903_Verses_of_Kabir_in_Hindi_Kabir_ke_dohe

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अजहु ँ झोला बहु त है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ पाँच त व का पूतरा, मानुष धिरया नाम । िदना चार के कारने, िफर-िफर रोके ठाम ॥ 796 ॥ कहा चुनावै मे िड़या, ल बी भीत उसािर । घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चािर ॥ 797 ॥ यह तन काँचा कुंभ है, िलया िफरै थे साथ । टपका लागा फुिट गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ कहा िकया हम आपके, कहा करगे जाय । इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ जनमै मरन िवचार के, कूरे काम िनवािर।

िजन पंथा तोिह चालना, सोई पंथ सँवािर ॥ 800 ॥ कुल खोये कुल ऊबरै , कुल राखे कुल जाय ।

राम िनकुल कुल भेिटया, सब कुल गया िबलाय ॥ 801 ॥ दु िनया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कािन । तब कुल की या लाज है, जब ले धरा मसािन ॥ 802 ॥ दु िनया सेती दोसती, मुआ, होत भजन म भंग । एका एकी राम स , कै साधुन के संग ॥ 803 ॥ यह तन काँचा कुंभ है, यह िलया रिहवास । कबीरा नैन िनहािरया, ना ह जीवन की आस ॥ 804 ॥ यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहू ँ िदस खाय । एक ह गु

के नाम िबन, जिद तिद परलय जाय ॥ 805 ॥

जंगल ढे री राख की, उपिर उपिर हिरयाय । ॥ कबीर के दोह ॥


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