बहु तक भोदूँ बिह गये, रािख जीव अिभमान ॥ 432 ॥ गु
को कीजै द डव कोिट-कोिट परनाम ।
ृ को, गु कीट न जाने भगं
करले आप समान ॥ 433 ॥
कुमित कीच चेला भरा, गु
ान जल होय ।
जनम-जनम का मोरचा, पल म डारे धोय ॥ 434 ॥ गु
पारस को अ तरो, जानत है सब स त ।
वह लोहा कंचन करे , ये किर लेय मह त ॥ 435 ॥ गु
की आ ा आवै, गु
की आ ा जाय ।
कह कबीर सो स त ह, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ जो गु
बसै बनारसी, सीष समु दर तीर ।
एक पलक िबसरे नह , जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ गु
समान दाता नह , याचक सीष समान ।
तीन लोक की स पदा, सो गु
दी ही दान ॥ 438 ॥
गु
कु हार िसष कुंभ है, गिढ़-गिढ़ काढ़ै खोट ।
गु
को िसर रािखये, चिलये आ ा मा ह ।
अ तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥
कह कबीर ता दास को, तीन लोक भय न ह ॥ 440 ॥
ल छ कोष जो गु
बसै, दीजै सुरित पठाय ।
श द तुरी बसवार है, िछन आवै िछन जाय ॥ 441 ॥ गु
मूरित गित च
मा, सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर िनरखता रहे , गु
मूरित की ओर ॥ 442 ॥
॥ कबीर के दोह ॥