सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 04)

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शिक्षा

08 - 14 जनवरी 2018

तालीम का ‘रास्ता’

दिल्ली से लगी बस्ती खोड़ा में गरीब मुस्लिम बेटियों को तालीमी राह दिखाने में जुटा है ‘रास्ता’

आईएएनएस

स साल पहले भरी दोपहरी में तीन महिलाएं शबनम के एक कमरे वाले मकान में पहुंचीं, जहां शबमन की छह साल की बेटी सना और दूसरी सात साल की बेटी शायमा घर में ही बैठी हुई थीं। दोनों को मजबूरन स्कूल छोड़ना पड़ा था, क्योंकि परिवार के पास उनकी स्कूल की वर्दी खरीदने के पैसे नहीं थे। दोनों अब मदरसे में जाया करती थीं। इन तीनों महिलाओं के घर आगमन से शबनम बिल्कुल अनजान थी, उसे नहीं पता था कि इन महिलाओं के आगमन से उसकी बेटियों की जिंदगी बदल जाएगी। तीनों महिलाएं एक नए बालिका विद्यालय की अध्यापिकाएं थीं, जो उनके घर के पड़ोस में ही खुला था। उनकी बस एक ही दरख्वास्त थी, ‘कृपया अपनी बेटियों को हमारे विद्यालय में भेजिए।’ यह एक ऐसी दरख्वास्त थी, जिसने उसके बाद से सैकड़ों मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा की तरफ एक नया मोड़ दिया। दिल्ली के बाहर बसी 'बीमारी और अपराध के लिए कुख्यात' इस बस्ती (जैसा कि अक्सर स्थानीय

खास बातें पहले घर-गर जाकर अभिभावकों को समझाना पड़ा स्कूल में आज लगभग 600 बालिकाएं पढ़ती हैं इन बालिकाओं में 70 फीसदी मुस्लिम परिवारों से हैं

स्कूल में ऑनलाइन कक्षाओं के जरिए भी पढ़ाई कराई जाती है। यहां 10वीं कक्षा में विद्यार्थियों के पास होने का प्रतिशत 85 है मीडिया में दर्शाया जाता है) में बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी रहती है और यहां कोई बालिका विद्यालय नहीं है। विद्यालय के अध्यापक घर-घर जाकर अभिभावकों से अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिए समझा रहे थे। स्कूल की फीस 40 रुपए प्रति माह थी, जिसके साथ मुफ्त किताबें और स्कूल की वर्दी भी थी। सना और शायमा ने अपनी उम्र में अंतर होने के बावजूद एक ही कक्षा में दाखिला कराया। यह निर्णय कारगर साबित हुआ। खुश शबमन ने अपने मामूली से घर के बाहर आकर बताया, ‘अब वह बसों के नाम, सरकारी दस्तावेज पढ़ सकती हैं और मेरी बेटियां हमसे ज्यादा समझदार हो चुकी हैं।’ एक मामूली शुरुआत के बाद, स्कूल में आज लगभग 600 बालिकाएं पढ़ती हैं, जिसमें से 70 फीसदी मुसलमान हैं। इसके साथ ही स्कूल में ऑनलाइन कक्षाओं के जरिए भी पढ़ाई कराई जाती है और खास यह कि 10वीं कक्षा में विद्यार्थियों के पास होने का प्रतिशत 85 है। सर्दियों की सुबह में हल्की पीली और संतरी रंग से रंगी दीवारों वाले 'रास्ता' की 10वीं कक्षा में लकड़ी की बेंच पर बैठी 17 लड़कियों की 'यस मैम' और 'नो मैम' की आवाजें सुनाई देती हैं। एक दशक पहले स्कूल में दाखिला लेने वाली और सड़क किनारे बिरयानी बेचने वाले की बेटी सना अब 16 साल की हो चुकी है और अपनी अध्यापिका की सर्वक्षेष्ठ छात्रा है। सना, कुछ महीनों में 10वीं की परीक्षा देने वाली है। सना का सपना शिक्षक बनने का है। और वह कहती है शिक्षा ने उसे स्वतंत्र बनाने में मदद की है। उसकी बहन शायमा, ने डबल प्रमोशन हासिल कर पास के एक दूसरे स्कूल में चली गई और वह अब 11वीं में है। उसके बगल में बैठी 18 वर्षीय सैमा और 17 वर्षीय रुकिया, सभी अपने सपनों को लेकर स्पष्ट हैं। सैमा ने कहा, ‘मैं अब किसी से भी बात कर सकती हूं। मुझे अब कहीं भी जाने से डर नहीं लगता।’

वहीं रुकिया का कहना है कि उसके शिक्षित होने से अब उसके बच्चे भी उससे बेहतर होंगे। इन तीनों लड़कियों की तरह कई और लड़कियां हैं, जिनका स्कूल किसी कारणवश छूट गया था, और जिन्हें शिक्षा की तरफ दोबारा मोड़ने में रास्ता ने एक अहम भूमिका निभाई है। 600 छात्राओं के इस मशहूर स्कूल 'रास्ता' की कहानी की शुरुआत, जनवरी 2007 में कड़ाके की ठंड में दो पुराने दोस्तों के बीच चाय की चुस्की लेते हुए एक चुनौती से हुई। स्कूल के संस्थापक 58 वर्षीय केसी पंत ने रास्ता स्कूल के अपने कमरे में उस दोपहर को याद करते हुए कहा, ‘उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं मुस्लिम लड़कियों को एक चुनौती के रूप में पढ़ा सकता हूं, मैंने कहा- हां।’ शिक्षा क्षेत्र में करीब तीन दशक के अनुभवी पंत ने कहा, ‘खोड़ा स्पष्ट रूप में मेरी पहली पसंद था। स्कूल के लिए तेजी से काम किया गया। फरवरी के मध्य तक, खोड़ा में चार अलगअलग जगहों पर रास्ता स्कूल की शाखाएं खोली गईं, जहां 250 से अधिक छात्राओं को अनौपचारिक रूप से शिक्षा प्रदान करने की शुरुआत की गई। प्रत्येक स्कूल में दो-तीन कक्षाएं होती थीं।’ 2015 में उत्तर प्रदेश सरकार ने स्कूल को मान्यता प्रदान की और अब यह केवल एक इमारत में संचालित किया जाता है। पंत ने कहा कि शुरुआत के उन दिनों यह सब आसान नहीं था। शुरुआत में, वह और अन्य को मदरसा और मस्जिद जाना था और मौलानाओं को समझाना था कि वे बेटियों को स्कूल भेजें। वे अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेजा करते थे। वे अपने बेटों को तो भेज सकते थे, लेकिन बेटियों को नहीं। उन्होंने कहा, ‘इसके बाद से स्थानीय निवासियों के रवैये में एक बड़ा बदलाव आया।’ लड़कियां जानती थीं कि यह उनके लिए बहुत फायदेमंद साबित होगा। स्कूल की 41 वर्षीय हिंदी शिक्षिका मंजू जोशी ने कहा कि कुछ छात्राओं ने स्कूल से निकलने के

बाद डिग्री हासिल कर ली है। चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ उन्होंने कहा, ‘उनमें से कुछ वापस स्कूल आती हैं और हमसे गले लगती हैं।’ स्कूल की प्रधानाचार्य विनिता सिंह ने कहा, ‘दो साल पहले एक लड़की ने अपनी शादी में देरी इसीलिए की, क्योंकि वह पढ़ना चाहती थी। एक गरीब मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखकर यह फैसला करना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।’ शबनम नाम की एक और मुस्लिम महिला है। पूरा नाम है शबनम अंसारी (45)। इनकी भी दोनों बेटियां रास्ता में पढ़ रही हैं। उनके पास अपनी दोनों बेटियों को स्कूल भेजने की दूसरी वजह है। उन्होंने कहा, ‘इन दिनों दूल्हे भी पूछते हैं कि लड़की कितना पढ़ी है?’ उन्होंने कहा, ‘पिता कागजों पर अंगूठा लगाते हैं, मां भी कागजों पर अंगूठा लगाती है, क्या बच्चे भी यही करेंगे?’ उन्होंने पूछा, ‘हमारे साथ जो हुआ, वह उनके साथ नहीं होना चाहिए।’ पंत का मानना है कि अभी बहुत लंबा सफर तय करना बाकी है। सड़क पर बिरयानी बेचने वाले सना के पिता आरिफ ने कहा, ‘पढ़ने के बाद वह क्या करेगी? फिर भी, हम उसे नौकरी नहीं करने देंगे।’ उन्होंने कहा, ‘10वीं कक्षा काफी है, अब उसे घर के काम करने होंगे। फीस भी अब बढ़ चुकी है और 300 रुपए देने होते हैं और मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं।’ उन्होंने अपनी पत्नी शबनम से पूछा, ‘लोग क्या कहेंगे, जब हम उसे नौकरी करने के लिए भेजेंगे?" उन्होंने सना की शिकायत करते हुए कि वह धार्मिक गतिविधियों को छोड़ केवल स्कूल की गतिविधियां ही करती है। उनकी शिक्षा ने हालांकि लड़कियों की शिक्षा पर असर डाला है। सना ने कहा, ‘अगर मुक्त विद्यालय के जरिए बन पाया, तो मैं अपनी पढ़ाई जारी रखूंगी।’ उसने कहा, ‘मैं कॉलेज जाना चाहती हूं।’ शबनम ने हंसते हुए कहा, ‘अब वह यह भी कहती है कि वह नौकरी करना चाहती है।’


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