903_Verses_of_Kabir_in_Hindi_Kabir_ke_dohe

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बहु तक भोदूँ बिह गये, रािख जीव अिभमान ॥ 432 ॥ गु

को कीजै द डव कोिट-कोिट परनाम ।

ृ को, गु कीट न जाने भगं

करले आप समान ॥ 433 ॥

कुमित कीच चेला भरा, गु

ान जल होय ।

जनम-जनम का मोरचा, पल म डारे धोय ॥ 434 ॥ गु

पारस को अ तरो, जानत है सब स त ।

वह लोहा कंचन करे , ये किर लेय मह त ॥ 435 ॥ गु

की आ ा आवै, गु

की आ ा जाय ।

कह कबीर सो स त ह, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ जो गु

बसै बनारसी, सीष समु दर तीर ।

एक पलक िबसरे नह , जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ गु

समान दाता नह , याचक सीष समान ।

तीन लोक की स पदा, सो गु

दी ही दान ॥ 438 ॥

गु

कु हार िसष कुंभ है, गिढ़-गिढ़ काढ़ै खोट ।

गु

को िसर रािखये, चिलये आ ा मा ह ।

अ तर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥

कह कबीर ता दास को, तीन लोक भय न ह ॥ 440 ॥

ल छ कोष जो गु

बसै, दीजै सुरित पठाय ।

श द तुरी बसवार है, िछन आवै िछन जाय ॥ 441 ॥ गु

मूरित गित च

मा, सेवक नैन चकोर ।

आठ पहर िनरखता रहे , गु

मूरित की ओर ॥ 442 ॥

॥ कबीर के दोह ॥


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