । माला ने ऊपर दे ख ा और सबसे लम्बे लड़के पर ध्यान दिया। उसने मन में सोचा कि द रू से वह कितना खुद सु र त है, फिर वह वापस बाल्टी में मिट्टी भरने के काम में लग गयी। एक लड़का शीला की तरफ आगे बढ़ा और बोला,”हे ल ो लड़की, आप कै से हो।” यह चोका का सबसे बड़ा लड़का था। चोका एक अमीर किसान था,
जिसके पास ट्रेक्टर, नाँ व और आमों की बहु त अच्छी फसल थी, जो बाद में शीला की चोरियों की पसं दीदा जगह बनने वाली थी। चोका खुद के ग्यारह लड़के और दो बेटि याँ होने के लिए सबसे ज़्यादा मशहू र था। माला ने पहले भी यहाँ आने से पहले चोका और उसके परिवार के बारे में सु न ा था। माला ने नज़रें उठाकर तालाब के उस पार दे ख ा कि वह लड़का शीला को एक फल दे रहा है। उसे लगा उसकी बहन हमे श ा की तरह शै त ानी में लग गई है। फिर उसने कनखियों से दे ख ा कि वह लम्बा लड़का फु र्ती से लै ल ा की तरफ लपका। माला ने मिट्टी भरना रोका और कड़ी हो गई। उस लड़के का नाम सु ग्रीम था। वह चु क ा का एक और लड़का था और पहले से ही लै ल ा पर द रू से नज़र रख रहा था। जबसे उसने लै ल ा को दे ख ा था, वह प्यार में पागल हो गया था और उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। उके बड़े भाई ने उसका ध्यान भटकाने के लिए उसे तालाब पर लाये थे , लेकि न जै से ही बहनें आई तो सु ग्रीम के दिल में एक दर्द सा उठा। उसके भाई बहनों के लिए कु छ आम ले ने के लिए अपने पिता के बगीचे गए, लेकि न जै से ही उसके बड़े भाई शीला से बात करने लगे तो उसे कु छ अजीब महसू स हु आ और वो लै ल ा की तरफ भागा। वह बहु त सु न ्दर थी, और जब से वो यहाँ आयी थी, उसे बे चै नी महसू स कर रही थी। उसे पता ही नहीं था कि करना क्या है, जै से ही वो लै ल ा के पास पहुँ च ा, उसने उसे उठाया और अपने पिता के बागान की तरफ जा पहुँ च ा। लै ल ा को समझ ही नहीं आया कि हु आ क्या। माला,शीला और सु ग्रीम के बड़े भाई हैर ानी से खड़े थे , उन्हें भी कु छ करने को सू झ नहीं रहा था। अचानक शीला ने सु ग्रीम के बड़े भाई को ज़मीन पर गिराया और चिल्लाकर माला को अपने पिता को बु ल ाने को कहा। शीला ने अपनी कु ल्हाड़ी उठाई और सु ग्रीम और लै ल ा की दिशा में दौड़ी। सु ग्रीम ने लै ल ा को उठाया हु आ था और ते ज़ी से दौड़ रही थी।
उसे मालू म नहीं था कि वह क्या करेग ा, वह उसके साथ कु छ पल अके ले बिताना चाहता था। वह लै ल ा को अपने दिल की बात बताना चाहता था। लेकि न अभी उसके जु ब ां खुल भी नहीं रही थी, तो वह सिर्फ दौड़ रहा था। उसने अपने पीछे शीला के कदमों की आवाज़ सु नी। वह चिल्लाकर उसे धमकियाँ दे क र बता रही थी कि उसका क्या हश्र होने वाला है अगर उसने लै ल ा के साथ कु छ गलत किया तो। इस सब के बीच माला ने अपनी बाल्टी पीछे छोड़ी और अपने नए घर की तरफ दौड़ी। जै से - जै से सू र ज डू ब रहा था, उसे अपनी रीढ़ में सिहरन महसू स होर यही थी। उनका गाँ व एक पु र ाना डच कॉलोनी था जिसमें आज भी बहु त सी भटकती आत्माएं घू म ती हैं। जै से - जै से वो दौड़ रही थी, उसके जहन में प्रे तों की कहानियाँ घू म रही थीं। ये सोचकर वह और ते ज़ दौड़ने लगी। माला हाँ फ ते हु ए घर पहुंची। “डै डी, एक लड़का लै ल ा को उठाकर भाग गया।” पोलो ने अपनी शाम की रम की गिलास की नीचे रखा और तु रंत खड़ा हो गया। उसने अपनी कु ल्हाड़ी उठाई और चलने लगा। सू र ज पू री तरह डू ब चु क ा था और रात के कीड़े मकोड़ों ने अपने गीत गाने शु रू कर दिए थे । पोलो ने माला का हाथ पकड़ा और लै ल ा के अपहरण वाली जगह ले जाने को कहा। उसने अपने पिता के साथ तालाब की तरफ मार्च किया। माला को अपने पिता के साथ सु रक्षित तो महसू स हो रहा था, लेकि न उसकी पे ड़ों की तरफ दे ख ने की हिम्मत नहीं हु ई कि कहीं कोई भू त न दिख æ ß
जाये । जै से - जै से वे ते ज़ी से आगे बढ़ रहे थे , उन्हें बगीचे से हंग ामे की आवाज़ें सु न ाई दे रही थीं। पोलो ने झाँ क कर दे ख ा तो शीला एक युव क को लात घू से मार रही थी, जो ज़मीन में असहाय पड़ा हु आ करहा रहा था। लै ल ा वहीँ बगल में बे प रवाह और दवि ु धा में नज़र आ रही थी। पोलो ने दोनों बहनों को बगीचे से बाहर आने को कहा और उस नौजवान को पीटना बं द करने को कहा। सु ग्रीम लै ल ा को पहली दफा चु र ाने में विफल रहा था। उसे लै ल ा को एक भी शब्द कहने की हिम्मत भी नहीं हु ई । शीला ने उसे उसके पिता के बगीचे के बाहर ही दबोच लिया था। जब वह वहाँ पड़ा हु आ शीला की पिटाई से काढ़ा रहा था, तब उसका दिल लै ल ा के विचार से और ते ज़ धड़कने लगता। पोलो ने तीनों लड़कियों को इकठ्ठा किया और तालाब की तरफ बचा हु आ काम पू र ा करने के लिए आगे बढ़ गए। उन्होंने चु प चाप अपनी बाल्टियों को मिट्टी से भरा और घर की तरफ चलने लगे । पोलो ने लै ल ा से कहा,”बच्ची हम इसके बारे में सु ब ह बात करेंगे ! ””चलो खाने का वक़्त हो गया है। ” उनकी नानी ने रोटी और सब्ज़ी बनायीं थी। सब बै ठ कर खाने लगे । रात पू री तरह घिर चु की थी और माला खाना चबाते हु ए ध्यान से सु न रही थी। माला को चमगादड़ों के चीखने की आवाज़, द स ू रे कीड़े - मकोड़ों की धु नों में जं ग ल के अन्धकार में बागानों से गु ज रकर सु न ाई दे रही थी। •
कोला क्रीक, 2007, आर्काइवल पिगमेंट प्रिंट अनटाइटल्ड, 2007, आर्काइवल पिगमेंट प्रिंट
कौन-सा रास्ता? महावीर सिंह बिष्ट
मे
रे दादाजी अक्सर एक कहानी बताया करते थे। जिसमें एक अंग्रेज़ अफसर की पालकी को दो पहाड़ के लोग ले जा रहे थे। हमारा देश तब ग़ुलाम हुआ करता था।उत्तराखंड के पहाड़ों में दलु ्हन को आज भी पालकी में बिठा कर अपने ससुराल लाया जाता है। लेकिन अँ ग्रेज़ अफ़सर कोई दलु ्हन थोड़े था। वे तो पहाड़ियों को सस्ते ग़ुलाम समझते थे। तो एक इसी तरह पालकी पर एक जगह से दस ू री जगह ले जाते हुए, पालकी ढोते हुए उन्हें ना जाने क्या सूझा और एक मोड़ के पास उन्होंने पालकी को अंग्रेज़ अफसर समेत खाई में फेंक देते हैं। फिर दोनों एक दस ू रे की तरफ देखते हैं और बारीबारी से खुद भी पहाड़ी से छलांग लगा देते हैं। दिल्ली में जब भी में ई-रिक्शा या ऑटो से इधर-उधर जाता हूँ तो मेरे जहन में घूमती है।मेरे मन में अक्सर सवाल उठते हैं कि उन दोनों के मन में क्या चल रहा होगा। क्या उस अफसर ने उन्हें प्रताड़ित किया कि उन्होंने ये कदम उठाने की सोची? या देश भर में अंग्रेज़ विरोधी वातावरण के चलते उनके मन में इस तरह का क्रांतिकारी ख्याल आया...या भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सैनानियों से प्रेरित होकर गाँधी के अहिंसक रास्ते की बजाय उन्होंने हिंसा का यह रास्ता चुना। 80-90 साल पुरानी इस घटना के बारे में कुछ भी साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता। मेरे दादाजी को गुजरे हुए कई साल बीत चुके हैं, तो इस बात की पुष्टि भी नहीं की जा सकती। क्या यह उनके विरोध का यह रास्ता सही था ? इन सवालों की तह तक जा पाना और तथ्यों को खोज पाना अब नामुमकिन सा है। लेकिन इस घटना से उन्हें बहादरु तो कहा ही जा सकता है। जब मैं इन सवालों के जवाब ढू ं ढ रहा था तो ई-रिक्शा में आज़ादपुर से कैम्प जा रहे मेरे साथ वाली सवारी ने अचानक कहा,’प्रदषू ण की वजह से काम भी आजकल ठप्प है..।’ मैं समझ नहीं पाया तो बोहें सिकोड़ ली। मेरी उलझन को समझते हुए वह बोला,” मैं मजदरू आदमी हूँ, दिल्ली में प्रदषू ण वजह से कंट्रक्शन का काम बंद है। जब भी कोई गड़बड़ होती है तो गरीब सबसे पहले पिसते हैं।” उसकी
आँ खों में निराशा और हताशा नज़र आ रही थी, पर उसका बदन गठीला और रोबदार था। कैम्प आते ही वो उतर गया। जाते-जाते वो बोला कि,”देखो क्या होता है, घर पैसा भेजना है, टाल रहे हैं काफी दिनों से ।” मैंने सिर हिलाकर अलविदा कहा। -शाम को मैं जश्न-ए-रेख़्ता पहुँचा। हर साल की तरह लोगों का हजूम, बुद्धिजीवियों और कलाकारों का रेख़्ता और उसकी संस्कृ ति को समझने के लिए आया था। तो ऐसे में सवाल उठता है कि रेख़्ता भला क्या है। रेख़्ता दरअसल भाषा की एक शैली है जिसका अर्थ है ‘मिश्रण’ या ‘बिखरा हुआ’। भाषा का यह रूप उर्दू और हिंदी का मिला जुला मिश्रण है। सरल शब्दों में इसे हिंदसु ्तानी या खड़ी बोली भी माना जाता है। इसपर मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर भी है,- ‘रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था’। इसे फ़ारसी, उर्दू और हिंदी के बीच कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। कई शायर, कवि और साहित्यकार आज भी इसका बखूबी इस्तेमाल कर सुन्दर कृतियाँ रचते हैं। जश्नए-रेख़्ता में शाम को मंजरी चतुर्वेदी ने बेग़म अख़्तर और इक़बाल बानो के गीतों पर नृत्य प्रस्तुति पेश की। तभी शाम को खबर आई कि जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के चलते हालात खराब हो गए हैं। मैंने अपने दोस्तों को कॉल कर स्थिति जाननी चाही। पता चला कि पुलिस ने सेंट्रल लाइब्रेरी में बहुत से छात्रों को जख़्मी किया। रात होते-होते मथुरा रोड पर कुछ बसों को आग लगाने की घटना की ख़बरें आई।ं बाद में जख़्मी छात्रों को अस्पताल में भर्ती किया गया। पुलिस की करवाई में एक छात्र ने एक आँ ख गँ वा दी। ये ख़बरें विचलित करने वाली थी। उसी रात विरोध कर रहे लोगों ने आई.टी.ओ. में पुलिस हेड क्वार्टर का घेराव किया। पुलिस द्वारा हिंसा और गिरफ्तार छात्रों को छोड़ना इन लोगों की माँग थी। इनमें सिर्फ छात्र ही नहीं, औरतें, बूढ़े बच्चे और नौजवान लोग भी मौजूद थे। एक स्वर में नारे लगते हुए ये प्रदर्शन पूरी रात चला। सुबह होते-होते सभी गिरफ्तार लोगों को छोड़ दिया
शहर की कहानियाँ
जनवरी 2020 • खिड़की आवाज़
तस्वीर: महावीर सिंह बिष्ट
गया। क्या देश में क्रांति की नई शुरुआत थी? माहौल तो ऐसा ही लग रहा था। आखिरी बार दिल्ली में ऐसा माहौल 2011 में देखा था। जब लाखों लोग सडकों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उतरे। --इस बीच यह विरोध आं दोलन की शक्ल ले चुका था। कागज़ न दिखाने की बातें चारों तरफ चल रही थी। नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ पूरे देश में लोग सड़कों पर उतर रहे थे। सरकार की तरफ से कोई स्पष्ट जवाब नहीं आ रहा था। उल्टा ख़बरें आ रही थीं कि उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में अब तक हिंसा से जुड़ी खबरों में 31 लोग जान गँ वा चुके हैं। साथ ही जनवरी में गणतंत्र दिवस आने वाला है। इस विरोध के बीच 26 जनवरी कैसा होगा ? इन सब के बीच दादाजी का ख्याल मुझे फिर आने लगा। नब्बे के दशक की शुरुआत में, मेरी बुआ अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहती थी। उन्होंने दादाजी को गाँव से दिल्ली आने का पत्र भेजा। दादाजी ने अपना ज्यादातर जीवन खेती करते हुए बिताया। वे एक बार फ़ौज में भर्ती होने के लिए शहर आये तो थे। लेकिन उनका मन नहीं लगा और वे वापस गाँव आ गए। इस बुलावे को वे मना नहीं कर पाए और दादी जी के साथ निकल पड़े।दो दिन बाद दिल्ली पहुँचकर उनका खूब स्वागत सत्कार हुआ। फूफा जी ने कहा कि दिल्ली आये हैं तो 26 जनवरी की झाँकियाँ देख कर जाएं गे। 25 जनवरी की रात को ओटो रिक्शा पकड़कर वे दरियागंज पहुँचे। वहाँ से इंडिया गेट पैदल जाना था। सुबह के 5 बजे दिल्ली की कड़कड़ाती ठं ड में उन्होंने चलना शुरू किया।लोगों से रास्ता पूछ कर वे लगभग सात बजे इंडिया गेट की आम लोगों की दीर्घा में पहुँच गए। पूरे देश की विविधता की झाँकियों का वे अक्सर ज़िक्र करते थे। पर एक फौजी होने की बजाय वे एक किसान थे और अपने देश से प्रेम करते थे। इन्हीं ख्यालों के बीच एक दिन में दोस्तों के साथ मैं दिल्ली के शाहीन बाग पहुँचा, वहाँ भारत के एक बड़ा सा नक्शा और उसके पीछे एक छोटा सा इंडिया गेट था । शायद अब मुझे समझ आया कि दादाजी को कैसा महसूस हुआ होगा भारत की उन झांकियों को देखकर।
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खिड़की आवाज़ • जनवरी 2020
समुदाय के साथ वक़्त की सैर चित्र- अलिया सिन्हा तसवीरें और शब्- एकता चौहान
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एकता का बचपन का घर 1990 में
“हमारा सतपुला बहुत बदल गया है ! मैं बचपन में इस झील में तैरने के लिए आता था। कभी-कभी मैं अपनी भैंसों को पार ले जाने के लिए, उनके साथ कूद जाता था, फिर उन्हें पकड़कर उस पार पहुँ च जाता था। पानी इतना साफ़ होता था कि पी सकते थे।” श्रीचंद चौहान, उम्र 69 साल
सतपुला झील लगभग 1960 में
देखो यहाँ बच् मुझे वो दिन याद हम पेड़ की टहन स्टिक बनाकर ख हम बूढ़े हैं , लेकि यहाँ आकर पत्ते - सुभाष
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जनवरी 2020 • खिड़की आवाज़
गाँव का कुँआ 1960 में
“अब ज़िन्दगी आसान है । घर में अब नल से पानी आता है । जब मैं नई-नई दुल्हन बनकर आई थी। मैं पौ फटने पे उठ जाती, गाय-भैंसों को चारा देती, घर के काम करती और फिर खेत में काम करती। बीच में गाँव के कुँए से पानी भर्ती। हम औरतों को आराम का समय कहाँ था!” मूर्ति चौहान, उम्र 78 साल
“हमारे घर पे, छत्त सबसे “इस गली में जानवरों का घेर होता मज़ेदार जगह होती थी। सर्दियों था। हम अपने जानवरों को बच्चों की में, मेरी दादी यहाँ गाय के गोबर तरह मानते थे। हम उन्हें नहलाते, का चूल्हा बनाकर गाजर का खिलते और दूध दुहते। आजकल ऐसा हलवा बनती थी। और गर्मि यों शुद्ध दूध मिलना मुश्किल है ।” कमला में यहाँ, शाम को हम कैच-कैच चौहान, उम्र, 80 साल खेलते। मानसून में, हम बारिश में डांस करते। हु यहाँ से तब खिड़की मस्जिद की छत्त और कुतुब मीनार और उससे आगे भी देख पाते थे। ऐसे में हम उत्साह से भर जाते थे।” एकता चौहान, उम्र, 26 साल अब हम छत्त पर तभी जाते हैं जब नीचे मोबाइल नेटवर्क नहीं आता, अब हमें सिर्फ गुम्बद नज़र आते हैं ।
घेर, लगभग 1960 में
च्चे खेल रहे हैं ! द आ गए, जब नियों से हॉकी खेला करते। अब िन अच्छा है खेल सकते हैं ! चौहान
खोज लगभग 1950 में
मॉल लगभग 1950 में
“खोज वाला एरिया आम और जामुन जैसे खिड़की गाँव में दूर-दूर तक खेत होते थे। शायद हमारे गाँव में खेतों फलों के बगीचों से लदा हुआ होता था।” महें द्र सिंह कौशिक, उम्र 65 साल का क्षेत्र सबसे बड़ा था। हमारी ज़मीनें तुग़लकाबाद तक फैलीं थीं। जहाँ आप मॉल देख रहे हैं ना, वहाँ हम गन्ने उगाया करते थे। अरे ! हम यहाँ सबसे बढ़िया गन्ना और गुड़ बनाते थे। खिड़की का गुड़ बहुत मशहूर था। हमारे पास तब ज़्यादा पैसा नहीं था, लेकिन हम जितना भी होता संतुष्ट और खुश रहते थे। गाँव के लोग एकजुट रहते थे और अच्छे और बुरे दिनों में एक दूसरे का साथ देते थे।” कृष्ण पाल चौहान, उम्र 77 साल
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तस्वीर: स्टीवन एस. जॉर्ज
खिड़की आवाज़ • जनवरी 2020
स्टीवन एस. जॉर्ज प्रोफेसर दिलीप मेनन के साथ एक इं टरव्यू काल्पनिक साँचे में, खिड़की की गलियों में नाटक के रूप में प्रस्तुत करते हैं
मोहल्ले का जहाजी सफर स्टी
वे न: सर, मुझे आपको कुछ दिखाना है, बहुत ज़रूरी है । प्रोफ मेनन: हाँ, ज़रूर! स्टीवे न: हमे उसके लिए कही तक जाना पड़ेगा। प्रोफ मेनन: चलो, चलते है। स्टीवे न: उसके लिए हमे पहले अपने शरीर को थोड़ा छोटा करना पड़ेगा। प्रोफ मेनन: क्यों? स्टीवे न: सर, आपको मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा। प्रोफ मेनन: देखते है। प्रोफेसर दंग रह गए जब स्टीवे न कक्षा के अंदर एक नाव लेकर आ गया। स्टीवे न: आज यही हमारी सवारी है! प्रोफ मेनन: और हम इस में जाएं गे कैसे ? स्टीवे न: सर हम नाली के रास्ते से जाएं गे, इस से हम ट्रैफिक से बच जाएं गे। थोड़ी बदबू होगी मगर जामिआ से उतना दरू नहीं है। दोनों नाली के रस्ते पॅहुचते है जहान-ए-नगर (अमिताव घोष के उपन्यास गन आइलैंड से लिया गया शब्द)। जैसे ही वो दोनों नाव से बाहर निकले, प्रोफेसर गिर गए और उनकी पैंट फट गयी। स्टीवे न: सर मुझे माफ़ करना। आप रुकिए, मई आपको एम् एम् खान की दर्जी की दक ू ान पर ले चलता हु प्रोफ मेनन: नहीं ठीक है। दिखाओ जो दिखाना था, मै घर जाकर बदल लूंगा। स्टीवे न सर को जबरदस्ती दक ु ान ले गया स्टीवे न: सर की पैंट जल्दी से रफ्फू कर दो! खान: ठीक है। इन्हे ये पैंट देदो तब तक पेहनने के लिए। प्रोफ मेनन: ये पैंट कुछ खान: ये केन्या के लोगो के लिए सैंपल पीस है। प्रोफ मेनोन: आप को केन्या के कपडे सीलने कैसे आते है? 8
खान: सर, वालिद जो थे अब्बा हमारे उन्हें जर्मनी जाके सीखने का मौका मिला था, और उन्होंने अपना हुनर मुझे भी सीखा दिया। मेरे कई ग्राहक यूगांडा, नाइजीरिया और अन्य देशो से है। वैसे सर करते क्या है? स्टीवे न: सर सेंटर फॉर इंडियन स्टडीज के डायरेक्टर है दक्षिणअफ्रीका में। खान: वाह! दक्षिण अफ्रीका! उस जगह ने थो मेरी ज़िन्दगी बदल दी। कुछ साल पहले, मुझे एक एम्बेसडर वह लेके गए थे एक प्रोजेक्ट में। सर, मगर आपने इंडियन स्टडीज का सेंटर, दक्षिण अफ्रीका में क्यों बनाया? प्रोफ मेनन: उस सेंटर का मक़सद ही यही था की, हम राष्ट्रीय इतिहासों से आगे बड़े। खान: मतलब? प्रोफ मेनन: हम लोग उस विचार से आगे बढ़ना चाह रहे थे, जहा इंडिया जैसे एक विषय की पढाई केवल इंडिया में ही हो सकती है। हमे ये सोचने की ज़रूरत है की दनि ु या चाल, संचार और प्रवास से बानी है। तब इंडिया का एक विचार होगा, जो दक्षिण अफ्रीका से , कॅरीबीयन से और अलग-अलग जगाओ से आएगा, जो की उतना ही उचित होगा जितना राष्ट्रवाद से आया विचार। खान: फिर राष्ट्रवाद का क्या? प्रोफ मेनन: राष्ट्रवाद एक ऐसा विचार है, जिस में कुछ लोग होते है और कुछ लोग नहीं होते है। जब हम इंडिया के बारे में डायस्पोरा से सोचते है, तब हम और लोगो को भी इंडिया एक विचार से जोड़ते है। जैसे की आप खुद खान जी, आपकी दोस्ती और समबन्ध अन्य देश के लोगो से । जो की एक ज़्यादा व्यापक विचार होगा इंडिया का जिसे हम समझ सके। खान: सर, एक दम गज़ब के विचार है आपके और ये रही आपकी पैंट। प्रोफ मेनोन: धन्यवाद खान जी। सुनो स्टीवे न, मुझे अपने फ़ोन में
रिचार्ज करना है जल्द से । स्टीवे न: ठीक है, स्वाति जानू की रिचार्ज की दक ू ान चलते है। स्वाति: हा बताइये? स्टीवे न: एक रिचार्ज करना है इनके फ़ोन में। स्वाति: ठीक है, जब तक मै आपका रेचर करती हु, तब तक क्या मै आपसे एक सवाल पूछ सकती हु जो मै अपने हर ग्राहक से पूछती हूँ? आपका गाँव किधर है? स्टीवे न (कूद के जवाब देता है): महासागर ही इनका गाँव है। प्रोफ मेनन (घूरते है): मैं वैसे केरला से हूँ, मै पला बड़ा कलकत्ता, दिल्ली और मुंबई में हूँ। मैंने अपनी उच्चतर शिक्षा इंग्लैंड से की है, और कुछ साल अमेरिका, ह्यदेरबाद और दिल्ली में पढ़ाया है।
“मैं इतिहास को ज़मीन की बजाय समंदर के रास्ते देखना पसंद करता हूँ । यह देशों के बीच के रास्ते को देखना है। ये जगहें देशों से होकर गुजरती हैं और कुछ तो देशों से बी बड़ी हैं।” प्रोफेसर मेनन और अभी मै दक्षिण अफ्रीका में हूँ। उम्मीद करता हूँ मैंने आपके सवाल का जवाब दिया । स्वाति: हां बिलकुल और आपका रिचार्ज हो गया। अगर आप बुरा ना माने, स्टीवे न ऐसा क्यों कहता है की महासागर आपको गाँव है? प्रोफ मेनन: वो इसलिए क्युकी मै इतिहास को महासागर के रिश्ते से समजझता हूँ, बजाय ज़मीन के। जिस में राष्ट्रों के बीच के सम्बन्ध को देख सकते है, राष्ट्रों से बढ़कर
जो क्षेत्र है उनको देखा जा सकता है और रास्त्रो को चीरते हूँ विचार को भी। स्वाति: आपने इसके बारे में विचार कब करना शुरू किया? प्रोफ मेनन: हाल ही में। शुरुवात में हमने हिन्द महासागर के इतिहास और लोगो के चलन और सम्बन्धो के इतिहास को एक जुट करने लगे। पांच साल बाद, हम महासागर को ही एक संकल्पना, एक विचार की तरह ही सोचने लगे दनि ु या और इतिहास को देखने के लिए। स्वाति: एक आखरी सवाल, महासागर ही क्यों? प्रोफ मेनन: महासागर के वास्तिविकता और विचार दोनों की वजा से । महसागर पुरे दनि ु या को घेरता हूँ, हर वक़्त बेचैन रहता है, उसकी कोई स्थायी और स्थिर पहचान नहीं है और वो एक योजक है। महासागर एक संवाद बनाता है निरंतर और तरल पहचानो के बीच, ना की एक उत्पीड़ित और दमित पहचान बनाता है, जैसे की किसी देश की नागरिकता। दोनों धन्यवाद करते है और चलने लगते है। प्रोफ मेनन(चलते हुए): क्या तुम मुझे कुछ दिखाने नहीं वाले थे? स्टीवे न(अखबार लेकर आता है): ये है खिड़की आवाज़, जिसे खोज प्रकाशित करता है। मुझे यही दिखाना था। प्रोफ मेनन: बस यही और अगर मै तुम्हे बताऊ की मुझे इसके बारे मै पहले ही पता था तो? स्टीवे न: वो कैसे ? प्रोफ मेनन: मेरे सेंटर में एक ज़िम्बावे की पोस्ट-डॉक्, मेलिसा मयाबो, दिल्ली के सार्वलौकिक और विश्वजनीन लोगो पर रिसर्च कर रही थी। वही इसकी एक कॉपी मेरे लिए भी लायी थी। स्टीवे न: अच्छा वही जो, खिड़की गॉव को दक्षिण अफ्रीका, जोहानसबर्ग के सोफ़िआं टाउन से जोड़ती है। प्रोफ मेनन: बिलकुल!
स्टीवे न: और आपका इसके बारे में क्या विचार है? प्रोफ मेनन: मुझे लगता है खिड़की आवाज़ सार्वलौकिक और विश्वजनीन भाव दर्शाता है, जैसे की यहाँ के पड़ोस में है। यहाँ के पड़ोस में आप आसानी से किसी सूडानी, अफगानी, सोमाली या अन्य देश के लोगो के देख सकते है, जो की ये अखबार भी दिखाता है। स्टीवे न: मुझे आपको इस अखबार में कुछ दिखाना है, एं ड्रू अनंदा वोगेल का एक कलात्मक पीस! प्रोफ मेनन: हाँ। स्टीवे न: उन्होंने ब्रिटिश काल के दौरान उत्तर प्रदेश के एक गाँव से गिरमिटिया श्रम ली गई अपनी परदादी की कहानी को काल्पनिक ढं ग में लिखा और दिखाया है। मैं, मैं इससे संबधि ं त कुछ प्रश्न पूछना चाहता था? प्रोफ मेनन: ज़रूर। स्टीवे न: यदि आप गिरमिटिया श्रम के आख्यान पढ़ते हैं, तो आप वास्तव में परेशान महसूस करते हैं, और गुलाम और गुलामगिरी के बारे में भी सोचना शुरू करते हैं। कुछ विद्वान गुलाम को पहला आधुनिक विषय कहते हैं। क्या आप समझा सकते हो? प्रोफ मेनन: जब मैं गुलाम के विचार को पहले आधुनिक विषय के रूप में आकर्षित करता हूं, तो मैं आधुनिकता के विचार के रूप में व्यक्ति के विचार को एक स्वतंत्र पहचान के रूप में चित्रित करता हूं।इस तथ्य के साथ भी कि व्यक्ति अपनी पहचान का आविष्कार कर सकता है- कि वह वह बन सकते है जो वह बनना चाहते हैं। गुलामों को उनके घरों से चीर दिया जाता है, महासागर के उस पार पहुंचा दिया जाता है, जहां से शवों को बेचा जाता है और जहा उन्हें खुद के लिए एक इतिहास, परंपरा और समुदाय का आविष्कार करना पड़ता है, जहां वे रहने को मजबूर होते हैं। स्टीवे न: गुलाम का जहाज पर क्या होता है , जब वे कोई नहीं हैं, सिर्फ शरीर हैं? प्रो मेनन: गुलाम को एक निश्चित पहचान से दरू कर दिया जाता है और अटलांटिक महासागर के पार अमेरिका ले जाने पर एक मध्य मार्ग होता है। उस मध्य मार्ग के दौरान वे केवल मांस हैं, मांस बेचा जा रहा है। अपनी पहचान खो देने के बाद उन्हें एक नई अजीब भूमि में एक नई पहचान का अविष्कार और एक नई संस्कृ ति की खोज करनी पड़ती है। स्टीवन: ठीक है। अब मैं समझ रहा हूँ आप क्या कह रहे है। प्रो मेनन: अब हमें चलना चाहिए? स्टीवन: हम निकलने से पहले सिर्फ एक अंतिम स्थान पर जाएं गे लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए हमें इन सड़कों पर तैरना होगा। प्रो मेनन: क्या? आइए अगले संस्करण में जानें कि आगे क्या होता है।
जनवरी 2020 • खिड़की आवाज़
जब प्यार टिके “
कृपया आप अंदर आयें, देखिये, आपका स्वागत है। हम यहाँ मुफ्त लाइब्रेरी बना रहे हैं। यहाँ सबका स्वागत है। हम यहाँ हर काम प्यार से करते हैं।” पहली बार सुनने पर ये शब्द बनावटी लग सकते हैं, किसी को बिना जाने, जबरदस्ती जताई गई ख़ुशी जैसे। शायद, कुछ ही समय में ये प्यार जैसे बड़े शब्द, हर बार की तरह गायब हो जाएं गे। क्यूंकि गुस्सा रहता है, भेदभाव रहता है, ऊँच नीच रहती है, बच्चों को गलती पर मारना रहता है।
सब चीज़ें रहती हैं, लेकिन प्यार ख़त्म हो जाता है। लेकिन जो रह जाता है, क्या वो रहने लायक है? कब ये बात मान ली गई कि सिर्फ ताकतवर की ही आवाज़ सुनी जाएगी ? कब इस बात को सामान्य मान लिया गया कि दोहराये हुए प्रश्न का जवाब चिढ़कर दिया जायेगा ? कब इस बात को स्वीकारा जाने लगा कि जिनके पास सारे संसाधन होंगे वे दस ू रों का हक मारेंगे? जब मैं आलम को पहली दफा
रितिका पुरी ‘द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट’ के अविस्मरणीय अनुभव को अभिचित्रों के ज़रिये बताती हुई। वह हमारे मनपसंद चित्र के बारे में लिखती हैं ।
मिली थी, तो हम सिकंदरपुर लाइब्रेरी को बनाने के पहले साल में थे। मैंने मुस्कराकर उसका स्वागत किया। मैं चाहती थी कि इस नई दनि ु या को बनाने के सफर का वो भी हिस्सा बने। लेकिन भीतर से मैं चिंतित थी। मेरे लिए किसी का मुस्कराकर स्वागत करना आसान था, ताकि पहली बार बात हो सके। रोज़ करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। मुझे ज़िन्दगी के अपने अनुभवों में प्यार को ज़्यादा वक़्त टिकते हुए नहीं देखा है। मुझे लगा ये नाटक जल्द ही ख़त्म
हो जायेगा। आलम स्कू ल के बाद रोज़ लाइब्रेरी आने लगा। उसे लाइब्रेरी के किसी भी महत्वपूर्ण कार्य सीमा में कोई भी दिलचस्पी नहीं थी, वह किताब इशू करवाता और हफ़्तों तक अपने पास रखता, जबतक उसे अपनी क्षमता के अनुसार पढ़ न ले। वह हर बात पर सवाल करता, वह रूटीन का पालन करता, वह हमारी हर ‘प्यार से’ वाली बात को कॉपी में लिख लेता। मैंने जल्द महसूस किया कि जब भी मैं ‘प्यार से’ वाली बात मेरे खुद
के व्यवहार में नहीं आते, तो मुझे बारीकी से देखा जा रहा है। जब मुझे लगा कि मेरे व्यवहार और शब्दों को देखा और जिम्मेदार ठहराया जायेगा, तो मैंने अपनी खुद की गलतियों को सुधारना शुरू किया। जब एक किताब खो गई, तो मैंने तुरत ं ,”तुम ये किताब कैसे खो सकते हो” की बजाय “बताओ क्या हुआ” कहा। जब मेंबर इशू की हुई किताब नहीं पढ़ते, मैं,”सरल भाषा की किताब लो” की बजाय “पर तुमने चित्र देखे?” कहती। जब मातापिता आते और कहते कि बुरे बर्ताव के लिए छात्रों को पीटना सही है,”तो मैं, “हाँ” की बजाय कहती,”नहीं, किसी भी बच्चे को पीटना गलत है, ये हम यहाँ नहीं करते।” जब मुझे मिसाल की तरह देखा जा रहा था, तब मैं इसमें खरा उतरना चाहती थी। जब मैंने खुद को सुधारना शुरू किया, मैंने सीखा कि अपनी गलत प्रथम भावनाओं को सुधार कर प्रतिक्रि यायों को ठीक किया जाये। जल्द ही ‘प्यार से’ का रास्ता हमारी लाइब्रेरी में सही रास्ता बन गया। ये समझने के लिए कि सतत क्या है, सिस्टम का नेतृत्व करने वालों को दी गई पावर पर पुनर्विचार करना ज़रूरी है। जब तक नेतृत्व पर सवाल न उठें , हर अस्थिर चीज़ सतत बन जाती है। आलम ने जब हमें लाइब्रेरी का नेतृत्व करते देखा, उसने उसकी खुद की ज़िन्दगी में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों को भी देखा। उसने अपने बड़ों, दोस्तों और शिक्षकों बारीकी से देखना शुरू किया। और जब एक दिन उसकी शिक्षक ने गलती करते हुए एक छात्र पर हाथ उठाने को कहा, उसने उठकर साफ़-साफ़ मना कर दिया, क्तोंकी ये ‘प्यार से’ के सिद्धांत पर खरा नहीं उतरता। शायद लाइब्रेरी के अनुभवों से उसने ये सीखा।
शाहीन बाग़ से खबर पर चुप थे, लेकिन अब कुछ तो करना था। लेकिन अगर हम कुछ खला के शाहीन बाग नहीं करते, तो हमारे मौलिक के विरोध प्रदर्शन को अधिकारों पर खतरा था,” एक 35 दिन पार हो गए प्रदर्शनकारी ने कहा जो इस निर्ण य हैं। यह 15 दिसंबर को शाहीन बाग का हिस्सा थे। के स्थानीय लोगों ने शुरू किया औरतों को बैठने का एक भाग था, जब उन्होंने जामिया मिल्लिया अलग-से बनाया गया और भाषणों इस्लामिया के छात्रों पर हिंसा के के लिए पोर्टेबल स्पीकर का विरोध में रैली निकाली थी। यहाँ के बंदोबस्त किया गया। जैसे-जैसे बहुत से युवा यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं सड़क घेराव की खबरें फैलने लगी, और पुलिस की कार्र वाई का समुदाय के लोग ज़्यादा से ज़्यादा पुरज़ोर विरोध करते हैं। जैसे ही संख्या में जुटने लगे । सिर्फ 100रैली मथुरा रोड और कालिंदी कुञ्ज 200 लोगों से बढ़कर अगले दो को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग दिनों में संख्या कई गुना बढ़ गई। 24 पर पहुँची, ज़्यादा से ज़्यादा लोग दस ू री तरफ तक भरने लगे लोग समर्थन में जुड़ते चले गए। और जल्द ही दस ू री तरफ को भी दिल्ली और पूरे देश का माहौल ट्रैफिक के लिए बंद कर दिया।”यह पहले से ही गर्म था, बहुत से समूहों देखकर पुलिस एक तरफ का ने नागरिकता संशोधन कानून के रास्ता खुलवाने के लिए बातचीत खिलाफ आवाज़ उठाना शुरू कर करने आई और लोग मान गए। दिया था, जिसे बिना चर्चा के पास लेकिन इसे कमज़ोरी समझकर कर कानून बना दिया गया था। लोगों को डराने के लिए पुलिस जैसे रात बढ़ती गई और लोग डटे लाठी लेकर आयी,” एक चश्मदीद रहे, सलाह करके लोगों ने निर्ण य ने कहा। पुलिस की यह चाल काम लिया कि शहर का एक हिस्सा वे नहीं की, लोग सड़क के दोनों जाम कर देंगे।”हम बहुत से मुद्दों हिस्सों पर डटे रहे। ज़्यादा से
ओ
ज़्यादा लोग और खासतौर पर औरतें, अपने घरों से निकलकर, पुलिस की गतिविधियाँ सुनकर जुड़ती चली गयीं। उनकी नागरिकता पर . सवाल उठने और पुलिस की बर्बरता ने बँ टे हुए, शाहीन बाग के प्रवासी समुदाय को एक साथ खड़ा कर दिया। अगले कुछ दिनों में लोगों के लिए एक स्टेज बनाया गया। समुदाय के लोग वहाँ बैठे और काम कर रहे लोगों के लिए खाना लेकर आये । साथ ही, टें ट एरिया को भढने के लिए सामान, दरियाँ, गद्दे आदि सबके सहयोग से लाये गए। बैठी हुई औरतों की वजह से यह विरोध प्रदर्शन ज़मीन से जुड़ा हुआ और सच्चा नज़र आता है। वालंटियर को खाना बाँटने, स्टेज मैनेजमेंट, क्राउड मैनेजमेंट, सिक्योरिटी और योग्यता और वक़्त दे पाने की क्षमता के हिसाब से सामूहिक सोच विचार से बाँटा गया। लोगों में इस सफर में असहमति भी हुई, लेकिन एक बड़े लक्ष्य को सामने रखने की क्षमता की वजह से शांति से उपाय
तस्वीर: महावीर सिंह बिष्ट
शौनक मभुबनी
शाहीन बाग की निडर, मज़बूत और अडिग महिलायें।
निकाला लिया गया। जैसे-जैसे विरोध बड़ा होता गया, अलग-अलग लोगों ने विरोध को हथियाने की कोशिश में खुद को नेता बनाना चाहा। लेकिन, एक महीने बाद भी, यह आं दोलन मज़बूत और बिना चे हरे के औरतों के नेतृत्व में चल रहा है। शाहीन बाग की औरतों ने हमारे देश में महिलाओं की स्थिति के बारे में बहुत सी गलतफहमियों को दरू किया है और खासतौर पर मुस्लिम समुदाय से जुडी महिलाओं को
लेकर। परिपक्वता के साथ अस्थिर और अनिश्चित स्थिति को संभालना, पीढ़ियों के ना दिखने वाली मे हनत से सीखा हुई बातों ने इस बात को पुख्ता किया अंदर और बाहर के खतरों के बावजूद, ये विरोध दिन रात चलता रहे। वे मज़बूती से कहते हैं,”हम यहाँ तब तक बैठेंगे, जब तक हमारी आवाज़ों को सुना नहीं जाये गा। हम सरकार के नुमायन्दों से बात करना चाहते हैं।” 9
खिड़की आवाज़ • जनवरी 2020
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2033: खिड़की एक रोमांचक सफर शब्द ∞ अरोड़ा
आ
ने वाले कुछ ही सालों में , जैसेजैसे शहर में हमारी सरकारों के “भारतीयता का एकीकरण” करने की पहल ते ज़ हुई, खिड़की के मिश्रित, अनौपचारिक और बे हद खूबसूरत परिवे श में नाटकीय बदलाव आये ।जब 2025 में नई राजधानी की घोषण हुई, तो पुरानी राजधानी में निवे श कम होने लगे -इसका सीधा असर इस शहर के गाँवों पर पड़ा। बदलाव किये गए, हर व्यक्ति और वास्तु पर नज़र रखने के आदेश ज़ारी किये गए। हर नागरिक और गैर-नागरिक निगरानी में है । एक युवा लड़की खिड़की वापस आती है, और समुदाय में बदलाव देखकर हैरान रह जाती है। गाँव के स्पेशल लाल डोरा स्टेटस को हटा दिया गया है, जिससे नए निवे शों और इमारतों के ढाँचे बदलने से गाँव का नक्शा बदल गया है। अपने पिता को खत लिखकर वह इस नई खिड़की का वर्ण न करती
कलाकृति ∞ सूर्यन//डैंग
है, जैसे-जैसे वो इस जानी- गगनचुम्बी हैं। मैंने एक स्थानीय पहचानी और बदली हुई गलियों दक ु ानदार से ( जगह कम होने के की रोचक यात्रा करती है। कारण अपने बैग, कैमरे और पर्स को रैक के ऊपर संतुलित करते फरवरी 2, 2033 हुए पूछा), तो वो बोली, ऐसा इसलिए है क्यूँकि 12 साल पहले प्यारे पापा, अर्थव्यवस्था के गिरने से इंडस्ट्री उभर नहीं पाई, इसलिए वे थोड़ी पिछले तीन दिन काफी इंटेंस भी जगह बे कार नहीं होने देना रहे हैं! लेकिन पहले मैं कुछ बताना चाहते । चाहती हूँ-मैंने खुलकर शॉपिंग मैं पिछली रात पीने के लिए की! खिड़की की रिटे ल मार्किट जाना चाहती थी, लेकिन कुछ अब हर तरह के इंटरने शनल ब्रांड मिला ही नहीं! मुझे सिर्फ छोटीऔर प्रोडक्शन हाउस से भरी पड़ी छोटी दक ु ानें मिली, जो उन बड़े है, लेकिन आकार में काफी छोटी फ़ू ड कोर्ट के नाम पर हैं, जहाँ हम हैं ये दक ु ानें, शायद इसलिए कि लोग जाया करते थे । लेकिन यहाँ उन्हें उस विशाल मॉल को उन सिर्फ शाकाहारी खाना मिलता है अनुसूचित नागरिक के लिए सें टर और इसे बिलकुल भी खाया नहीं में बदल दिया ना, जिनके बारे में जा सकता। मुझे मे रे खाने में डाली रोज़ न्यूज़ आती है ना। आपको जाने वाली सब्ज़ियों के लिए अलग यहाँ आकर असहज महसूस होता, से पैसा देना पड़ा (इसका क्या उन्होंने हर नज़र आने वाली जगह मतलब!)। लेकिन ये ज़्यादा बड़ी को इश्तेहारों या किसी अन्य कीमत नहीं थी क्यूँकि मैंने एक स्क्रीन से भर दिया है। दक ु ानों के दोस्त बनाया। ये लड़की मे रे बगल गलियारे बहुत ही छोटे लेकिन वाले टे बल पर खाना खा रही थी
और मैंने गौर किया कि वह बाकि युवाओं की तरह वही अजीब से कपड़े पहने हुई थी, जिन्हें मैंने उस दिन देखा था। हमने बात करना शुरू किया, तो उसने मुझे बताया कि यह यूनिफार्म यहाँ के हर युवा को , 8 साल तक प्रोपे गंडा कॉर्प्स की अनिवार्य सर्विस के लिए पहननी पड़ती है। ये कितना क्रूर है ? जिन लोगों ने पहले ही ये सर्विस पूरी कर ली हो या अयोग्य घोषित कर दिए गए हों,( इस सख्त शासन के खिलाफ बोलने या से हत के कारणों से ) उन्हें ये यूनिफार्म खरीदने की ज़रूरत नहीं। मैंने उससे पूछा कि वो फिर सर्विस क्यों कर रही है, अगर उसे ये नीतियाँ पसंद नहीं, उसने बताया कि जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया होता, उन्हें इस शहर में रहने के लिए जगह ढू ँ ढना मुश्किल हो जाता है। मैं शायद आज रात उससे मिलूँगी, ऐसा लगता है, सभी दवि ु धा में हैं कि सरकार चाहती क्या है और ज़्यादा जानना
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चाहती हूँ। डैड यह बिलकुल वैसा नहीं है, जैसा मुझे याद था। मुझे जगह तो याद थी, पर कुछ पहचान नहीं पा रही थी। खिड़की के बाहर दीवारें बहुत ऊँची हैं, कि आप प्रवेशद्वार को देख ही नहीं पाएं गे । एक बार आप अंदर आ जायें , तो आपको हर जगह दीवारें ही नज़र आयें गी। उन्होंने अब ऊपर हवा में सड़कें बना दी हैं, पूरे पड़ोस के बिलकुल ऊपर। आप गाड़ियाँ तो नहीं देख पायें गे लेकिन आवाज़ ज़रूर सुन पायें गे। हर समय। मिस्टी ( यूनिफार्म वाली लड़की ) ने कहा,” सिर्फ एच-क्लान के लोग इन सडकों पर जा सकते हैं। वे पहले खाने या प्रदर्शनी के लिए पहले यहाँ आया करते थे , लेकिन अब नहीं। एच-क्लान और खिड़की के लोगों के मिलने को ठीक नहीं समझा जाता।” मैं कल पार्क में टहलने के लिए गई। अच्छा तो था, लेकिन सब गढ़ा हुआ सा लग रहा था, मानो
जनवरी 2020 • खिड़की आवाज़
5 1. एक फायर ट्रक खिड़की एक्टेंशन के मोड़ पर, लगभग 2020 2. खिड़की एक्सटें शन की संकरी गलियों में पब्लिक पार्क , लगभग 2020 3. खिड़की में एक पार्क , छतरी लगने से पहले, लगभग 2020 4. शेख युसूफ क़त्ताल के मकबरे में पोल्लुशण मास्क पहने खेलते हुए बच्चे, खिड़की, 2033 5. डिटें शन सेण्टर के पास, खिड़की एक्सटें शन में खेलते हुए बच्चे, मार्च 2033 6. एक औरत एन.डी.एम.सी. स्की एरीना में स्की करती हुई, लैंडफिल की बिल्डिंग से सेफद धूआँ निकलता हुआ, मार्च 2033
4 और लोग इसे खे लने के लिए कोई मुझे देख रहा हो।विजिबिलिटी करने लगा। कम होने के कारण मैं ज़्यादा कुछ डैड, क्या यहाँ इतनी साड़ी गायें इस्तेमाल में लाते हैं। ये काफी देख नहीं पाई। गाँव को ( शहर के थी, जब हम यहाँ रहते थे ? अब दिलचस्प जगह है, जिसके ऊपर कुछ और हिस्सों के साथ ) एक ये हर जगह नज़र आ जाती हैं, एक चिमनी भी है। यह हर घंटे धुंएं खास श्रेणी में डाला गया है। उसके मानों इन्होने सड़क के कुत्तों की का एक सफ़े द बदल भी छोड़ता है, ऊपर एक छाता सा लगाया गया जगह ले ली हो। दरअसल, हर घर जैसे हमारे शहर का क्लॉक टावर है। इसमें गाँव की हवा को शहर के को एक गाय रखना अनिवार्य है- करता है न। फिर वहीँ एक बड़ा दस ू रे ब्लॉक की हवा से मिक्स नहीं क्या आप मानें गे! अगर कोई फर्स्ट (मे रा मतलब है विशालकाय! ) होने दिया जाता। मैंने एक आधा फ्लोर पर रह रहा हो, तो भी उन्हें ढाँचा गाँव के पास है, शायद वे फटा हुआ पोस्टर देखा, जिसमें एक को पलना पड़े गा और नीचे शायद किसी की मूर्ति बनाना लिखा था कि यह गाँव को ‘सूरज एक मंदिर जैसी रहने की जगह चाहते थे । शायद ये बाहर से सबको की खतरनाक किरणों’ और शहर देनी पड़े गी। लोग उन्होंने खाना नज़र आता होगा। स्टेचू ऑफ़ से आ रहे ‘प्रदषु ण’ से बचाएगा। देते हैं और उनका ख्याल रखते हैं, लिबर्टी की कॉपी जैसा लगती है। लेकिन मैं सोच में पद गई कि बाहर कुछ बे मन तरीके से भी करते ही क्यूँकि मुझे नहीं मालुम। खिड़की के मुकाबले यहाँ तो ज़्यादा धुँधला हैं। लोग कहते हैं किसी ने इसका से आप इस मूर्ति का चे हरा देख है। खैर कुछ बच्चों के पास नाक मज़ाक उदय और अचानक अगले सकते हैं, बहुत बड़ा है। आपकी बहुत याद आ रही है और मुँह ढकने वाले गैजेट हैं-इन्हें दिन गायब हो गया। उन्होंने उसे पहनकर वे काफी उत्साहित हैं। वे खुद ढू ँ ढा, लेकिन अब हार मानकर डैडी। ये शायद मज़ाक है कि इस इसे ‘एयर मे कर’ बोलते हैं। यह बंद कर दिया है। मैं सोचती हूँ, गाँव का नाम खिड़की तो है, बच्चों को बिना खाँसे और हाँफे कहीं वो सिटिज़न सें टर में तो नहीं। लेकिन यहाँ एक भी घर में कोई ये गायें भी अजीब हैं, वे कूड़े के खिड़की नहीं है। अब मुझे जाना दौड़ने और साईकल चलाने में मदद करता है। उन्होंने मुझे पहनने इस पहाड़ पर जाती हैं और पड़े गा, क्यूँकि डाटा पर पाबन्दी है दिया और मुझे बहुत पसंद आया। फिसलकर नीचे आ जाती हैं। कूड़े और रिचार्ज हफ्ते में एक ही बार इससे मुझे अच्छा महसूस हुआ का पहाड़ एक ढलान वाला ढाँचा करा सकती हूँ। काश! आप यहाँ और मे रा दिमाग भी अच्छे से काम है, जहाँ सारा कूड़ा जमा होता है होते ।
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7. खिड़की एक्सटें शन की नई गालियाँ, मार्च 2033 8. औरतें सूरज की धूप का नए फ्लाईओवर के नीचे आनंद लेते हुए, खिड़की, मार्च 2033 9. सतपुला ऑफ़ लिबर्टी, खिड़की, मार्च 2033 10. सतपुला पार्क , छतरी लगने और मूर्ति बनने से पहले
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खिड़की आवाज़ • जनवरी 2020
ं ग’, सलफलता की तरफ ‘ब्रेकि आसिफ खान, बी-बॉय शिफ़ के नाम से ‘ब्रेकिंग’ सर्किल में मशहूर हैं। उन्होंने इस क्षेत्र में ना सिर्फ नाम कमाया है, बल्कि बहुत से परेशान और हाशिये के युवाओं को गर्त से निकाला है। महावीर सिंह बिष्ट ने उनसे उनके इस दिलचस्प सफर के बारे में बात की। महावीर : आप अपने बारे में बताइये, कहाँ जन्म हुआ, पैदाइश और बचपन कहाँ बीता और ब्रेकिंग की शुरुआत कहाँ से हुई ? आ: मेरा नाम आशिफ खान है और पिता का नाम रिजाउल खान है। फिलहाल में हौज़ रानी में पिछले एक साल से रह रहा हूँ। इससे पहले मैं बटला हॉउस रहता था। वहाँ मैं लगभग चार साल रहा। उससे भी पहले मैं दिल्ली के नजफगढ़ में रहता था। मेरी दसवीं कक्षा तक की पढाई नजफगढ़ में रह कर हुई। उसके बाद हम द्वारका के पास स्तिथ गोला डेरी चले गए । मैंने स्कू ल की बारहवीं वही से पूरी की। मुझे ‘ब्रेकिंग’ और ‘बी-बोईगं ’ के बारे में पहली बार वहीं पता चला। गोला डेरी में एक ग्रुप था जो ‘ब्रेकिंग’ करता था। मुझे तब पता नहीं था
आसिफ खोज में प्रैक्टिस करते हुए
तरह के लोग आकर कुछ नया सिखा कर जाते थे। म: ग्रुप में किस तरह के लोग आते और उनको इससे क्या फायदा होता ? आ: हमारे ग्रुप में आने से काफी लोग सुधरे भी हैं । अगर कोई ग्रुप से जुड़ना चाहते तो हम कहते आप चाहे कुछ भी गलत काम करते हो, प्रेक्टिस के वक़्त न करें। ग्रुप में कुछ नियम थे, जिसका सबको पालन करना पड़ता था। डांस भी एक नशे की तरह है, जो इसे करता है तो बाकी नशे भूल जाता है। इस तरह से लोग जुड़ते चले गए और सबको इससे फायदा मिलने लगा। मुझे इससे काफी फायदा पहुँचा। मैं पहले बहुत कमज़ोर और शर्मीला था, किसी से ज़्यादा बात नहीं करता था। ‘ब्रेकिंग’ मानो जिम करने जैसा है। इसमें पूरे शरीर की ताकत लगती है। मेरी सेहत बेहतर होती गई। साथ ही मेरा कॉन्फिडेंस भी बढ़ा। मुझे अब किसी से भी बात करने में कोई हिचक नहीं होती। तो फायदा ही फायदा है। म: फिर आगे का सफर कैसा रहा ? आ: फिर हम बटला हाउस शिफ्ट हो गए। थोड़ा पूछताछ करने पर मुझे यहाँ भी बी-बोईगं का एक ग्रुप मिल गया। इस तरह मैं सीखता रहा और जितना मुझेमें काबिलियत थी, दस ू रों को भी सिखाना शुरू किया। फिर हम वहाँ चार साल तक रहे और मैंने जामिया यूनिवर्सिटी से अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। फिर हमें पश्चिम बंगाल जाना पड़ा। म.:अचानक बंगाल क्यों जाना पड़ गया ? आ: दरअसल मेरे पिता 11 साल की उम्र में खो गए थे। किसी ने उन्हें ट्रैन में बिठा दिया और वे भटकते भटकते दिल्ली जा पहुँचे। वहाँ पुलिस ने उन्हें बाल सुधार घर में डाल दिया। वहाँ से कुछ दोस्तों के साथ भाग निकले। फिर कठिनाइयों का
आसिफ (दाएं ) अपने आइडल बी-बॉय लीलू के साथ मुंबई के 2018 साइफर में।
सामना करते हुए उन्होंने अपने लिए ज़िन्दगी बनाई। हमारे अब्बा हमेशा दोस्त की तरह रहते और अपने अनुभवों से सही राह दिखाते। वे अपनी ज़िन्दगी की कहानी अक्सर सुनाते और पिछले 36 सालों से पूरे देश में ‘मिर्ज़ापुर’ नाम की जगह को ढू ँ ढ़ते। वे 200 से ज़्यादा मिर्ज़ापुर ओर उससे मिलते-जुलते जगह हो आये थे। आखिरकार 2016 में उन्होंने न्यूज़ पर पश्चिम बंगाल के मिर्ज़ापुर के बारे में सुना और अपने माता-पिता के घर को खोज निकाला। वे बहुत खुश थे और अब हमें भी गाँव की एक पहचान मिल गयी थी। हमारा भी एक परिवार था। म.: बंगाल में रहना कैसा रहा ? क्या आप दिल्ली वापस आये ? आ: बंगाल जाकर पता चला कि भाषा सबसे बड़ी परेशानी है। मैं वहाँ कम वक़्त के लिए रहा। लेकिन वहाँ के लड़कों के साथ ‘ब्रेकिंग’ पर दोस्ती हो गयी। हम वहाँ रोज़ घर के पास स्थित एक स्कू ल की छत्त पर प्रेक्टिस करते। जब मैं वापस आ गया तो मैं उन्हें वीडियो कॉल पर सिखाता। उन्हें भी इसके फायदे समझ आने लगे। कुछ वक़्त पहले ही उन्होंने एक बड़े सरकारी
डिजिटल कोलाज: सूर्यन//डैंग + नेगी
कि ‘बी-बोईगं ’ या ‘ब्रेकिंग’ क्या होता है। तब इसे हम स्टंट समझते थे। इसमें बहुत ताकत लगती है। बॉलीवुड डांस आसान है लेकिन ‘ब्रेकिंग’ में बहुत ताकत और वक़्त लगता है। उसके बावजूद मेरी रूचि इसमें बढ़ने लगी। म :आगे का सफर कैसा रहा ? आ: गोला डेरी में पहली बार मैं ‘ब्रेकिंग’ से रूबरू हुआ। यह लगभग
2011 की बात रही होगी। तब में 15 साल का था। मैंने बी-बॉय लीलू और होन्ग 10 का एक वीडियो देखा तो मैं दंग रह गया। मैंने मन बनाया कि यही सीखना है। मेरी तब पहली बार मुलाक़ात अमित से हुई। अमित एक बी-बोईगं ग्रुप चलाता था। मैंने लगभग 2-3 साल उसके साथ प्रेक्टिस की। मैं बेहतर होता गया और मेरा नाम होने लगा। गोला डेरी एक झुग्गी वाला क्षेत्र था। मुझे पहले लोग झुग्गी वाला समझते थे। बी-बोईगं ने मुझे पहचान दी। मेरे ज़्यादातर दोस्त बेहतर कॉलोनियों में रहते थे। उन्होंने कभी अलग नहीं महसूस होने दिया। हम हर रविवार दिल्ली के सुभाष नगर और सी.पी. में बैटल या साइफर के लिए जाया करते। बहुत अच्छा लगता और पावर मिलती थी। हमारा नाम होने लगा और लोग हमें जानने लगे। म:बी-बोईगं से क्या बदलाव आया? आ: बी-बोईगं से बहुत फायदा मिला। कोई भी टैलेंट आपको बढ़ने की ताकत देता है। अगर मेरे साथ ब्रेकिंग न होता तो शायद मैं आज भी झुग्गी में ही रहता। कोई छोटामोटा काम ही कर रहा होता। प्रेक्टिस से हमने अनुशासन सीखा। हम गलत संगती से दरू रहते। लोग कहते कि इससे पढाई पर फर्क पड़ेगा। उल्टा इससे हमारा फोकस बढ़ा और एग्जाम में नंबर अच्छे आने लगे। म.: आपके परिवार की क्या राय थी? आ: मेरे परिवार ने मुझे हमेशा सपोर्ट किया। उन्होंने मुझे कभी मना नहीं किया। मैं हमेशा अपनी प्रैक्टिस के साथ घर के काम को नज़रअंदाज़ नहीं करता। संतुलन बना कर रखता था। स्कू ल का काम और घर का काम ख़त्म कर, प्रेक्टिस करने जाया करता था जिससे मुझे बहुत आनंद मिलता था। प्रेक्टिस में हर
कार्यक्रम में परफॉर्म किया। हम सब बहुत खुश थे। एक महीने बाद मैं दिल्ली आ गया और एक कुरियर कंपनी के लिए काम करने लगा। मैं हौज़ रानी में रहने लगा। उसी दौरान मैं कुरियर के लिए खिड़की में ‘खोज’ आता। मुझे पता चला कि ये कला को बढ़ावा देते हैं। वे उस वक़्त ‘वॉइसेस फ्रॉम मार्जिन्स’ प्रोजेक्ट के लिए मेरे जैसे कला में रूचि रखने वाले लोगों को ढू ँ ढ रहे थे। मैं इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। फिर मुझे खोज मैं ग्रुप मिल गया। काफी अच्छा अनुभव था। इसी प्रोजेक्ट में मुझे यू.एस.ए. जाने का मौका मिला। काफी कुछ सीखने को मिला। फिर जब मैं वापस आया तो खोज एक असिस्टें ट ढू ँ ढ रहा था। मुझे यहीं नौकरी भी मिल गई। अब मैं यहाँ प्रेक्टिस भी करता हूँ और नए-नए लोगों से भी मिलता हूँ। हाल ही में, मैं बॉम्बे में अपने आइडल्स बीबाय लीलू से भी मिला। । मेरा सपना है कि मैं अपनी कंट्री को बीबोईगं में रिप्रेजेंट करूँ और जहाँ भी मौका मिले, खोज में या जामुन वाले पार्क में किसी युवा बच्चे को यह कला सीखा सकँू ।
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संपादन: मालिनी कोचुपिल्लै और महावीर सिं ह बिष्ट [khirkeevoice@gmail.com]
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