तर्जनी-1

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अप्रैल 2022, अंक-1

स्त्री स्वर केंद्रित तिमाही

पंिडता रमाबाई के निधन के सौ साल पर िवशेष अंक

अप्रैल 2022, अंक- 1

रमाबाई अंक

स्त्री लेखन और मुद्दों पर केंद्रित तिमाही ई-पत्रिका


रमाबाई छोटी-सी हिं दू कन्या रमाबाई ने गंगामूल के झुरमुटों की निविड़ शांति में एक आवाज़ सुनी सोतों की कलकल, पत्तों के मर्मर की वह पहाड़ों की हवाओं के साथ बहती आई, पश्चिमी समुद्र तक आसमान ने उत्सुक धरती के कानों में फुसफुसाया: “सत्य, वायु की तरह उन्मुक्त है!” उस आवाज़ ने उसके पिता के पैरों को पंख दिए जाति-शृंखला से मुक्ति के लिए अपनी नन्ही चिड़ियों को विशाल दिनमान में उड़ने की आज़ादी देने के लिए मनु की पिंजड़े-सी संहिता के बंधन के मुकाबले, और इस तरह वह कन्या बड़ी हुई विचार और दृष्टि की स्पष्टता हासिल करने को जो ज्ञात नहीं थी किसी सामान्य बुद्धि ज़नाना को लूसी लार्कोम (1824-1893) अमरीकी अध्यापिका और लेखिका थीं। उनकी यह कविता ए. बी. शाह द्वारा संपादित किताब ‘द लेटर्स एं ड कॉरे सपॉनडें स ऑफ़ पंडिता रमाबाई’ (प्रकाशन –महाराष्ट्र राज्य का साहित्य और कृ ति बोर्ड ) संस् में संकलित है। इसका अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद अपूर्वा नंद ने किया

एकाकी घाट पर्वतों की कन्या! कुसुम भारत के विशाल मैदानों की! वह जानती है कि ईश्वर ने उसके होंठ खोले हैं अपनी मूक बहनों को स्वर का आशीष देने को, दिया है उसे साधन उन्हें उस जगह से निकालने को जहाँ वे दृष्टिहीन टटोल रही हैं दिशाएँ, संकेत किया है कि वह उनके तहखानों के दरवाजे खोले और आशा का दीप जलाए। हिं दू विधवाओं में सबसे वीर! तुझे देखने की हिम्मत हम कैसे जुटाएँ तू प्रेम की आजादी में इतनी निर्भीक है, और कहते हैं हम कि ‘हम आजाद हैं?’ हम जिन्होंने सुना है यीशू का स्वर, और फिर भी दास हैं आलस्य और स्वार्थ परता के , जीवित कब्रों में दफ्न? ओ रमाबाई, क्या हम साझा नहीं कर सकते तेरा कार्य , जो है लगभग दैवी ? तेरा कार्य है स्त्रीत्व का, ईसा का, हमारा उससे कम नहीं जितना तुम्हारा ! वह ताकत जो मकबरों को खोलती है, संचालित करे गी तेरे नन्हें हाथों को चट्टान पीछे हटती है : वे उठती हैं, वे साँस लेती हैं! तुम्हारे देश की औरतें!


अप्रैल 2022 : अंक- 1

संपादक मंडल पूर्वा भारद्वाज देवयानी भारद्वाज चारु सिं ह नासिरूद्दीन

परिकल्पना व ड‍िज़ाइन नास‍िरूद्दीन आवरण चित्र सोमेश कुमार तर्जनी लिखावट ऋष‍ि श्रीवास्तव (सभी तरह के संपादन कार्य पूर्णतः अवैतनिक हैं। तर्जनी में प्रकाशित रचनाएँ रचनाकारों के व्यक्त‍िगत

विचार हैं। इससे संपादक मंडल का सहमत होना ज़रूरी नहीं है।)

निजी और सीमित वितरण के लिए प्रकाशित ई-पत्रिका ईमेल TarjaneePatrika@gmail.com


इस अंक में... 1. अपनी बात

2. रमाबाई की जीवन यात्रा रमा शब्द 3. वह सरस्वती: वह पंडिता 4. उभरता स्वर: स्त्री-धर्मनीित 5. घर के काम 6. हंटर कमीशन में गवाही 7. ‘हिन्दू स्त्री का जीवन’ से 8. नियंत्रण, विवेक और आज़ादी 9. प्लेग प्रसंग और ब्रिटिश हुकूमत 10. वसीयतनामा छवि-प्रतिच्छवि 11. मानपत्र 12. दयानंद सरस्वती से संपर्क 13. रमाबाई रानडे का संस्मरण 14. रवींद्रनाथ टैगोर की टिप्पणी 15. छात्राओ ं का पत्र 16. वाशिं गटन संडे स्टार, 1907 में 16. मिस फुलर की ज़ुबानी लूसी लार्कोम की कविता ज्योतिबा फुले की कविता


रेखांकन: अनुप्रिया


अपनी बात

तर्ज नी ! कब कहाँ और किसकी किस पर उठी-दिखी, किसने उठाई–दिखाई ? यह सवाल तुरत आता है। ‘किस’ का जवाब मोटा मोटी मालूम होता है। उसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं होता है। ‘क्यों’ को लेकर उत्सुकता बनी रहती है। सामने जो है उसके दुस्साहस, सीमा के अतिक्रमण और चुनौती देने पर तर्ज नी का उठना स्वाभाविक मान लिया जाता है। यहाँ यह ‘तर्ज नी’ स्त्री की है।

तर्जनी

एक नई तिमाही ई-पत्रिका है ‘तर्ज नी’। स्त्री स्वर - उसके लेखन-कहन, उसके मत-मतांतर और उसकी मीमांसा पर केंद्रित, उसकी सारी विविधताओं और पहचानों के साथ। इसका स्वर स्पष्ट है और बेख़ौफ़, बेबाक है। स्वर में यदि कभी कहीं हिचकिचाहट दिखती है तो वह सोचने और सीखने की प्रक्रिया है। स्वर में अवरोध आता है या जयघोष होता है तो वह संदर्भ (आसपास) को देखने पर मजबूर करता है। प्रत्येक स्वर के आरोह-अवरोह की अपनी छटा है और मुद्रा भी। असल है अपनी बात अपने तरीके से सामने रखने की कोशिश। और जब अपनी बात और अपने तरीके की बात की जा रही है तो इसका मतलब बाकियों की बात और तरीके का नकार नहीं है। सामूहिक स्वर के साथ एकाकी स्वर के भी अपने मायने हैं। ज्ञान की रचना करने, उसे नई तरह से परिभाषित करने और संवाद कायम करने की दिशा में। हिन्दी जगत् में अनेक पत्रिकाएँ हैं जो स्त्री विमर्श को जगह देती हैं, लेकिन स्त्री के प्रश्नों को केंद्र में रखकर खुलकर बात करनेवाली पत्रिकाओं की संख्या आज भी कम है। उनके बीच ‘तर्ज नी’ का ज़ोर शोधपरक सामग्री पर रहेगा। प्रयास रहेगा कि देश के अलग अलग हिस्सों में और बाहर भी जो स्त्री स्वर है, उसके सवालों और अधिकारों पर कें द्रित जो लेखन हो रहा है, उसके विस्तृत फलक को हिन्दी के पाठकों के सामने लाया जा सके । 4


उसकी पूरी विविधता को समेटते हुए इसमें नई-पुरानी हर तरह की रचनाएँ रहेंगी जिनमें गैर-कथात्मक (non-fictional) रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। पूर्वप्रकाशित रचनाओं को सूचना के साथ प्रस्तुत किया जाएगा। हिं दीतर रचनाओं के अनुवाद को भी खासी जगह मिलेगी। लिखित सामग्री के साथ कुछ हिस्सा वीडियो इं टरव्यू या पॉडकास्ट को भी देने का इरादा है। ट्रांसक्रिप्शन सहित। कुछ नियमित स्तंभ भी हो सकते हैं। ‘तर्ज नी’ का पहला अंक पंडिता रमाबाई (23 अप्रैल,1858 5 अप्रैल,1922) पर कें द्रित है। यह उनकी मृत्यु का शताब्दी वर्ष है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने लड़कियों-औरतों, उनमें भी बाल विधवाओं, बेसहारा औरतों, अकाल पीड़ितों की शिक्षा के लिए कदम उठाया। आश्रम खोला। वह ऐसा आवासीय विद्यालय था जहाँ स्वतंत्र जीवन जीने के हुनर सीखे-सिखाए गए। रमाबाई के लेखन, भाषण और संस्थान-निर्मा ण में केवल स्त्री-स्वर की पुख्तगी ही नहीं दिखती, बल्कि स्त्री के नज़रिए को समझने में मदद मिलती है। उनके सवाल जाति, धर्म, राज्य सबसे हैं। ताज्जुब नहीं कि उनपर जाति द्रोह, धर्म द्रोह, राजद्रोह सबका आरोप लगा। लेकिन उनका कहना था – भय नाही खेद नाही। इस अंक की शोधपरक सामग्री से पाठकों को रमाबाई के व्यक्तित्व और क ृ तित्व की एक झलक मिलेगी। पत्रिका में मराठी, अंग्ज़ रे ी, बांग्ला और संस्कृत से हिन्दी में अनूदित कई दुर्ल भ सामग्री है। इं टरनेट सहित अनेक स्रोतों से इन्हें इकट्ठा किया गया है जिनमें एक स्रोत पंडिता रमाबाई पर निरं तर संस्था, दिल्ली से प्रकाशित किताब ‘भय नाही खेद नाही’ (पूर्वा भारद्वाज, दिप्ता भोग) है। ‘तर्ज नी’ की टीम चार लोगों की है। उनकी साझी दिलचस्पी का क्षेत्र है साहित्य, हिन्दी और स्त्री स्वर। अलग अलग अंकों में टीम के अलग अलग साथियों की प्राथमिक भूमिका होगी। 5


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रमाबाई� की जीवन यात्रा 23 अप्रैल, 1858 से 5 अप्रैल, 1922

रमाबाई का जीवन संघर्ष और जीवट का रहा है। 1874 के अकाल के दौरान 6 महीने के भीतर जुलाई में पिता, अगस्त में माँ और दिसंबर में बड़ी बहन की मृत्यु हो गई। इस परिवार की माली हालत इतनी खस्ता हो गई थी कि कई बार लोगों को शक होता था कि वे ब्राह्मण हैं भी या नहीं। माँ की मृत्यु के समय भाई के अलावा केवल दो ब्राह्मण मिले जिन्होंने अंतिम संस्कार में सहायता की। अर्थी को उठानेवाली चौथी व्यक्ति थीं रमाबाई। उनका कद छोटा था (लगभग 5 फीट या उससे थोड़ा कम), सो अपने सिर पर उन्होंने अर्थी को रखा या अपने कंधे पर लकड़ी के बड़े-बड़े टु कड़े रखकर माँ को कंधा दिया। बड़ी बहन क ृ ष्णाबाई का बाल विवाह हुआ था। पिता ने बेटी को पढ़ाया और दामाद को भी अपने घर रखकर पढ़ाने का असफल प्रयत्न किया। दामाद ने वर्षों बाद लौटकर अपनी पत्नी को विदा करने की अर्ज़ी के साथ मुकदमा दायर कर दिया। ब्रिटिश अदालत ने उसके पक्ष में फैसला दे दिया, लेकिन क ृ ष्णाबाई उस अनपढ़ अजनबी के साथ जाने को राज़ी नहीं हुई। इस तकलीफ से उसको छुटकारा दिलाया अकाल के दौरान फैले हैजे ने। बाएँ चित्र में रमाबाई का परिवार। बाएँ से रमाबाई की माँ लक्ष्मीबाई, रमाबाई ख़ुद, पिता अनंत शास्त्री डोंगरे की गोद में भाई श्रीनिवास, बड़ी बहन क ृ ष्णाबाई (पीछे खड़े व्यक्ति की पहचान को लेकर विवाद है)। 7


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बड़ा भाई श्रीनिवास, जिनके साथ रमाबाई ने लगभग 4000 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की। प्रायः पैदल। दोनों भाई-बहन को देवी-देवता की तलाश थी और सम्मानजनक काम की भी। दोनों कई कई दिन भूखे रहे। भूख बर्दा श्त नहीं हुई तो पत्तों में लपेटकर कंकड़-पत्थर निगला। कश्मीर में झेलम के किनारे ठं ड से बचने के लिए उन्होंने दो गड्ढे खोदे और गले तक अपने को बालू से ढँककर रात काटी। बंगाल पहुँचकर भाई-बहन की यह अनोखी बौद्धिक जोड़ी सार्व जनिक भाषण-प्रवचन में व्यस्त हो गई। लोगों ने आगे बढ़कर उनके खाने-ठहरने, यात्रा आदि का इं तज़ाम किया। तब तक घोर पूजापाठ, अथक श्रम, निर्ध नता, अकाल सबने श्रीनिवास को इतना अस्वस्थ कर दिया था कि युवावस्था में ही वे चल बसे। 8 मई, 1880 को ढाका में उनकी मृत्यु हुई। बाबू बिपिन बिहारी दास मेधावी श्रीनिवास के मित्र थे। भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने उनके विवाह के प्रस्ताव को मान लिया। 1880 की 13 अक्टू बर (जून और नवंबर का भी उल्लेख मिलता है) को दोनों ने बाँकीपुर कोर्ट में विवाह किया। दो प्रदेश के दो युवाओं की इस मर्ज़ी की शादी का खूब विरोध हुआ क्योंकि दुल्हन थी महाराष्ट्र की कोंकणस्थ चितपावन ब्राह्मण और दूल्हा था आसाम की शाहा जाति का जिसे उन दिनों अछूत माना जाता था। इसकी परवाह न करते हुए पेशे से वकील बिपिन बाबू के साथ रमाबाई ने सिल्चर में अपनी गृहस्थी जमाई। लेकिन 4 फरवरी, 1882 को एक झटके में यह बिखर गई। हैजे ने बिपिन बाबू की जान ले ली। विवाह के बाद कई जगह वे अपना नाम रमाबाई डोंगरे मेधावी लिखती थीं। 9


मा-ब ँ े टी और िमशन

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रमाबाई की इकलौती बेटी मनोरमा बाई का जन्म जुलाई, 1881 में हुआ था। कुछ महीनों की थी जब पिता का साथ छूट गया। अब यह परिवार माँ-बेटी का था। 1883 के मध्य में वे इं ग्लैंड गईं। वहाँ 29 सितंबर, 1883 को दोनों ने ईसाई धर्म की दीक्षा ली। रमाबाई कामकाजी माँ थीं। यात्रा करना, पढ़ना-पढ़ाना, सीखना-सिखाना, स्कू ल और आश्रम चलाना, अकाल में राहत कार्य – सब साथ-साथ किया दोनों ने। अपनी लगातार चल रही सांगठनिक व्यस्तताओं के बीच रमाबाई ने मानो (प्यार का नाम) को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा मिले और वह अपने देश की मिट्टी से, वहाँ के लोगों से जुड़ी रहे, इसका ख़ास ख़याल रखा। बचपन से मानो का स्वास्थ्य कमज़ोर था। आखिर हृदय रोग ने मात्र 40 साल की उम्र में उसे दुनिया से दूर कर दिया। एक साल होते-न होते रमाबाई ने भी उससे मिलने को दुनिया छोड़ दी। माँ-बेटी दोनों सहकर्मी रही थीं। उनके वैचारिक मतभेद भी रहे। स्त्री शिक्षा की मुहिम में मनोरमा की तीक्ष्ण मेधा, कर्मठता और उसके सांगठनिक कौशल का लोहा सब मानते थे। एक तस्वीर में रमाबाई की दोस्त आनंदीबाई भगत हैं। उन्हें इं ग्लैंड में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिली थी। वे रमाबाई और मनोरमा के साथ इकट्ठे इं ग्लैंड गईं। वहाँ आनंदी बाई भगत ने स्वेच्छा से ईसाई धर्म कबूल करने का फैसला किया था, लेकिन एक दिन अचानक ज़हर खा लिया। इस आत्महत्या ने सबको झकझोर दिया था।

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रमाबाई, मनोरमा और आनंदीबाई भगत 12


मनोरमा गुलबर्गा के शांति सदन स्कू ल में जो अकाल के दिनों में राहत केंद्र भी बना

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म ुिक्त का िमशन

रमाबाई ने परिवार की एक नई परिभाषा गढ़ी जिसमें रिश्ते रक्त संबंध या विवाह पर टिके नहीं थे। उन्होंने शारदा सदन और मुक्ति सदन को ऐसा आवासीय केंद्र बनाया जहाँ विधवा एवं बेसहारा लड़कियों को जीवन की नई राह मिली। 1896-99 के अकाल ने रमाबाई के अपने दायरों का विस्तार किया। मुक्ति सदन (बाद में मुक्ति मिशन) में वे जाति के दायरे से बाहर जाकर लड़कियों-औरतों को लेकर आईं। ‘पथभ्रष्ट’ मानी जानेवाली औरतों के लिए ‘क ृ पा सदन’ बनवाया। 60 साल से ऊपर की औरतों के लिए ‘सूर्या स्त सदन’ बनवाया जहाँ अपना दुख-दर्द भूलकर वे सामान्य जीवन जी सकें। और छोटे लड़कों के लिए ‘सदानंद सदन’ था। ज़रूरत पड़ने पर रात-रात भर जगकर सबकी सेवा-टहल करने में भी रमाबाई को थकान न होती थी।

लड़कियों-औरतों की अपनी जगह थी मुक्ति मिशन। शिक्षा का केंद्र और जीवन जीने की पूरी वैकल्पिक व्यवस्था। रमाबाई चाहती थीं कि हर लड़की शिक्षित होकर दुनिया को अपनी निगाह से देख-े समझे, सारे नियम-कायदों की व्याख्या खुद करे । रमाबाई ने इस पूरी मुहिम का व्यवस्थित तरीके से दस्तावेजीकरण किया है। वे अकालग्रस्त लड़कियों-औरतों व लड़कों के मुक्ति में आने पर फोटो खिंचवाती थीं और आगे चलकर स्वस्थ होने के बाद, शिक्षा हासिल करने के बाद, विधवाओं के बाल बढ़ाने के बाद, रं गीन या कायदे के कपड़ों में फिर से उनकी फोटो लेती थीं। बहुत बार स्टूडियो में तो कई बार आश्रम के बाग़-बगीचों में। नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने ऐसी तस्वीरों में लड़कियों की बैठने-खड़े होने की मुद्राओं की तरफ ध्यान दिलाया है। वे बताती हैं कि रमाबाई नई शिक्षित स्त्री और नए तरह के साहचर्य को गढ़ रही थीं। यह साहचर्य बराबरी और प्रेम की बुनियाद पर खड़ा है, पति-पत्नी के गैर-बराबरी के रिश्ते से अलग।

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कलकत्ता में केशवचंद्र सेन (दाएँ) से रमाबाई की भेंट हुई थी। वे ब्रह्मो समाज में नवविधान के प्रवर्त क थे। उन्होंने रमाबाई को वेद की एक प्रति दी। संस्कृत की विदुषी होने के बावजूद तब तक रमाबाई का भी यह ख़याल था कि स्त्रियों को वेद नहीं पढ़ना चाहिए। लेकिन इस घटना ने उनकी पारं परिक धारणा पर सवाल खड़ा कर दिया। आखिर यह पाबंदी क्यों? उन्होंने एक-एक कर सारे वेद-वेदांत पढ़े। नीलकंठ गोरे (नीचे) उर्फ़ फ़ादर नेहम्या गोरे (1825-1885) ने ईसाई धर्म के रहस्यों व सिद्धांतों के बारे में रमाबाई के सवालों का जवाब देते हुए एक पूरी किताब मराठी में लिख डाली थी। इं ग्लैंड जाने के बाद रमाबाई को यह डाक से मिली। अब वे बौद्धिक रूप से ईसाई धर्म से सहमत हो गईं। आध्यात्मिक प्रश्नों का हल भी तर्क से हो, अंधश्रद्धा से नहीं, इसमें उनका यकीन था।

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सार्व जनिक क्षेत्र में रमाबाई की उपस्थिति को हर जगह दर्ज किया गया है। क्या देश हो क्या विदेश! उनकी तारीफ़ हुई तो उन पर हमले भी काफी हुए। मित्र महादेव गोविंद रानडे ने उनकी किताब की अनुशंसा करते हुए पत्र लिखा तो बाल गंगाधर तिलक ने अपने साप्ताहिक ‘मराठा’ और ‘केसरी’ में शारदा सदन की सख्त आलोचना की (बाएँ)।


रमाबाई के मित्र महादेच गोविंद रानडे (ऊपर बाएँ) और उनकी किताब के लिए अपील करता रानडे का पत्र

रमाबाई के शारदा सदन की छात्रा गोदूबाई अपने पति धोंडो के शव कर्वे के साथ (बाएँ) 19


पंिडता

‘पेन्सिल्वेनिया वीमेंस मेडिकल कॉलेज’ की डीन रशेल बॉडली ने रमाबाई को अपने कॉलेज के सालाना दीक्षांत भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने अमेरिका में छपी रमाबाई की अंग्ज़ रे ी किताब ‘द हाई कास्ट हिन्दू वुमन’ की भूमिका लिखी थी। इस किताब को रमाबाई ने अपनी पहली गुरु - अपनी माँ लक्ष्मीबाई डोंगरे को समर्पित किया था।और आरं भ में ही विदेश जाकर मेडिकल की पढ़ाई करनेवाली पहली भारतीय स्त्री- अपनी प्रिय आनंदीबाई जोशी, M.D. को याद किया था।

संस्कृत, मराठी, बांग्ला, हिन्दी, अंग्ज़ रे ी, हिब्रू और ग्रीक - इन भाषाओं पर रमाबाई का अधिकार था। इनमें उन्होंने विचारपरक किताब लिखी, यात्रावृत्तांत लिखा, प्राइमर बनाया, भजन के गीत रचे, तर्क -वितर्क करते हुए अखबारों में लेख लिखे, आश्रम की लड़कियों का रे खाचित्र उकेरा, पर्चे लिखे, निमंत्रण पत्रों का मजमून बनाया, विज्ञापन और प्रचार सामग्री तैयार की, बाइबल का अनुवाद किया, स्त्री केंद्रित ही नहीं अनेकानेक सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भाषण दिया, अनगिनत पत्र लिखे। लेखन की यह विविधता स्पृहणीय है।

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रमाबाई की बनाई मराठी भाषा की प्रवेशिका।

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रमाबाई का अमेरिका का प्रवासवृत्त 1889 में छपा था। इसके पहले 1883 में उनका इं ग्लैंड यात्रा का वृत्तांत छप चुका था जो मराठी भाषा का पहला यात्रा वृत्तांत था (नीचे)। रमाबाई की लिखावट (बाएँ)।

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म ुक्ति मिशन: सफ़र जारी है

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अमेरिका में रमाबाई की एक तस्वीर (बाएँ)। वहाँ के फिलाडेल्फिया शहर में रमाबाई का भाषण आयोजित किया गया था। इस भाषण के लिए जारी टिकट की तस्वीर। वहाँ के अख़बारों में रमाबाई की किताब की ख़बर और उसकी समीक्षाएँ काफ़ी प्रमुखता से छपी थीं। चिड़ियाें के संरक्षण से जुड़ा पर्चा , जिसे रमाबाई के नाम से प्रचारित किया गया।

अमेरिका में...

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रमाबाई के विचारों और उनके काम की धूम उनके अमेरिका छोड़ने के काफी सालों बाद तक रही। पंडिता रमाबाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाशित लेख 23 मार्च , 1901 के द न्यूयॉर्क टाइम्स से साभार। 26


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कृ त सम्मेलन में रमाबाई ने अपनी एक लंबी कविता 1881 में बर्लिन के संस् कृ त भाषा की दर्दु शा का वर्णन था। रमाबाई भेजी थी। उसमें वर्त मान में संस् ने उसकी तुलना भारत की विधवा या बालवधू से की थी। सम्मेलन में उस 28मोनियर विलियम्स ने किया था। कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रोफेसर


वह सरस्वती: वह पंडिता अपनी माँ लक्ष्मीबाई से रमाबाई ने शिक्षा ग्रहण की थी। संस्कृत व्याकरण, कोश, काव्यशास्त्र, इतिहास, पुराण साहित्य आदि की पारं परिक मौखिक शिक्षा। पिता अनंत शास्त्री डोंगरे की तब तक काफी उम्र हो गई थी। भले उनसे सीधे रमाबाई ने नहीं पढ़ा, लेकिन उनके पुराणवाचन और प्रवचन से बहुत कुछ सीखा। परिवार के साथ होनेवाली अनवरत यात्राओं ने तो जीवन का अनमोल पाठ पढ़ाया। जब रमाबाई 1878 में अपने बड़े भाई श्रीनिवास के साथ कलकत्ता पहुँचीं तो वहाँ के पंडितों और बुद्धिजीवियों के बीच उनके संस्कृत ज्ञान को लेकर काफी चर्चा हुई। संस्कृत श्रुति और स्मृति की भाषा है और जंगल में पली-बढ़ी एक लड़की ने प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए संस्कृत का कितना ज्ञान अर्जित किया है, इसकी परीक्षा लेने के लिए विद्वानों की समिति बैठी। उसमें कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्कृत के तीन विद्वान् थे - महामहोपाध्याय पंडित महेशचंद्र न्यायरत्न, प्रोफेसर टोने और प्रोफेसर गॉ। कलकत्ता सीनेट हॉल में एक सभा अयोजित की गई। रमाबाई से सम्मानपूर्व क बातचीत शुरू हुई। श्रोतागण भी विद्वान् थे। यह मौखिक परीक्षा थी। एक तरफ परीक्षा समिति के लोग थे और दूसरी तरफ रमाबाई। आरं भिक स्वागत के बाद प्रो. टोने ने रमाबाई को साक्षात् ज्ञान की देवी के रूप में संबोधित करते हुए एक संस्कृत श्लोक कहा-

यया भवत्या चकिताः पण्डिता ईदृशाः वयम्। ततो भव्यामहे साक्षात् वर्ततेऽत्र सरस्वती।। हम पंडित लोग आपके ज्ञान से इस तरह चकित हैं कि लगता है साक्षात् सरस्वती उपस्थित हो गई है। 29


रमाबाई के लिए यह एक विचित्र अनुभव था। अपने ज्ञान को लेकर उनमें कोई अहं कार न था। वे इसे उन विद्वानों का बड़प्पन मानती हैं जो उन्हें इतना सम्मान दे रहे थे। उन्होंने झटपट रचना करते हुए संस्कृत में उत्तर दिया -

भवद्भिर्यानि पुष्पाणि प्रक्षिप्तानि ममोपरि। अहं न तत्पात्रभूता, न तथैवास्मि पण्डिता।। पर्वताकारसदृशा भवद्भिर्मे गुणाः स्मृताः। परमाणुसमास्ते स्युः किन्त्वेतद् गुणगौरवम्।। नाहं सरस्वती साक्षात् मन्यध्वे मां न शारदाम्। किंतु तस्याः सभामध्ये एकाहं परिचारिका।। मतलब आप लोगों ने मुझ पर जो फूल बरसाए हैं, मैं उसकी पात्र नहीं हूँ और न ही मैं वैसी पंडिता हूँ। पर्वत के आकार जैसे आप विद्वानों ने मेरे गुणों का स्मरण किया है जो आपके सामने परमाणु के समान छोटे हैं। किंतु यह गुणों का गौरव है। मैं साक्षात् सरस्वती नहीं हूँ, न ही अपने को शारदा मानती हूँ, बल्कि उसकी सभा में उपस्थित मैं एक सेविका हूँ। इस तरह सवाल-जवाब का सिलसिला चल पड़ा। यह एकदम स्वाभाविक था कि रमाबाई थोड़ा असहज हो गईं। लेकिन उन्होंने सारे सवालों का जवाब निडर होकर दिया। उनका आत्मविश्वास छूटा नहीं। संस्कृत में वार्त्ता लाप बहुत देर तक चलता रहा। उस सभा के अंत में उनको‘सरस्वती’ की उपाधि दी गई। रमाबाई उन विद्वानों के पांडित्य के आगे नतमस्तक थीं। यह उनकी न्यायशीलता थी कि उन्होंने एक स्त्री को यह सम्मान दिया। उनके लिए सत्य मायने रखता था, यह नहीं कि सामने स्त्री है या पुरुष। कुछ समय बाद बंगाल के चर्चित नेता महाराजा बहादुर जतींद्र मोहन टैगोर ने एक आयोजन किया और ‘पंडिता’ की उपधि रमाबाई को दी। तब से लोग उनको पंडिता रमाबाई सरस्वती कहने लगे। 30

रमाबाई ने बाइबल का मराठी में हीब्रू भाषा से अनुवाद किया था। अनुवाद के दौरान उन्होंने हीब्रू भाषा के व्याकरण पर भी काम किया था। उसकी झलक।


रमा शब्द

उभरता स्वर: स्त्री-धर्मनीित

मराठी में िलखी ‘स्त्री-धर्मनीति’ रमाबाई की पहली रचना है। इस रचना पर विस्तृत टिप्पणी पूर्वा भारद्वाज की है। हम यहाँ इसके एक अध्याय का अं ग्रेज़ी से िहन्दी अनुवाद दे रहे हैं। अनुवाद चारु िसंह ने किया है। मूल मराठी से अं ग्रेज़ी अनुवाद मीरा कोसांबी का है।

1882 में रमाबाई ने अपने व्यवस्थित लेखन की शुरुआत की ‘स्त्री-धर्मनीति’ से। यह उनकी पहली किताब है। मराठी में। स्मरण रहे उनके घटनापूर्ण जीवन के पिछले कुछ वर्ष भारी उथल-पुथल के रहे थे। अकाल में परिजनों की मृत्यु का सिलसिला जो 1874 से शुरू हुआ वह 1882 में पति की मृत्यु के बाद थमा। उसके साथ ही यह उनकी वैचारिक यात्रा और उसमें आ रहे परिवर्त नों का दौर था। धार्मिक कर्मकांडों की व्यर्थता उनके सामने उजागर हो रही थी तो धर्म की जकड़बंदियों और समाज में स्त्रियों की दुर्द शा में कार्य -कारण संबंध भी उनको दिख रहा था। ब्रह्मो समाज और प्रार्थ ना समाज के खुलप े न से वे आक ृ ष्ट हुईं, मगर उनकी सीमाओं, खासकर पुरुष सुधारकों के नेतृत्व की सीमाओं ने उस डगर पर जाने से उनको रोक लिया। उनको स्त्री के गरिमापूर्ण जीवन के लिए रास्ते की तलाश थी। सामान्यतः रमाबाई की बेचन ै ी, उनकी तलाश को धर्म की खोज, मुक्ति की खोज कहा जाता है। लेकिन हमें ऐसा जान पड़ता है कि उन्हें अपनी बात कहने के लिए ज़मीन की तलाश है, इत्मीनान की तलाश

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रमाबाई घर-परिवार-धर्म के अत्याचार की निशानदेही कर रही थीं, लेकिन उनके ढाँचे पर प्रहार नहीं था। उनकी कठोर से कठोर आलोचना थी, लेकिन धर्म और परिवार के ढाँचे के भीतर ही। आज की शब्दावली में हिन्दू ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक ढाँचे में एक पुरुष सुधारक के अं दाज़ में उन्होंने स्त्री को, गृहिणी को हमेशा निःस्वार्थ व्यवहार करने की सलाह दी।

है। ‘अपनी बात’ यानी व्यक्ति के तौर पर स्त्री की बात, उसका मत ! स्त्री जीवन को उन्होंने सिर्फ अपने, माँ के, बहन के जीवन से ही नहीं समझा था, बल्कि जगह जगह की यात्राओं के क्रम में जिन स्त्रियों से मिलीं, जिनको देखा या जिनके किस्से सुन,े उनके अनुभवों के माध्यम से जाना था। उसमें परिवर्त न लाने की जरूरत को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया था। उसका रास्ता क्या हो, यह बड़ा सवाल था। भले धर्म का ढाँचा स्त्रियों के लिए दमनकारी और भेदभावपूर्ण था, परं तु उस दौर में [ वैसे आज के दौर में भी नहीं है] उसका विकल्प कहाँ था! धर्म ही रमाबाई को पूरे जीवन को संभालने वाला लगता था, धार्मिक आचरण की सीढ़ियाँ ही उन्होंने बचपन से देखी थीं। स्वतंत्र शिक्षा का महत्त्व समझते हुए भी उसे धार्मिक शिक्षा के ही दायरे में देखने की परिपाटी बनी हुई थी। धर्म का ज्ञान, नीति का ज्ञान ही शायद स्त्री जीवन के कष्टों से छुटकारे का रास्ता था। उससे लड़ते-भिड़ते हुए उसी के बीच से स्त्री मुक्ति का पथ खोजना था। रमाबाई के इस ऊहापोह को ‘स्त्री-धर्मनीति’ के कई हिस्सों में हम लक्षित करते हैं। रमाबाई को यह मालूम था कि किताबी ज्ञान के साथ स्त्रियों को संगठित करने की भी जरूरत है। तभी उन्होंने आसाम के सिलचर प्रदेश से मद्रास होते हुए पूना पहुँचने के अगले ही दिन 1 मई, 1882 को ‘आर्य महिला समाज’ नामक संगठन

की स्थापना की। देखते-देखते कई शहरों में उसकी शाखाएँ खुल गईं। यह भी शिक्षा का ही उपक्रम था। उसी भाग-दौड़ के बीच ‘स्त्री-धर्मनीति’ को लिखना उनको जरूरी लगा। उनकी सांगठनिक पहल और लेखकीय पहल को मिलाकर देखना चाहिए। उनमें कोई फाँक नहीं है। ‘आर्य महिला समाज’ और ‘स्त्री-धर्मनीति’ - दोनों रमाबाई की प्रगतिशील पहल थी। दोनों को उनके व्यापक संदर्भ से जोड़कर देखना होगा। वे जितना सार्व जनिक सभाओं में बोल रही थीं, उतना ही लिख भी रही थीं। ‘स्त्री-धर्मनीति’ में उन्होंने बताया कि स्त्री की प्रगति की नींव है - आत्मनिर्भ रता और आत्मविश्वास। हमारी सबसे बड़ी दौलत है शिक्षा, यह साफ-साफ कहा और लिखा। इस शिक्षा में पारं परिक शिक्षा, पाककला, गृहकला से लेकर गणित, भूगोल, राजनीतिक अर्थ शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान, भौतिक विज्ञान आदि सबका शुमार था। पतिपरायणता, धर्मपरायणता को स्त्री के लिए आदर्श बताया तो विचार व काम की आज़ादी की माँग की। उसके हक की बात की। दोनों में वे विरोध का भाव नहीं देखती हैं। यह स्त्री जीवन क्या, मानव जीवन की सच्चाई है कि हम दो छोर पर नहीं रहते हैं। इतना साफ दिखता है कि रमाबाई घर-परिवारधर्म के अत्याचार की निशानदेही कर रही थीं, लेकिन उनके ढाँचे पर प्रहार नहीं था। उनकी कठोर से कठोर आलोचना थी, लेकिन धर्म और परिवार 32


हैं। अभी अभी पति की मृत्यु हुई है और गोद में बेटी है। माँ-पिता, बहन-भाई की मृत्यु के बाद वैवाहिक संबंध ने परिवार का सुख दिखलाया था। दुर्घ टनाओं व सार्व जनिक प्रवादों-विवादों पर विराम लगा था। लगातार चलते चलते थोड़ा विश्राम लिया था कि सिल्चर के अपने घर से बोरिया बिस्तर समेटने की बाध्यता आन पड़ी। पूना आकर कोई स्थिर या आरामदेह जीवन नहीं खोजा उन्होंन।े वैधव्यजनित सामाजिक भूमिका से एकदम अलग जाकर सक्रिय सार्व जनिक जीवन चुना। उसमें वे अपने लिए सफ़ेद साड़ी चुनती हैं जिसे आजीवन पहना। अपनी ज़मीन की तलाश रमाबाई के लिए अपने घर की तलाश भी है। चरै वेति चरै वेति के साथ एक अदद घर की तलाश ! ऐसा घर जो खुला हो, भयमुक्त हो, बंधनमुक्त हो, खुली हवा में साँस लेने का मौका दे, आज़ाद करे । ऐसे घर की चौहद्दी स्त्री खुद तय करे । उसकी नींव ऐसे रिश्तों पर पड़े जो अपनी मर्ज़ी का हो, बाध्यता का नहीं। उनकी घर की परिकल्पना को हम आगे ‘शारदा सदन’ और ‘मुक्ति मिशन’ में देख सकते हैं। इस घर की बुनियाद में प्यार और भरोसा है, दर्द मंदी है, दोस्ती है, बराबरी है, क ृ पा नहीं। ऐसे खुशहाल घर की परिकल्पना, वह भी एक स्त्री की परिकल्पना ने ही पितृसत्तात्मक समाज को हिला दिया था और रमाबाई का लगभग हर कदम, हर फैसला विवाद के घेरे में रहा। ‘स्त्री-धर्मनीति’ लिखने के लिए रमाबाई ने मराठी को चुना, यह महत्त्वपूर्ण है। यह नवजागरण का दौर है, बंगाल और महाराष्ट्र दोनों उसके केंद्र रहे हैं। 1857 के बाद राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना ने सजग लोगों को ओतप्रोत कर रखा है। उसने स्त्री शिक्षा की ज़रूरत और स्त्री को नए तरीके से गढ़ने की ज़रूरत को रे खांकित किया है। उसके लिए अपनी भाषा अपने लोगों से रिश्ता बनाने के लिए जरूरी है। रमाबाई ने मराठी औपचारिक रूप से नहीं सीखी है, लेकिन उनके माँ-पिता की भाषा मराठी

के ढाँचे के भीतर ही। आज की शब्दावली में हिन्दू ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक ढाँचे में एक पुरुष सुधारक के अंदाज़ में उन्होंने स्त्री को, गृहिणी को हमेशा निःस्वार्थ व्यवहार करने की सलाह दी। महत्त्वपूर्ण यह है कि स्त्री-विरोधी रीति-रिवाजों और चलनों पर वे टिप्पणी अवश्य करती हैं और जिन शब्दों में करती हैं वह स्त्री के अनुभव से उपजा है। बाल विवाह को सर्व था अनुचित बताने में उनके सामने अपनी बहन के साथ बालवधू माँ का उदाहरण भी है। उन्होंने बीस साल की उम्र में अपनी पसंद और बड़ों की सलाह पर विवाह करने की बात की, इसमें उनका अपना अनुभव शामिल है। उन्होंने स्त्री को अपनी बेहतरी के इरादे पर कायम रहने को कहा। पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम की बात उन्होंने उठाई जो बराबरी के धरातल पर ही संभव था। इसमें उनके अल्पकालिक दांपत्य का रं ग घुला हुआ है जो साहचर्य , सहयोग और प्रेम पर खड़ा हुआ था। उम्र भी तो देखिए ! रमाबाई 24 साल की युवती 33


ही थी। किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के लगातार अध्ययन ने उनको मराठी के करीब रखा था। चूँकि रमाबाई की शिक्षा-दीक्षा संस्कृत में हुई है, ‘स्त्री-धर्मनीति’ की मराठी पर संस्कृत की गहरी छाप है। यहाँ तक कि कुछ मराठीभाषी विद्वानों ने उनकी मराठी में कुछ नुक्स भी निकाले हैं। एक पत्रिका ने उसकी भाषा पर तीखी टिप्पणी की। इन सबसे वे विचलित नहीं हुईं। उनको अपनी मनःस्थिति का पता था जिससे किताब में कहींकहीं दोहराव मिल सकता था या विसंगति दिख सकती थी। उनके सामने किताब लिखने का उद्देश्य स्पष्ट था - स्त्रियाँ आँख मूँदकर परं परा का पालन न करें और अपनी बेहतर ज़िंदगी का सपना देख।ें इसीलिए यह किस्सा-कहानी की शक्ल में नहीं है। यह बात मार्के की है। उनके मुताबिक धर्म, नीति, दर्श न आदि की बातें कठिन संस्कृत में हैं जिनसे स्त्रियों को जानबूझकर वंचित रखा गया है। अधिकांश अशिक्षित स्त्रियाँ उनसे अनजान हैं। यह किताब उनके सारांश को उन तक मराठी भाषा में पहुँचाने का प्रयत्न करती है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट तरीके से कहने के खयाल से ‘स्त्री-धर्मनीति’ में गैर-कथात्मक लेखन को सोच-समझकर चुना। इस तरह भाषा, कथ्य, विधा, शैली, आकार-प्रकार, पाठक वर्ग - सब रमाबाई ने सोच-समझकर चुना। उसके वितरण और बिक्री का मंच और माध्यम भी चुना। मित्रों की सहायता से बिक्री इतनी बढ़ी कि जल्दी ही उसका दूसरा संस्करण छापा गया। सरकारी खरीद हुई। बांग्ला भाषा में अनुवाद भी हुआ। रमाबाई ने कमाई का साधन ही नहीं बनाया उसे, सार्व जनिक तौर पर अपने विचारों की घोषणा की और अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। धार्मिक- सामाजिकआर्थिक- शैक्षिक संस्थानों सबको लक्ष्य करके वे चल रही थीं। उन सबके पारस्परिक जुड़ाव सेसे वे वाकिफ़ थीं। रमाबाई की ‘स्त्री-धर्मनीति’ उनके परवर्ती

क्रांतिकारी, ‘नारीवादी’ विचारों से कई जगह मेल नहीं खाती है। इसे उनकी वैचारिक यात्रा के आरं भिक पड़ाव के रूप में देखने की ज़रूरत है। आगे चलकर विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों की जानकारी, देश-विदेश के लोगों से मिलने और उनके प्रत्यक्ष अनुभव से रमाबाई के विचारों का विकास हुआ। इस परिवर्त न की दिशा भी एकदम एकरै खिक हो ऐसा भी नहीं है। धर्मपरिवर्त न के बाद जब चर्च से बहस करते हुए वे कहती हैं कि मैं हिन्दू हूँ और ईसाई हूँ, तो यह उनका अड़ियलपन या पागलपन नज़र आता है। इसे ऐसे समझें कि व्यक्ति या तो हिन्दू हो या ईसाई, इन दो परस्परविरोधी रूप में देखने की आदत वास्तव में सामाजिक निर्मिति है, दो कोटियों में (binary) में बाँटकर देखना है। एक व्यक्ति के रूप में रमाबाई अपने को खंडित नहीं करती हैं। चर्च में जाकर पुराण वाचन करने को सोचना, उनके लिए सहज है। इसका साहस जुटाने के लिए कोई उनको अलग से तैयारी नहीं करनी पड़ती है। हम जानते हैं 34


भी ग्रामीण नहीं प्रतीत होती है। अगले पेज पर दिया गया अंश ‘स्त्री-धर्मनीति’ शायद उस समय ऐसी ही थी जिसमें के छठे अध्याय से लिया गया है। यह रुटलेज प्रकाशन से छपी “पंडिता रमाबाई लाइफ़ एं ड सीता-सावित्री अनुकरणीय हैं, पति लैंडमार्क राइटिंग्स” नामक किताब में संकलित की सलाह लेना काम्य है, घर की है। इसका संपादन मीरा कोसांबी ने किया है जो पंडिता रमाबाई की विशेषज्ञ हैं। जिम्मेदारी उठाना कर्त्तव्य है, लेकिन स्त्री प्रस्तुत अंश का अंग्ज़ रे ी से हिन्दी अनुवाद चारु चुप नहीं है, मुखर है। उन्नीसवीं सदी के सिंह ने किया है। अंग्ज़ रे ी अनुवाद मूल मराठी से मीरा कोसांबी ने ही किया है। उत्तरार्ध में पढ़ी-लिखी इस नई स्त्री को हमने जब मराठीभाषी विजयश्री डांगरे की मदद घर के लोगों से लेकर रसोई-बागीचा से मूल मराठी और अंग्ज़ रे ी अनुवाद का मिलान किया तो थोड़ा फ़र्क नज़र आया। इसमें दो राय सब सँभालना था और अपना व्यक्तित्व नहीं है कि दोनों भाषाओं पर मीरा कोसांबी का भी बनाए रखना था। पूरा अधिकार है और उनकी दृष्टि और रमाबाई की लेखनी में भेद नहीं है। मगर हमें लगा कि उनका अनुवाद काफी अच्छा होते हुए भी कहीं कि अपने लिए कई जगह आज़ादी की माँग करती कहीं बारीकियों को सपाट कर देता है। फिलहाल हुई औरत दूसरी जगह जेंडर-जाति-धर्म के नियमों तर्ज नी टीम की तरफ से यहाँ जो एक हिस्सा पेश का पालन करने वाली, सिंदूर से माँग भरनेवाली, किया जा रहा है उसमें अंग्ज़ रे ी अनुवाद के क्रम में बेटे के लिए व्रत करनेवाली औरत के रूप में नज़र मूल मराठी को भी पलटकर देखा गया है। अनूदित आती है। उसकी इच्छाओं का संसार उसकी भाषा बोलचाल की हिन्दी है। ‘प्रगतिशील’ मान्यताओं-धारणाओं से सीमित मीरा कोसांबी की”पंडिता रमाबाई लाइफ़ एं ड हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। युवती लैंडमार्क राइटिंग्स” किताब में ‘स्त्री धर्मनीति’ का रमाबाई के लिए ‘स्त्री-धर्मनीति’ शायद उस समय संपूर्ण पाठ मौजूद नहीं है जबकि अन्यत्र उपलब्ध ऐसी ही थी जिसमें सीता-सावित्री अनुकरणीय हैं, है। उन्हीं द्वारा संपादित अन्य किताब ‘पंडिता पति की सलाह लेना काम्य है, घर की जिम्मेदारी रमाबाई थ्रू हर ओन वर्ड्स ’’ (प्रकाशन ऑक्सफोर्ड उठाना कर्त्त व्य है, लेकिन स्त्री चुप नहीं है, मुखर है। यूनिवर्सिटी प्रेस) में मूल मराठी का लगभग पूरा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पढ़ी-लिखी इस नई अंग्ज़ रे ी अनुवाद छपा हुआ है। इसलिए एक स्त्री को घर के लोगों से लेकर रसोई-बागीचा सब दिक्कत प्रस्तुत अंश में यह है कि चुनींदा हिस्से का सँभालना था और अपना व्यक्तित्व भी बनाए अनुवाद संपूर्णता में कही गई बात के कुछ पहलू रखना था। को फिसलने का मौका दे देता है। ऐतिहासिक सेहत का विशेष ख्याल रखना कितना अहम है, महत्त्व का दस्तावेज़ होने के कारण इसके एक एक यह नहाने के ब्यौरे से समझा जा सकता है। नौकरों शब्द का अनुवाद किया जाना चाहिए। हमें इसमें के साथ व्यवहार पर जितना विस्तार से रमाबाई अपनी सीमा का पता है। आगे अवश्य हमारी लिखती हैं उससे यह भी पता चलता है कि उनका योजना है कि हम मूल मराठी से हिन्दी में ‘स्त्रीपाठक वर्ग संपन्न है या मध्यवर्गीय। उनकी गृहिणी धर्मनीति’ को लाएँ।

युवती रमाबाई के लिए ‘स्त्री-धर्मनीति’

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रमा शब्द

घर के काम (गृहकृत्य) पुराने जमाने के बड़े-बड़े विद्वानों ने एक इं सान की ज़िंदगी की चार मंज़िलें (आश्रम) बतलाई हैं। इनके नाम हैं क ँ ु वारापन या ब्रह्मचर्य , शादीशुदा ज़िंदगी या गृहस्थ, सब छोड़कर जंगल की राह लेना या वानप्रस्थ और त्याग या संन्यास। इन चारों में उन्होंने शादीशुदा ज़िंदगी को बेहतरीन माना है क्योंकि यह मंज़िल बाक़ी तीन मंज़िलों का पोषण करती है। इस दुनिया में भलाई करने से बढ़कर कोई तारीफ़ का काम नहीं है। ... इसका सबसे अधिक मौका मिलता है गृहस्थ को। इन चारों में गृहस्थ सबसे भला है और इसलिए सबसे बेहतर है। गृहस्थ वह मंज़िल है जिसमें आदमी-औरत मुनासिब तरीक़े से शादी करके आपसी प्यार के साथ पति-पत्नी के रूप में रहते हैं।...एक औरत को हर चीज़ में अपने पति की मदद करनी चाहिए। ऐसा करने के कई मौके उसके पास होते हैं, जिनमें से कुछ का पहले मैं वर्ण न कर चुकी हूँ। लेकिन उसके इन कामों में सबसे ज़रूरी और सबसे अधिक जिम्मेदारी वाले काम हैं घर के काम जिनके बारे में मैं यहाँ बताने जा रही हूँ। घर के काम औरतों के काम हैं। उन्हें इसे कभी नज़रं दाज़ नहीं करना चाहिए। जिस घर में औरतें खुद घर का काम नहीं करती हैं, वह खुशहाल घर नहीं है। ज्ञानियों ने कहा है कि ‘घरनी ही घर है’। एक औरत केवल औरत की योनि में जन्म लेने से या बीवी बन जाने से ही गृहिणी, घरनी का ओहदा नहीं पा लेती। ‘गृहिणी’ की पदवी हासिल करना बड़ा कठिन है । कमअक्ल औरतों को कभी यह पद मिलेगा ही नहीं। इसलिए जो औरतें तेज़ हैं और यह सम्मानजनक पद पाने को इच्छु क हैं उन्हें परिवार के सभी लोगों से प्यार से पेश आना चाहिए और होशियारी से व्यवहार करना चाहिए। ... आओ सोंचें कि रोज़ाना के काम और घरे लू ज़िम्मेदारियों का बंदोबस्त कैसे हो। तुम्हें हमेशा पौ फटने से पहले बिस्तर छोड़ देना चाहिए और कितनी ही नींद आए, दोबारा नहीं लेटना 36


तुम्हें ठीक समय पर बिस्तर पर जाने और भोर होने से पहले उठने की आदत डालनी चाहिए; इससे तुम्हें रोज़ाना अपने सभी काम करने के लिए भरपूर समय मिलेगा। नहीं तो एक भयं कर भागमभाग लगी रहती है और कुछ भी ठीक से हो नहीं पाता। यही नहीं, सारा दिन ज़रा सा दम लेने को भी नहीं मिलता। चाहिए। सुबह की नींद शरीर को बहुत ज़्यादा सुस्त कर देती है और हर दिन ऐसी अनियमित नींद से सेहत पर असर पड़ता है जिससे कई तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। इसलिए तुम्हें ठीक समय पर बिस्तर पर जाने और भोर होने से पहले उठने की आदत डालनी चाहिए; इससे तुम्हें रोज़ाना अपने सभी काम करने के लिए भरपूर समय मिलेगा। नहीं तो एक भयंकर भागमभाग लगी रहती है और कुछ भी ठीक से हो नहीं पाता। यही नहीं, सारा दिन ज़रा सा दम लेने को भी नहीं मिलता। एक नियमित दिनचर्या कभी सेहत नहीं बिगड़ने देती। तबियत दुरुस्त हो, तब तो तुम्हें कभी छह घंटे से ज़्यादा सोना नहीं चाहिए। उठते ही तुम सबसे पहले ठं डे पानी से धोकर आँख और मुँह को साफ़ कर लो। सोते वक्त शरीर के सभी अंग ठीक से सक्रिय नहीं होते हैं, जिससे देह में मौजूद सभी तरह की ख़राबियाँ मुँह, आँख वग़ैरह से होकर बाहर निकल आती हैं और वहाँ जमा हो जाती हैं। मुँह की लार जहर की तरह बेहद ख़राब होती है। अगर कोई उठते ही मुँह न धोए और इसे निगल ले, तो यह पाचन तंत्र में पहुँचकर तरह-तरह की बीमारियों की वजह बनती है। इसी तरह आँखों से निकली कीच और आँसू आँखों को सुखा देते हैं। यदि उन्हें पानी की तरावट न मिले तो आँखों की रोशनी हर दिन घटती जाती है। इसलिए जैसे ही उठो, अपने मुँह और आँखों को ठीक से धो, उन्हें एक साफ कपड़े से पोंछ लो और तब जो चाहो सो करो। इस काम में मत चूको।

उस वक्त हमारा मन प्रसन्न और शांत होता है क्योंकि न तो लोगों का शोर होता है न ही काम की कोई हड़बड़ी। उस वक्त जो भी काम किया जाए दिमाग़ उसी पर केंद्रित हो जाता है। ऐसे समय में, साफ़ मन और समर्पित भाव से उस परमपिता परमेश्वर का नाम जपना चाहिए जो सबकी देखभाल करने वाला और सबका हमदर्द है। ... ईश्वर का नाम जपने और अपनी दुआएँ कहने के बाद तुम्हें सोचना चाहिए कि कौन से काम बाक़ी हैं। ... हर काम, चाहे छोटा हो या बड़ा, सोच-विचार कर ही करना चाहिए। ... अगर कुछ नया शुरू करना है तो पहले उनसे सलाह ले लो जिन्हें इस काम का तजुर्बा है और जिन्होंने इसे पहले अक्सर किया है। कई औरतें सोचती हैं कि सलाह माँगने से हैसियत घट जाएगी, लेकिन यह घमंड अज्ञान की निशानी है। तड़के सुबह सबसे पहले उठो और झाड़ू से सारी गंदगी और कूड़ा-करकट बुहारकर घर को साफ़ कर लो। वैसे ही जैसे आदमी के शरीर में गर्द जमा हो जाती है, और अगर इस गर्द को कई दिनों तक न धोया जाए तो तरह-तरह की बीमारियाँ होने लगती हैं; उसी तरह अगर घर के कोनों जैसे गुसलखाने, सोने के कमरे और रसोई में गर्द जमा हो जाए तो घर की हवा गंदी हो जाती है। साँस के साथ यह हवा जब शरीर में दाखिल होती है, उस वक्त अपने साथ बीमारी पैदा करने वाले, बदबूदार ज़हरीले कीटाणुओं को साथ लेती आती है। ऐसा गंदा घर, जिसमें गंदी हवा पैदा होती है, सभी 37


बीमारियों की जड़ है। इसलिए, सभी औरतों को घर साफ़ रहे इसका ध्यान निरं तर रखना चाहिए। औरतें ही हमेशा घर में रहती हैं, इसलिए घर को साफ रखना न रखना उनकी ज़िम्मेदारी है। और उससे होनेवाले गुणदोष की जवाबदेही उनकी होगी। इससे फ़ायदा भी वे अकेले ही उठाएँगी। ... गाय के गोबर से घर लीपना हो तो ताजा गोबर में किसी साफ़-सुथरी जगह से खोदकर लगभग एक चौथाई मिट्टी को मिला दो। जिससे गोबर की गंदी बदबू और हवा को प्रदूषित करने की इसकी ताक़त ख़त्म हो जाए और फ़र्श भी साफ़ रहे। इस रीति से घर की फर्श और दीवारों को भी (अगर उन्हें चूने से न पोता गया हो तो) हो सके तो हर दिन या फिर हर चौथे दिन लीपना चाहिए। इससे खटमल, मच्छर और पिस्सू जैसे परे शान करने वाले कीड़े पैदा न हो सकेंगे। यदि दीवारों को चूने से पोता गया है तब उन्हें अगले छह महीने तक फिर से सफेदी करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि चूने में एक तीखा नमक होता है जो बदबू को दूर रखता है। यह हवा को साफ़ रखता है और गंदगी में पनपने वाले कीड़ों को रोकता है। घर की दीवारों, खंभों, दरवाजों या चौखटों पर तेल लगे हाथ पोंछ देना; उन पर कोयले से लकीर खींचना; उन पर थूकना या बहती नाक पोंछनाऐसी हरकतें जितनी देखने में घिनौनी हैं, उतनी ही नुक़सानदेह भी हैं। न तो खुद ऐसी हरकतें करो, न दूसरों को करने दो। घर के सामने बगीचे में या पीछे कहीं जगह हो तो वहाँ गुलाब, अलग अलग किस्म की चमेली, बकुल, पारिजात, तगर जैसे ख़ुशबूदार फूल और तुलसी, दवना, मारवा यानी वनतुलसी (जैसे खुशबूदार पत्तेदार)के पौधे लगाओ। इन्हें सजा सजाकर मिट्टी में भी लगा सकती हो और गमलों में भी। एक पौधे को दूसरे पौधे के नीचे नहीं रखना चाहिए और उनके नीचे कुछ भी गंदा-संदा नहीं फेंकना चाहिए। फूलों की गमक हवा में मौजूद बास को दूर रखती है। पौधे हवा को शीतल और

पंडों के चंगुल से वृ ंदावन की िवधवाओं को बचाने के लिए रमाबाई महाराष्ट्र की महार महिला का रूप धर कर गई थीं तरोताज़ा बनाए रखते हैं। इसमें साँस लेकर खुशी और फुर्ती का अहसास होता है। घर के कामों में से घर को साफ़ रखने की ज़िम्मेदारी गृहिणी खुद पूरी करे और अगर खर्च झेल सके, तो इसके लिए नौकर रख ले। अब ज़रा नौकरों के साथ किस तरह पेश आना है, इस पर भी विचार कर लें। तमाम जगहों पर देखा गया है कि नौकर गृहस्वामिनी की बात ही नहीं मानते। वे उसका 38


मजाक उड़ाते हैं और उल्टे उसे ही आज्ञा देते रहते हैं, मानो वे ही गृहस्वामी हों। यह गलती नौकरों की नहीं है, बल्कि उस इं सान की है जो उनकी निगरानी करता है। ऐसी निचले स्तर की नौकरियाँ करने वाले लोग आमतौर पर भले घरों के नहीं होते हैं और न ही उन्हें सम्मान करना आता है। हमेशा बुरी संगत में रहने से उनका दिमाग़ भी ओछा होता है। उन्हें प्रशिक्षित करना, उनके तौरतरीकों में सुधार करना और उनसे अपनी इज्जत करवाना तुम्हारे अपने हाथ में है। वे तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करें गे जैसा तुम उनके साथ करती हो। नौकरों से बात करने में संयम बरतो, यानी ज़रूरत होने पर ही बात करो। उनके साथ कभी भी छेड़छाड़ या हँसी-मज़ाक़ मत करो, न बिला वजह हँसो, न उनके साथ शर्मनाक बातों पर चर्चा करो। तुम्हें दूसरे चरम पर भी नहीं जाना है और हमेशा उनसे बुरा सा मुँह बनाकर, ग़ुस्से में, कठोरता से या आदेश देने के स्वर में बात करने से बचना है। जो कुछ भी कहना है उसे सुखद और सौम्य तरीके से कहो। हमेशा उनके साथ दया का व्यवहार करो। यह ध्यान रखो कि उनके साथ तुम्हारा रिश्ता माता-पिता और बच्चों जैसा है।... घर की सभी चीजें सफ़ाई से उनकी सही जगह पर रखी होनी चाहिए जिससे ज़रूरत पड़ने पर वे आसानी से मिल सकें और दूसरी चीजों में गुम न हो जाएँ। उन्हें हर दिन झाड़ना चाहिए ताकि धूल न जमे। अनाज जैसी चीजें ऐसी जगह पर ढाँककर या टाँग कर रखनी चाहिए जहाँ उन्हें चूहा, बिल्ली या बच्चे ख़राब न कर सकें। खाने-पीने की चीजों को झाँप कर रखना चाहिए, नहीं तो उनमें चींटी, मक्खी और दूसरे कीड़े गिर कर उन्हें ख़राब कर सकते हैं। ऐसा खाना खाने से तरहतरह की बीमारियाँ हो सकती हैं। दाल-चावल जैसे अनाज और गुड़, चीनी, घी, तेल, मसाले आदि जैसी चीजों में बहुत सारी गंदगी और ज़िंदा या मरे हुए कीड़े मौजूद होते हैं। उन्हें चुनकर साफ़ कर लेना चाहिए। घी और तेल को छान लेना चाहिए।

अनाज को फटक कर उसका भूसा निकालकर धो लेना चाहिए। इस तरह साफ़ करने के बाद ही उसे खाना चाहिए। बहुत से लोग बिना साफ किए चीनी आदि खा लेते हैं जो कि ठीक नहीं है।... घर की सूरत देखकर गृहिणी कैसी है इसकी परीक्षा हो जाती है। अगर किसी घर में हर चीज़ अपनी सही जगह पर हो और वह सुंदर लगे तो पता चलता है कि गृहिणी चतुर है। घर के सभी बर्त न जैसे कि खाने के, पकाने के, पानी रखने के, दूध पीने के लिए इस्तेमाल होने वाले बर्त न और दूध, दही, छाछ आदि रखने के लिए काम आने वाले मिट्टी के बर्त नों को रोजाना रगड़कर अंदर और बाहर दोनों तरफ़ से साफ़ कर लो। गंदगी जमा रही तो उनमें रखा सामान ख़राब होगा। बर्त न भी मैले दिखेंग।े अगर ऐसे गंदे बर्त नों का इस्तेमाल पीने के पानी के लिए किया तो बीमारी हो जाएगी।... पहनने के कपड़ों को हर दिन धोना चाहिए और चादरों को तीसरे या चौथे दिन। इस रीति से घर की हर चीज़ को पूरी तरह से साफ़ करने के बाद तुम्हें खूब सुबह सूरज निकलने के साथ नहा लेना चाहिए।... नहाकर साफ और सूखे कपड़े पहनो, भीगे कपड़ों में मत रहो। पानी में ज्यादा देर तक नहीं रहना चाहिए; इससे देह-दर्द , गठिया, बुखार जैसी बीमारियाँ हो जाती हैं। कपड़ों को ठीक से लपेट कर पहनना चाहिए जिससे पूरा शरीर ढँका रहे। इस देश में भले घरों की औरतें भी पूजा के समय और आमतौर पर भी कपड़े ख़राब तरह से पहनती हैं। नहाने के बाद अपने रोज़ाना के काम ठीक से, सफ़ाई से और जल्दी-जल्दी करना शुरू करो। खाना पकाना औरतों की प्राथमिक और सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। खाना अगर अच्छा, स्वादिष्ट और स्वच्छ है, तो यह ताक़त देता है और बीमारी की वजह नहीं बनता है। इसलिए पाक कला को अच्छी तरह सीखकर ही खाना बनाना चाहिए। इसी तरह यह जानना भी ज़रूरी है कि किस मौसम में कौन सी चीजें खाना ठीक है, जिससे कोई बीमारी 39


न हो। कुल मिलाकर, यह औरतों की ज़िम्मेदारी है कि वे खाने-पीने की ऐसी व्यवस्था करें कि सभी की सेहत बनी रहे। तुम्हें घर के बाकी लोगों से ज्यादा या अच्छा खाना नहीं खाना चाहिए। जो कुछ भी खाने का सामान घर में लाया जाता है उसे सभी के बीच ठीक से बाँटना चाहिए और जो बचा है तुम्हें उतने में संतोष करना चाहिए। अगर तुम्हें हिस्सा नहीं मिलता है तो तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए। इस ढं ग से तुम्हें हमेशा निःस्वार्थ व्यवहार करना चाहिए। घर के सभी सदस्यों के प्रति विनम्र, स्नेह से भरा और समर्पित व्यवहार करो। तुम्हें वाचाल या झगड़ालू नहीं होना है। अगर कोई अपशब्द कहता है तो तुम भी उसी भाषा में उत्तर मत दो। हर किसी की फटकार या दुष्टता भरे व्यवहार को साहस के साथ सह लो। किसी से भी मुँह बनकर बात मत करो। किसी की बुराई का बदला बुराई से न दो, भलाई करके दो। अपनी सास, ससुर, जेठ, जिठानी जैसे आदरणीय व्यक्तियों के प्रति ईश्वर जैसी भक्ति रखो। धर्म को मानने वाले व्यक्तियों की सलाह मानकर आचरण करो। जहाँ तक हो सके, सभी के साथ सौम्य और स्नेहपूर्ण व्यवहार करो। अपने छोटे देवर, देवरानी, सौतेले बच्चों जैसे लोगों के साथ विनम्रता और स्नेह का व्यवहार रखो। न किसी से दुश्मनी रखो, न ही किसी को अपना दुश्मन बनने दो। तुम्हें काम को एक तरफ रखकर आलस्य में अपना समय बर्बा द नहीं करना चाहिए। तुम्हें घर के दरवाजे या खिड़की पर खड़े होकर बाज़ार का नजारा नहीं देखना चाहिए। दिन के किसी भी वक्त तुम्हें बेकार नहीं बैठना चाहिए और न ही लेटना चाहिए। एक औरत का दिन में सोना बहुत बुरा है। दोपहर में जब सब खाना खा लें तब सबकी ज़रूरतों के बारे पूछ लो तब खाने बैठो। खाना संयमित हो और अनुपात में हो।... अब घर का काम पूरा करो और देखो कि घर में क्या है और क्या नहीं। कोई भी समान जो ख़त्म

हो चुका है उसे तुरंत मँगवाओ और ठीक से सँभाल कर रखो। आमद और खर्च का पूरा लेखा-जोखा रखना चाहिए। सभी कामों में हिसाब से खर्च करो। खर्च कभी भी आमद से अधिक नहीं होना चाहिए। पैसे को बेवजह खर्च में नहीं गँवाना चाहिए। वही चीज़ ख़रीदो जो ज़रूरी है। महँगे कपड़ों और ऐसी ही दूसरी चीजों पर बेकार पैसा बर्बा द नहीं करना चाहिए। तुम्हें पति की सलाह के बिना कुछ भी नहीं करना चाहिए; यह बात पैसा खर्च करने पर भी लागू होती है। अगर वह घर पर नहीं है, तब तुम बिना किसी हिचकिचाहट के सभी ज़रूरी काम कर सकती हो। तुम्हें ऐसा काम करने से नहीं डरना चाहिए जिसे सोच-समझकर और सही रास्ते पर चलकर किया 40


यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि सभी कामों में एक संयम बरकरार रहे। जिस तरह पैसा खर्च करने में सावधानी और ज़रूरत को ध्यान में रखा जाता है, वैसा ही ध्यान समय को खर्च करने में भी रखो। खोया हुआ धन वापस मिल सकता है, लेकिन खोया हुआ समय वापस नहीं मिलता, यह सभी जानते हैं। जा रहा हो। धर्म, परोपकार, राष्ट्र-कल्याण जैसे अच्छे कामों पर धन खर्च करने से कभी भी परहेज नहीं करना चाहिए; ऐसे समय में कंजूसी ग़लत है। संतों ने कहा है कि दान से बढ़कर कोई धर्म का काम नहीं है। इसलिए सभी को अपनी क्षमता के अनुसार दान करना चाहिए। तोहफ़े किसी की क ृ तज्ञता प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि निःस्वार्थ भाव से देने चाहिए। भूखे को खाना, प्यासे को पानी, सर्दी से पीड़ित को कपड़े, दुखी को सहानुभूति, निराश को प्रोत्साहन, निराश्रित को आश्रय देना बहुत ज़रूरी है। हर इं सान को उन सबकी पूरी मदद करनी चाहिए जो देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते, बोल नहीं सकते, जिनके हाथ नहीं हैं, जिन्हें संक्रामक बीमारी है, उम्रदराज़ हैं, रोगी हैं। घर के सारे काम ठीक से करने के बाद कुछ देर आराम भी करना चाहिए, क्योंकि दिन भर काम करने के बाद कोई भी थक जाता है; और आराम नहीं मिलने पर स्वास्थ्य खराब होता है। लेकिन यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि सभी कामों में एक संयम बरकरार रहे। जिस तरह पैसा खर्च करने में सावधानी और ज़रूरत को ध्यान में रखा जाता है, वैसा ही ध्यान समय को खर्च करने में भी रखो। खोया हुआ धन वापस मिल सकता है, लेकिन खोया हुआ समय वापस नहीं मिलता, यह सभी जानते हैं। इसलिए जब सभी रात का भोजन कर लें तब तुम घर का सभी काम ख़त्म करो और घर में सबकी ज़रूरतों के बारे में पूछ लो।

जब सभी बिस्तर पर चले जाएँ तब सभी दरवाज़ों को बंद कर लो और जो भी चीज़ इधर-उधर पड़ी है उसे सँभाल लो। बिस्तर पर जाने से पहले उन कामों के बारे में सोच लो जो तुम्हें अगले दिन करने हैं, उनके बारे में भी जो किए जा चुके हैं या बचे रह गए हैं और वे कैसे होंगे। तुम्हें घर के कामों में डू बकर इतना लापरवाह नहीं हो जाना चाहिए कि तुम अपनी बेहतरी पर ध्यान न दे सको। तुम्हें नैतिक शिक्षा और आध्यात्मिक ज्ञान वाली ऐसी कहानियाँ और शास्त्र पढ़ने चाहिए जिन्हें तुम समझ पाती हो। अख़बार भी पढ़ो; उनमें जो भी अच्छी सलाह मिलती है उसे ध्यान में रखो और अपने मन को शांत रखो। अपनी बेहतरी का इरादा रखो और धर्म के प्रति समर्पित रहो। नियत समय पर सो जाना चाहिए यानी एक घड़ी रात शुरू होने के बाद, और सही समय पर उठना चाहिए, यानी रात समाप्त होने से एक घड़ी पहले। गृहस्थी के सभी कामों को करते समय हमेशा याद रखो कि हमारा न्याय करने वाला परमेश्वर आसपास ही है। उसकी इच्छाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। अगर कोई दूसरों से छिपाकर बुरे काम करता है, तो हो सकता है कि वे किसी को पता न चलें। लेकिन ईश्वर तो हर चीज़ का इल्म रखने वाला है, वह हमें देखता रहता है। उससे छिपाकर किसी बुरे काम को अंजाम देना और सजा से बच निकलना नामुमकिन है। इसे याद रखते हुए तुम्हें अपना हर काम धर्म के मुताबिक़ करना चाहिए। 41


रमा शब्द

हंटर कमीशन में गवाही 1882 के शिक्षा आयोग के अध्यक्ष से सर विलियम हंटर। उन्हीं के नाम से यह शिक्षा आयोग हंटर आयोग (कमीशन) के नाम से विख्यात हुआ है। इस आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े कई प्रमुख लोगों से साक्ष्य लिया था जिनमें से एक रमाबाई थीं। 5 सितंबर, 1892 को पूना में रमाबाई ने अपनी गवाही दर्ज कराई थी। रमाबाई के प्रमाणों को शिक्षा आयोग के हंटर साहब ने काफी प्रमुखता दी। वे उससे इतने प्रभावित हुए कि फौरन मराठी से उसको अंग्रेजी में अनूद्रित कराया और अलग से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करवाया। हंटर आयोग ने रमाबाई से तीन प्रश्न पूछे थे। शंभू जोशी द्वारा किया गया अनुवाद नीचे प्रस्तुत है प्रश्न: भारत में शिक्षा के विषय पर कोई विचार/मत बनाने के लिए आपके पास क्या अवसर हैं। और आपने प्रोविं स के अनुभवों से क्या सीखा? उत्तर: मैं उस व्यक्ति की संतान हूँ जिसे स्त्री शिक्षा का समर्थ न करने पर कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। व्यापक विरोध के बीच इस विषय पर बहस करने और अपने विचारों को क्रियान्वित करने हेतु उन पर दबाव डाला गया ... मैं आजीवन इस देश में स्त्रियों की समुचित स्थिति की वकालत करने और इसके लिए कार्य करने को अपना दायित्व समझती हूँ। प्रश्न: लड़कियों के लिए अध्यापिकाएँ उपलब्ध कराने का बेहतर तरीका क्या है? उत्तर: मेरा अनुभव इस बात को प्रमाणित करता है कि जो स्त्रियाँ अध्यापिकाएँ बनना चाहती हैं, उन्हें इसका पर्या प्त प्रशिक्षण दिया जाए। इसके अलावा अपनी भाषा के समुचित ज्ञान के साथ उन्हें अंग्ज रे ी का भी ज्ञान होना चाहिए। प्रशिक्षण प्राप्त करनेवाली महिला अध्यापिकाएँ विवाहित-अविवाहित-विधवा जो भी हों, उन्हें अपने आचार-विचार एवं नैतिकता में सही होना चाहिए और वे सम्मानित परिवारों से होनी चाहिए। उन्हें पर्या प्त समुचित छात्रवृत्तियाँ उपलब्ध होनी चाहिए। लड़कियों की अध्यापिकाओं को 42


लड़कों के अध्यापकों से ज़्यादा वेतन देना चाहिए ताकि वे श्रेष्ठ स्तर को प्राप्त कर चरित्र बनाए रख सकें। छात्राओं को कॉलेज परिसर में रहना चाहिए ताकि उनके तौर-तरीके और आदतें सुधारी जा सकें तथा एक विशाल इमारत होनी चाहिए जहाँ अध्यापिकाओें एवं विद्यार्थियों के लिए हर प्रकार की समुचित व्यवस्था हो। किसी स्थानीय श्रेष्ठ महिला को इसका भार सौंपना चाहिए। केवल सीखना ही पर्या प्त नहीं होना चाहिए, अपितु विद्यार्थियों का आचार-व्यवहार व नैतिक आचरण क्रिया रूप में उतरना चाहिए। प्रश्न: आपने जो विभिन्न दोष बताए हैं, उनके अलावा वर्त्त मान शिक्षा-व्यवस्था में प्रमुख दोष आप क्या दे खती हैं? साथ ही इस दोष को दूर करने हे तु आपके पास क्या सुझाव है? उत्तर: लड़कियों के विद्यालयों के लिए स्त्री निरीक्षिकाएँ ही होनी चाहिए, ये निरीक्षिकाएँ 30 वर्ष या उससे अधिक उम्र की, सुशिक्षित व श्रेष्ठ वर्ग की होनी चाहिए फिर चाहे वे भारतीय हों या यूरोपीय। पुरुष निम्न कारणों से उचित नहीं ठहराए जा सकते हैं इस दे श की स्त्रियाँ संकोची स्वभाव की हैं। अगर एक पुरुष निरीक्षक किसी छात्रा-विद्यालय में जाता है तो सभी स्त्रियाँ व छात्राएँ डर जाती हैं और उनकी जबान बंद हो जाती है। यह स्थिति देखकर निरीक्षक विद्यालय व शिक्षिकाओं के बारे में बुरी रिपोर्ट देता है और संभवतः सरकार इस विद्यालय के लिए पुरुष अध्यापक की नियुक्ति करे गी और इस तरह विद्यालय को स्त्री-शिक्षिका का लाभ नहीं मिलेगा। चूँकि लड़कियों की शिक्षा लड़कों की शिक्षा से भिन्न है अतः लड़कियों के विद्यालयों का भार स्त्री शिक्षिकाओं के हाथ में होना चाहिए। दूसरा कारण है कि 100 में से 99 मामलों में देश का सुशिक्षित पुरुष स्त्री-शिक्षा का स्त्री की उन्नति के विरोध में है। अगर उन्हें कोई छोटी-सी गलती दिख जाती है तो वे राई का पहाड़ बना देते हैं और स्त्री के चरित्र को खराब करने का प्रयास करते हैं।

प्रायः दुखी स्त्री जो न तो साहसी बन पाती है, न ही सूचनाओं से लैस होती है, उसका पूरा उत्साह टू ट जाता है। यह विश्वास बन गया है कि पुरुष सत्ता तक आसानी से पहुँच सकते हैं और स्त्रियों को चहारदीवारी में सीमित रहना चाहिए और अभिभावकीय सरकार की नजर में उसकी सं तानें - फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री - समान होनी चाहिए। दोनों को समान न्याय मिलना चाहिए यह एक प्रमाण है कि इस दे श की जनसंख्या के आधे हिस्से - स्त्रियों के साथ - बाकी बचे आधे हिस्से पुरुषों द्वारा दमनात्मक एवं निर्द यतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। इस असं गति को रोकना एक अच्छी सरकार के लिए प्रशं सनीय है। मैं एक अन्य सुझाव और देना चाहूँगी, वह स्त्रीचिकित्सक के बारे में है। यद्यपि हिं दुस्तान में कई सज्जन डॉक्टर हैं, परं तु स्त्रियाँ इस व्यवसाय में नहीं हैं। अन्य देशों की स्त्रियों की तुलना में इस देश की स्त्रियाँ ज्यादा संकोची हैं और उनमें से अधिकांश किसी पुरुष को अपनी बीमारी बताने के बजाय चुपचाप बीमारी से मर जाती हैं। अतएव हजारोंलाखों स्त्रियों की अकाल मृत्यु/असमय मृत्यु को रोकने के लिए स्त्री चिकित्सकों की आवश्यकता है। अतः मैं अपनी सरकार से अनुरोध करती हूँ कि स्त्रियों को मेडिसिन पढ़ने की सुविधाएँ उपलब्ध करवाएँ और जन-साधारण के जीवन की रक्षा करें । भारत में स्त्री-चिकित्सकों की गहरी आवश्यकता अनुभव की जा रही है और यह इस देश की स्त्रियों की शिक्षा में एक बहुत बड़ी कमी है। (एक तरफ जहाँ ये बातें रमाबाई की प्रगतिशील सोच को दर्शा ती हैं वहीं स्त्रियों क े चरित्र या उनक े ‘सम्मानित’ परिवार या ‘श्रेष्ठ’’ होने को जो उन्होंने महत्त्व दिया है वह भी विचारणीय है। यहाँ हम उनक े चिंतन की विकास यात्रा क े पहले पड़ाव को देख रहे हैं। आगे चलकर उसमें बदलाव आता है जब वे सामाजिक ढाँचों की व्याख्या करती हैं।) 43


रमा शब्द

नियंत्रण, विवेक और आज़ादी

रमाबाई ने 1883 में उच्चतर अध्ययन के लिए इंग्लैंड में प्रवास के दौरान ईसाइयत को अपना लिया। उनके साथ उनकी नन्हीं बेटी मनोरमा का भी बपतिस्मा हुआ। इंग्लैंड में रमाबाई की आध्यात्मिक गुरु सिस्टर जेरल्डीन रहीं जिन्हें वे आजीबाई कहती थीं। रमाबाई का उनके साथ गाढ़े स्नेह और टकराव का रिश्ता रहा। जब रमाबाई को चेल्टेनहम लेडीज़ कॉलेज की प्रिंसिपल डोरोथी बील की तरफ से इंग्लैंड में लड़कों को पढ़ाने का प्रस्ताव मिला तो इंग्लैंड के पादरी वर्ग को यह नागवार गुज़रा। इस सिलसिले में रमाबाई का सिस्टर जेरल्डीन, डोरोथी बील और चर्च के कई पदाधिकारियों से पत्र-व्यवहार हुआ। उनमें से सिस्टर जेरल्डीन के नाम लिखा एक पत्र प्रस्तुत है जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी से हिन्दी में दे वयानी भारद्वाज ने किया of theहै।Community of St. Mary The Virgin यह पत्र स्त्रीWantage समानता(England). और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में उनके विचारों को व्यक्त करता है। उनकी पहली मराठी किताब ‘स्त्री-धर्म नीति’ 1882 में आती है, उसकी तुलना में इस पत्र में रमाबाई का अधिक मुखर और पितृसत्ता को खुलकर चुनौती दे ने वाला व्यक्तित्व नज़र आता है। व्यक्ति के विवेक और उसकी सत्ता को धार्मिक संरचनाओं के द्वारा नियंत्रित करने के प्रयासों पर वे खुलकर बोलती हैं। वे सभी धर्मों में इस प्रवृत्ति को दे खती हैं और उसे रे खांकित करती हैं। Courtesy: S. M. Adhav 44


लेडीज़ कॉलेज, चेल्टेनहम 12 मई, 1885

कल सुबह मैं श्रीमती ग्लोवर के साथ राजा राममोहन राय का पोर्ट्रेट (छवि) देखने ब्रिस्टल मिशन और फिर ब्रिस्टल केथेड्रल में गई और शाम 7 बजे तक चेल्टेनहम लौट कर आई। मेरे तीन दिन की यात्रा का इतिहास यहाँ समाप्त होता है। अब आते हैं आपके पत्र पर, मैं पहले आज के पत्र का और उसके बाद कल के पत्र का जवाब दूँगी। मेरी प्यारी आजीबाई, क्या आपको वाकई ऐसा लगता है कि मैं आपकी सच्ची दोस्त होने के बजाय कुछ और हो सकती हूँ? हमारी राय हज़ार बार एक दूसरे से भिन्न हो सकती है और अपरिहार्य लौकिक कठिनाइयों के कारण हम एक-दूसरे से जुदा हो सकते हैं, लेकिन किसी भी सूरत में उससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि हम एक-दूसरे के दुश्मन हैं या हमने एक-दूसरे की परवाह करना छोड़ दिया है। यहाँ तक कि बर्ब र देशों या लोगों के बीच भी आपस में भरोसा जताने वाले दोस्तों के साथ झूठ बोलना या धोखा करना शर्मनाक माना जाता है। हमारे बीच में तो इसके मायने कहीं ज़्यादा हैं (या होने चाहिए) जो खुद को सभ्य समाज के नागरिक मानते हैं और जो सच्चे धर्म और आदर्श प्रेम के अनुयायी हैं। लेकिन इसके साथ ही इसका यह मतलब नहीं आजीबाई कि हम दोस्त हैं इसलिए हमें अपने मन से सोचना और अपने निर्ण य खुद नहीं लेना चाहिए और हमें सभी बातों पर एक-दूसरे से सहमत ही होना होगा; चूँकि उस सर्व शक्तिमान ने हमें संसार में जो कुछ भी करने का आदेश दिया है वह सर्वश्रेष्ठ के लिए दिया है, हमें परिस्थिति के फैसलों को स्वीकारना और जिन लोगों को अपनी इच्छा को उसकी इच्छा के रूप में बताना आता है उनके आदेशों को मान लेना चाहिए! मुझे ऐसा लग रहा है कि “हम” शब्द की आड़ में आप मुझे यह सलाह दे रही हैं कि जिसके पास सत्ता है हमेशा उनकी ही बात मानी जाए। यह मुझे किसी भी सूरत में मंजूर नहीं। मेरे पास मेरा अपना विवेक, मन और निर्ण य लेने की क्षमता है। ईश्वर ने मुझे खुद सोचने और निर्ण य लेने

आदरणीय आजीबाई, कल रात जब मैं ब्रिस्टल से आई तब मुझे आपका लंबा पत्र मिला। मैंने उस दिन आपको पत्र में यह नहीं लिखा कि मैं एक दोस्त से मिलने के लिए ब्रिस्टल जा रही हूँ। वे एक वक़्त में कछार [आसाम, भारत] में मेरे बाइबल के शिक्षक थे, जब मेरे पति जीवित थे। मैं इतना ज़्यादा उत्साहित थी और इतनी थकान महसूस कर रही थी कि ब्रिस्टल या कहिए कि क्लिफ़्टन की अपनी यात्रा के बारे में विस्तार से लिख नहीं पाई। मैं अपने पुराने दोस्त से मिल कर बहुत खुश थी, आपने पहले भी मेरे मुँह से उनका नाम कई बार सुना होगा। उनका नाम रे व. इसाक एलेन है। वे श्री और श्रीमती ग्लोवर के घर रुके थे, जो क्लिफ़्टन के बैपटिस्ट मंत्री (चर्च से जुड़े पदाधिकारी जो स्वेच्छा से और सचेत आस्थावानों का बपतिस्मा कराते हैं) थे। श्री और श्रीमती ग्लोवर उनके माध्यम से मुझे लंबे समय से जानते हैं। उन्होंने (पिछली बार) मुझे अपने यहाँ आमंत्रित किया था। लेकिन तब मेरे पास समय नहीं था, इसलिए मैंने जाने से इनकार कर दिया था। इस बार श्रीमान एलेन उनके यहाँ ठहरे हुए थे और उन्होंने मुझसे अनुरोध किया था कि मैं वहाँ उनसे मिलने के लिए जाऊ ँ । उनकी सेहत बहुत ठीक नहीं है, कछार में उनकी तबीयत बिगड़ना शुरू हो गई थी। इसलिए मलेरिया से अपनी जान बचाने के लिए उन्हें वह ठिकाना छोड़ना पड़ा और घर आना पड़ा। मैं ब्रिस्टल की अपनी यात्रा से बहुत आनंदित हूँ। शनिवार दोपहर वहाँ पहुँचने पर श्रीमती ग्लोवर मुझे राजा राममोहन राय का मकबरा देखने के लिए अरनोस वेल सिमेट्री (कब्रिस्तान) लेकर गईं। रविवार सुबह मैंने बैपटिस्ट संडे स्कू ल की सालाना बैठक में भाग लिया जहाँ आगरा से लौटे एक मिशनरी श्रीमान जोन्स ने भारत में मिशन के काम के बारे में बताया। 45


की ताकत दी है और मुझे उसका इस्तेमाल करना चाहिए। आपको संभवतः याद होगा कि जब मैं भारत छोड़ कर इं ग्लैंड के लिए रवाना होने वाली थी उसकी पूर्व संध्या पर एक पादरी ने मुझे यह कहा था कि मेरा इं ग्लैंड आना ईश्वर की इच्छा के अनुकूल नहीं है। लेकिन ऐसा हुआ कि मेरे मन ने मुझे कहा कि मुझे इं ग्लैंड जाना चाहिए ऐसी ईश्वर की इच्छा है और मैंने ऐसा ही किया। पादरी और बिशप के पास गिरजाघर के संबंध में कुछ सत्ता हो सकती है, लेकिन गिरजाघर पर उस दूसरे मालिक की सत्ता है जो सर्वोपरि है, जो बिशप से ऊपर है। मैं ईसा मसीह के गिरजाघर की सच्ची सदस्य हूँ, लेकिन मैं पादरियों या बिशपों के मुँह से निकलने वाली हर बात को मानने के लिए बाध्य नहीं हूँ। यदि आप मेरे द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द ‘आज़ादी’ को ‘उद्दंडता’ (नियम-कायदों का पालन नहीं करना) कहना चाहती हैं तो आप शौक से ऐसा कह सकती हैं, लेकिन जितना मैं खुद को जानती हूँ, मैं अपने आपको उद्दंड व्यक्ति नहीं मानती। पादरियों के सारे आदेशों का पूरी तरह पालन करना नियम-कायदे और ईश्वर के आदेश का पालन करने से एकदम अलग बात है। मैंने हाल ही में बहुत प्रयास करके खुद को भारतीय पुरोहित वर्ग के नियंत्रण से मुक्त किया है और मैं इस वक़्त उसी तरह के दूसरे फंदे में अपनी गर्द न फ ँ साने के लिए बिल्कु ल भी प्रस्तुत नहीं हूँ, कि पादरियों के मुँह से निकलने वाली हर बात को उस सर्व शक्तिमान का आदेश मान कर उसका पालन करने लग जाऊ ँ । मैं किसी को आहत करना या कुछ गलत करना नहीं चाहती। लेकिन क्या आप और आपके दोस्त यह साबित कर सकते हैं कि लड़कों को पढ़ाना गलत है? आपको गलतफहमी हुई है कि मैंने आपसे ऐसा कहा कि मैं सिंडिकेट (आधिकारिक सभा), आपके शब्दों में कहा जाए तो “मेरे बड़ों-सयानों लोगों” के या अंग्ज़ रे ों के कहने पर सार्व जनिक सभाओं में भाषण देने लगी हूँ, क्योंकि मैंने आपसे ऐसा कुछ नहीं कहा।

इसके उलट मैंने आपको यह बताया था कि पंडित तारानाथ ने पहले मेरे भाई को और मुझे बड़ी सभा में बुलाया था जहाँ एक पंडित (कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य ) ने मुझे देखा और वे मुझमें रुचि लेने लगे, उन्होंने मुझे मिस्टर फ़ाउनी और मिस्टर क्रॉफ्ट से मिलवाया (उनके नाम ठीक-ठीक कैसे लिखे जाते हैं मुझे पता नहीं)। जब कॉलेज में उन्होंने इस पंडित के साथ मिल कर मेरी संस्कृत की परीक्षा ली तो उन्होंने उदारता में मुझे ‘’सरस्वती’’ का खिताब दे दिया। मैंने आपसे ऐसा नहीं कहा कि [उस] सिंडिकेट ने मुझे सार्व जनिक जगहों पर भाषण देने का सुझाव दिया या वैसा करने का आदेश दिया, क्योंकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। मैंने आपको यह भी बताया (यदि आपको याद हो तो) कि यह अच्छे ब्रह्मोसमाजी लोगों ने उदाहरण पेश किया था जिसने मुझे इस बात के लिए जागृत किया और इस योग्य बनाया कि मैं अपने देश के पुरुषों के सामने औरतों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सक ँ ू । यह सही है कि मुझे पुरुषों की शिक्षिका बनने की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन जब भारत या इं ग्लैंड दोनों ही जगह लड़के और लड़कियाँ दोनों मेरे विद्यार्थी हो सकते हैं तो मुझे इस बात की कोई वजह नज़र नहीं आती कि मुझे दोनों को ही क्यों नहीं पढ़ाना चाहिए। यह सही है कि भारत में समान्यतः स्त्रियाँ लड़कों को पढ़ाएँ ऐसी परं परा नहीं है क्योंकि वहाँ ऐसी स्त्रियाँ ही बहुत कम हैं जो शिक्षिका बन सकें। मुझे इस बात पर हैरानी है कि मेरे पिता ने या मेरे पति ने मेरी माँ या मेरे युवा पुरुषों को पढ़ाने पर कभी ऐतराज नहीं किया जबकि मैं देख रही हूँ कि कुछ अंग्ज रे ों को इस पर आपत्ति है। आप मेरे देश के कुछ लोगों को ‘संकुचित’ कह सकती हैं लेकिन मराठी ब्राह्मण महिलाओं पर यह विशेषण लागू नहीं होता। आपने खुद भी देखा होगा कि मराठी महिलाएँ न तो संकुचित हैं और न ही उन्हें मोटे पर्दों के पीछे रखा गया है। यहाँ तक कि मुसलमान शासकों के समय में भी उन्होंने कभी ऐसा नहीं 46


किया। यह ठीक है कि इं ग्लैंड की तरह वे समान्यतः मर्दों के साथ उस तरह उठती-बैठती नहीं, लेकिन अब कम से कम कुछ महिलाओं के बारे में आप ऐसा नहीं कह सकतीं और मैं उन कुछ महिलाओं में से हूँ जिसे पुरुषों के साथ उठने-बैठने से डर नहीं लगता। आपने ऐसा क्यूँ कहा (यदि आप मुझ पर भरोसा करती हैं तो) कि युवा पुरुषों की तुलना में मिले-जुले श्रोताओं के समूह को संबोधित करना बहुत अलग है? मैंने न सिर्फ पहले भी मिश्रित श्रोताओं को संबोधित किया है, बल्कि उनमें से ज़्यादातर में (खासतौर से बंगाल और पूर्वोत्तर में, जहाँ किसी हिन्दू महिला को पुरुषों के आगे आने देने की इजाज़त नहीं है) तो मैंने सिर्फ पुरुषों को ही संबोधित किया है और युवा पुरुषों को पढ़ाया भी है। यदि इससे मेरे अपने देश के लोगों में मेरा प्रभाव कम नहीं हुआ तो ऐसा अब क्यों होना चाहिए, मुझे समझ नहीं आता। मैं युवा पुरुषों को पढ़ाने को लेकर बिल्कु ल विकल नहीं हूँ, लेकिन मैं उन सारे पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिए विकल हूँ जो भारतीय समाज में महिलाओं को उनके उचित स्थान को प्राप्त करने से वंचित करते हैं। क्या भारत में मुझे अपने काम को सिर्फ महिलाओं तक सीमित रखना चाहिए और पुरुषों से मेरा कोई वास्ता ही न हो? मैं ऐसा नहीं मानती। समाज में औरतों को आगे लाने के लिए भी मुझे पहले पुरुषों से अनुरोध करना होगा, और गरीब तबकों के पुरुषों को शिक्षित करना होगा। जब पुरुषों को उनके परिवारों में औरतों की स्थिति को बेहतर बनाने की ज़रूरत समझ आ जाएगी, तभी जनाना तक मेरी पहुँच बन सकेगी। जब तक मेरा पुरुषों के साथ नियमित और विशुद्ध संवाद शुरू नहीं होता है, मैं अपने देश में औरतों की स्थिति में सुधार की झूठी उम्मीद पाले रह सकती हूँ और कोशिशें करती रह सकती हूँ। मुझे नहीं लगता कि मुझे अपनी आज़ादी के बारे में कुछ भी कहने की ज़रूरत है। आपने खुद ही मेरे इस शब्द का गलत अर्थ समझा है (और) मुझे इस

पर प्रवचन दिया है। जहाँ तक मैं जानती हूँ कि जब से मैंने अपनी आज़ादी को हासिल किया है मैंने कभी भी उद्दंड व्यक्ति की तरह व्यवहार नहीं किया है और न ही भविष्य में ऐसा करने का कोई इरादा रखती हूँ। जब लोग मुझसे सलाह मशविरा किए बिना मेरे बारे में कोई निर्ण य लेना चाहते हैं मैं इसे अपनी आज़ादी में दखलंदाज़ी मानती हूँ, और मैं उन्हें ऐसा करते रहने की इजाज़त नहीं देती। मान लीजिए कि कोई अनजान बिशप आपके दोस्तों को आपके बारे में कोई निर्ण य लेने की सलाह दें जिसके बारे में आपको कोई खबर भी न हो और आपके दोस्त उस सलाह का पालन भी करने लग जाएँ तो आपको कैसा लगेगा? क्या आप उस बिशप की ओर से आने वाले प्रत्येक निर्देश को उस सर्व शक्तिमान के आदेश की तरह मान कर उसका पालन करने के लिए तत्पर हो जाएँगी? हो सकता है आप हो जाएँ, मैं इसके बारे में तो दावे के साथ कुछ नहीं कह सकती लेकिन मैं ऐसा नहीं करती और नहीं करूँ गी। मैं मिस बील -डोरोथी बील] के वादे के खिलाफ या आपके मौजूदा निर्ण य के खिलाफ कुछ नहीं करूँ गी लेकिन मैं उन बिशप की सलाह लेने नहीं जाऊ ँ गी या उनकी राय का पालन भी नहीं करूँ गी जिनके सामने आप फिर से इस मसले को पेश करने वाली हैं। मेरा विवेक इस मसले को लेकर ज़रा भी विचलित नहीं है और मेरे लिए इतना ही पर्या प्त है। अपने प्रत्येक काम के लिए दूसरों का अनुसरण करना मेरे लिए नितांत असंभव है और मैं हमेशा दूसरों को खुश करते नहीं रह सकती, मेरे लिए ऐसी कल्पना भी करना मुमकिन नहीं। सस्नेह और सादर, मैं हूँ मेरी रमा (धर्म परिवर्त न के बाद रमाबाई ने अपने और बेटी के नाम के आगे ‘मेरी’ जोड़ लिया था।) 47


रमा शब्द

‘हिदं ू स्त्री का जीवन’ से ‘द हाई कास्ट हिंदू वुमन’ (फिलाडे ल्फिया, 1987) पंडिता रमाबाई की बहुचर्चित कृति है। इसका अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद शंभू जोशी ने ‘हिंदू स्त्री का जीवन’ नाम से किया है। यह किताब संवाद प्रकाशन, मेरठ की ओर से 2006 में छपी थी। इस किताब के कुछ हिस्से साभार प्रस्तुत हैं जिनसे न केवल रमाबाई की विचार पद्धति का पता चलता है, बल्कि किसी भी विषय के बारे में लिखा कैसे जाए, इसकी पूरी पद्धति का पता चलता है। कह सकते हैं कि गद्य कैसा हो, इसकी कसौटी रमाबाई तैयार कर रही थीं। बातों में तार्किकता हो, विचारों में क्रमबद्धता हो, पूर्वापर संबंध स्पष्ट हो, भाषा दरू ु ह न हो, उसमें प्रवाह हो, कठोर से कठोर टिप्पणी में भी भाषा संयत हो, विषयों को बिंदव ु ार बाँटकर प्रस्तुत किया गया हो, समझने के लिए जीवन से जुड़े उदाहरण हों - ये सब रमाबाई अपने लेखन से बतला रही थीं। ‘हिन्दू स्त्री का जीवन’ किताब का पहला अध्याय है ‘प्रारं भिक टिप्पणियाँ’। इसमें सबसे पहले विषय की प्रस्तावना करते हुए रमाबाई विदेशी पाठकों के सामने हिं दू स्त्री के संदर्भ को प्रस्तुत करती हैं एक हिं दू स्त्री के जीवन को समझने के लिए किसी भी विदेशी पाठक के लिए आवश्यक है कि वह हिं दुस्तान की सामाजिक मान्यताओं एवं धर्म के बारे में थोड़ा बहुत जाने। हिं दुस्तान की जनसंख्या 25 करोड़ के लगभग है जिनमें हिं दू, मुस्लिम, यूरेशियन, यूरोपियन तथा यहूदी शामिल हैं। इस बृहत् जनसंख्या का 3/5 भाग तथाकथित हिं दू धर्म या इसके किसी न किसी रूप को मानने वालों में से है। इनके बीच धार्मिक रिवाज तथा व्यवस्थाएँ आवश्यक रूप से समान हैं। सामाजिक रिवाज देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ कुछ भिन्न हैं, लेकिन सभी में एक सुस्पष्ट समानता मूल में प्रतीत होती है जो इन्हें एक बनाए रखती है। हिं दुओं का धर्म इतना जटिल व विस्तृत विषय है कि कुछ पन्नों में समेट पाना मुश्किल है, तथापि इसे 48


संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार से बताया जा सकता है ... दूसरा अध्याय है ‘बचपन’ उसकी आरं भिक पंक्तियाँ देखिए – यद्यपि मनु-संहिता में एक जगह ‘पुत्री को पुत्र के बराबर’ (मनु, ix, 130) मानने की बात की गई है, लेकिन संदर्भ स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि समानता उन परिणामों पर आधारित है जो कि पुत्र द्वारा प्राप्य हैं। अतः यह श्लोक, प्राचीन संहिताएँ पुरुष की श्रेष्ठता को स्थापित करती हैं, इस अवधारणा के अपवाद के रूप में नहीं बताया जा सकता है। सभी आशीर्वा दों में पुत्रप्राप्ति सर्वा धिक लालचपूर्ण है, जिसके लिए हिं दू लालायित रहते हैं; ऐसा इसलिए है कि परिवार में पुत्र का जन्म पिता को मुक्ति दिलाता है। ‘वैवाहिक जीवन’ अध्याय आरं भ ही होता है, इन पंक्तियों से हिं दू लड़की का बचपन कब खत्म होता है और वैवाहिक जीवन कब प्रारं भ होता है, इसे आसानी से निर्धा रित नहीं किया जा सकता। अनुभव और अध्ययन पर टिके ऐसे विश्लेषण से ‘हिन्दू स्त्री का जीवन’ किताब भरी पड़ी है। आज भी वे हमें कई बातों को समझने के सूत्र देते हैं। इतनी आधुनिक और प्रासंगिक दृष्टि है रमाबाई की। यहाँ पहले अध्याय - ‘प्रारं भिक टिप्पणियाँ’ से एक बड़ा हिस्सा प्रस्तुत है। इसमें आगे रमाबाई आत्मा की अमरता में हिं दुओं के विश्वास और जाति व्यवस्था के कठोर नियमों के बारे में बताती हैं। उनमें हम साफ़ पाते हैं कि वे बड़ी सहजता से लेखन में अपने अनुभवों को पिरोती हुई चलती हैं। जाति-संबंधी उनके कुछ विचार इस प्रकार हैं – निःसंदेह, जाति श्रम-विभाजन से आरं भ हुई थी। आर्य -हिं दुओं का प्रतिभावान व क्षमतावान हिस्सा बाकियों के लिए शासक-जैसा स्वरूप लिए हुए था। अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार उन्होंने समाज के विभाजन की अनिवार्यता को देखा तथा बाद में प्रत्येक भाग को अलग कर निश्चित कर्त्त व्यों

की जिम्मेदारी दी, जिससे राष्ट्र के कल्याण में अभिवृद्धि हो सकेगी। पौरोहित्य (ब्राह्मण जाति) को समाज के प्रमुख के रूप में माना गया तथा उन्हें सबके ऊपर आध्यात्मिक शासक के रूप में मान्यता दी गई। बलवान व लड़ाकू हिस्से (क्षत्रिय जाति) को पौरोहित्य के सहयोग एवं शारीरिक बल के द्वारा देश की रक्षा व देश के भीतर अपराध व अन्याय का दमन करने का भार सौंपा गया। उन्हें न्याय के संचालन के लिए भी अस्थायी शासक का काम करना था। व्यापार व व्यवसाय को पसंद करने वाले व्यापारी और कामगार (वैश्य जाति) भी पूर्व की जातियों द्वारा निश्चित महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे। चौथी या दास जाति (शूद्र जाति) उन लोगों से मिलकर बनती थी, जो पूर्व की तीन जातियों में नहीं आ सकते थे। प्राचीन समय में लोगों का स्थान इन चारों जातियों में उनकी वैयक्तिक क्षमता एवं योग्यता से नियत होता था ना कि उनके जन्म से। अर्थात् जातियों में प्रवेश जन्म पर आधारित नहीं था। 49


हालाँकि जाति स्वीकार्य रूप से सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है, लेकिन अब यह संपूर्ण भारत में हिं दू मत का सर्वप्रथम नियम बन गई है। बुद्ध, नानक, चैतन्य और अन्य विचारवान लोगों ने इस अत्याचारपूर्ण रिवाज के विरुद्ध विद्रोह किया तथा सभी व्यक्तियों की सामाजिक समता के सिद्धांत की उद्घोषणा की, लेकिन ‘जाति’ उनके लिए कठिन साबित हुई। आज उनके शिष्य अन्य रूढ़िवादी हिं दू की तरह ही एक जाति का रूप धारण कर चुके हैं, यहाँ तक कि मुस्लिम भी इस रोग से नहीं बच सके थे। बाद में, जब जाति हिं दू विश्वास का एक रूढ़ अंग बन गई तो इसे अनिवार्य हिस्से के रूप में माना गया, जो अब भारत में सब जगह उपस्थित है। एक ब्राह्मण का बेटा सभी जातियों के प्रमुख की भाँति सम्मानित होता है इसलिए नहीं कि वह योग्य है, अपितु इस कारण कि उसने ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया है। अंतर्जातीय विवाह एक समय में विधिमान्य थे, यहाँ तक कि उत्तराधिकार को मानने के बाद भी - विधि यह बताती थी कि ऊ ँ ची जाति की स्त्री निम्न जाति के पुरुष से विवाह नहीं कर सकती थी, लेकिन अब रिवाज (customs) कानूनों (laws) को अस्वीकार कर रहे हैं। अंतर्जातीय विवाह बिना गंभीर परिणामों के तथा बिना अपराधी को बहिष्कृत किए नहीं हो सकते हैं।... जाति नियमों का अतिक्रमण - ऊ ँ ची से नीची [जाति] की ओर बहिष्करण एवं कठोर दं ड का विषय है। अंतर्विवाह के अपराधी या मत परिवर्त न करनेवालों को मुक्ति नहीं मिलती है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि अगर ब्राह्मण नीची जाति के किसी सदस्य से शादी करता है या उनमें से किसी के साथ खाता-पीता है तो वह बहिष्कृत के समान घृणित समझा जाता है और उससे बचा जाता है। यह प्रतिक्रिया न केवल ऊ ँ ची जाति के लोगों द्वारा होती है, अपितु नीची जाति के लोगों द्वारा भी होती है जिनसे यह ऐसा संबंध रखते हैं। निम्न जाति के लोग इस ब्राहमण को अवैध नीच की भाँति देखते

हैं। यह रिवाज हर परं परावादी हिं दू के मन में इतनी गहराई तक पैठ बना चुका है कि वह अपने से ऊ ँ ची जाति के सदस्य द्वारा प्रदर्शित किए गए अपमान को नकारात्मक ढं ग में नहीं लेता क्योंकि वह इसमें धर्म का अनुसरण देखता है। हालाँकि जाति स्वीकार्य रूप से सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है, लेकिन अब यह संपूर्ण भारत में हिं दू मत का सर्वप्रथम नियम बन गई है। बुद्ध, नानक, चैतन्य और अन्य विचारवान लोगों ने इस अत्याचारपूर्ण रिवाज के विरुद्ध विद्रोह किया तथा सभी व्यक्तियों की सामाजिक समता के सिद्धांत की उद्घोषणा की, लेकिन ‘जाति’ उनके लिए कठिन साबित हुई। आज उनके शिष्य अन्य रूढ़िवादी हिं दू की तरह ही एक जाति का रूप धारण कर चुके हैं, यहाँ तक कि मुस्लिम भी इस रोग से नहीं बच सके थे। वे भी अनेक जातियों में विभक्त हो गए और उतनी ही कठोरता के साथ जितने कि हिं दू थे। लाखों से ज्यादा हिं दू रोमन कैथोलिक चर्च के सदस्य के रूप में ईसाई बने, कमोबेश वे भी जाति से ही शासित हैं। उसी प्रकार प्रोटेस्टेंट मिशनरीज ने भी उनमें धर्म परिवर्त न कर आए लोगों में जाति की भावना को जीतने को कठिन पाया तथा मद्रास प्रेसिडेंसी में कुछ समय पूर्व तक फादर जब लॉर्ड Supper बनाते थे, तब [अलग अलग जाति के धर्मांतरित लोग] प्रत्येक अलग जाति के लिए अलग कप का प्रयोग करने के लिए मजबूर थे। 50


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रमा शब्द

प्लेग प्रसंग और ब्रिटिश हुकूमत उन्नीसवीं सदी की आखिरी दहाई। अकाल और प्लेग ने भारत के कई हिस्सों में तबाही मचा रखी थी। उससे निबटने का ब्रिटिश सरकार का रवैया बुरा था। तब पंडिता रमाबाई ने सार्व जनिक रूप से उस पर अपनी आपत्ति जताई थी। उन्होंने ‘द बॉम्बे गार्डियन’ नामक साप्ताहिक अंग्रेज़ी अखबार को पत्र लिखा था। बल्कि उस पर खूब चर्चा हुई। ब्रिटिश संसद में भी पंडिता रमाबाई की सरकार के प्लेग प्रबंध की आलोचना बहस का मुद्दा बनी। उस पत्र को समझने में मदद करने के लिए पूर्वा भारद्वाज ने विस्तार से टिप्पणी लिखी है। साथ में पेश मूल पत्र का अनुवाद शुभेन्द्र त्यागी का है।

26 जुलाई, 1897 को इं ग्लैण्ड की संसद के निचले सदन - House of commons में मेजर राश (Rasch) ने पंडिता रमाबाई द्वारा पूना के एक प्लेग कैंप में अपनी लड़कियों में से एक के बहलानेफुसलाने का आरोप लगाते हुए अखबार में छपे एक पत्र का ज़िक्र किया था। उस पत्र के हवाले से उन्होंने जानना चाहा था कि पंडिता रमाबाई के आरोप में कितनी सच्चाई है। लॉर्ड जॉर्ज हेमिल्टन ने इसका जवाब देते हुए कहा था - “पंडिता रमाबाई के दावे ने मेरा भी ध्यान अपनी तरफ खींचा था और जून की शुरुआत में मैंने उसका पता किया था। जिस लड़की का उन्होंने जिक्र किया है उसे प्लेग कैंप में नहीं बरगलाया गया है। वह प्लेग की रोगी थी और सेहतमंद होने के बाद वहाँ से उसकी छुट्टी हो गई थी। उसके बाद उसका क्या हुआ, मालूम नहीं। [पंडिता रमाबाई का] पूना कैंप में एकदम खराब इं तज़ाम का दावा पूरी तरह गलत है। कुल 52


मिलाकर लगभग 500 रोगी औरतें कैंप में आई थीं। प्रायः सबके रिश्तेदार या दोस्त उनके साथ थे। उनके साथ बदसलूकी (उनकी गरिमा के साथ छेड़छाड़) की कोई शिकायत कभी नहीं आई। वहाँ तैनात अफसर ने कई मौकों पर पंडित रमाबाई को अस्पताल में देखा है, लेकिन उन्होंने उससे कभी कोई शिकायत नहीं की थी।” 5 अगस्त, 1897 को ब्रिटिश संसद में बहस के दौरान सैमुअल स्मिथ - वेल्स के काउं टी फ्लिंटशायर के प्रतिनिधि ने भारत में अकाल, प्लेग, भूकंप आदि से संबंधित हालत को बहुत दुखद बताया। [उसमें दो ब्रिटिश अफसरों की हत्या, बाल गंगाधर तिलक-गोपालक ृ ष्ण गोखले आदि नेताओं की गिरफ़्तारी, अखबार से लेकर हर जगह ब्रिटिश सेना और सरकार के विरोध आदि की घटनाएँ शामिल हैं] स्मिथ ने अकालग्रस्त इलाकों की काफी जानकारी इकट्ठी की थी। उसमें से ‘सुविख्यात हिन्दू स्त्री’ पंडिता रमाबाई के एक पत्र का उद्धरण उन्होंने दिया जिन्होंने अपनी परवाह किए बिना सेंट्रल प्रोविन्स से बड़ी संख्या में अनाथों को बचाया। रमाबाई एक राहत कैंप में गई थीं, उसका ब्यौरा उनके शब्दों में सुनिए “पहला दरिद्रालय - Poor House जो हमने देखा वह घर था ही नहीं। यह शहर के बाहरी किनारे पर स्थित कंु ज था। उसके चारों तरफ भूखे लोग झुंड के झुंड बैठे हुए दिख रहे थे। कुछ ढेर की तरह पड़े हुए थे, कुछ गंदी ज़मीन पर लिथड़े हुए बैठे थे या पसरे हुए थे। कुछ के पास तन ढँकने के लिए चिथड़े थे तो कुछ के पास वह भी नहीं था। बूढ़े, जवान, औरतें, बच्चे सब थे। उनमें अधिकतर बीमार थे जो हिलने-डु लने में भी अशक्त थे। बहुत लोग कुष्ठ रोग से ग्रस्त थे और बहुत ऐसी बीमारियों से पीड़ित थे जिनका नाम भी नहीं लिया जा सकता है। बुरे पुरुष, पथभ्रष्ट स्त्रियाँ, भोली भाली बच्चियाँ, निर्दोष बच्चे, बुजुर्ग लोग, अच्छे, बुरे और बेपरवाह सब लोग एक दूसरे से बेहिचक घुल-मिल रहे थे, बातचीत कर रहे थे। वे

पूरे देश में घूम-घूमकर माँ-बाप अपनी बेटियों को एक रुपए या चंद आनों में बेचते हुए देखे जा सकते हैं। रात को खुली हवा में सो रहे थे या पेड़ के नीचे। और सरकार जो थोड़ा-मोड़ा मोटा-झोटा देती थी उसी से अपना पेट भर रहे थे। उनको खाने में भी केवल सूखा आटा और थोड़ा नमक मिलता था। पारखी आँखें तुरत बता सकती थीं कि पीसे जाने के पहले ही वो अनाज मिट्टी से सना होता था। भूखे अनाथ कई बच्चे ऐसे थे जो न खुद के लिए खाना पका सकते थे और न ही वहाँ कोई था जो उनके लिए पका दे। इस नाते या तो उनको उस सूखे [मिट्टी सने] आटे को खाना पड़ता था या फिर वे बड़ी उम्र के अपने जैसे अकाल पीड़ितों की दया के मोहताज थे। बड़ी उम्र वाले अपनी ताकत के बल पर बच्चों से उनका खाना ले लेते थे, जितना हो सकता था उतना। लगता था कि गरीब लोग सारी मानवीय संवद े नाएँ खो चुके थे। वे एक दूसरे के प्रति और अपने इर्द गिर्द के छोटे बच्चों के प्रति एकदम निर्मम थे। यहाँ तक कि उन्हें अपने बच्चों की भी परवाह नहीं थी। कुछ माँ-बाप जो उनके लिए और उनके बच्चों के लिए खाना मिलता था वो सारा खाना खा लेते थे और मोटे होते जा रहे थे जबकि उनके बच्चे भूख से तड़पते रहते थे और कंकाल की तरह दिखने लगे थे। यहाँ तक कि कुछ तो मरणासन्न अवस्था में थे, फिर भी उनके माँ-बाप को उनके लिए मोह नहीं लग रहा था। पूरे देश में घूम-घूमकर माँ-बाप अपनी बेटियों को एक रुपए या चंद आनों में बेचते हुए देखे जा सकते हैं। या फकत मुट्ठी भर अनाज के एवज में [उनको बेचने को मजबूर हैं]। बच्चों को जो खाने के लिए मिलता था उसे उनके ताकतवर पड़ोसी छीन लेते थे और खा जाते थे। कुछ जगहों पर सरकारी अधिकारी एक-एक बच्चे को या काम 53


अकाल के दौरान मुक्ति मिशन ग़रीब महिलाओं और बच्चे-बच्चियों का सहारा बना।

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‘द बॉम्बे गार्डियन’ में छपा पंडिता रमाबाई का पत्र यहाँ प्रस्तुत है-

करने में असमर्थ बुजुर्ग और बीमार को [भी ]दो - चार पैसे थमा देते थे। लेकिन भला दो या तीन साल का बच्चा अपने हाथ में रखे तांबे के उन दो पैसों का क्या करे ?” रमाबाई ने बताया कि खाने में धूल-मिट्टी मिली रहती थी और यह अधीनस्थ कर्मचारियों की कारस्तानी होती थी। उन्होंने कहा, “मुकादम और रसोइए जैसे अधीनस्थ अधिकारियों केअख्तियार में था कि गरीब लोगों के लिए जो खाना आता है उसे वे उनको दें या न दें। उनमें से कुछ के पास दिल था, विवेक था। [राहत कैंप में]सबसे सस्ता किस्म का जो अनाज होता था वह खरीदा जाता था और बिना बालू-मिट्टी साफ किए हुए उसका आटा पीस लिया जाता था। उसके बाद दाल-रोटी पकाते समय निर्द यी रसोइए उस आटे में से चुरा लेते थे और उतनी मात्रा में मिट्टी मिला देते थे। कोई इस पर ध्यान नहीं देता था कि खाना कितना मिलावट भरा है। गरीब लोग मुकादम से इस कदर डरते थे कि उच्च अधिकारियों से उनकी शिकायत करने की उन्हें हिम्मत नहीं होती थी। आटा और दाल इतना मिलावटी होता था कि जब उनसे रोटी-दाल बनाई जाती थी तो वह गोबर के उपले से बेहतर नहीं दिखता था।” वे राहत कैंप लड़कियों और औरतों के चरित्र को बिगाड़ने वाले थे। रमाबाई ने आगे कहा “मुकादम का काम करने के बहाने से हर जगह जवान मर्द लड़कियों और औरतों से बात करते हुए देखे जा सकते हैं। यह एकदम अच्छा लक्षण नहीं है। धूर्त मर्द जवान लड़कियों और औरतों पर निगाह गड़ाए रखते हैं। वे मिठाई, खाना, कपड़े आदि का लालच देकर उनको फुसलाते हैं। उनको अच्छी जगह ले जाने और उनको खुश रखने का झाँसा देते हैं। इस तरह भोजन और काम की तलाश में भटकती सैंकड़ों लड़कियाँ, जवान विधवाएँ, परित्यक्ता औरतें राहत कैंपों में और दरिद्रालयों में जाकर पथभ्रष्ट हो रही हैं। और सरकार की कस्टडी में जाने के पहले ही वे वहाँ से ले जाई जाती हैं।”

प्रिय गार्डियन, मैं यहाँ प्लेग अस्पताल में हूँ और प्रभु का आशीर्वा द है कि स्वस्थ और सुरक्षित हूँ। मैं यहाँ अपने एक बच्चे की देख-रे ख के लिए आई हूँ। रे लवे स्टेशन पर प्लेग ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर के आदेश से इस बच्चे को यहाँ भेजा गया है। किसी दूसरे को इस खतरनाक जगह भेजने का साहस मैं नहीं करूँ गी। यह सचमुच एक खतरनाक जगह है, भले ही प्रबंधन के लिहाज से यह अस्पताल [बाहर से] बढ़िया और स्वच्छ दिखे। मरीजों की देख-रे ख के लिए डॉक्टर, नर्स और सहायक तो बहुत हैं, लेकिन भीतरी व्यवस्था बदहाल है। ऐसा लगता है कि अधिकारी इससे बेखबर हैं । रे लवे स्टेशनों पर प्लेग ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों का व्यवहार भी अजीब है । एक नौजवान को कल रात यहाँ भेजा गया। वह देखने में भला-चंगा और स्वस्थ है। लेकिन उसे यहाँ सिर्फ इसलिए रहना पड़ रहा है क्योंकि डॉक्टर ने उसे भेजा है। एक दिन जब मैं अपनी बच्चियों को तालेगाम से केडगाँव ले जा रही थी, तो ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों ने सभी लड़कियों का मुआयना किया। तालेगाम की भीषण गर्मी और कड़ी मेहनत के कारण इनमें से एक बच्ची की तबीयत बहुत खराब हो गई थी। डॉक्टर ने उसे तो जाने दिया लेकिन एक दूसरी बच्ची जो पूरी तरह स्वस्थ थी उसे ट्रेन से उतार दिया। इससे वह बच्ची बुरी तरह डर गई और रोने लगी। जाँच के बाद उसे छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह तो पूर्णतः स्वस्थ थी। कल उसी डॉक्टर को केडगाम से लौटती हमारी कुछ बच्चियों में एक ऐसी बच्ची मिली, जिसे त्वचा में खुजली का रोग है। यह बच्ची अकाल पीड़ित थी और उसे हल्का बुखार भी था। डॉक्टर ने उसे प्लेग अस्पताल ले जाने के लिए कह दिया। आज सुबह से वह बिल्कु ल ठीक है, लेकिन सर्ज न का कहना है 55


कभी-कभार कैंपों का मुआयना करने आने वाले साहिब और मेम साहिब इन जगहों की बाहरी साफ-सफाई देख कर खुश होते हैं। उन्हें लगता है हम गरीब ;देसी’ लोगों को गर्मी और दूसरी असुविधाओ ं से कोई परेशानी नहीं होती। यहाँ न तो कायदे का कोई स्नानघर है न आराम के लिए कोई ठीक जगह। जो लोग रोगी की देखभाल के लिए आते हैं उन्हें बहुत परेशानी सहनी पड़ती है। मुझे खुद पूरी रात खुले मैदान में गुजारनी पड़ी। कंकड़-पत्थरों, कीड़ों, मच्छर-मक्खियों की वजह से सोना दूभर हो गया। कि हमें 2-3 दिन और यहाँ रुकना पड़ेगा। लेकिन मेरी चिंता की वजह यह नहीं है । आज से लगभग 2 महीने पहले जब श्रीमान प्लकेंट पहली बार हमारे स्कू ल आए थे, तब अकाल की मार झेलने वाली कुछ लड़कियाँ त्वचा, गले और पेट के रोगों से पीड़ित थीं। हालांकि उन्हें कोई गंभीर रोग नहीं था, लेकिन प्लकेंट महोदय ने इन बच्चियों को ससून अस्पताल में दिखाने की बात कही थी। उसी वक्त उन्होंने अस्पताल में लड़कियों की सुरक्षा और बेहतर उपचार का आश्वासन भी दिया था। तब मैंने कई बच्चियों को वहाँ भेजा था जो जल्द ही ठीक होकर वापस भी आ गईं। उनमें से ही एक लड़की को तेज बुखार था। यह लड़की अकाल के दौरान विधवा हो गई थी। उसे प्लेग के मरीज के रूप में इस अस्पताल में भेजा गया था। हमसे कहा गया कि हमें तबतक यहाँ आने की इजाजत नहीं दी जाएगी जब तक डॉक्टर न ठीक समझें। उस बेचारी असहाय लड़की की देखभाल के लिए न तो मैं किसी को भेज सकी न खुद जा सकी। मुझे लगभग 180 लड़कियों की देखभाल करनी है और मैजिस्ट्रेट के आदेश पर उन्हें पूना के बाहर ले जाना है। जब तक मैं समय निकालकर पूना आकर उसके बारे में पता करती तब-तक 6 हफ्ते गुजर चुके थे। जब पिछले शनिवार ससून अस्पताल में उसके

बारे में पता किया तो सर्ज न ने कहा कि उसकी तो बहुत पहले मृत्यु हो चुकी है। कल रात यहाँ आकर जब मैंने उसके बारे में जानना चाहा तो पता चला कि वह ठीक है और यहीं है। जब मैंने उसे देखना चाहा तो सुबह अस्पताल के नौकर और चौकीदार ने मुझसे कहा कि वह एक चौकीदार की देखरे ख में है। उस चौकीदार से उसके बारे में पूछा तो उसने कहा कि मालूम नहीं वह कहाँ चली गई। कल रात ही दो चिकित्सकों और दो महिला कर्मियों ने मुझसे कहा था कि वह लड़की बिल्कु ल ठीक है और मैं सुबह उसे देख सकती हूँ। आज वे ही लोग अपनी बात से पलटकर कहते हैं वह यहाँ नहीं है और उसे थोड़ी देर पहले ही छुट्टी दे दी गई है। और कहते हैं कि, “वे उसकी छुट्टी की कोई सूचना मुझे देने के लिए बाध्य नहीं हैं।” कैसी अजीब व्यवस्था है! लगता है लड़की हमेशा के लिए चली गई! मन में आशंकाएँ उठती हैं ! मन उसके लिए चिंतित होता है, वह बहुत अच्छी लड़की थी। मेरी किसी बच्ची के साथ ऐसा होने से पहले मैं ही क्यों नहीं मर गई! इस दुख और यंत्रणा के लिए पूना शहर के अधिकारी जिम्मेवार हैं। भगवान जाने न जाने कितनी लड़कियों को अपने दोस्त, परिवार से जुदा कर जबरदस्ती प्लेग अस्पताल और कैंपों में जाने के लिए मजबूर किया गया। यहाँ वे हमेशा-हमेशा के लिए अपनों से 56


बिछड़ गईं। भगवान जाने न जाने कितनी माताओं के विदीर्ण हृदय अपनी खोई संतानों के लिए विलाप कर रहे हैं। जिला न्यायाधीश और दूसरे रईसों को न तो इसकी जानकारी है न फिक्र। ये गरीब अभागे इनकी लापरवाही का शिकार हैं। कभी-कभार कैंपों का मुआयना करने आने वाले साहिब और मेम साहिब इन जगहों की बाहरी साफ-सफाई देख कर खुश होते हैं। उन्हें लगता है हम गरीब ;देसी’ लोगों को गर्मी और दूसरी असुविधाओं से कोई परे शानी नहीं होती। यहाँ न तो कायदे का कोई स्नानघर है न आराम के लिए कोई ठीक जगह। जो लोग रोगी की देखभाल के लिए आते हैं उन्हें बहुत परे शानी सहनी पड़ती है। मुझे खुद पूरी रात खुले मैदान में गुजारनी पड़ी। कंकड़-पत्थरों, कीड़ों, मच्छर-मक्खियों की वजह से सोना दूभर हो गया। मुझसे वार्ड में सोने लिए कहा गया जो पाँच चारपाइयों वाली तंग जगह है। उनमें से एक चारपाई पर एक औरत लेटी हुई थी, जो देखने में प्लेग से पीड़ित लग रही थी। यह औरत रह-रहकर उल्टियाँ कर रही थी। मेरे छोटे से बच्चे को मजबूरी में उसके पास ही जगह मिली। उस औरत का लड़का उसकी चारपाई के पास ही जमीन पर लेटा हुआ था। और मुझे बच्चे के पास सोने को कहा गया, जो जगह उस लड़के से लगभग 6 फुट की दूरी पर थी। यह सब सुनकर आपके मन में क्या आता है ? ऐसा लगता है कि अस्पताल प्रशासन सोचता है कि भारतीय स्त्रियों में लज्जा और गरिमा का भाव होता ही नहीं है। मुझे यहीं गर्मी में झुलसना पड़ा और लिखना भी पड़ा क्योंकि मेरे जिम्मे लिखने का काफी काम था। सर्ज न ने मुझे सलाह दी थी कि मेरी आँखें कमजोर हैं और मुझे उनका ख्याल रखना चाहिए। मैंने उनसे (अपने बच्चे के साथ) एक अलग कमरे में जाने की गुजारिश की जहाँ मुझे थोड़ी छायादार जगह मिल जाती। उन्होंने मुझे एक खाली वार्ड में जाने की अनुमति भी दे दी थी, लेकिन फिर पता चला कि पहले उस जगह पर

प्लेग के मरीज थे। अब मेरे पास दो ही विकल्प हैं या तो मैं (तेज धूप में) आँखें फोड़ती रहूँ, शरीर जलाती रहूँ और सरदर्द सहन करती रहूँ या पहले से ही प्लेग रोगियों से भरे वार्ड मे जाकर प्लेग कीटाणुओं से युक्त हवा में साँस लूँ। महिलाओं के लिए बने एकमात्र स्नानघर की गंदगी का तो बयान नहीं किया जा सकता है। जो महिलाएँ अपने रोगियों की देखभाल के लिए आती हैं उनके सामने भी दो ही विकल्प हैं, या तो वे अपने शील को तिलांजलि दे दें या तकलीफ बर्दा श्त करें । आज से पहले मैंने कभी इतना अपमान नहीं झेला था और इतनी शर्म महसूस नहीं की थी। लेकिन अब इस आफत से जो सामना हुआ है, उसके लिए अधिकारियों को शुक्रिया कहना होगा। मैं प्लेग अस्पतालों और शिविरों की दयनीय हालत से अभिभावकों और साथी महिलाओं के मित्रों को परिचित कराने के लिए अपनी सूजी हुई आँखों से यह पत्र लिख रही हूँ। उनकी नौजवान स्त्रियाँ इन जगहों पर महफूज नहीं हैं। मेरी कुछ बच्चियों ने छोटे बच्चे की देखरे ख के लिए यहाँ आने की इच्छा जाहिर की थी, अच्छा हुआ कि मैंने उन्हें यहाँ नहीं आने दिया। जब तक मुझमें शक्ति है मैं किसी भी बच्ची को इस भयानक जगह नहीं आने दूँगी। जो स्त्रियाँ यहाँ रहने को अभिशप्त हैं, भगवान उनकी रक्षा करें । और नगर मैजिस्ट्रेट और उनके सहयोगियों के बेरहम अन्यायपूर्ण शासन से जो पाप हो रहा है उसे देखने के लिए भगवान उनकी आँखें खोलें। मुझे अपनी खोई हुई बच्ची (मृत बच्ची) का उतना ही दुख है, जितना एक माँ को होता है। मैं यह कामना करती हूँ कि अब यह सब और किसी के साथ नहीं होगा। सभी माँएँ अपनी बच्चियों की रक्षा करें भले इसमें खुद उनकी जान चली जाए।्र आपकी रमाबाई शासकीय प्लेग अस्पताल, 18 मई, 1897. 57


रमा शब्द

वसीयतनामा: मिशन के नाम रमाबाई ने अपनी मृत्यु के महीने भर पहले ही अपनी वसीयत तैयार कर ली थी। रमाबाई के बाकी लेखन की तरह ही इसमें कहीं भी भावनाओं का अतिरे क नहीं दिखता है। इस दस्तावेज़ की मूल कॉपी में वाक्य काफी लंबेलंबे हैं। एक वाक्य तो लगभग एक पन्ने का है। कथ्य स्पष्ट है और केवल काम से जुड़ी बात का उल्लेख है। कहें तो कामकाजी-सा, बड़ा शुष्क-सा जान पड़ता है। इसमें संपत्ति या किसी भी प्रकार के रिश्ते को लेकर न कोई लगाव दिखता है न मोह। निजी बातों से पूरी तरह अछूता है। बेटी मनोरमा का नामोल्लेख नहीं है जिसकी चंद महीने पहले ही मृत्यु हुई थी। अपनी आसन्न मृत्यु को लेकर आशंका या किसी तरह के कष्ट की चर्चा भी नहीं है। फिर भी इतना तय है कि रमाबाई को अंदाजा था कि उनके जाने की वेला निकट आ गई है, वरना उनको वसीयतनामा लिखने की ज़रूरत ही नहीं

महसूस होती। वास्तव में यह उनकी दूरदर्शिता और सांगठनिक कौशल का ही परिचायक है। संगठन को व्यक्ति, उसमें भी संस्थापक व्यक्ति की अनुपस्थिति में कैसे चलाना है, यह उनके दिमाग में था। ध्यान दे ने की बात है कि संस्थापिका होने के नाते शारदा सदन या मुक्ति सदन में अपनी महत्ता स्थापित करने का वे प्रयास नहीं करती हैं। इस वसीयत और मेरी फुलर के संस्मरण का मूल अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद शुभेन्द्र त्यागी ने किया है। मैं, पंडिता रमाबाई डोंगरे मेधावी निम्नलिखित दिनांक को इसे अपनी अंतिम वसीयत घोषित करती हूँ। ईश्वर की प्रेरणा से मुक्ति मिशन और शारदा सदन जैसी संस्थाओं को मैंने खोला और गुलबर्ग और दूसरी जगहों पर काम किया। ये काम (पूना जिले के) केडगाँव और उसके 58


आसपास के गाँवों तथा (निज़ाम के शासनाधीन) गुलबर्ग में अंजाम दिए गए हैं। इन कामों में एक हाईस्कू ल, प्राथमिक शालाएँ, छापाखाना और दूसरे अन्य उद्यमों तथा उद्धार गृह हैं। केडगाँव और आसपास के गाँवों में धर्मप्रचार का काम है, वहीं गुलबर्ग में एक स्कू ल, धर्मप्रचार का काम और दूसरे उद्यम रहे हैं। ईश्वर की प्रेरणा से दुनिया भर के उसके अनुयायी इन कामों में सहायता करने और इनको चलाते रहने में लगे रहे हैं। जो अनुदान और उपहार मिलते रहे हैं उनसे भी इन कामों को मदद मिली है और वे चलते रहे हैं। पूरी दुनिया में प्रभु के अनुयायियों द्वारा की जाने वाली प्रार्थ नाओं का भी इन कामों को संचालित करने में योगदान रहा है। शारदा सदन के संचालकों से लेकर न्यास मंडल (ट्रस्ट) के सदस्यों को मुक्ति मिशन निधि से अपने को अलग कर लेना चाहिए। यदि किसी कारणवश न्यास मंडल के सदस्य इन परिसंपत्तियों

को क्रिश्चियन एं ड एलायंस मिशन को स्थानांतरित करना आवश्यक समझे, तो यह ज़िम्मेदारी मुक्ति मिशन और क्रिश्चियन एं ड एलायंस मिशन की है कि वे इस खर्च को या तो मुक्ति मिशन निधि या क्रिश्चियन एं ड एलायंस मिशन की निधि से चुकता करें । इस काम के लिए मैं Rev. W moyser, अकोला, एस. एन. अठावले, (bar at law), शोलापुर और P. Bunter, पूना को अपना कार्य कारी नियुक्त करती हूँ। मैं यह भी घोषणा करती हूँ कि यहाँ जिन परिसंपत्तियों का उल्लेख हुआ है, उनपर मेरा स्वामित्व रहा है। 7 मार्च 1922 को वसीयतकर्ता की मौजूदगी में हस्ताक्षरित। हस्ताक्षर - रमाबाई डोंगरे मेधावी हस्ताक्षर /- W.W. Breere हस्ताक्षर /- Bowen Breere ृ ष्णाबाई गदरे हस्ताक्षर /- क

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और अंत में... धीर-धीरजयुक्त सक्रिय जीवन का उदाहरण दे खना हो तो रमाबाई को दे खना चाहिए। अपनी मृत्यु के चंद घंटों पहले ही उन्होंने मूल हिब्रू से बाइबल के मराठी अनुवाद को अंतिम रूप दिया था। अनुवाद की भाषा को लेकर वे बहुत सतर्क थीं। उसकी संशोधित प्रति अब तैयार थी छपने को। वे निश्चिंत हुईं। आखिर हाथ में उठाया काम पूरा हुआ। कुछ महीनों पहले उनकी इकलौती प्यारी बेटी मनोरमा दनिय ु ा से विदा ले चुकी थी। उसके पास जाने की मानसिक तैयारी वे कर ही रही थीं। उनके दे हांत के बारे में मेरी लूसिया बियर्स फुलर ने विस्तार से लिखा है उनका निधन 5 अप्रैल, 1922 को श्वास रोग (सेप्टिक ब्रॉनकाइटिस) से हुआ। अपने जीवन की अंतिम घड़ी तक वे सचेत रहीं, ईश्वर और ईश वंदना करती रहीं। मृत्यु से ठीक एक दिन पहले ही तो उन्होंने अपने घर को व्यवस्थित ढं ग से सजाया था। मृत्यु से एक दिन पहले बच्चों की प्रक ृ ति, उनके व्यवहार के बारें में एक पत्र लिखा था। भोर होते ही वे खामोशी से चिरनिद्रा में लीन हो गईं; और प्रभात की वह आभा उनके मुख पर शेष थी, ऐसा

लगता था मानो शांति का एक आभामंडल उनके चारों ओर हो। जैसे जैसे वक्त गुजरता गया उनका चेहरा और अधिक ताज़ा व प्यारा दिखाई पड़ता जा रहा था। जिस चर्च का निर्मा ण उन्होंने किया था, वहीं उनको रखा गया। उनके चारों ओर मुक्ति सदन की सैकड़ों लड़कियाँ उन्हें घेरे पूरे दिन और पूरी रात बैठी रहीं। वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकती। उनके अंतिम दर्श न करने वालों का जो दिन भर ताँता लगा रहा। वैसा दृश्य मैंने जीवन में पहले नहीं देखा था। क्या ब्राह्मण, क्या अछूत सब उन्हें श्रद्धांजलि देने आए और आकर चरणों मे नतमस्तक हो गए। यह प्रतीक रूप था। अगली सुबह शोक गीत, प्रार्थ ना और प्रवचनों के बाद मुक्तिसदन की लड़कियों ने उन्हें अपने मज़बूत कंधों पर उठाया, जो उस भार उठाने के सम्मान से समादृत थे। ये लड़कियाँ उनकी मृत्यु के एक दिन पहले शाम से ही उपवास में थीं। वे रमाबाई को लेकर कब्र की ओर बढ़ीं जो उस बड़े से कुएँ के पास बनाई गई थी और जिसका नाम रमाबाई ने खुद रखा था धीर - धीरजयुक्त। यह भी प्रतीक रूप था। 60


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मानपत्र रमाबाई- पूरा नाम पंडिता रमाबाई सरस्वती! पंडिता और सरस्वती उपाधि है जिनसे उन्हें कलकत्ते में विभूषित किया गया था। बंगाल में ही एक सभा में उनको एक और मानपत्र भेंट किया गया था। कलकत्ते में बाबू आनंदमोहन बोस के घर पर एक बार बैठक थी। उसमें लगभग बीस भद्र महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया। यह भारत में केवल स्त्रियों की पहली सार्व जनिक सभा थी। उस सभा में राधारानी लाहिड़ी ने बांग्ला में रमाबाई का स्वागत किया। वहाँ उनको एक कृ त में अनुवाद करके रमाबाई को मानपत्र भेंट किया गया जो बांग्ला भाषा में ही था। उसका संस् सुनाया गया हे आर्य महिला, आप भारतवर्ष की स्त्रियों का भूषण हैं। आपकी बुद्धि, विद्वत्ता एवं कवित्वशक्ति का जो गौरव रहा है, उसके लिए हम अपने को गौरवान्वित पा रहे हैं ... ऊ ँ ची शिक्षा पाने से स्त्रियाँ कितनी उन्नत एवं अलंक ृ त होती हैं, इस बात की आप प्रत्यक्ष आदर्श हैं। आज तक हमें विद्वान् स्त्रियों के उदाहरणों के लिए विदेशी स्त्रियों के नाम लेने पड़ते थे, लेकिन आपको जान लेने के बाद अब ऐसा नहीं है। प्राचीन हिं दुओं के रीति-रिवाज का पालन करने से हमारे देश की स्त्रियों का कितना लाभ हो सकता है, इसको आपके उदाहरण से प्रत्यक्ष समझा जा सकता है। ...इतनी विशाल बुद्धि और विद्वत्ता होते हुए भी आपमें यत्किंचित् अभिमान नहीं। आप विनय, सरलभाव और सात्विकता की साक्षात् प्रतिमा हैं ...इस देश की किसी स्त्री का सम्मान इस प्रकार खुली सभा में कभी नहीं हुआ। परं तु आपके आगमन से इस प्रथा का आरं भ हुआ है। हमें आशा है कि आपके सद्ण गु और स्वतंत्रता को देखकर स्वदेश की स्त्रियों का उचित सम्मान करने की प्रेरणा देशबांधवों को मिलेगी। यह मानपत्र ब्रह्मो समाज की पत्रिका में छपा भी था। 61


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दयानंद सरस्वती से संपर्क दयानंद सरस्वती (1824-1883) ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। वेदों के अपौरुषेयत्व और प्रामाणिकता पर उनका यकीन था। वे हिं दू धर्म की वैदिक शुद्धता बहाल करके उसे विक ृ तियों से मुक्त कराना चाहते थे। ताकि औपनिवेशिक ईसाईकरण की शक्तियों के हमले से देश की रक्षा की जा सके। मनु के विपरीत उन्होंने वैदिक परं परा की जो व्याख्या की, उसमें हिं दू समाज के सर्वा धिक दबे कुचले लोगों-स्त्रियों और शूद्रों सहित सभी व्यक्तियों के इस अधिकार को मान्यता दी कि वे ईश्वर के साथ सीधे जुड़ सकते हैं। इसी आधार पर दयानंद ने स्त्री शिक्षा की हिमायत की। यदि पत्नी अशिक्षित है तो वह अपने पति के साथ सामाजिक व धार्मिक दायित्वों में बराबर की हिस्सेदार के रूप में शामिल नहीं हो सकती जिस प्रकार वैदिक युग की स्त्रियाँ होती थीं। स्त्री शिक्षा के पक्ष में दिए गए अन्य तर्कों में एक यह था: ‘यदि पति सुशिक्षित और पत्नी अशिक्षित या पत्नी शिक्षित और पति अशिक्षित हो तो घर में सदा युद्ध की दशा बनी रहेगी।’ 1878 ई. में मेरठ आर्य समाज की स्थापना हुई। वहाँ यह एक कन्या पाठशाला भी चला रहा था। उसके लिए एक सुयोग्य अध्यापिका की आवश्यकता थी। इसी बीच आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती को रमाबाई के बारे में पता चला। रमाबाई उस समय बंगाल में थीं। दयानंद ने उनसे विधिवत् पत्र व्यवहार किया। दयानंद और रमाबाई का यह पत्र व्यवहार संस्कृत में हुआ था। दयानंद ने 22 जून, 1880 को मेरठ से पहला पत्र भेजा था। रमाबाई के संस्कृत अध्ययन तथा धाराप्रवाह भाषण देने की कीर्ति उन्होंने सुन रखी थी। पत्र में उन्होंने रमाबाई से पूछा कि अब उनका क्या करने का विचार है। जैसा कि लोग कह रहे हैं वे अभी ब्रह्मचारिणी हैं या वे स्वयंवर विधि से अपने जैसे गुण व कर्म-वाले पुरुष से विवाह करना चाहती हैं, इसमें तथ्य क्या है? जिस प्रकार आर्यवर्त्त की विदुषी गार्गी आदि ने ब्रह्मचर्य में स्थित होकर स्त्रीजनों को जितना सुखलाभ प्राप्त कराया है, उतना सुख आप 62


विवाह करने पर अनेक प्रतिबंधों के कारण नहीं प्राप्त करा सकेंगी। यह सही है कि अपने योग्य वर से विवाह करके अनेक स्त्रियाँ संतानोत्पत्ति और लालन-पालन के साथ गृहस्थ धर्म में लग जाती हैं। क्या यही आपकी इच्छा है अथवा लड़कियों और स्त्रियों के अध्यापन कार्य में लगना चाहती हैं - यह दयानंद जानना चाहते थे। रमाबाई बंगाल छोड़ करके और कहीं की यात्रा क्यों नहीं करतीं, इसका कारण उन्होंने पूछा। एक जगह रहने से वे लोगों को उतना लाभ नहीं पहुँचा सकतीं जितना कि विभिन्न स्थानों की यात्रा करके पहुँचाया जा सकता है। दयानंद ने प्रस्तावित किया कि यदि वे मेरठ आना चाहें, तो उनकी यात्रा में होनेवाले खर्च की व्यवस्था की जा सकती है। यदि वे अपनी इच्छा प्रकट करें तो यात्रा के पहले पत्र द्वारा समय बता दें जिससे यहाँ उनके ठहरने आदि का प्रबंध किया जा सके। यदि वे उपदेश देने के लिए पूरे आर्यावर्त्त में यात्रा करना चाहें तो उनकी इस यात्रा के लिए यहाँ धन देनवा े लों की कोई कमी नहीं है। दयानंद ने अपना आग्रह दोहराते हुए कहा कि जवाबी पत्र जल्दी से जल्दी भेजें या खुद आने की सूचना दें। 8 जुलाई, 1880 को दयानंद के पत्र का रमाबाई ने प्रेमपूर्ण उत्तर दिया। उन्होंने स्वामी दयानंद जैसे महापुरुष का पत्र पाने को अपना सौभाग्य माना और अपने बारे में उनके विचार पर अपनी क ृ तज्ञता प्रकट की। गार्गी से तुलना किए जाने पर उन्होंने कहा कि आजन्म ब्रह्मचारिणी और ब्रह्मवादिनी रहनेवाली गार्गी आदि सनातन भारतवर्ष की भूषण और स्त्रीरत्न हैं। जिस प्रकार अपनी स्त्री, जाति और देश की उन्नति वे साधती थीं, उस प्रकार उनके महान् कार्य का नाम लेना भी मेरी जैसी अबोध बुद्धिवाली बालिका मात्र को शोभा नहीं देता। रमाबाई ने दयानंद को हाल-फिलहाल में हुई अपने बड़े भाई श्रीनिवास की मृत्यु की सूचना भी दी, जिनके साथ ही वे कलकत्ता आईं थीं। उन्होंने कहा कि वे जल्दी ही बंगाल से उधर आएँगी।

21 जुलाई, 1880 को उसके जवाब में दयानंद ने दूसरे पत्र में अपना हर्ष प्रकट किया। उनको कुछ और कष्ट देने के लिए क्षमा प्रार्थ ना करते हुए उन्होंने उनके जन्म स्थान, आयु, शिक्षा, अध्ययन किए गए ग्रंथों के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। क्या वे संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा दूसरे देश की भाषा भी जानती हैं? क्या घर में माता-पिता, छोटे व बड़े भाई-बहन हैं? जिस भाई की मृत्यु की खबर मिली थी वह उनसे छोटे थे या बड़े, अभी उनका कोई स्वजातीय स्त्री-पुरुष उनके पास है या वे अकेली हैं? यह दयानंद ने जानना चाहा और कामना की कि जो भी हो वे शोक न करें । पुनः मेरठ आने के मार्ग व्यय के मद में धन चाहिए या नहीं यह जल्दी बताने के लिए लिखा ताकि जल्दी से उन्हें पैसा भेजा जा सके। पहले से 63


परिचय नहीं होने के कारण खर्च के बारे में लिखने में संकोच नहीं करना चाहिए। उसके बाद दयानंद ने रमाबाई को सूचित किया कि वे अगले पच्चीस दिनों तक वहीं है और यह अच्छा होगा कि इसी अंतराल में वे वहाँ आएँ ताकि उनसे मुलाकात हो सके। इसका उत्तर देते हुए 1 अगस्त, 1880 के पत्र में रमाबाई ने अपने जन्म स्थान और शिक्षा-दीक्षा के बारे में दयानंद की जिज्ञासा को दूर किया। उनके शब्दों में “मेरे अध्ययन की सीमा तो साधारणतः क च ट त प आदि वर्ण तक ही अनुमान कर लें। इससे अन्य कुछ भी कहने का उत्साह नहीं होता।“यह भी बताया कि वे उनके दर्श न के लिए चार-पाँच दिनों में ही मेरठ आएँगी। कहते हैं कि वे मेरठ आईं और साथ में कोई बंगाली पुरुष भी था और एक स्त्री भी। उस समय दयानंद मेरठ में निवास कर रहे थे। रमाबाई को मेरठ छावनी के बाबू छे दीलाल (सेना के रसद विभाग के गुमाश्ता) के बंगले पर ठहराया गया। उस बंगले में थियोसॉफिकल सोसायटी के सह-संस्थापक कर्न ल हेनरी स्टील ऑलकॉट और मैडम हेलन े ा पेत्रोव्ना ब्लावत्स्की भी अतिथि के रूप में ठहरे हुए थे। वेदों की प्रामाणिकता और दार्श निक बिन्दुओं पर दयानंद से उन दोनों का संवाद होता था। एक दुभाषिए के माध्यम से रमाबाई ने भी मैडम ब्लावत्स्की से बातचीत की थी। मैडम ब्लावत्स्की को किसी ‘निजी ईश्वर’ (पर्स नल गॉड) पर यकीन नहीं था। उन्हें पारलौकिक शक्तियों में विश्वास था। रमाबाई से मुलाकात के वक्त उन्होंने तीन रत्नोंवाली एक अँगूठी पहन रखी थी। इसके बारे में उनका खयाल था कि वे रत्न दुनिया को जो चलाने वाली शक्ति है, उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। मेरठ प्रवास के दौरान रमाबाई ने वहाँ चार-पाँच व्याख्यान दिए। एक व्याख्यान बाबू छे दीलाल के बंगले पर ही हुआ। बाकी व्याख्यान मेरठ आर्य समाज में हुए। कुछ दिनों तक शाम में दयानंद के साथ वे वैशषि े क दर्श न पढ़ती थीं। संन्यासाश्रम

की प्रचलित मर्या दा के अनुसार वे किसी स्त्री को अपने पास नहीं आने देते थे। तथापि रमाबाई की ज्ञान के प्रति रुचि और भारतीय स्त्रियों के उत्थान में उनके योगदान की संभावना उन्हें दिख रही थी। इसी वजह से उन्होंने रमाबाई को पढ़ाना स्वीकार किया था। इस दार्श निक चर्चा के समय कुछे क आर्य समाजी मित्र उपस्थित रहते थे। जब रमाबाई के ब्रह्मचारिणी रहकर स्त्री शिक्षा के प्रचार-प्रसार में संलग्न होने का दयानंद का सपना पूरा होता नजर न आया तो वे निराश हो गए। यह भी कहा जाता है कि रमाबाई के पीछे -पीछे बाबू बिपिन बिहारी दास मेधावी मेरठ आए और छे दीलाल के उसी बंगले में ठहरे थे। संभवतः इसको लेकर आर्य समाज के भीतर थोड़ी चर्चा हुई थी। बाबू दुर्गा प्रसाद को संबोधित अपने 8 सितंबर, 1880 के पत्र में दयानंद ने इस प्रकार लिखा “हम यहां छह आठ दिन रहेंग।े और करनेल ओलकाट साहिब और मेडम भी कल यहां से चले गये। रमा भी कल यहां से जावेगी। ... रमाबाई अपने घर को जाने कहती है। यहां समाज से 125 रुपैये और एक थान मलमल का देकर सत्कार किया। कल यहां से दिल्ली और दिल्ली से इलाहाबाद, वहां से घर जायगी। अभी किसी समाज में नहीं जाने कहती है। शायद वहां से आवे तो जाय। इस के भाई के मरने से इसकी कुछ कुचाली हो गई है, ऐसा लोग संशय करते हैं। चित्त भी चंचल है। शरीर पतला निर्ब ल और रोगी है, गुस्सा भी बहुत है। इसकी कुचाली में जो लोग शंका करते हैं वह लिखने योग्य नहीं है। हमने इस को वैशषि े क और न्याय दर्श न के कुछ सूत्र पढ़ाये हैं। समझाई भी बहुत है। आशा है कि कुचाली को छोड़ कर उपदेश मार्ग में प्रवृत्त हो जावेगी। इस के साथ में बंगाली लोग हैं। वे ही इस की कुमति का कारण हैं, कहती है कि मैं देश में जाकर वहां से अपने किसी कुटु म्बी एक पुरुष और एक औरत रोटी करने वाली साथ में लेकर आऊंगी। इसकी बुद्धि बहुत अच्छी और सुबोध है। 64


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दयानंद के क ृ पापूर्ण एवं पिता के समान स्नेहशील व्यवहार और प्रभावशाली भाषण का उन पर गहरा असर पड़ा था। उन्होंने लिखा, “वे कभी हिं दी और कभी संस्कृत में बातें किया करते थे, परं तु संस्कृत उनकी प्यारी भाषा थी। हिं दुओं के छहों दर्श नों में से वे वैशषि े क दर्श न को सबसे अधिक पसंद करते थे। उनकी शिक्षा अद्वैत वेदांत से भिन्न थी और उस समय मैं केवल एक इसी बात में उनसे सहमत थी। उन्होंने मुझसे यह कहा था कि मैं चाहता हूँ कि तुम आर्य समाज में सम्मिलित हो जाओ, मैं तुम्हें शिक्षा दूँगा और तुम्हें आर्य समाज के सिद्धांतों के प्रचार के लिए तैयार करूँ गा। मैं धार्मिक विषयों में अव्यवस्थित थी, अतः मैंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।” उसी पत्र में रमाबाई ने लिखा था कि दयानंद औरतों को धार्मिक शिक्षा देने के पक्षधर थे। वे मानते थे कि स्त्रियाँ वेद पढ़ सकती हैं जिसकी हिं दू धर्म आज्ञा नहीं देता था। इस कारण से कि हिं दू धर्म स्त्रियों और शूद्रों से द्वेष करता था, मेरी आत्मा उसकी विद्रोही बन गई थी। जहाँ तक उनकी शिक्षा का स्त्रियों को वेद, दर्श न और धर्मशास्त्रों के पढ़ने का अधिकार देने से संबंध था, वहाँ तक मैं उससे प्रसन्न थी। इस पूरे पत्राचार से झलकता है कि दयानंद आर्य समाज द्वारा चलाई गई शिक्षा की मुहिम में रमाबाई की विद्वत्ता का योगदान चाहते थे। मुमकिन है कि आगे चलकर पूना में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने के उद्देश्य से रमाबाई ने जो ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की, उसके नामकरण के पीछे कहीं न कहीं आर्य समाज का प्रभाव रहा होगा। दिलचस्प है कि दयानंद और रमाबाई के संपर्क को उस काल में कुछ विशेष निगाह से भी देखा गया। आर्य समाज के भीतर इस पर दबी-ढँकी चर्चा चली। ऋषिवर दयानंद के शिष्यों ने उनके आचरण पर आक्षेप करनेवाले को नरकगामी और विक्षिप्त बतलाया है।

रमाबाई ने लिखा था कि दयानंद औरतों को धार्मि क शिक्षा देने के पक्षधर थे। वे मानते थे कि स्त्रियाँ वेद पढ़ सकती हैं जिसकी हिं दू धर्म आज्ञा नहीं देता था। इस कारण से कि हिं दू धर्म स्त्रियों और शूद्रों से द्वेष करता था, मेरी आत्मा उसकी विद्रोही बन गई थी। जहाँ तक उनकी शिक्षा का स्त्रियों को वेद, दर्शन और धर्मशास्त्रों के पढ़ने का अधिकार देने से संबंध था, वहाँ तक मैं उससे प्रसन्न थी। काव्यालंकार, कुछ व्याकरण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत इतना पढ़ी है। संस्कृत बहुत अच्छा बोलती है। व्याख्यान बहुत अच्छा देती है। परसों रविवार को गोपालराव हरि ने इसके बुलाने के लिए चिट्ठी भेजी थी। सो यह कहती है कि अभी तो हम देश को जायंग।े फिर वहां से [आ]वेंगे तब देखी जायगी। ज्यादा क्या लिखना। और तो सब प्रकार से अच्छी है परं तु जैसे चन्द्रमा में ग्रहण लग जाय, ऐसो हाल है। रमा के इस हाल को प्रसिद्ध हर जगह न होना चाहिये। उन के भाई का शोक तो निवृत्त हो गया है।” मेरठ के विदाई समारोह में दयानंद ने रमाबाई को अपनी क ृ ति ‘सत्यार्थ प्रकाश’, ‘संस्कारविधि’ आदि की प्रतियाँ भेट कीं। आभार ज्ञापन करते हुए रमाबाई ने दयानंद के काम की प्रशंसा करते हुए बृहस्पति (देवताओं के गुरु और परम ज्ञानी) से उनकी तुलना की। 1903 के नवंबर महीने में बाबू देवद्र ें नाथ मुखोपाध्याय के पत्र का जवाब देते हुए रमाबाई ने अपने मेरठ प्रवास का थोड़ा ब्यौरा दिया था। वे तीन हफ्ते से अधिक मेरठ में ठहरी थीं। 66


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रमाबाई रानडे का संस्मरण उन्नीसवीं सदी में भारतीय नवजागरण के दो मुख्य केंद्र थे - बंगाल और महाराष्ट्र। रमाबाई 1878 के मध्य से 1882 के मध्य तक बंगाल-आसाम में रह रही थी। ब्रह्मो समाज के खुलेपन से वे आकर्षित हुईं और वहाँ के सुधारकों तथा अन्य प्रगतिशील लोगों के साथ सभा-गोष्ठी में शामिल कृ त की प्रकांड विदष होने लगीं। उस दौरान संस् ु ी रमाबाई ने हिंदू धर्म शास्त्रों का व्यवस्थित अध्ययन किया और अपने सार्व जनिक भाषणों में कर्मकांडों की आलोचना करने के साथ वे स्त्रियों के उत्थान को लेकर अपने विचार प्रकट करने लगी थीं। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। पूना के प्रार्थ ना समाज के सुधारकों ने रमाबाई को काम करने के लिए अपने शहर में आमंत्रित किया। तत्काल रमाबाई की महाराष्ट्र आने की कोई योजना न थी, मगर अचानक पति की मृत्यु हो जाने ने उनको पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया। पूना में न्यायमूर्त्ति महादे व गोविंद रानडे और उनकी पत्नी रमाबाई रानडे प्रार्थ ना समाज में सक्रिय थे। पूना आने पर रमाबाई की दोस्ती दोनों से हो गई। रमाबाई रानडे ने अपने पति के संस्मरण “उनके जीवन“ नामक अपनी किताब में लिखे हैं। उसका एक अनूदित अंश प्रस्तुत है जिसमें पंडित रमाबाई से उनके संपर्क का ज़िक्र है। मेरी ससुराल के पुरुष इस बात को समझते थे कि औरतों को लिखना-पढ़ना चाहिए। मामनजी ने वन्सा और सासुबाई को खुद पढ़ना-लिखना और खाते सँभालना सिखाया था। दोनों महिलाएँ अपनी इस उपलब्धि पर गर्व करती थीं। वे अपने अनुभवों से जानती थीं कि मर्दों को क्या अच्छा लगता है। इसके बावजूद वे पढ़ाई-लिखाई की दिशा में मेरी कोशिशों को पसंद नहीं करती थीं। बल्कि वे इन कोशिशों में अपना अपमान देखती थीं। ऐसा लगता था कि वे भी मेरी ददिया सास जितनी ही रूढ़िवादी और 67


लोग कहते थे कि वह संस्कृत की ज्ञाता है, बहुत बुद्धिमान है और उसे भागवत पूरा कंठस्थ है। लोगों का तो यह भी कहना था कि वह काशी के बड़े-बड़े पंडितों को शास्त्रार्थ में हराकर आई है और अब पूना में रहने की योजना बना रही है। जब मैंने यह सुना तो बड़ी खुशी मिली। मैं उससे मिलने और यह देखने के लिए बेताब थी कि वह कैसी औरत है। अगले दिन शनिवार था। मैं अपनी सामान्य बैठक के लिए गई थी। वहाँ भी महिलाएँ पंडिता के बारे में ही बातें कर रही थीं। वे सब भी उसे देखने को उत्सुक थीं। हमने उसके बारे में अपने बीच तरह-तरह के सवालों पर चर्चा की। वह कैसी होगी, कहाँ रहेगी, हमसे मिलेगी या नहीं...

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अनपढ़ थीं! घर में तकरीबन आठ-दस औरतें थीं। कोई पास के तो कोई दूर के रिश्ते की। एक भी मेरी उम्र की नहीं थीं। उन सबकी आपस में खूब घुटती थी। हर रोज रात को जब मैं ऊपर अपने कमरे में जाती तो मुझे बोल-बोल कर पढ़ना पड़ता था। मैं जो किताबें पढ़ती थी उनमें से कुछ मेरे पति को दक्षिणा प्राइज कमेटी से मिली थीं। कुछ दूसरी मराठी पुस्तकें थीं। गद्य की किताबों से मुझे परे शानी नहीं होती थी। मैं आसानी से उन्हें पढ़ जाती थी। लेकिन अगर कविता की किताब होती तो बड़ी दिक्कत हो जाती थी क्योंकि मुझे उनके पदों को छं द के हिसाब से और परं परागत धुन के हिसाब से सुनाना पड़ता था। चाहे गीत हो या श्लोक, सबको कायदे से पढ़ना पड़ता था। अगर मैं ऐसा न करती और उसे गद्य की तरह धीरे -धीरे पढ़ने लगती तो मेरे पति खिन्न हो जाते। अगर मैं सस्वर सुनाती थी तो घर की औरतों में से कोई न कोई दरवाजे या सीढ़ियों के पास चोरी से सुनती रहती थी। अगले दिन उन्हीं पंक्तियों को पैरोड़ी बनाकर सारी बूढ़ी औरतों के सामने चटखारे लेलेकर गाया जाता था। वे मुझे शर्मिंदा करने और चिढ़ाने की कोशिश करती थीं। लेकिन चाहे कोई कुछ कहे, मैं परवाह नहीं करती थी। मैं सही-गलत सब कुछ सुनकर चुपचाप दिल में रख लेती थी। कभी-कभी ये औरतें बहुत हमदर्दी और दुनियादारी की बातें करने लगतीं। वे मेरे पास आकर कहतीं, ”तुम इन बूढ़ी औरतों की नाराजगी सिर्फ इसलिए झेल रही हो क्योंकि तुम पढ़ने-लिखने लगी हो। बहुत बुरी बात है! पर क्या करें ? लेकिन देखो, अगर मर्दों को यही अच्छा लगता है तो भी तुम्हें बस कभी-कभार ही पढ़ना चाहिए। क्या इस तरह से पढ़ना बड़े बुजुर्गों का अपमान नहीं है? मर्दों को क्या पता? हमें अपना पूरा जीवन घर की औरतों में ही बिताना है। मर्द तो थोड़ी देर के लिए आते हैं। वे तुम्हें एक बार, दो बार, दस बार पढ़ने के लिए कहेंग।े तुम मत सुनो उनकी। आखिरकार वे थक कर छोड़ देंग।े क्या हम इतनी सी कोशिश भी नहीं

कर सकते?“ इसी तरह की न जाने कितनी बातें होती थीं। ये औरतें मुझे सलाह देने का कोई मौका नहीं चूकती थीं। मुझे मालूम था कि इस तरह की सलाहों में घर की बुजुर्ग औरतों की शह शामिल रहती थी। इसीलिए मैं भी कभी पलट कर जवाब नहीं देती थी। मैं बस वही करती थी जो मुझे सही लगता था। इसी समय खबर आई कि रमाबाई नाम की कोई कोंकणस्थ महिला पूना आई है। लोग कहते थे कि वह संस्कृत की ज्ञाता है, बहुत बुद्धिमान है और उसे भागवत पूरा कंठस्थ है। लोगों का तो यह भी कहना था कि वह काशी के बड़े-बड़े पंडितों को शास्त्रार्थ में हराकर आई है और अब पूना में रहने की योजना बना रही है। जब मैंने यह सुना तो बड़ी खुशी मिली। मैं उससे मिलने और यह देखने के लिए बेताब थी कि वह कैसी औरत है। अगले दिन शनिवार था। मैं अपनी सामान्य बैठक के लिए गई थी। वहाँ भी महिलाएँ पंडिता के बारे में ही बातें कर रही थीं। वे सब भी उसे देखने को उत्सुक थीं। हमने उसके बारे में अपने बीच तरह-तरह के सवालों पर चर्चा की। वह कैसी होगी, कहाँ रहेगी, हमसे मिलेगी या नहीं, अगर आसपास रहे तो अच्छा रहेगा, आदि। तब मैंने तय किया कि इस बारे में और अच्छी तरह पता लगाया जाए। यह सोचकर मैंने श्री भिड़े और श्री मोदक से कहा कि वे पंडिता के बारे में सारी जानकारियाँ लाकर दें। उन्होंने कहा कि ”वह कोई अजनबी तो है नहीं। हमारी कोंकणस्थ औरतों जैसी ही है। हमीं ने उन्हें यहाँ आने का न्यौता दिया था। हम उन्हें इसी बिल्डिंग में रखनेवाले हैं। वे एक दुखी और निराश महिला हैं। आप लोगों को आकर उनसे मिलना चाहिए। जब हमें यह पता चला कि वह हमारे इतने नजदीक रहने वाली हैं तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। हम उनके आने का बेसब्री से इं तजार करने लगीं। चार-पाँच दिन दिन बाद वे आईं और अभ्यंकर वाडा में ठहरीं। उनके साथ एक साधारण सा बंगाली लड़का था जिसे वे अपने भाई की तरह मानती 69


थीं। साथ में उनकी 15 माह की बेटी मनोरमा थी। हम सारी औरतों ने उनसे जाकर भेंट की। इसी समय मेरे पति भी टू र से लौटकर पूना आ गए थे। तभी पंडिता रमाबाई ने अपने घर में अपना पहला भाषण दिया। इसके बाद यह तय किया गया कि हर हफ्ते किसी नए मकान में एक भाषण होना चाहिए। मैं और मेरे पति, दोनों ही इन भाषणों में नियमित रूप से जाने लगे। यह पहली चीज थी जिसकी वजह से हमारी घर की औरतें पंडिता रमाबाई से नफरत करने लगी थीं। उस समय सबसे सनसनीखेज चर्चा पंडिता रमाबाई के आने के बारे में थी। पंडिता रमाबाई के बारे में अपनी राय देने में कोई चूकती न थी। वे जो कुछ बोलती थीं उसमें कितना सच था और कितना झूठ, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं था। पंडिता के बारे में अफवाहों का बाजार गर्म रहता था। सब उनके बारे में बातें बनाते थे। क्योंकि मेरा और मेरे पति का उनके प्रति लगाव था, इसलिए घर की औरतों को हमारे ऊपर भी कीचड़ उछालने का बेहतरीन मौका मिल गया था। वे जो चाहतीं, कहतीं। पंडिता रमाबाई के प्रति उनकी घृणा दिनब-दिन बढ़ती जा रही थी। अगर वे हमसे मिलने आतीं तो औरतें मुझसे कहतीं, ”वह धर्म भ्रष्ट है। उसे छूने के बाद घर में कोई चीज मत छू देना। अगर तुम्हें उससे इतना ही लगाव है तो खूब उसे सीने से चिपकाए फिरो। लेकिन हम ऐसी बेशर्मी बर्दा श्त नहीं कर सकते। हे भगवान कैसी पापिन है! उसके बाप ने उसे धर्म-कर्म की शिक्षा देकर स्वर्ग के राजकुमार जैसे श्री द्वारकानाथ से ब्याहा था। और इस कुलटा को देखो कि उसने एक बंगाली बाबू से शादी रचाकर खुद को भ्रष्ट कर लिया। इसके बाद वह अपने लिए क्या एक घर भी बना पाई है? कोई भय नहीं है उसे! जो भी उसके पास आया, उसने सब को तबाह कर दिया। और अब पूरी दुनिया को भ्रष्ट करने निकल पड़ी है!“ मैं हर दूसरे दिन पंडिता बाई से मिलने जाने लगी। मेरे पति ने ही मुझे ऐसा करने के लिए कहा था।

उनके हाव-भाव में जबर्दस्त आकर्षण था और वे बहुत प्रवाह में बोलती थीं। उनकी व्याख्याएँ भी बेजोड़ होती थीं। वे अपने श्रोताओ ं का ध्यान आकर्षित करने और बाँधे रखने में माहिर थीं। इन सारे गुणों की वजह से वे शिक्षा चाहनेवालों के बीच गर्व और प्रशंसा का केंद्र बन गई थीं। शहर के सभी लोग उन्हें जानते थे। एक दिन पंडिता बाई ने अचानक यूँ ही कहा, ”अभी-अभी मैंने हॉवर्ड की किताब का दूसरा खंड पढ़ना शुरू किया है। लेकिन जबसे मैं यहाँ आई हूँ, पढ़ाई जारी नहीं रख पा रही हूँ।“ मैंने कहा, ”मैं भी सीखने की कोशिश करती रहती हूँ। मेरे पति मुझे पढ़ाते थे, लेकिन अब वे काम से बाहर जाने लगे हैं। उन्होंने ज़नाना मिशन से एक यूरोपीय महिला को मुझे ट्यूशन देने के लिए रखवा दिया है ताकि उनके जाने के बाद भी मेरी पढ़ाई में बाधा न आए। वही मुझे पढ़ाने आती है। चाहें तो आप भी आकर मेरे साथ पढ़ सकती हैं।“ उन्हें यह तजवीज अच्छी लगी और एक-दो दिन बाद से वे भी मेरे साथ बैठकर पढ़ने लगीं। अब तो वे हर रोज आने लगी थीं। पंडिता बाई मुझसे खुलकर बात करतीं। मेरे प्रति उनका गहरा स्नेह था। यह बात किसी को गवारा नहीं थी। कुछ समय बाद पंडिता बाई ने आर्य महिला समाज के नाम से एक सभा का गठन किया। यह हमारी सभा का और उनका मिला-जुला प्रयास था। हमारी सभा में महज दर्ज न भर औरतें थीं। उसका न तो कोई नाम था और न ही उसकी कोई चर्चा करता था। नई संस्था पर बहुत सारे औरत-मर्द 70


काफी ध्यान देने लगे और हर शनिवार को बहुत सारे लोग वहाँ जमा होने लगे। ज्यादातर बैठकों में पंडिता बाई खुद ही विभिन्न विषयों पर भाषण देती थीं। उनके हाव-भाव में जबर्द स्त आकर्ष ण था और वे बहुत प्रवाह में बोलती थीं। उनकी व्याख्याएँ भी बेजोड़ होती थीं। वे अपने श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने और बाँधे रखने में माहिर थीं। इन सारे गुणों की वजह से वे शिक्षा चाहनेवालों के बीच गर्व और प्रशंसा का केंद्र बन गई थीं। शहर के सभी लोग उन्हें जानते थे। वे अपने परिवार की औरतों और लड़कियों को हर शनिवार की बैठकों में जाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। संस्था तेजी से आगे बढ़ने लगी। पंडिता बाई शहर में पुराणों पर वाद-विवाद करती रहीं। मैं हर चर्चा में जाने का प्रयास करती थी। अब मैं शनिवार की बैठकों में भी खुलआ े म जाने लगी थी। घर की औरतों और उनकी सहेलियों ने मान लिया था कि पंडिता रमाबाई ने यह संस्था इसीलिए बनाई है क्योंकि वह मर्दों के दबदबे को खत्म करना चाहती हैं। उनका विश्वास था कि पंडिता महिलाओं को पुरुषों की गुलामी से आजाद करवाने के लिए ही उकसा रही हैं। सासुबाई और वन्सा अकसर प्यार से मुझे सलाह देती थीं। वे मुझे अपने पास बिठा कर प्यार से कहतीं, ”तुम्हें इन बैठकों में वाकई नहीं जाना चाहिए। तुम्हें पंडिता बाई को नहीं छूना चाहिए चाहे वह हमारे घर ही क्यों न आती हों। अगर घर के मर्द चाहते हैं कि तुम इस तरह का आचरण करो तो तुम उनकी सुनती ही क्यांे हो। बल्कि तुम्हें ना कहने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन तुम्हें यह सब करना भी नहीं चाहिए। इसके बाद ऊब कर मर्द खुद ही चुप बैठ जाएँगे। तुम्हारे माँ-बाप रूढ़िवादी ओर इज्जतदार लोग हैं। तुम्हारे पिता और माँ कितने सौम्य लोग हैं। उनको देखना ही कितना अच्छा लगता है। ऐसे परिवार की औरतों से तो मराठी सीखने की भी आशा नहीं की जाती, अंग्ज रे ी तो दूर की बात है। लेकिन तुम, तुमने तो फिरं गी औरतों को भी मात कर दिया है।“

मैं अच्छी तरह जानती थी कि मेरे पति जो कुछ भी चाहते हैं उसको लागू करना जरूरी है; ऐसा नहीं किया गया तो वे नाराज हो जाएँगे। इसीलिए मैंने हमेशा वही किया जो वे चाहते थे। मेरे लिए तसल्ली और खुशी का एकमात्र स्रोत वही थे। मैं उनकी उपेक्षा नहीं कर सकती थी। मुझे मालूम था कि अगर मेरे प्रति मेरे पति का स्नेह बना रहता है तो बाकी परिवार मेरे साथ चाहे जो अन्याय करे , मैं उसे बर्दा श्त कर सकती हूँ। बारिश की ही फुहार लंबी गर्मियों के पूरे सूखे को खत्म कर सकती है। मेरे प्रति मेरे पति का व्यवहार ऐसा ही था। घर की बूढ़ी औरतें जो भी कहतीं, मैं सब कुछ चुपचाप सुन लेती थी। मैंने कभी जवाब नहीं दिया। लेकिन व्यवहार मेरा हमेशा पति की इच्छाओं के अनुसार रहा। यह उनका उसूल था कि वे कभी घरे लू मामलों के बारे में न तो कुछ पूछेंगे और न ही उनके बारे में चर्चा करें ग।े उन्होंने कभी घर के मुखियावाला रवैया नहीं अपनाया। कभी उन्होंने किसी को यह नहीं कहा कि उनकी पत्नी या परिवार के दूसरे लोगों को किस तरह का आचरण करना चाहिए और किस तरह का नहीं करना चाहिए। ... शनिवार की रात के बाद एक दो दिन तक औरतें मुझसे बात नहीं करती थीं। बिना नाम लिए ताने चलते थे। बृहस्पतिवार तब आते-आते वन्सा मुझे सब्जी काटने या छाछ निकालने या खाना परोसने के लिए बुलाने लगती। तब मुझे उतनी ही खुशी होती जितनी एक ऐसे जानवर को होती होगी जिसे दूर तक दौड़ाने के बाद वापस रे वड़ में शामिल कर लिया गया है। मैं काम हाथ में लेती और फुर्ती से जुट जाती। लेकिन कुछ दिनों बाद फिर शनिवार आ जाता और कहानी पुराने ढर्रे पर लौट आती। इसी तरह के उतार-चढ़ावों में एक साल गुजर गया। तब तक अंग्ज रे ी की मेरी पढ़ाई ठीक-ठाक चलने लगी थी। मैं मिस हरफर्ड के साथ बैठतेउठते अंग्ज रे ी के एक-दो वाक्य बोलने लगी थी। कुछ समय बाद मिस हरफर्ड के साथ मेरी शिक्षा समाप्त हो गई। 71


छवि-प्रतिच्छवि

रवींद्रनाथ टैगोर की टिप्पणी 1889 में पूना में पंडिता रमाबाई की एक सभा में रवींद्रनाथ टैगोर उपस्थित थे। उसका विवरण उन्होंने एक टिप्पणी में दिया है जो यहाँ प्रस्तुत है। इसका बांग्ला से हिन्दी अनुवाद नयना चौधरी ने किया है। यह सबसे पहले ‘भारती’ (‘भारती ओ बालक’) नामक पत्रिका में ‘रमाबाई के भाषण के उपलक्ष्य में पत्र’ शीर्षक से छपा था और अब रवींद्र रचनावली के 12 वें खंड में संकलित है। दोनों युवा हैं, शिक्षित हैं, शिक्षा उनका मिशन है, दे श-विदे श की यात्रा कर चुके हैं। उनके विचार प्रगतिशील हैं, लेकिन दृष्टिकोण में अंतर है। यहाँ रवींद्रनाथ के शुरुआती दिनों के विचार दे खकर हैरानी होती है। लेकिन उनकी विकास यात्रा के लिहाज से यह महत्त्वपूर्ण है, ठीक वैसे ही जैसे हम रमाबाई की वैचारिक यात्रा को दे खते हैं। यह भी ध्यान जाता है कि रमाबाई के स्त्री संबंधी विचारों ने कैसे सभी दिग्गजों को उद्वे लित किया और कहीं न कहीं उस पूरे दौर को समृद्ध किया। 72


कल शाम प्रख्यात विदुषी रमाबाई के भाषण का आयोजन था, मैं सुनने गया था। बहुत सारी महाराष्ट्र की ललनाओं के बीच गौरवर्ण , निरलंकार, श्वेताम्बरी, क्षीण-तनु, उज्ज्वलमूर्ति रमाबाई की तरफ दृष्टि अपने आप आकर्षित हुई। उन्होंने कहा, स्त्रियाँ हर बात में पुरुषों के समान हैं, सिर्फ मद्यपान को छोड़कर। तुम्हें क्या लगता है? अगर स्त्रियाँ हर बात में पुरुष के समान हैं, तो पुरुष के प्रति विधाता ने बहुत ही अन्याय, अविचार किया है बोलना पड़ेगा क्योंकि कुछ विषय में स्त्रियाँ पुरुषों से श्रेष्ठ हैं, इस विषय में कोई संदेह नहीं, जैसे रूप में और बहुत प्रकार की ह्रदय की अनुभूति में। अब उस पर अगर पुरुषों के सारे गुण उनमें समान मात्रा में हों तो मानवसमाज में हमको कैसे ही प्रतिष्ठा मिलेगी। सारे विषयों में ही प्रक ृ ति में एक law of compensation यानी क्षतिपूर्ति का नियम है। शारीरिक बल में जैसे हम श्रेष्ठ हैं, स्त्रियाँ वैसे ही रूप में श्रेष्ठ हैं; अंतःकरण संबंधी विषयों में श्रेष्ठ हैं, जैसे हम बुद्धि में श्रेष्ठ हैं, स्त्रियाँ वैसे ही ह्रदय में श्रेष्ठ हैं ; इसलिए स्त्री पुरुष दो जाति एक-दूसरे केअवलंबन बने रहते है। स्त्रियों की बुद्धि पुरुषों से तुलना में कम है बस इसलिए ऐसा कोई नहीं कहेगा कि स्त्रियों की पढाई रोक देनी चाहिए; वैसे ही कि जैसे स्नेह, दया इसमें पुरुषों की सहृदयता स्त्रियों से कम है तो कोई ऐसे नहीं बोलेगा कि उन्हें ह्रदय-चर्चा नहीं करनी चाहिए। यानी स्त्रीशिक्षा अति आवश्यक है, इसे साबित करते समय स्त्री की बुद्धि पुरुषों के बिल्कु ल समान है, यह बात जबरदस्ती उठाने की ज़रूरत नहीं। मुझे तो नहीं लगता कवि होने के लिए ज्यादा पढ़ालिखा होना आवश्यक है। लड़कियों को अब तक जो शिक्षा मिलती आई है वही काफी थी। Burns बहुत सुशिक्षित थे, ऐसा नहीं। कई बड़े कवि तुलनात्मक रूप से अशिक्षित और निम्नश्रेणी से भी आए हैं। स्त्रियों में पहले दर्ज़े के कवि प्रकट ही नहीं हुए। सोच कर देखो, एक लंबे अरसे से जितनी स्त्रियाँ संगीत सीख रही हैं, उतने पुरुष नहीं। यूरोप

में बहुत सारी लड़कियाँ सुबह से रात तक पियानो में टु ंग टु ंग या डो रे मि फा चिल्लाकर मर रही हैं, लेकिन उनमें से कितने मोज़ार्ट या बीथोवन हुए? जबकि मोज़ार्ट बचपन से ही संगीतकार थे। ऐसे तो बहुत दिखता है कि पिता का गुण बेटी को और माता का गुण बेटे को मिला, फिर क्यों ऐसी प्रतिभा किसी स्त्री को नहीं मिलती? असल बात यह है कि प्रतिभा एक ऊर्जा है, जिसमें बहुत बल की आवश्यकता है, जो शरीर का क्षय करती है। इसलिए औरतों में ग्रहणशक्ति है, धारणा-शक्ति है, लेकिन सृजनशक्ति का बल नहीं है। मस्तिष्क में सिर्फ एक बुद्धि का रहना काफी नहीं, इसी के साथ मस्तिष्क में बल भी चाहिए। स्त्रियों के पास एक तरह की झटपट काम आने वाली बुद्धि है, लेकिन आम तौर पर पुरुषों की तरह बलिष्ठ बुद्धि नहीं है। मेरा तो यही विश्वास है। तुम बोलोगे, अभी तक ऐसा चलता आया है, भविष्य में क्या होगा किसे पता है। उसके बारे में दो एक बातें हैं। असल में शिक्षा, जिसमें समस्त बुद्धिवृत्ति का विकास होता है, वो सिर्फ किताबें पढ़कर नहीं हो सकता - वो सिर्फ काम करने से होता है। बाह्य प्रक ृ ति में जाकर जब संग्राम करना पड़ता है, हज़ारों बाधाओं को जब पार करना पड़ता है, जब बुद्धि और बुद्धि में या बुद्धि और अचल-बाधा में टकराव होता है, तब हमारा सारी बुद्धि जाग उठती है। तब हमारी समस्त मनोवृत्ति की ज़रूरत पड़ती है अतः चर्चा भी होती है,और उस अविरल आघात में स्नेह, दया इत्यादि कुछ कोमल प्रवृत्तियाँ सहजतः कठिन हो जाती हैं। स्त्रियाँ लाख पढ़-लिख लें, कार्य क्षेत्र में कभी भी पुरुषों के साथ समान रूप से उतर नहीं पाएँगी। उसका एक कारण है दुर्ब ल शरीर। और एक कारण है अवस्था का भेद। जब तक मानवजाति रहेगी अथवा उसके रहने की संभावना रहेगी, तब तक औरतों को गर्भ धारण और संतान का पालन करना ही पड़ेगा। यह काम इतना मुश्किल है कि इसमें बहुत दिनों तक घर में बंद रहता पड़ता है, और जिन कामों में अनिवार्य 73


भारती में छपी रवींद्रनाथ टैगोर की मूल टिप्पणी 74


रूप से नितांत बल की ज़रूरत होती है, वह काम करना असंभव हो जाता है। चाहे जैसे भी देखो प्रक ृ ति कह रही है कि बाहर का काम औरतें नहीं कर पाएँगी। यदि प्रक ृ ति का ऐसा अभिप्राय न होता तो स्त्रियाँ और बलिष्ठ हो कर जनम लेतीं। अगर बोलो, पुरुषों के अत्याचार में स्त्रियों की यह दुर्ब ल दशा है, तो यह कोई बात ही नहीं हुई। क्योंकि अगर शुरुआत में ही स्त्री और पुरुष समान बल ले कर जनमते तो स्त्रियों के ऊपर पुरुषों का ज़ोर कैसे चलता? अगर ये बात सही है कि बाह्य प्रक ृ ति में जाकर और उसके साथ युद्ध करते करते ही हमारी बुद्धि का पूर्ण विकास होता है, तो फिर यह निश्चित कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ कभी भी पुरुषों के साथ (केवल कुछ परीक्षा पास करके) बुद्धि या मेधा में समकक्ष नहीं हो सकतीं। यूरोपीय और भारतीय सभ्यता का भेद कहाँ से हुआ है, उसका कारण अन्वेषण करने पर देखा जा सकता है कि हमारे देश के लोगों ने बाह्य प्रक ृ ति में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए उनके मेधा में, बुद्धि में दृढ़ता नहीं आई। उनके मन का पूर्ण विकास नहीं हुआ है। एक तरह की अधूरी सभ्यता बनी थी; यूरोप का आज इतना प्रभाव है क्योंकि काम करने से उसकी बुद्धि का विकास हुआ है; प्रक ृ ति के रणक्षेत्र में अविरल संग्राम करके उसकी मेधा दृढ़ हुई है। हमलोग अनादिकाल से बस बैठ कर चिंतन करते रहे हैं। तत्त्वज्ञानी [जीवतत्त्व को जाननेवाले लोग] कहते हैं कि जब से जंतु जगत में अँगूठे का आविर्भाव हुआ, तब से मानव सभ्यता का आरं भ हुआ। अँगूठे के आविर्भाव के बाद से ही समस्त चीज़ें छूकर, तोड़कर हिला-डु लाकर, जकड़ कर, भार नाप कर, अच्छे से परीक्षण करके देखने का मौका मिला। जिज्ञासा से परीक्षण की शुरुआत होती है, उसके बाद परीक्षा के साथ साथ बुद्धि उत्तेजित होती रहती है। इस परीक्षा में अँगूठा पुरुषों को काफी ज्यादा इस्तेमाल करना पड़ता है, स्त्रियों को उतना नहीं करना पड़ता। अतः - अगर इस पर भी

विचार करते हैं कि एक ऐसा समय आएगा जब स्त्री पुरुष दोनों ही आत्मरक्षा, उपार्ज न में समान रूप में भिड़ेंग,े तब परिवारसेवा के चलते स्त्रियों को ज्यादातर समय घर में बंदी रहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। बाहर निकलकर वे विपुल विचित्र संसार के साथ उनकी आँख से आँख, उनके हाथ से हाथ, चेहरे से चेहरा मिलेगा, इस संबंध में मैंने पहले ही कहा है कि सब संभव हो सकता है, स्वामी को छोड़ सकते हो, बाप-भाई का आश्रय लाँघ कर जा सकते हो - किन्तु संतान को तो नहीं छोड़ पाओगे। जो गर्भ में आश्रय ले, कम से कम पाँच से छः साल बहुत ही असहायता के होते हैं तो वह माँ की गोद पर अधिकार लेगा ही, तब समान रूप से पुरुष के साथ प्रतियोगिता करना स्त्रियों के लिए कैसे मुमकिन होगा। ऐसे ही संतान के निमित्त घर में रहकर परिवार की सेवा स्त्रियों के लिए स्वाभाविक हो जाती है; यह पुरुषों का अत्याचार नहीं है; प्रक ृ ति का विधान है। अब जब शारीरिक दुर्ब लता और अलंघ्य अवस्था के भेद की वजह से घर में रहना ही होगा। तब प्राण रखने के लिए उन्हें पुरुषों पर निर्भ र करना ही होगा। एक संतानधारण से ही स्त्री और पुरुष में जो मुख्य अंतर है उसकी शुरुआत होती है; उसी से धीरे -धीरे बल का अभाव, बलिष्ठ बुद्धि का अभाव पैदा होता है और ह्रदय की प्रबलता का जन्म होता है। फिर यह कारण इतना स्वाभाविक है कि इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय भी नहीं है। इस कारण से फिलहाल पुरुषाश्रय [पुरुषों पर निर्भ रता] के खिलाफ जो कोलाहल उठ खड़ा हुआ है, वो मुझे अनुपयुक्त और अमंगलकारी लगता है। पूर्व काल में स्त्रियाँ पुरुषों की अधीनता ग्रहण करने को एक प्रकार धर्म समझती थीं - उससे होता यह था कि चरित्र के ऊपर इस अधीनता का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता था यानी [स्त्रियों में] हीनता नहीं आती थी, यहाँ तक कि इस अधीनता से ही [स्त्रियों के] चरित्र की महानता अपनी संपूर्णता पाता था। प्रभुभक्ति को अगर कोई धर्म मान लेता 75


आजकल कुछ स्त्रियाँ लगातार रोने

है तो भृत्य के मन में मनुष्यता की कमी नहीं होती है। राजभक्ति के बारे में भी यह कहा जा सकता है। कुछ कुछ अवश्यंभावी अधीनता मनुष्य को सहनी ही पड़ती है; उन सब अधीनता को अगर हम लगातार हीनता की तरह से अनुभव करते रहेंगे तो हम वास्तव में ही हीन हो जाएँगे और संसार में हजारों दुखों की सृष्टि होगी। उसको अगर हम धर्म मान लें तो उस अधीनता में ही हम स्वाधीनता पा जाएँगे। यदि [मैं] दासता मानकर किसी का अनुयायी बनता हूँ तब मैं वास्तविक तौर पर अधीन हूँ और धर्म मानकर अगर किसी का अनुयायी होता हूँ तो मैं स्वाधीन हूँ। साध्वी स्त्री के प्रति यदि उसका स्वामी पशुतापूर्व क व्यवहार करता है, तो उस व्यवहार से स्त्री की अधोगति नहीं होती है, बल्कि उसकी महानता बढ़ जाती है। किंतु जब एक अंग्ज रे पंखा खींचने वाले कुली को लात मारता है तो उससे उस कुली का गौरव नहीं बढ़ता है। आजकल कुछ स्त्रियाँ लगातार रोने के सुर में बोलती रहती हैं, हम पुरुष के अधीन हैं, हम पुरुष के आश्रय में हैं, हमारी हालत बहुत ख़राब है। उससे हो बस इतना रहा है कि स्त्री पुरुष के बीच के संबंध को खराब हो रहे हैं, लेकिन उस बंधन को तोड़ पाने का कोई उपाय तो है नहीं। जो अधीनता स्वीकार करके बैठी हैं वो खुद को दासी मान रही हैं। अतः प्रसन्नचित्त होकर पूरी तरह अपना कर्त्त व्य नहीं निभा पा रही हैं। रात दिन चिकचिक हो रही है, अलग अलग विषय में [स्त्री-पुरुष] एक दूसरे को लाँघने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रकार अस्वाभाविक अवस्था यदि बढ़ती जाती है तो स्त्री-पुरुष के बीच एक बड़ा विच्छेद होगा; किंतु इससे स्त्रियों की अवस्था में उन्नति होना दूर की बात उनकी पूरी क्षति होगी। कोई यह बोल सकता है कि पुरुषों का आश्रय [पुरुषों पर निर्भ रता] ही स्त्रियों का धर्म है, इसे मानना सबके लिए संभव नहीं है क्योंकि यह एक प्रकार का अंधविश्वास है। उसके लिए मेरा कहना

के सुर में बोलती रहती हैं, हम पुरुष के अधीन हैं, हम पुरुष के आश्रय में हैं, हमारी हालत बहुत ख़राब है। उससे हो बस इतना रहा है कि स्त्री पुरुष के बीच के संबंध को खराब हो रहे हैं, लेकिन उस बंधन को तोड़ पाने का कोई उपाय तो है नहीं। यह है कि प्रक ृ ति का जो अवश्यंभावी मंगलकारी नियम है उसे स्वाधीन रूप से ग्रहण करना एवं उसका पालन करना ही धर्म है। छोटे बच्चों के लिए पिता माता को लाँघ कर चलना असंभव एवं प्रक ृ तिविरुद्ध है, उसके लिए पिता-माता की अधीनता स्वीकार करना ही धर्म है यानी इस अधीनता को जानना ही उसके लिए मंगलकारी है। विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हुए यह समझ आता है कि संसार के कल्याण को हानि न पहुँचाते हुए स्त्री कभी भी पुरुष का आश्रय त्याग नहीं पाएगी। प्रक ृ ति ने स्त्रियों की अधीनता को सिर्फ उनके धर्म की समझ पर छोड़ दिया हो, ऐसा नहीं है। प्रक ृ ति ने अलग अलग उपायों से स्त्री को ऐसे बाँध दिया है कि उसे आसानी से इससे रिहाई नहीं मिल सकती। अवश्य धरती पर ऐसी बहुत सारी स्त्रियाँ हैं जिनको पुरुष के आश्रय की ज़रूरत नहीं, किंतु उनके लिए समस्त साधारण स्त्रियों को क्षति नहीं पहुँचा सकते। बहुत पुरुष हैं जो स्त्रियों के आश्रित हो पाते तो अच्छा होता, लेकिन उनके अनुरोध से साधारण पुरुषों के कर्त्त व्यसंबंधी नियम को पलट नहीं सकते। चाहे कुछ भी हो पति-भक्ति सचमुच ही स्त्रियों का धर्म है! आजकल एक तरह की निष्फल उद्दंडता एवं छिछली गलत शिक्षा की वजह से यह गायब होती जा रही है और संसार का सामंजस्य समाप्त होता जा रहा है एवं स्त्री76


रमाबाई का वक्तव्य भी दीर्घ समय

पुरुष दोनों में ही आंतरिक बीमारी को जन्म दे रहा है। कर्त्त व्य की वजह से जो स्त्री स्वामी पर निर्भ र रहती है वो स्वामी के अधीन नहीं, वो कर्त्त व्य के अधीन है। स्त्री-पुरुष के अवस्था भेद को लेकर मेरा यह मत है, लेकिन इसके साथ स्त्री शिक्षा और स्त्री स्वाधीनता का कोई विरोध नहीं है। मनुष्यता हासिल करने के लिए स्त्रियों की बुद्धि की उन्नति एवं पुरुष के हृदय की उन्नति, पुरुष के स्वेच्छाचार एवं स्त्रियों के संकोच का परिहार बहुत आवश्यक है। यद्यपि शिक्षा मिलने पर भी पुरुष पूर्णतः स्त्री एवं स्त्री पूर्णतः पुरुष नहीं हो पाएँगे और ऐसा न होना ही ठीक है। रमाबाई जब बोलीं कि स्त्री सुविधा मिलने पर पुरुषों का काम कर सकती है, तब पुरुष बोल सकते थे कि पुरुष यदि अभ्यास करते तो महिलाओं का काम कर सकते हैं, किंतु अभी जो भी काम पुरुष करते हैं वह सब उन्हें छोड़ देना पड़ता। वैसे ही स्त्रियों को यदि बच्चा पालना न होता तो फिर वे पुरुषों का बहुत सारा काम कर पातीं। लेकिन इस “यदि” को धराशायी करना रमाबाई या किसी और विद्रोही स्त्री का काम नहीं है! अतः ऐसा बोलना एक प्रकार की प्रगल्भता है। रमाबाई के वक्तव्य से मेरा वक्तव्य ज्यादा लंबा हो गया। रमाबाई का वक्तव्य भी दीर्घ समय तक चल सकता था, किंतु वहाँ के बर्गियों (बर्गी या बरगी मराठा साम्राज्य के घुड़सवार थे जो बंगाल में मराठा आक्रमणों के दौरान लूटपाट करते थे) के उत्पात से ऐसा नहीं हो पाया। रमाबाई के बोलते ही वे लोग काफी चिल्लाने लगे। रमाबाई को वक्तव्य अधूरा छोड़कर बैठ जाना पड़ा। स्त्रियों के पराक्रम के संबंध में एक स्त्री को बोलते हुए सुनकर वीर पुरुषगण चुप न रह पाए, उन्होंने पुरुषो के पराक्रम का बखान करना आरम्भ कर दिया; चीख-चिल्लाकर अबला के क्षीण कंठ स्वर को दबाकर विजय गर्व लेकर घर लौट गए। मैं मन ही मन सोचने लगा कि हमारे बंगाल में हाल ही में बहुत वीर पुरुषो का अभ्युदय हुआ है, किंतु [किसी] भद्र स्त्री के साथ अशिष्ट व्यवहार करें ,

तक चल सकता था, किंतु वहाँ के बर्गियों के उत्पात से ऐसा नहीं हो पाया। रमाबाई के बोलते ही वे लोग काफी चिल्लाने लगे। रमाबाई को वक्तव्य अधूरा छोड़कर बैठ जाना पड़ा। स्त्रियों के पराक्रम के संबंध में एक स्त्री को बोलते हुए सुनकर वीर पुरुषगण चुप न रह पाए, उन्होंने पुरुषो के पराक्रम का बखान करना आरम्भ कर दिया; चीख-चिल्लाकर अबला के क्षीण कंठ स्वर को दबाकर विजय गर्व लेकर घर लौट गए। ऐसा तेज अभी भी उनमें नहीं आया है। किंतु निश्चित तौर पर कुछ बोल नहीं सकते, नीच आदमी हर जगह हैं। नीचश्रेणी व हीनशिक्षा वाले डरपोक इं सानों का यह एक तरह का महान अधिकार है कि वे कीचड़ में रहते हुए निःसंकोच स्नान किए हुए पर, उसकी देह पर कीचड़ फेंक सकते हैं; जबकि वो मन ही मन जानता है कि ऐसी जगह सहिष्णुता ही भद्रता की एकमात्र पराकाष्ठा है। महाराष्ट्र के श्रोता बालकों के लिए इतनी बातें करना थोड़ा ज्यादा हो जाता है, लेकिन मैंने इस प्रसंग को देखते हुए ये बातें कहना मुनासिब समझा। आक्षेप का विषय ये है कि जिनके लिए ये बातें है वो यह भाषा नहीं समझते और उनकी जो भाषा है वो भद्रजनों के न सुनने योग्य है, न उपयोगी है। ज्येष्ठ 1296 पूणा 77


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छात्राओ ं का पत्र

रमाबाई ने बेसहारा लड़कियों के लिए शारदा सदन की स्थापना की थी। इस सदन में पढ़ने वाली छात्राओं ने अमेरिका के रमाबाई एसोसिएशन को एक पत्र लिखा था। इस पत्र के संदर्भ और महत्व को समझने के लिए पूर्वा भारद्वाज ने एक विस्तृ त् टिप्पणी लिखी है। अंग्रेज़ी पत्र का िहन्दी अनुवाद शुभेन्द्र त्यागी ने किया है।

कहना चाहिए कि शिक्षण कला पंडिता रमाबाई ने घुट्टी में पाई। अपनी माँ लक्ष्मीबाई से शिक्षा ग्रहण की और वृद्ध होते जा रहे पिता अनंतशास्त्री डोंगरे से अप्रत्यक्ष रूप से सीखा। व्याकरण, कोश, इतिहास, पुराण, काव्यशास्त्र, अलंकार आदि की मौखिक xशिक्षा ली। यह सारा पद्यबद्ध होता था और कंठस्थ। बचपन में ही रमाबाई को बीसियों हज़ार श्लोक याद थे। यह सिर्फ रटंत विद्या नहीं थी क्योंकि अवबोध पक्ष पर भी बल था। पत्नी को संस्कृत शिक्षा देने के कारण रमाबाई के पिता ने जनविरोध का सामना किया। डटकर किया। उन्होंने तर्क पूर्व क बतलाया कि यह शैक्षिक पहलकदमी न धर्मविरोधी है और न जनविरोधी। मगर स्त्री का सवाल हो तो न उस काल में लोग चुप बैठे और न आज चुप बैठते हैं। देश-समाज, जाति-धर्म सबकी चूल हिलने लगती है जब लगता है कि शिक्षा हासिल करके स्त्री अपने दिमाग का इस्तेमाल न करने लगे। शिक्षा संसाधन है, शिक्षा 78


के परिवर्त नकारी परिणाम हो सकते हैं, इससे ताकतवर लोगों को डर लगता रहा है। इसलिए शिक्षा पर नियंत्रण आरं भ से किया जाता रहा है। इसे रमाबाई बचपन से देख रही थीं। किसको क्या कहाँ कब और कैसे शिक्षा मिलेगी, इसके तार तत्कालीन समाज के ढाँचे से जुड़े होते हैं। अकारण नहीं था कि स्त्रियों के लिए वेद शिक्षा वर्जित है, इस पारं परिक सीमा का पालन रमाबाई के क्रांतिकारी शिक्षक परिवार ने भी किया। उन्होंने धर्मनिरपेक्ष शिक्षा से दूरी बनाए रखी और बाहरी दुनिया से भी। अंग्ज़ रे ी भाषा सीखने या म्लेच्छों (गैर-हिं दुओं) से संपर्क बनाए रखने को गर्हित माना। आरं भ में कोलाहल से दूर पहाड़ की चोटी पर गंगामूल प्रदेश में संस्कृत केंद्र स्थापित करके पठन-पाठन और बाद में पुराण वाचन में रमाबाई का पूरा परिवार लगा था। एक तरह से निजी शैक्षिक पहल के बाद सार्व जनिक शिक्षण की प्रक्रियाओं से रमाबाई गुज़रीं। उनका बाहरी दुनिया से संपर्क बढ़ा, मगर जाति-धर्म के दायरे के भीतर। रमाबाई के परिवार के लिए पौराणिक की वृत्ति केवल पेट भरने का साधन न था, बल्कि बाज़ाब्ता धार्मिक शिक्षा देना था। उनके पिता मूल संस्कृत पाठ पर अपने को केंद्रित रखते थे। दूसरे पौराणिकों की तरह स्थानीय भाषा में अनुवाद करना या नाटकीय बनाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर व्याख्या करना या झूठ-सच बोलकर पुराण वाचन को लोकप्रिय बनाने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। इस क्रम में शिक्षक की भूमिका, शिक्षण के उद्देश्य और बड़ी संख्या में अबोध शिक्षार्थी की तरह भक्तों को रमाबाई ने करीब से देखा था। भौतिक कठिनाइयों के बीच कैसे अधिक से अधिक बात लोगों तक पहुँचाई जा सके इसके गुर उन्होंने अवश्य वहाँ से सीखे। अपनी तमाम तीर्थ यात्राओं के दौरान जीवन के अनुभवों से उन्होंने जान लिया था कि स्त्रियों की शिक्षा कितनी अहम है। उनकी आलोचनात्मक

दृष्टि विकसित होने लगी थी। स्त्री पर लगी पाबंदियों को उन्होंने घर से लेकर बाहर तक देखा था। आगे जाकर धर्मग्रंथों के गहन और तुलनात्मक अध्ययन के बाद जब धार्मिक शिक्षा की सीमाओं का बोध रमाबाई को हुआ तो शिक्षा के दूसरे द्वार भी उनके सामने खुलने लगे। सनातन हिन्दू धर्म के साथ-साथ परिवर्त नकामी ब्रह्मोसमाज सहित अनेक मतावलंबियों से उनका परिचय हुआ। भाषा के दायरे का भी विस्तार हुआ। वे बंगाल और असम में घूम-घूमकर भाषण और प्रवचन करने लगीं जिसके केंद्र में स्त्री जीवन और शिक्षा था। व्यक्तिगत जीवन की क्षतियों ने भी रमाबाई के सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि स्त्री का एकमात्र संबल शिक्षा है। 1882 में पूना (महाराष्ट्र) में उनके द्वारा स्थापित ‘आर्य महिला समाज’ भी शिक्षा के महत्त्व को रे खांकित करता था। उनके लिए शिक्षा न केवल विषय था, न् केवल आजीविका का साधन था, न के वल जीवन का लक्ष्य था, न केवल ईश्वर का आदेश था, बल्कि संपूर्ण जीवन था। इस कर्म पथ पर वे प्रशिक्षु, प्रशिक्षक, व्यवस्थापक, संगठनकर्ता सबकी भूमिका में थीं। कदम कदम पर नई भाषा सीखने, उसपर अधिकार पाकर उसमें रचना करने की उनकी क्षमता स्पृहणीय है। हं टर आयोग (1882) के सामने रमाबाई की गवाही को देखें तो महिला शिक्षकों की बहाली, उनके लिए विशेष व्यवस्था की माँग उन्होंने की। इं ग्लैंड-अमेरिका की उनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य ऊ ँ ची शिक्षा हासिल करना और उससे लैस होकर स्त्रियों के जीवन को बेहतर बनाना था। उसके लिए खुद संसाधन जुटाया। अपनी पहली मराठी किताब की बिक्री से यात्रा का अधिकांश व्यय निकाला। अपनी दो साल की बेटी और एक दोस्त के साथ वे समुद्र यात्रा पर निकलीं। विदेश जाकर उन्होंने खूब पढ़ाई की, उससे जुड़े व्यावहारिक से लेकर दार्श निक सवालों 79


पर खूब बहस की, लड़ाई ठानी। बीच में अंग्ज़ रे ों को मराठी-संस्कृत पढ़ाया भी। जब अपने कान की पुरानी बीमारी की वजह से वे मेडिकल की पढ़ाई न कर पाईं तो विकल्प के रूप में अपने को किंडरगार्टेन शिक्षण पद्धति में प्रशिक्षित किया। फ्रोवेल पद्धति उनको काफी पसंद आई जो बच्चों में सोचने-समझने की क्षमता पैदा करती है। शिक्षा व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों को छूता है, शिक्षा के आंदोलनों का अधिकारों की लड़ाई के बाकी आंदोलनों से जुड़ाव है, इसे रमाबाई ने समझा। शिक्षा संबंधी देशी-विदेशी प्रयोगों को गहराई से परखा और भारत आकर अपने ‘शारदा सदन’ में उनको आजमाया। शिक्षण सामग्री बच्चों की अपनी भाषा में हो, उनके संदर्भ से जुड़ा हो, सचित्र हो, दिलचस्प हो - इस दिशा में उनके प्रयास को शारदा सदन की छात्राओं के लिखे इस छोटे-से पत्र से समझा जा सकता है। आज शिक्षण-पद्धति - Pedagogy पर इतनी चर्चा होती है। अमूर्त और अबूझ विषयों को कैसे बच्चों के जीवन से जोड़ते हुए या ठोस उदाहरणों से समझाया जाए, इसका उदाहरण है रमाबाई का शिक्षण। पठन-पाठन सामग्री - TLM के रूप में तरह तरह की चीजों का इस्तेमाल किया। लड़कियों को सारे विषयों की शिक्षा मिलनी चाहिए, इसे उन्होंने अमली रूप दिया। अपने स्कू ल में ब्रेल में किताबें, दूरबीन और प्रिंटिंग प्रेस जैसे संसाथन जुटाए। शिक्षक-शिक्षिका और शिक्षार्थी के रूप में वे समाज से बहिष्कृत और वंचित समुदाय की लड़कियों-स्त्रियों को चुनती हैं और उन्हें प्रशिक्षित करती हैं। उनके यहाँ प्रशिक्षित कई शिक्षिकाएँ अन्य स्कू लों में भी भेजी जाती थीं। यह चयन और प्रशिक्षण रमाबाई की शिक्षा संबंधी पूरी सोच को दिखलाता है। यह पत्र (अनुवाद : शुभेन्द्र त्यागी) छात्राओं ने अमेरिका में स्थित रमाबाई एसोसिएशन के पदाधिकारियों को 29 जनवरी, 1892 को लिखा था जो उनकी आर्थिक मदद करने के साथ-साथ

शैक्षिक व्यवस्था भी देखता था। इस पत्र को 11 मार्च , 1892 की सालाना रिपोर्ट में संकलित किया गया है जो वास्तव में शैक्षिक प्रयासों के परिणामों का दस्तावेजीकरण है। याद रहे रमाबाई द्वारा 1889 में स्थापित यह शारदा सदन विधवा और बेसहारा लड़कियों का आवासीय स्कू ल था, जिसे शुरू में पूना के बड़े-बड़े पुरुष सुधारकों का सहयोग प्राप्त था। रमाबाई के ईसाई बन जाने के कारण उनके विरोधी भी असंख्य थे जिनको लगातार यह भय सताए जा रहा था कि यदि पीड़ित-दमित लड़कियाँ शिक्षित हो गईं तो संभव है कि शिक्षा बल पाकर वे पुरुषों के हाथ से निकल न जाएँ या क्या पता जाति-धर्म के बंधनों को भी चुनौती देने लगें। --अमेरिका की हमारी साथियो! आपको यह बताते हुए हमें खुशी हो रही है कि जब पिछली बार हमने आपको पत्र लिखा था तबसे अनेक नई लड़कियाँ शारदा सदन में आ चुकी हैं। इन लड़कियों में एक 19 वर्ष की जवान विधवा है, जिसकी सास उसके साथ दुर्व्यवहार करती थी। उसके पड़ोसी यद्यपि हमारे स्कू ल के विरोधी थे फिर भी उन्होंने उसे यहाँ आने की सलाह दी। उनका मानना था कि यहाँ उसकी ठीक से देखरे ख हो सकेगी। उसके पति की मृत्यु 6 माह पहले हुई थी और उसका 8 माह का एक प्यारा बच्चा भी है। चूँकि वह सदन में इकलौता बच्चा है, वह सबका बहुत लाड़ला हैं। स्कू ल में कुल 41 लड़कियाँ हैं। उनमें से 30 तो विधवाएँ हैं। मराठी की पाँच कक्षाएँ हैं और अंग्ज रे ी की तीन। हमारे यहाँ चार शिक्षिकाएँ हैं जो हम पर बहुत मेहनत करती हैं और हमें चाहती भी बहुत हैं। पंडिता रमाबाई एक संस्कृत की कक्षा और एक शिशुओं की कक्षा लेती हैं। शिशुओं की कक्षा में 15 लड़कियाँ हैं। इन कक्षाओं में जीव जंतुओं और उनके शरीर की रचना के बारे में भी पढ़ाया जाता है। लड़कियों को यह कक्षा बहुत अच्छी लगती है। 80


एक दिन रमाबाई ने एक बकरी की खाल उतरवाई और उसे कक्षा में लाकर बच्चियों को इसके विभिन्न अवयवों जैसे फेफड़े, गुर्दे इत्यादि के बारे में समझाया। फिर एक दिन हमें दूरबीन से तारे भी दिखाए गए। हमने चंद्रमा देखा और बृहस्पति और उसके चारों ओर के छल्ले को भी साफ साफ देखा। हमने पहले कभी दूरबीन नहीं देखी थी, इसलिए हम काफी रोमांचित भी थे कि चंद्रमा कितना बड़ा दिखता था। दिवाली की छुट्टियों में जो लड़कियाँ घर नहीं गई थीं उन्हें रमाबाई पुणे के नजदीक लोनावला ले गईं। वहाँ के जंगल बहुत प्यारे हैं। फिर हम घाटी देखने भी गए जहाँ हमने अपनी गूँजती आवाज सुनी। हम जो भी बोलते सब का सब दोहराया जाता‌। क्रिसमस की छुट्टी में कोई भी लड़की घर नहीं गई। हमें इन छुट्टियों में बहुत मजा आ‌या। रमाबाई ने हम सबको साड़ी, चोली, मिठाइयाँ और फल दिए। पंडिताबाई हमें माँ की तरह चाहती हैं इसलिए हमें घर की याद कभी नहीं आती। हम सब यहाँ बहुत खुश हैं क्योंकि यहाँ सब बहुत अच्छे हैं। हमें लगता है कि हममें पहले से काफी बदलाव आ गया है। हम सब अपनी पुरानी आदतों को छोड़ने और खुद को बेहतर करने की कोशिश करते हैं। हमारा नया घर अभी बनकर तैयार नहीं है। हम सभी और रमाबाई भी उसमें जाने को आतुर हैं। हमारे इस घर में हम सब के लिए पर्या प्त जगह नहीं है इसलिए हमें तमाम परे शानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रसन्नता की वजह आप सब और रमाबाई हैं। हमारे देश में भी बहुत से रईस हैं लेकिन उन्हें विधवाओं के लिए ऐसी संस्था बनाने का कभी ख्याल नहीं आया। लेकिन भगवान ने हमारी परे शानी समझी और इस देश की लाचार विधवाओं के प्रति आपके मन में सहानुभूति पैदा की। जब वे परदेशियों को हमारी मदद करते हुए देखें तो हमारे देश के लोगों को खुद पर शर्म आनी चाहिए।

हम नहीं जानते कि आपका आभार कैसे जताएँ। हम तो आपके उपकारों का बदला नहीं चुका सकते लेकिन भगवान आपको इसका फल जरूर देगा और आप और आपका देश सुखी और समृद्ध होंगे। हम सबकी इच्छा अपनी प्यारी पंडिताबाई की तरह बनने की है। वे ही हमारी देश की स्त्रियों की आदर्श है। हर लड़की ने आप सबका हृदय से आभार व्यक्त करते हुए मराठी में अलग-अलग पत्र लिखे थे। लेकिन सभी पत्रों को पढ़ पाना आपके लिए थोड़ा मुश्किल होता। इसलिए हमने सोचा आपको हम सब की तरफ से एक लंबा पत्र लिखा जाए क्योंकि उन सब पत्रों में भी एक ही बात थी। एक 9 साल की विधवा बच्ची कहती है कि रमाबाई ना होती तो ये खुशी के दिन कभी ना देख पाती। एक दूसरी लड़की ईश्वर का धन्यवाद करती है जिसने आप जैसे भले मनुष्यों को हमारी मदद करने की प्रेरणा दी। हमें इस बात का बेहद अफसोस है कि हम सब अंग्रेज़ी में पत्र नहीं लिख सकते। रमाबाई को लगभग एक महीने पहले इन्फ्लूएं जा हुआ था, अब वे काफी ठीक हैं लेकिन बहुत कमजोर हो गईं हैं। इस बीमारी के बाद भी उन्हें इतनी मेहनत करते देख दुःख होता है। उन्हें आराम करने और उनकी हवा बदलने की जरूरत है, लेकिन जब तक स्कू ल की नई इमारत का काम चल रहा है तब तक वे कहीं नहीं जाएं गी। बाकी हम सब तो ठीक हैं। हमारी ओर से आपको प्यार। आपकी आभारी चंद्राबाई सियाबाई ताईबाई नर्मदाबाई सोनाबाई सुभद्राबाई प्रेमाबाई रामाबाई द्वारकाबाई रं गब सुन्दराबाई ू ाई काशीबाई कृपाबाई लक्ष्मीबाई भागूबाई पार्व तीबाई मथुराबाई शांताबाई गिरजाबाई विभाबाई लक्ष्मीबाई खरमाबाई काशीबाई और अन्य 81


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वािशंगटन द संडे स्टार, 1907 में इं ग्लैंड जाने के चार महीने बाद 29 सितंबर, 1883 को रमाबाई ने अपनी बेटी के साथ ईसाई धर्म की दीक्षा ले ली थी। उसको लेकर बहुत विवाद हुआ और देश-विदेश हर जगह लोगों ने इस धर्मांतरण के पीछे की वजहों पर खूब कहा-लिखा है। हिं दू धर्म के अंतर्विरोधों, ब्रह्मो धर्म की सीमाओं और उससे उपजे अपने असंतोष के बरक्स रमाबाई को ईसाई धर्म के खासकर स्त्रियों के प्रति उदार नजरिए ने आकर्षित किया था। हालाँकि उनकी स्वतंत्र बुद्धि और स्वाधीन चेतना ने इस नए धर्म के ढाँचे में पैवस्त जड़ता को स्वीकार नहीं किया था। नतीजा यह हुआ कि ईसाई बन जाने के बाद बरसों तक उन्होंने कई धार्मिक औपचारिकताओं को पूरा नहीं किया। पहले तो क्रॉस पहनने से इन्कार किया। फिर कहा कि यदि पहनना ही होगा तो वे चाहेंगी कि उस क्रॉस पर संस्कृत में इबारत लिखी हो, न कि अनजान लैटिन भाषा में। हिं दू धर्म की बुरी बातों को वे खुद छोड़ना चाहती थी, मगर ईसाई बन जाने के बाद उसकी अच्छी बातों को भी छोड़ना उनके लिए तर्कहीन था। वे एक साथ अपने को हिं दू और ईसाई कहती थीं क्योंकि उनका कहना था कि आखिर वे हैं तो एक ही व्यक्ति। हिं दू उनके लिए केवल एक धार्मिक पहचान नहीं है, बल्कि सांस्कृ तिक-भौगोलिक पहचान का द्योतक शब्द है। उन्हें ईसा पर यकीन था, लेकिन ईसा के दैवी चमत्कार पर नहीं। वे पंथ निरपेक्ष ईसाई धर्म को मानती थी, चर्च के विभिन्न रूपों/गुटों से अलग। 82


इं ग्लैंड में गुलाम देश की औरत के रूप में रमाबाई की मौजूदगी और नवदीक्षित ईसाई के रूप में उन पर चर्च के आदेशों के पालन करने के दबाव को याद रखने की जरूरत है। उनका जन्म 1858 में यानी आज़ादी की पहली लड़ाई - 1857 के साल भर बाद हुआ था। नवजागरण के दो मुख्य केंद्र जो थे - बंगाल और महाराष्ट्र, वे उनकी कर्मभूमि थे। देश को आज़ाद कराने की राजनीतिक मुहिम से सामाजिक परिवर्त न लाने की मुहिम एकदम गुँथी हुई थी। इस लिहाज़ से औरतों की हालत में सुधार लाने की दिशा में उठाए गए रमाबाई के कदम राजनीति से परे न थे। इं ग्लैंड जाने के बाद उनको अपने औरत होने और गुलाम देश की औरत होने का तीखा एहसास होता है। इस तरह समझें तो ईसाई धर्म के नियम-कायदों को लेकर रमाबाई की टकराहटें दो देशों, दो संस्कृ तियों और शासकशासित के सत्ता संबंधों की टकराहटें हैं। उनके केंद्र में स्त्री प्रश्न तो हैं ही। बहरहाल, आगे चलकर रमाबाई का ईसाई धर्म के व्यवहारों के प्रति रुख बदला। ईसाइयत के बारे में उन्होंने खूब पढ़ा और धर्म के विद्वानों से, चर्च के पदाधिकारियों से खूब बहस भी की। धीरे धीरे उनको लगा कि उनकी अंतरात्मा ने ईसू को पा लिया और वे उनमें लीन होने लगीं। शिक्षा की परिवर्त नकारी संभावनाओं को खोलने का काम वे आजीवन करती रहीं, परं तु अब उन्होंने अपने सदनों में व्यावहारिक, पेशव े र, औद्योगिक शिक्षा के साथ केवल धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर बल देना छोड़ दिया। वे धर्म प्रचार और उसके माध्यम से बदलाव की बात करने लगीं। तब भी जब कभी उनको लगा कि उनका कदम अतार्किक दिशा में जा रहा है तो उन्होंने पुनर्विचार किया। आस्ट्रेलिया और यूरोप में चल रही ईसाई धर्म की पुनरुत्थान की लहर 1905 में रमाबाई के मुक्ति मिशन से शुरू हुई और भारत के दूसरे हिस्सों में भी फैल गई। रमाबाई अपने अंदर पवित्र आत्मा को महसूस करने लगीं। वे ईसू के बारे में अधिक

से अधिक बात करना चाहने लगीं। उनका आदर्श वाक्य था - अपना बोझ ईश्वर पर छोड़ दो, वही तुम्हें ज़िंदा रखेगा। अब मुक्ति मिशन में विशेष प्रार्थ ना सभाएँ होने लगीं जिनमें लगभग 70 ईसाई औरतें रोज़ सुबह इकट्ठा होती थीं। वे अपने और बाकी ईसाइयों के सच्चे धर्मांतरण के लिए प्रार्थ ना करने लगी थीं। पेंटाकॉस्ट चर्च ने भी रमाबाई को प्रभावित किया। इसमें यकीन रखनेवाले ईसाइयों का एक छोटा समूह है। यह मानता है कि जब ईसू को सलीब पर चढ़ा दिया गया था तो जेरूशलम में उनके कुछ भक्त उनके फिर से जीवित होने के चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब तीसरे दिन ईसू उठे , उसके बाद ईसा के भक्तों पर पवित्र आत्मा उतरी। वे सभी अपना होशो हवास खोकर ईश्वर का गुणगान करने लगे। भावनाओं के इस ज्वार में सभी डू ब गए। इस चमत्कार को सात हफ्ते तक पेंटाकॉस्ट उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसे चर्च के जन्मदिवस के रूप में भी जाना जाता है। इं सान के जीवन के ‘पुनरुत्थान’ के लिए पेंटाकॉस्ट जैसे अनुभव की ताकत में रमाबाई को पूरा यकीन हो गया था। रमाबाई ने ‘बॉम्बे गार्डियन’ अखबार में इसके बारे में लिखा था। इस सामूहिक प्रार्थ ना में लड़कियाँस्त्रियाँ अपने अंदर पवित्र आत्मा को महसूस कर आनंद से चीखने लगतीं, रोने लगतीं। कुछ जो अंग्ज रे ी नहीं जानती थीं, वे भी लंबी-लंबी प्रार्थ ना अंग्ज रे ी में बोल रही थीं। मुक्ति मिशन के बाइबल स्कू ल में, गलियारों में, बगीचे में, मैदानों में दिनरात उन सबकी प्रार्थ ना चलती रहती और वे अपने पापों के लिए ईसू से माफी माँगतीं। उसके बाद जैसे आग में तपकर सोना निकलता है, वैसे ही उनके चेहरे आनंद से दमकने लगते। हालाँकि इसका यह मतलब नहीं था कि ‘पुनरुत्थान’ की लहर के इस असर ने उन सारी लड़कियों को पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया था। रमाबाई को मालूम था कि इस विधि से इं सान अचानक पूर्णता हासिल नहीं कर सकता। अमेरिकी अखबार वाशिंगटन ‘द संडे स्टार’ के 14 83


किसी धार्मि क अनुष्ठान में अति पर पहुँच जाना, उनको कभी मंजूर नहीं हुआ था। बीच में उनको यह भी लगने लगा था कि मुक्ति मिशन में किसी डॉक्टर की जरूरत नहीं रह गई है। भक्ति और प्रार्थना हर तकलीफ दूर कर सकती है, यह सोचकर उन्होंने परिसर से डिस्पेंसरी हटवा दी थी। लेकिन यह हठधर्मि ता है, दुराग्रह है - यह अहसास होते ही रमाबाई ने अपनी नीति बदल दी। उनके मित्रों की भी यही राय थी। जुलाई, 1907 के संस्करण में रमाबाई के आश्रम (पूना के पास केडगाँव स्थित मुक्ति मिशन) की आँखों देखी घटनाओं का ब्यौरा दिया गया है। 1852 में स्थापित अखबार ‘द इवनिंग स्टार’ हर रोज़ दोपहर में छपता था। यह वाशिंगटन डी. सी. से नियमित 1981 तक प्रकाशित होता रहा है। इसके रविवार के संस्करण का नाम ‘द संडे स्टार’ होता था। अखबार की इस रिपोर्ट में पत्रकार Joseph B. Bowles ने वहाँ ईसाई धर्म के पुनरुत्थान (Revival) से जुड़ी असाधारण बातों को हूबहू जैसा देखा और सुना वैसे बताने का प्रयास किया है। लेख का शीर्ष क है - ‘गिफ़्ट ऑफ टंग्स गिवेन टू क्रिश्चन्स इन इं डिया’। उस क्रम में उन्होंने रमाबाई के जीवन का संक्षिप्त परिचय भी दिया है। उनका ध्यान केंद्रित था इस पर कि अज्ञानी हिं दू लड़कियाँ आवेश में आकर संस्कृत, अंग्ज़ रे ी, हिब्रू, ग्रीक और न जाने कौन कौन सी अनजान भाषाएँ बोल रही थीं। इसके कुछ हिस्सों को देखने से रमाबाई की आस्था के जटिल स्वरूप का पता चलता है कि वह इकहरी और एकरै खिक नहीं है. 84

Joseph B. Bowles की रिपोर्ट में बड़े से कमरे में ज़ोर ज़ोर से सामूहिक प्रार्थ ना करती 30-40 लड़कियों का ज़िक्र है। उनमें से कुछ रो रही थीं। शोर इतना था कि किसी की आवाज़ साफ समझ में नहीं आ रही थी। कुछ लड़कियों के सिर एकदम फर्श से सटे जा रहे थे। कुछ यूँ बैठी थीं कि उनके कंधे ही नहीं, पूरा बदन बुरी तरह हिल रहा था मानो हाल आ गया हो। कुछ आगे-पीछे , अगल-बगल झूम रही थीं। एक जवान लड़की तेज़ी से अपने घुटनों के बल चल रही थी और एकदम बेखयाली में। दूसरों की तरह वह अपनी बाँहें भी तेज़ी से हिला रही थी। यह एकदम शरीर को झकझोर देनवा े ला कसरत जैसा था। प्रार्थ ना में ज़्यादातर लड़कियों के एक या दोनों हाथ बड़े नाटकीय अंदाज़ में फैले हुए थे। बीच बीच में वे तालियाँ बजाने लगतीं, मगर मानो एक दूसरे की आवाज़ से वे बेखबर थीं। कभी कभी उनके चेहरों पर दर्द झलकता और वे पसीने से तरबतर हो जातीं। एक लड़की अचानक गिर गई, पता नहीं कि थकान से चूर होकर सो गई या बेहोश हो गई। सबकी आँखें मूँदी हुई थीं और उनको अपने आस पास का इल्म न था। लगभग 15 मिनट बाद वह लड़की जो निढाल हो गई थी वह उठी और चुपचाप बैठकर प्रार्थ ना करने लगी या बाइबल पढ़ने लगी। Joseph B. Bowles लिखते हैं कि भक्ति का ऐसा नज़ारा उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। धीरे -धीरे यह पूरी प्रक्रिया सामूहिक हिस्टीरिया का रूप लेने लगी। जल्दी ही इसे रमाबाई ने बंद कर दिया। किसी धार्मिक अनुष्ठान में अति पर पहुँच जाना, उनको कभी मंजूर नहीं हुआ था। बीच में उनको यह भी लगने लगा था कि मुक्ति मिशन में किसी डॉक्टर की जरूरत नहीं रह गई है। भक्ति और प्रार्थ ना हर तकलीफ दूर कर सकती है, यह सोचकर उन्होंने परिसर से डिस्पेंसरी हटवा दी थी। लेकिन यह हठधर्मिता है, दुराग्रह है - यह अहसास होते ही रमाबाई ने अपनी नीति बदल दी। उनके मित्रों की भी यही राय थी।


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मिस फुलर की ज़ुबानी The Triumph of An Indian Widow - The life of Pandita Ramabai नाम है मेरी लूसिया बियर्स फुलर की किताब का। यह रमाबाई मुक्ति मिशन की अमेरिकी कॉन्सिल से प्रकाशित है। उन्होंने रमाबाई के अपने संस्मरणों और दूसरे के अनुभवों, अपनी और दूसरों की निगाह से देखते हुए रमाबाई का वर्ण न किया है। उसके कुछ हिस्से प्रस्तुत हैं जिनसे रमाबाई की तस्वीर खींचने में मदद मिलती है। इसका अं ग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद पूर्वा भारद्वाज और शुभेन्द्र त्यागी ने किया है। गुजरात का अकाल सन् 1900 में गुजरात में अकाल आया, यह सबसे भयानक था। सैंकड़ों साल से वहाँ अकाल नहीं आया था। राजपूताना और अनेक देशी रियासतों में अकाल आया। भारतीय राजे-रजवाड़ों का शासन था वहाँ, इस वजह 86


से उन्हें देशी रियासत कहा जाता था। जहाँ अकेले ब्रिटिशशासित भारत में लगभग 15 लाख लोगों की मौत हुई थी, वहीं “देशी रियासतों में एक करोड़ से अधिक लोग गायब हो गए थे जिनका नामो निशान नहीं मिल रहा था।” दस सालों -1892 से 1901 तक - की जनसंख्या रिपोर्ट में कुल मिलाकर “जनसंख्या में 60 लाख से कम की वृद्धि थी जबकि जनसंख्या वृद्धि की सामान्य दर के अनुसार 1 करोड़ 90 लाख की वृद्धि होनी चाहिए थी” और भारत के “पिछले दशकों के रिकॉर्ड के मुताबिक उसकी उम्मीद की जा रही थी।” 1 करोड़ 30 लाख लोग - कनाडा की तत्कालीन आबादी से दुगने लोग [कम थे] ! यह संख्या हौलनाक है। ... लॉर्ड कर्ज़ न ने कहा “1900-1 के अकाल की सबसे उल्लेखनीय बात थी जनता की उदारता” और सरकार की उदारता। लगभग 30 लाख डॉलर की विदेशी सहायता मिली और मिशनों में हजारों अनाथ बच्चों को पनाह मिली। रमाबाई ने राहत के काम में मदद के लिए 20 औरतों को भेजा। उनमें से 8 औरतें वे थीं जो उन्हें संयुक्त प्रांत के अकाल में मिली थीं। जिन ढेर सारे लोगों को उन्होंने [औरतों की मंडली ने] बचाया उनमें से 1350 औरतों और बच्चों को वे रमाबाई के पास लेकर आईं। बहुतों को यह लगा कि रमाबाई का दिमाग फिर गया है और वाकई इतनी बड़ी संख्या में लोगों की देखभाल करना दिमाग चकरा देनवा े ला था। रमाबाई के सहायकों ने इस नई स्थिति का बहादुरी से सामना किया। शारदा सदन और संयुक्त प्रांत की लड़कियों व औरतों ने बहुत अच्छे से काम किया। धीरे धीरे जो कोहराम मचा हुआ था उसमें व्यवस्था लौटी; नई इमारतें बनीं, नए कुएँ खोदे गए और नए उद्योग खोले गए। इस संस्थान के 22 सालों की व्यवस्था, उसका संयोजन-संगठन जो है वह केवल विशाल ही नहीं है, केवल जटिल ही नहीं है। वह दिल और दिमाग दोनों से लगातार भयानक ऊर्जा की माँग करता है। “क्रियान्वयन क्षमता” का पूरा प्रदर्श न है यह जिसके बारे में प्रोफेसर धोंडो केशव कर्वे का

कहना है कि ‘भारत में बेजोड़ है [उस तरह का काम नहीं हुआ है]।” यह विलक्षण है।... नई लड़कियाँ पुरानी लड़कियों से अलग थीं - उनकी तुलना में बहुत जंगली थीं और उनको संभालना बहुत ही ज़्यादा मुश्किल था। अंततः 1900 ई. के इस अकाल के बाद रमाबाई ने सिर्फ ऊ ँ ची जाति की विधवाओं के लिए विद्यालय की योजना को त्याग दिया। अब इसमें शूद्रों, आदिवासियों यहाँ तक कि अंत्यजों को भी शामिल होना था। कई बार इसी वजह से उनके साथ की लड़कियों और सहायकों ने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन रमाबाई अपने निर्ण य पर अडिग रहीं। सब लोगों की भलाई उस वक्त मुक्ति सदन का दैनिक खर्च लगभग 200 डॉलर था। इसका मतलब हुआ प्रत्येक व्यक्ति पर दस सेंट का किफायती खर्च । अंग्ज रे और अमेरिकी सहायकों को कोई वेतन नहीं मिलता था। लेकिन भोजन तो उन्हें भी चाहिए था। और कभी-कभार कुछ पैसे मानदेय के रूप में दे दिए जाते थे। शिक्षकों/शिक्षिकाओं को वेतन दिया जाता था और बाकी खर्च तो थे ही। इसके अलावा, आसपास के पाँच गाँवों में जब भी किसी वस्तु की कमी होती, रमाबाई खुले दिल से मदद करतीं जिनमें निर्मा ण कार्य और कुएँ खोदना भी शामिल था। आज से 5 वर्ष पहले 5 अप्रैल को जब वे मृत्यु शैया पर थीं और जब उनके अंतिम दर्श न करने वालों और श्रद्धांजलि देने वालों का ताँता लगा था तब एक ग्रामीण ने काँपती-सी आवाज में किसी को कहते हुए सुना, “पाँच गाँव उनके अनुग्रह पर ही जीवित थे।” इसके अलावा अनौपचारिक तौर पर भी उन्होंने बहुतों की मदद की।... वे बहुत ही साहसी थीं। जब कोई खाली होते गोदामों और सूखते कुओं को लेकर चिंता जताता, तब धैर्य और सौम्य मुस्कान के साथ कहतीं, “अन्न और जल उन्हें किसी भी कीमत पर मिलेगा।” जब तक सब ठीक न हो गया, उन्होंने खुद प्रार्थ नाएँ कीं और उपवास रखा। कठिनाइयों से वे कभी 87


नहीं घबराईं। वह जानती थीं “उन्हीं कठिनाइयों से मानव जीवन बनता है।” मुक्ति के अतिशय विस्तार के साथ ही रमाबाई ने शारदासदन को भी केड़गाँव स्थानांतरित कर दिया और पुणे की संपत्ति को बेच दिया। उन्होंने अनाथ लड़कों के लिए एक छोटा-सा स्कू ल बनवाया। नाम रखा - सदानंद सदन, कभी खत्म न् होनेवाली खुशी का घर। उसी तरह छोटी बच्चियों के लिए जो विभाग था उसका नाम रखा गया प्रीति सदन, प्रेम का घर। लेकिन वैसे प्यार से उन 500 छोटी बच्चियों को नन्हे खरगोश कहा जाता था। रमाबाई ने गाँव के बच्चों के लिए भी दिन में चलनेवाला स्कू ल शुरू किया। इसमें ब्राह्मण और अन्य ऊ ँ ची जातियों के बच्चे तो पढ़ते ही थे साथ ही किसानों, चरवाहों और निम्न समझी जाने वाली जातियों के बच्चे भी पढ़ने आते थे। वे बच्चे स्कू ल आएँ इसलिए रमाबाई उन्हें प्रतिदिन एक आना देती थीं। इन बच्चों को ‘वेतन वाले बच्चे’ कहा जाता था, उन्हीं बच्चों में एक पाँच साल या हद से हद छः साल की नन्हीं सी बच्ची भी थी, जिसे तब 25 स्तोत्र (बाइबिल के) याद थे। इससे प्रसन्न होकर रमाबाई ने उसे 2 नई साड़ियाँ दी थीं। वह बहुत प्यारी बच्ची थी। मुक्ति छापाखाना इतने से ही रमाबाई संतुष्ट नहीं हुईं और उन्होंने एक छापाखाना भी खोला; जिसमें छापे की 4 अच्छी मशीनें थीं। जब वे वांटज े में थीं तो सिस्टर लोगों के छोटे से छापेखाने में काम करते हुए उन्होंने टाइपिंग सीखी थी। वे अपनी छात्राओं को मराठी, हिन्दी, अंग्ज रे ी, ग्रीक और हिब्रू की टाइपिंग सिखाती थीं। उन्होंने छात्राओं को प्रेस के काम में तो दक्ष किया ही किताबों की जिल्द बाँधना भी सिखाया। यह एक बड़ी उपलब्धि थी। सुश्री विक्टोरिया ब्रेजियर (Victoria Brazier) और बेनी - इजरायल समुदाय के यहूदी मुद्रक श्री आरोन जैकब दिवेकर (Aaron Jacob Divekar) का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान था। सबने रमाबाई से कहा था कि यह

उन्होंने अनाथ लड़कों के लिए एक छोटा-सा स्कूल बनवाया। नाम रखा - सदानंद सदन, कभी खत्म न् होनेवाली खुशी का घर। उसी तरह छोटी बच्चियों के लिए जो विभाग था उसका नाम रखा गया प्रीति सदन, प्रेम का घर। काम असंभव है, हिन्दुस्तानी औरतों में मशीनों को चलाने का कौशल ही नहीं है। पर ऐसा लगता है कि चुनौतियाँ उन्हें पसंद थीं, नामुमकिन तो मानो उनके लिए कुछ था ही नहीं। उन्होंने मुक्तिसदन की लड़कियों को बढ़ईगिरी, ईटों का निर्मा ण और कारीगरी का काम भी सिखाया था। लड़कों के लिए पाठशाला भवन का निर्मा ण मुक्तिसदन की लड़कियों ने ही किया था। यह एक काम ही मुक्ति सदन की लड़कियों के बारे में बहुत कुछ कहता है। उन्होंने एक कुएँ का निर्मा ण भी खुद ही किया था। ऐसा करते समय कोई दुर्घ टना भी नहीं हुई, जबकि पुरुषों के साथ ऐसा होता रहा है। कुल 12 कंु ओं का निर्मा ण उन्होंने किया। इनमें से 9 के नाम बाइबल में उल्लिखित 9 ‘फ्रूट ऑफ स्पिरिट’ (Fruit of the Spirit) के नाम पर रखे। किसी को नाम देना उन्हें अच्छा लगता था, चाहे वह इं सानों को हो या जानवरों को। विलक्षण और सार्थ क नाम देने की अद्भुत प्रतिभा थी उनमें।... मुक्ति सदन के सदस्यों की संख्या रमाबाई के दरवाजे सबके लिए खुले रहे। इनमें विपदाओं के मारे मनुष्य थे, विकलांग थे, नेत्रहीन थे। इन सब संतप्त मनुष्यों के लिए उनका एक ही सम्बोधन था - “मित्र”। अपने इन दोस्तों के लिए वे रसोई बनातीं और अपने हाथों से परोसतीं। युवावस्था के उनके अपने संघर्षों ने उन्हें सिखाया 88


था कि भूख की यातना क्या होती है। इसके बाद कोई भी प्राणी उनके दरवाज़े से भूखा नहीं लौटा। लेकिन यदि कभी उन्हें किसी लड़की को छोड़ना पड़ा तो वह एकदम अलग बात थी और एक मुश्किल सबक था। फिर भी उन्होंने यह सबक सीखा। और मुक्ति सदन से अनेक लड़कियाँ शिक्षिका और बाइबल की प्रचारिका के रूप में निकलीं और सैकड़ों ने ईसाई युवकों से विवाह किया। उनके यहाँ लड़कियों की संख्या 1900 से ज्यादा कभी नहीं रही, लेकिन एक अनुमान के अनुसार 1899 से 1922 के बीच 3000 से अधिक लड़कियाँ उनके आश्रम में रहीं। भगवान जाने वे लड़कियाँ कौन थी, हालाँकि मुक्ति सदन के दस्तावेज़ों - रिकार्ड बुक में उनमें से अधिकांश के नाम दर्ज हैं। रमाबाई के निधन के समय मुक्तिसदन में 800 लोग थे, जिनमें अधिकांशतः बच्चे और नौजवान लड़के लड़कियाँ थे। मुक्ति सदन में अधिकतर अनाथ, बेसहारा आते थे और आगे भी आते रहेंग।े अपने दुखभरे अतीत के बावजूद उनमें से अधिकांश कितने प्यारे हैं। उनमें से बहुतों को तो घर के नाम पर ‘मुक्ति सदन’ के सिवा कुछ भी याद नहीं। इन नन्हों की देख-रे ख के लिए हमेशा महिलाओं की अच्छी- खासी संख्या आश्रम में रही है।... उदार हृदय सोलोमन की तरह रमाबाई को ईश्वर ने “अतिशय विवेक और समझ से नवाजा था और एक बड़ा दिल दिया था जैसे समुद्र तट पर रे त होती है वैसा ही विस्तृत”। उनके ही सान्निध्य में रहनेवाली एक लड़की ने कहा था, “उनके हृदय में सागर जैसी गहराई है।” उनके अनेक रूप थे। एक तो वे स्वभावतः उदार थीं। आतिथ्य में उनके पिता का उदाहरण उनके सामने था। उन्होंने परिश्रमपूर्व क यह भी सीखा था कि बंधनों से मुक्त हुए बगैर स्वतंत्रता नहीं हासिल की जा सकती। शायद उनमें हिं दुओं मे प्रचलित आत्मा की मुक्ति के सिद्धांत के तत्त्व थे। इस सिद्धांत की मान्यता है कि इस जगत से जो मिला है उसे लौटाकर जाओ, जिससे

पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति मिल सके। हालाँकि उन्होंने कभी शब्दशः इस सिद्धांत का पालन नहीं किया। उन्होंने दिया अधिक लिया कम। फिर कर्म सिद्धांत की यह भी मान्यता है कि यदि आपका किसी पर दाय है तब भी पुनर्जन्म अनिवार्य है, जिससे आपके ऋणी को उऋण होने का अवसर मिल सके! “दुष्कृ त्य जैसे आत्मा को बंधनयुक्त करते हैं वैसे ही सत्कर्म भी”! लेन-देन में संतुलन बनाकर चलने वाले मनुष्य का व्यवहार शोभनीय नहीं होता। रमाबाई में निश्चित ही यह दोष नहीं था। उन्होंने सदैव मुक्त हस्त से दिया और देते समय सदैव उदार रहीं। उन्हें मिला भी मुक्त हस्त से, उन्होंने दान भी मुक्त हस्त से किया। विनय रमाबाई प्रशंसा को एकदम से नापसंद करती थीं। सिर्फ दिखावे के लिए नहीं, बल्कि इस बात में वे विश्वास करती थीं कि मनुष्यों के सत्कर्मों का श्रेय भी ईश्वर को जाना चाहिए, आखिर वही तो उनके कर्मों का नियंता है। यदि औजार बढ़िया है तो वह भी उसके बनानेवाले की मेहरबानी से [यानी मनुष्य में सद्ण गु हैं तो यह ईश्वर की सदिच्छा का परिणाम है] । ईश्वर की प्रशंसा ही उन्हें प्रसन्न करती थी। जब भी ईश्वर के बजाय उनकी प्रशंसा में कुछ कहा जाता, तो वह बात उन्हें भीतर से विचलित करती और और यह विचलन महज दिखावे के लिए नहीं होता था, इस बात की साक्षी मैं रही हूँ। वह एक ऐसा महान व्यक्तित्व था जो मधुर विनम्रता से युक्त था। यह पर्या प्त गर्वीला भी था, लेकिन यह अहं कारमुक्त गर्व था। इस विनम्रता को उन्होंने अर्जित किया था, जिसमें गर्व को निर्ममता से अनुशासित किया गया था। गर्व का संपूर्ण दलन करके प्रभु को एक बलि के रूप में अर्पित करने के बाद हासिल की गई विनम्रता थी। अपने तुच्छ तरीके से मैं उनसे बहुत प्यार करती थी और मुझको वे सदैव प्रसन्न दिखाई देतीं। उनका व्यक्तित्व इतने कोणों से दिलचस्प था कि उसका 89


प्रार्थ ना और उपवास रमाबाई का प्रार्थ ना और उपवास का अटू ट क्रम वर्षों तक चला। गुजरते वक्त के साथ दूसरों की भलाई की मनोकामना के साथ की गई प्रार्थ नाओं की अवधि बढ़ती ही चली गई। और जल्दी ही उनकी प्रार्थ नाओं का दायरा, संत पाल के कथनानुसार ‘समूची मनुष्यता’ तक विस्तृत हो गया। उनकी प्रार्थ ना सबके लिए होती थी, वे चाहे छोटे हों या बड़े, नजदीक हो या दूर। प्रतिदिन प्रार्थ ना में सैंकड़ों व्यक्तियों का तो नाम लेती थीं। अपनी बाइबिल में वे सैकड़ों नाम लिखकर रखती थीं। मुक्ति सदन में रहने वाले सभी लोगों के नाम सप्ताह के दिनों में क्रमशः बँटे होते हैं। (जिनका प्रार्थ ना में नाम लेतीं) इसके अलावा और भी अनेक नाम होते थे। फिर उनकी प्रार्थ ना में सभी जातियों, सभी नस्लों, सभी राष्ट्र, धर्मों में बँटी हुई समूची मानवता, सभी प्रकार के शासन, सभी शोषितों, दिन-दुखियों, अमीरों, योद्धाओं (हिं सक लड़ाकों) का जिक्र होता। फिर प्रार्थ ना में यह निवेदन होता कि ईश्वर की यहाँ भी सत्ता हो, जैसे स्वर्ग में उसकी मर्जी चलती है यहाँ भी चले, “उसकी महिमा सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। उदार हृदय, सदि च्छाएँ, असीम विश्वास, अकंप धैर्य - ये उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ थीं। वे स्वर्ग में भी निश्चित ही सबकीं बहुत प्रिय होंगी। जब वे स्वस्थ हुआ करती थीं तो चार दिन का उपवास उनके लिए कुछ नहीं था। जीवन के अंतिम चरण में वे बेहद कमजोर हो गईं थी, जब रात में सब सो रहे होते तब भी वे नियमित रूप से प्रार्थ ना करतीं। वे प्रातः समय भी प्रार्थ ना करतीं और दिन में भी नियमित रूप से अपने कमरे में जाकर दो या अधिक बार प्रार्थ ना करतीं। काम के बीच में भी प्रार्थ ना करने की उनकी आदत थी। शुक्रिया अदा किये बिना न तो कभी वे भोजन करतीं न पानी ही पीतीं। मैंने उन्हें एक गिलास पानी मिलने पर भी ईश्वर के आगे सिर झुकाते देखा है। कभी कभी वे इस काम में इतनी तल्लीन हो जातीं कि उन्हें हाथ में लिए गिलास की कोई सुध ही नहीं रहती।.

ओर-छोर नहीं था। चूँकि मैं उन्हें बचपन से ही जानती थी इसलिए मेरे उनके बीच मुक्त स्नेह का संबंध था। वे और मेरी माँ तो मानो बहने ही थीं, इसी नाते मैं उन्हें मौसी कहा करती थी। लेकिन उन्होंने मुझे हमेशा अपनी बेटी की तरह माना। उनका व्यक्तित्व कितना शानदार है, उन्हें यह बताना मुझे अच्छा लगता था। सच कहूँ तो इसका एक कारण उनके चेहरे के हाव-भाव को देखकर आनंदित होना था, कुछ उन्हें थोड़ा-सा तंग करना था और कुछ उनके सरल विनम्र स्वभाव की झलक पाना। इस पर कभी वे मुस्कु रा देतीं कभी मुझे प्यार से चूम लेतीं। मैं कभी कभी उन्हें यूँ ही सरस्वती देवी कह दिया करती थी, जिस पर वे हं स देतीं। उन्हें हँसते देखना अच्छा लगता था। जब मैं दूसरों की आवाज की नकल करती हुई उनके बारे में अक्सर कही जाने वाली बातों को दोहराती, तो वे इन बातों पर खुलकर हँसतीं। पर जब मैं कभी गंभीर होकर लोगों द्वारा की गई प्रशंसा को उनके सामने दोहराती, तब वे प्रसन्न नहीं दिखतीं और तुरंत मुझसे कहतीं, “तुम मुझसे यह सब मत कहा करो।” ये सब बातें एक दो बार हुईं, उसके बाद उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं फिर कभी उनसे ये सब बातें न कहा करूँ । फिर मैंने कभी ऐसा नहीं किया, उनकी इस बात को भला मैं कैसे टाल सकती थी। मौजूदगी वास्तव में रमाबाई का व्यक्तित्व ऐसा था कि कोई भी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता था। लड़कियों का उनके प्रति प्रेम उन्माद की हद तक था, कभीकभी तो वे उनके साथ अबोध शिशुओं का सा व्यवहार करतीं, फिर भी उन लोगों के व्यवहार में उद्दंडता कभी नहीं रही। उनका व्यक्तित्व बहुत आकर्ष क था। ऐसा व्यक्तित्व उन जैसी महान और श्रेष्ठ पृष्ठभूमि की महिला का ही हो सकता है। उनकी सादगी, गरिमा और शिष्टता बेहद आकर्ष क और प्रभावी थी। उनसे ऊर्जा फूटती रहती थी।... 90


ज्योतिबा फुले की कविता ज्योतिबा फुले की यह मराठी कविता ‘सतसार’ (पहला अंक) पत्रिका में छपी थी। यह ‘महात्मा फुले समग्र वांग्मय’ में संकलित है। इसका मराठी से हिन्दी भावार्थ ‘सत्यशोधक समाज’ के साथी सुनील सरदार ने किया है जिसे चारु सिंह ने व्यवस्थित किया है। हम जानते हैं कि पंडिता रमाबाई के ईसाई धर्म ग्रहण करने पर कितना हंगामा हुआ था। उस शोरगुल के बीच ज्योतिबा फुले एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म परिवर्त न को रमाबाई का विचलन नहीं माना। वे मज़े लेकर इस कविता में कहते हैं धूर्त आर्यों की मति अब काम नहीं कर रही। इसलिए अच्छा हुआ जो पंडिता रमाबाई ने धर्म परिवर्त न कर लिया। (बाटली शब्द यहाँ अछूत समुदाय से भी नीचे चले जाने को इं गित कर रहा है। इसकी वजह उनका ईसाई हो जाना है।) यों तो ज्योतिबा फुले शराब नहीं पीते थे, लेकिन आज वे इतना खुश हैं कि कहते हैं - ‘जी करता है आज खूब शराब पीऊ ँ । मुझे अब ब्रांडी की बोतल लाकर दो।’ ज्ञान (ब्राह्मणवादी ज्ञान) चला गया और रो-रोकर इन ब्राह्मणों की आँख सूख गई है। हर तरह के झूठ और पाखंड से भरा वैभव ख़त्म हो गया है। पंडिता रमाबाई ने धर्मपरिवर्त न के रूप में ऐसा वार किया है। अब ये ब्राह्मण जो पंडिता रमाबाई को कोसा करते थे, वे तुकाराम जैसे जातिविरोधी संत का नाम जपने लगे हैं और खुद को उनका चेला बताने लगे हैं। अब ये ब्राह्मण शूद्र राजा शिवाजी को हड़पने में लगे हैं। 91


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थ माक ा र पूर्वा भारद्वाज अनुप्रिया नासिरूद्दीन सेतु प्रकाशन

जल्द ही रमाबाई पर चित्रकथा 92


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