Khirkee Voice (Issue 6) Hindi

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ग्रीष्म संस्करण

खिड़की आवाज़ अंक #6

माँ का अपने बच्चे के लिए गहरा प्यार

3

मौसम की रिपोर्ट

जु ल ा ई - स ि त म्ब र 2 0 1 8

अलामांडा गोल्डन ट्रंपेट

आबिजान, ऐवेरी कोस्ट

जुलाई में सुहाना मौसम, अगस्त में भारी बारिश दिल्ली, भारत हिबिस्कस

गर्म और नम, आवर्ती बारिश के साथ काबुल, अफगानीस्तान ट्यूलिप

ज़्यादातर गर्म और तेज़ धूप किन्शासा, कॉन्गो गुलाबी इजीप्सियन स्टारक्लस्टर

सुहाना मौसम, सितम्बर में आं धी तूफ़ान लेगोस, नाइजीरिया कला लिली

12 पन्ने

प्रेम विशेषांक

शहर में प्यार के कई रंग

अध्याय 6. जबरन समुद्र में ले जाया गया

9

4

आई ध्रु

महावीर सिंह बिष्ट वीकरण के दौर में देश-प्रेम और राष्ट्रवाद जैसे पेचीदा मसलों के अनेकों अर्थ हो सकते हैं। जब भी दीमकों की तरह कोई बड़ी समस्या या हालात देश को खोखला कर रहे होते हैं, देश प्रेम अलग-अलग विचारधाराओं के स्वरूप को ओढ़े देशप्रेमियों के दिल में बसता है। हमारा सीना फूल उठता है, जब गणतंत्र दिवस पर सैन्यबलों के जुलूस निकलते हैं। हम हर स्वतंत्र दिवस पर आज़ादी की पतंग उड़ाते हैं और देश के लिए अपने प्यार को ज़ाहिर करते हैं। तो सवाल यह उठता है कि इन दो मौक़ों पर क्या परेड कर रहे सैन्य बलों की सराहना करना और आज़ादी के जुनून में पतंग उड़ाना, हमारी देशभक्ति का सबूत है ? क्या देश के प्रति वफ़ादारी और प्यार एक नागरिक होने के नाते इन सरल अभिव्यक्तियों तक ही सीमित है ? या सभी नियमों और क़ानूनों का पालन करना हमारे देश से प्यार का सबूत है ? क्या हम एक देशभक्त नागरिक होने की सभी जिम्मेदारियाँ निभा रहे हैं? इन्हीं सवालों के साथ हमने खिड़की एक्सटेंशन में रह रहे लोगों से बदलते वक़्त में देश-प्रेम और राष्ट्रवाद को समझने का प्रयास किया। “हर व्यक्ति अपनी मातृभूमि से प्यार करता है। इसे समझने और समझाने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है”, रोहित खन्ना जी कहते हैं। उनकी खिड़की एक्सटेंशन के जे. ब्लॉक में पेंट की दक ु ान है। साथ

के सहयोग से

भगवती प्रसाद की यादगार अभिव्यक्ति

6

माय इं डिया

खिड़की वासियों के देशप्रेम की अभिव्यक्ति... ही वे यह कहते हैं,”एक नागरिक होने के नाते हमें अपने मोहल्ले की साफ़ सफ़ाई का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि हम नागरिक अधिकारों की बात तो करते हैं, पर ज़िम्मेदारियों को तवज्जो नहीं देते। खुद की ज़िम्मेदारियों को नहीं समझते। हर समस्या के लिए सत्ताधारी लोगों को कोसने से क्या होगा?”उनकी इस बात ने देशभक्ति के मूल की ओर इशारा किया जिसमें हमारे छोटे-छोटे प्रयासों और कृत्यों से हम देश के प्रति प्यार को ज़ाहिर करते हैं। साथ ही उन्होंने सविंधान की ओर भी इशारा किया जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों और जिम्मेदारियों को एक मानदण्ड माना जा सकता है। रोमियो कोंगो में हैं और उन्हें सत्ता के खिलाफ संगीत बनाने की वजह से देश छोड़ना पड़ा। वे कहते हैं, “जब भी हमारे आसपास कुछ गलत हो रहा हो, तो हमें आवाज़ उठानी चाहिए, ज़रुरत पड़े तो सबको जगाना चाहिए, शायद यही सच्ची देशभक्ति का सबूत है।” इस बात से समझ आया कि मूक दर्शक बनने की बजाय हमें देश की उन्नति के लिए समाज की कुरीतियों से भी लड़ना चाहिए। तो ऐसे में देश की उन्नति के लिए हम किस तरह योगदान दे सकते हैं? इसी का जवाब खोजते हुए हम भोले शंकर शर्मा जी से मिले। वे क्रि केट देखने के बड़े शौक़ीन हैं। उन्हें याद है, जब भारत 1983 में कपिल देव की कप्तानी में वर्ल्ड कप जीता था,

तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा था। वे खिड़की एक्सटेंशन में कई वर्षों से जुड़े हुए हैं और एक पेंटर का काम कर रहे हैं। वे कहते हैं,”जब भी देश को मेरी ज़रूरत पड़ेगी, तो जैसे भी होगा मैं योगदान दूँगा। हम बिना ट्रेनिंग के सरहद पर तो नहीं जा सकते, पर अपनी काबिलियत के हिसाब से योगदान देंगे। देश के प्रति प्यार तो दिल में होता है।” उनकी बातों से एक आम नागरिक की अपनी मातृभूमि के प्रति भावनाओं की झलक मिलती है। भोले जी ने हमे बताया कि उनके सबसे करीबी दोस्तों में से एक किसी अन्य धर्म के हैं, लेकिन कुछ शरारती तत्वों द्वारा किसी के देश प्रेम को धर्म विशेष से जोड़कर, सवाल उठाना सरासर गलत है। हमारी दिलचस्पी यह जानने में थी, कि फिर क्यों राजनेताओं और शरारती तत्वों द्वारा किसी धर्म विशेष के देश प्रेम पर सवाल उठाया जाता है, जबकि आम आदमी को इससे फर्क नहीं पड़ता। वे समाज में सौहार्द के साथ रहते हैं। इस पर मो.शम्मी ने प्रकाश डाला। उनका बिजली का काम है, उनका खिड़की में अक्सर आना-जाना लगा रहता है। वे कहते हैं,”जहाँ आपका जन्म हुआ हो, उससे जुड़ाव तो लाज़मी है। देश और धर्म अलग-अलग हैं। लोगों की विचारधारा अलग हो सकती है। जनतंत्र में राजनीती की वजह से खामियाँ आ रही है। लोगों की सोच बदलनी चाहिए। कोई भी राष्ट्रवाद पर सवाल उठाता तो उस पर

बहस होनी चाहिए। हर नागरिक अपने तरीके देश को योगदान देता है।” उनकी बातों से समझ आने लगा कि देश को प्यार करना एक निजी मामला है और देश और दनि ु या के सभी लोगों की अपनी-अपनी राय हो सकती है। शायद राष्ट्रवाद से ज़्यादा अहम मानवतावाद है, जिसमें समाज के लोग एक दूसरे की संवेदनाओं का ख्याल रखें। देविका मेनन खिड़की में एक कैंटीन चलती और उन्होंने खूबसूरत शब्दों में कहा,”अगर हम अपने देश से प्यार करते हैं, तो कूड़ा इधर-उधर न फेंके। संसाधनों का सूझबूझ से इस्तेमाल करें और महिलाओं को सुरक्षित महसूस करायें।साथ ही अपने आसपास के लोगों के प्रति सवेंदना दिखायें।” देविका के शब्दों में कुछ सरल उपायों से अपने आसपास के लोगों के प्रति संवेदना की झलक मिलती है। हमनें अपने आइवरी कोस्ट (अफ्रीका) के मित्र ऐविस से जानना चाहा कि देश के लिए क्या करना चाहिए, तो वे बोले,”आप अपने देश से प्यार करते हैं तो मेहमानों का अच्छे से स्वागत करते हैं। मुझे भारत में रहना बहुत अच्छा लगता है, पर कभीकभी भाषा के अंतर की वजह से ज़्यादा लोगों से बात नहीं हो पाती। पर मैं कभीकभी भूल जाता हूँ कि मैं किसी अन्य देश में हूँ, ये मेरा जैसा ही है। पर मुझे कभी9 कभी अपने देश के खाने और मौसम

खि.आ.: हम यह जानना चाहते हैं, लोगों की हिन्दू-मुस्लिम के बारे में बहुत-सी आम-धारणाएँ हैं, पर आपकी कहानी सुनकर ऐसा प्रतीत नहीं हुआ ? सं: मेरे बचपन से ही बहुत से मुस्लिम दोस्त रहे हैं। अच्छे बुरे लोग दोनों तरफ हैं। यह सब आपके अनुभवों और शिक्षा पर भी निर्भ र करता है। ज़रूरी यह है कि इन मसलों को खुले दिमाग से सोचा जाए। जो व्यक्ति सूजबूझ से अपने आसपास की चीज़ों को सवाल करता है और परखता तो

वह अपने जीवन के फैसले खुद ले सकता है। आदमी को अपनी सोच को प्रगतिशील बनाना चाहिए। खि.आ.: आपकी प्रेम-कहानी में किस किस तरह के उतार-चढ़ाव आये हैं? सं: हमें अक्सर डर लगता था, कि ये सब अचानक ख़त्म न हो जाये। पर हम मिलते थे, छिपते-छिपाते । मैं कई बार उन्हें घर के नीचे छोड़ने भी जाता था। हर रिश्ते में उतार-चढ़ाव तो लगा ही रहता है। खि.आ.: आप दोनों की संस्कृतियों 11

एक सदाबहार प्रेम कहानी संदीप छिकारा और सैय्यद मे हनाज़ एक खुशहाल जोड़ा है। खिड़की आवाज़ ने उनकी प्रेम कहानी जाननी चाही।

लगातार तेज़ बारिश

मालतीस रॉक कॅन्टौरी

मोगदिशु, सोमालिया

सुहाना और बादलों से घिरा हुआ, निरंतर आं धी तूफ़ान

सफ़ेद कचनार

रेखा चित्र: शिवांगी सिंह

पटना, भारत

जुलाई में सुहाना मौसम, लगातार भारी बारिश

खि.आ.: तो आपकी कहानी कैसे शुरु हुई? सं: यह लगभग 2005 की बात है, तब एक कम्पनी मैं मेरी जॉब लगी थी। वहाँ पहली बार मेरी मुलाकात मेहनाज़ से हुई थी। वो हमारी ट्रेनर थी। लगभग तीन दिन हमारी हल्की-फुल्की बातचीत हुई। अगले 7-8 महीने कोई बात नहीं हुई। ट्रेनिंग के लोगों का एक ग्रुप बना, जिसमें उन्होंने मिलने का प्लान बनाया। तो वहाँ मेहनाज़ और मेरे अलावा कोई और नहीं पहुँचा। इस तरह हमारी बातों का सिलसिला शुरू हुआ। लगभग दो साल बाद हम एक न्यू ईयर पार्टी में मैंने उन्हें प्रोपोज़ किया। उन्होंने हाँ कर दी। हमें थोड़ी शंका थी,क्यूंकि वो मुस्लिम थी और मैं जाट। मेरे परिवार में प्रेम-विवाह को लेकर ज़्यादा आपत्ति नहीं थी। हम दोनों की उम्र बढ़ने लगी तो दोनों को शादी के रिश्ते आने लगे। मैंने अपने घर में बता दिया। सुनकर, पिताजी ने शुरुआत में आपत्ति जताई, लेकिन माँ के बात करने पर वो मान गए। मेरे पिताजी ने अस्वासन

दिया कि वे मेरे साथ हैं। उनके परिवार में शुरू में सबने मना कर दिया। उनके भाई ने मुझसे मिलने की इच्छा जताई। वे तो मान गए, पर बाकी परिवार वाले अभी भी सहमत नहीं थे। अंतत: मैंने उनके पिताजी से बात की तो उन्होंने कहा: ये आपकी ज़िन्दगी है, आपका भविष्य है, आप जानते हैं, गलत सही सब आपका है। फिर हमारे माता-पिता मिलने को तैयार हुए। अब एक समस्या यह थी कि हमारे यहाँ लड़की वाले रिश्ता लेकर आते हैं और उनकी संस्कृति में लड़के वाले। । हम मेरे ससुरजी जी के दफ्तर में मिले। हम बच्चे लोग बाहर बैठे थे और हमारे माता-पिता ने लगभग आधे घंटे अकेले बात की। जब वे बाहर आये तो उन्होंने बताया कि शादी की तारीख तय हो गयी है। इस तरह हमारी शादी हुई। खि.आ.: बाद में किसी ने कोई आपत्ति उठाई? सं: नहीं किसी को कोई आपत्ति नहीं है और आसपास वाले भी कुछ नहीं बोलते।


खिड़की आवाज़ • ग्रीष्म अंक 2018

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शादी में ह ँसीन की ल्ह ु -हा द

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रेखाचित्र- शिवांगी सिंह शब्द - देविका मेनन

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र्म मौसम में आसमान छू ती पेट्रोल की कीमतों से ध्यान हटाने के लिए, हमने सोचा कि खिड़की आवाज़ के छठे संस्करण में, दिल से जुड़े मसलों की बात करें। ‘प्यार’ शब्द की परिभाषा को पूरी तरह ना तो समझाया जा सकता है और ना ही परिभाषित किया जा सकता है, लेकिन कुछ भावों को अभिव्यक्ति का साधन मिल जाता है। जैसा प्यार एक प्रेमी का प्रेमिका के लिए होता है, वैसा बच्चे के लिए नहीं होता या देश के लिए नहीं होता और ना ही भगवान् के लिए, लेकिन सहुलियत के लिए इसे, हमेशा ‘प्रेम’ लिखा जाता है।”प्रेम संस्करण” इस भाव की जटिल और दीर्घकालीन अभिव्यक्तियों की जगजाहिर अनुभूतियों को समझने की कोशिश

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करते हुए एक पटल पर लाकर कहने की कोशिश करेगा, कि ‘प्रेम’ होता क्या है और महसूस कैसे होता है। खिड़की वासियों से बात करते हुए कि देश से प्यार कैसे करेंगे, उनके उत्तर जानना एक सुखद अनुभव था- मोहल्लों के लोगों की सहज बुद्धिमत्ता हमेशा की तरह, उभर कर सामने आती है- जियो और जीने दो, सबकी इज़्ज़त करो, अपने काम को अच्छे से करो, इसी तरह के कुछ विचार। खिड़की वासियों के शादियों से जुड़े अद्त भु रीति-रिवाज़, खेल और खुशियों को समेटे, प्रेम के इस मिलन को वैश्विक नज़रिये से दिखाती है। एक बच्चा अपनी माँ को याद कर रहा है और एक माँ अपने बच्चे से दृढ प्यार की बात

कर रही है। शहरों से और किताबों से प्यार करने वाली एक लड़की अपनी काल्पनिक दनि ु या की सैर कराती है। एक कलाकार ऐसे प्यार की बात कर रहा है, जो ‘मना नहीं’ है और एक चित्रकार शहर से प्यार के अलग-अलग मनोभावों की बात कर रही है। जैसे-जैसे दिन बड़े और गर्म हो रहे हैं, हम उम्मीद करते हैं कि ‘खिड़की आवाज़’ पाठकों को कुछ राहत देगा, और ये कहानियाँ,”प्यार पर दनि ु या चलती है” कहावत को सच करेंगी। जैसे दो लोगों का एक-दूसरे के लिए प्यार, सारी मुसीबतें पार कर जाता है, उसी तरह दूसरों और खुद के लिए प्यार, हमें आज़ाद कर नई उं चाईयों तक पहुच ं ा सकता है।


ग्रीष्म अंक 2018 • खिड़की आवाज़

कभी पढ़ा हुआ देखूँ, कभी देखा हुआ पढूँ

द रू तक क्षितिज

उस दिन बात करते हुए वे पूछने लगी कि मैं घर वापस कब आ रही हूँ। जब माँ और पापा फ़ोन के स्पीकर के सामने, मेरे दिल्ली से वापस आने की योजनाओं की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, तो मेरी भरी हुई आवाज़ सुनकर वे चिंतित हो जाती हैं। जब मैं उन्हें काम के बारे में उत्साहित होकर बताती हूँ, और हर्ब ल टी से अत्याधिक लगाव के बारे में बताती हूँ, तो बातों-बातों में वापसी की बात कहीं खो जाती है। चैन की साँस लेकर मैं, अपने रविवार के कामों में लग जाती हूँ, जो मेरे ब्यूटी बाथ और कमरे की डस्टिंग के अलावा होता है। मैं हर वस्तु को सावधानी से उतारकर, टेबलटॉप की डस्टिंग कर, सामान को वापस रख देती हूँ, ज्यों की

खुलता है, जो खिड़की एक्सटेंशन की जानीमानी, कृष्णा मंदिर लेन में है। बालकनी में, मैंने कुछ पौधे रखे हैं, ताकि बगीचे का भ्रम पैदा हो। खिड़की से, अरेका पाम के पौधे को देखकर उठना काफी सुखद होता है। बालकनी में जाकर, गहरी साँस लेना और शरीर की ऐंठन को दरू करने की कोशिश में, यह भ्रम टू ट जाता है। मैं बिना रुके एक मशीन गन की तरह छींकने लगती हूँ, जो मुझे पूरे दिन बीमार महसूस कराती है और मेरे आसपास के लोगों को चिंता में पड़ जाते हैं। मेरी इस दशा को ‘हाइपर एलर्जी टू डस्ट’ कहते हैं, इसी वजह से मेरी माँ मेरे दिल्ली में रहने को लेकर चिंतित हैं। जब में 2006 में दिल्ली के आई.जी.आई. एयरपोर्ट पर उतरी, तब इस खूबी की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। उस शाम एक धूल का तूफान आया था, मुझे याद है, तब मैंने इसे अपनी बिमारी के संकेत के रूप में नहीं देखा था। खिड़की को शायद अपने संसदीय नेताओं और शहरी विकास प्लानर्स का ध्यान खींचना आता है। किसी भी दिन, यहाँ कुछ न कुछ निर्माण और तोड़-फोड़ का काम चलता ही रहता है। सीवेज लाइन को बारिश से पहले हर साल ठीक किया जाता है, उसके बाद सडकों पर टार डाला जाता है,

त्यों। डस्टिंग मन को शाँत करता है, मेरे मन को तो करता ही है! एक आज़ाद पंछी-सी महत्वकांक्षी और मन से जिज्ञासु, मैं 2006 में दिल्ली आई। मैंने इस शहर को काफी दिलचस्प और जीवंत पाया, और यहाँ हर शाम फीफा वर्ल्ड कप ब्रॉडकास्ट होता, मानो सोने पे सुहागा। अभी यहाँ पर, मैं खड़ी हूँ, ध्यान से देख रही हूँ कि मोमबत्तियां, टेबलटॉप के कोने पर सही कोण में है या नहीं, और इस तरह की यादें, मन में तरोताज़ा हो जाती हैं। मेरे मन में, कश्मकश है, माँ को जवाब देने की, जो वो सुनना चाहती हैं। या शायद, मेरे ख्यालों में आता ही नहीं, कि मैं ज़्यादा सोचूँ। या, दिल्ली ने मुझे अपनी चकाचौंध इतनी ज़्यादा दी है कि वापस जाने के विचार से दरू हो गयी हूँ। इस तरह की दविध ु ाओं से मैं रोज़ लड़ती हूँ, जब डस्टिंग के कपडे को उठाकर मैं अपने गुस्से को किसी अन्य दिशा में भेजने की लड़ाई हारती हुई, दोनों से; अपने दिल और टेबलटॉप के ऊपर जमा धूल से। मेरा कमरा गौरी शंकर मंदिर की तरफ

फिर टार को पानी की लाइन डालने के लिए खोदा जाता है, फिर दोबारा टार को डाला जाता है और बारिश से पहले सीवेज की मरम्मत के लिए खोदा जाता है। खिड़की की बातें दरू दरू तक पहुँच ही जाती हैं। लेकिन, मेरी माँ इसी बात से चिंतित है, जब मैं खिड़की की गलियों में ठहरे जुए धूल के गुबार की वजह से साँस लेने के लिए जूझती हूँ। रात को अचानक साँस लेने के लिए जूझते हुए, मैं उठ जाती हूँ, मेरा पूरा दिन खोया और उलझा रह जाता है, काम करना मुश्किल हो जाता है, जो भी लिखती हूँ, बार-बार लिखना पड़ता है। यह सब काफी उबाऊ होता है। मैं जगे रहने के लिए, कॉफ़ी का रुख करती हूँ; हर्ब ल टी मन को शांत तो करती है, पर काम की ज़रूरत के हिसाब से ताकत नहीं देती। मैं अभी भी महत्वकांक्षी हूँ और जिज्ञासा अभी मेरे मन मैं कौंधती है, लेकिन, संतुष्टि हमेशा क्षितिज पर झूलती हुई नज़र आती है, मुझे और तेज़ दौड़ाने के लिए, जब तक मेरी साँस नहीं फूल जाती। किसी भी इंसान की तरह, मुझे और चाहिए। ना जाने 9

पुन्यासिल योनजोन

मैं

स्वयं को खुशकिस्मत मानती हूँ। यह एहसास मुझे हाल ही में हुआ, लेकिन मैं चाहती हूँ, ऐसा लम्बे समय तक चलता रहे। दरअसल, यह खुशकिस्मती, दिन दगु ुनी, रात चौगुनी बढ़ती रहे, कभी कम न हो! मेरी माँ को लगता है कि मुझे डॉक्टर को दिखाना चाहिए और इस खुशकिस्मती के ओवरडोज़ से बाहर आना चाहिए।

तस्वीर: मालिनी कोचुपिल्लै

नाज़रीन इस्लाम

मैं

बचपन से ही बहुत-सी किताबें पढ़ती थी, और शब्दों में मैंने सर चकरा देने वाली कल्पना की पगडंडियाँ देखी। शुरूआती दौर में मुझे महसूस हुआ कि किताबों को पढ़ने के अद्त भु अनुभव, चित्रों की तरह मुझे याद हैं- चाहे किसी भी व्यस्त दिन गलियों के नज़ारे हों, या किसी किरदार के कपड़ों के रंग। मुझे टैगोर की ‘सहज पाठ’ कविता की पंक्तियाँ याद हैं, मानो मेरे अंतर्मन से बात कर रही हों, और उसकी भाषा में विशेष आश्वासन की अनुभूति होती है, मानो मेरे व्यक्तित्व का दस ू रा रूप हो। पद्यात्मक पंक्तियाँ गाँव की रोजमर्रा की ज़िन्दगी को शब्दचित्रों के सुंदर विवरण से कल्पना के पौधों में, सरल काले-सफ़ेद चित्रों के साथ दर्शाती हैं। शब्दों ने मेरी स्मृति को, बंगाल में मेरी जड़ों के बारे में बताया और इस तरह भाषा और चित्रों से मेरा नाता जुड़ा। मैंने छपे हुए शब्दों और निजी अनुभव के बीच कड़ी को समझना शुरू किया। खिड़की मेरी कहानियों के लिए इसी तरह से मंच के रूप में सामने आया। जब मैं पहली बार खिड़की आयी, तो मुझे याद है कि यहाँ की इमारतों की अनियमित ऊँचाई देखकर हैरान थी, उनके बीच में आसमान की एक नीली पट्टी दिखती, जबकि नीचे गली में जीवन रोज़ाना की तरह चलता रहता। गली के दोनों तरफ आपको दक ु ानें और ठे ले वाले सब्ज़ियाँ और मसाले बेचते नज़र आ जायेंगे। मैं इस घुली-मिली महक से, संगीतों की आवाज़ और गाड़ियों की चींखती धुनों से भलीभाँती परिचित हो चुकी हूँ। इन सब के बीच मेरी नज़र मोहल्ले की रंगबिरंगी ग्राफिटी पर पड़ती है। एक बड़ा-सा जेलिफ़िश जैसा जीव मेरी गली की बड़ी खाली दीवार को ढके हुए है। एक सब्ज़ीवाला रोज़ अपना ठे ला, वॉल-आर्ट के सामने लगाता है, जिसमें दो स्त्रियों के चेहरे खिड़की से झाँक रहे हैं। मुझे पूर्वाभास-सा होता है, जिसमें मेरे आसपास के दृश्य किसी दस ू रे

व्यस्त शहर से लगते हैं। कलकत्ता; जिसकी गलियों का विस्तृत वर्णन जासूस ब्योमकेश बक्शी और फेलुदा की कहानियाँ पढ़कर मेरे मन में बसा हुआ है। अगर कोई पहली बार पढ़ रहा हो तो, ये कहानियाँ मुख्य रूप से शहर में अनसुलझे जुर्मों के बारे में है (जिन्हें ग्राफ़िक-नॉवेल की तरह भी निकाला गया), औरइनकी लेखन शैली कल्पनाओं का चित्रण करने पर मज़बूर करती है। मैं कलकत्ता में काफी वक़्त तक रही भी हूँ, इसने मेरी दृष्टि और नज़रिये को काफ़ी प्रभावित किया है; खिड़की को देखने का मेरा नजरिया उत्तरी कलकत्ता के घने और जटिल नज़रों में मानो मिल गया हो। बिखरे चित्रों का मानो कहानी पट्ट। मैं कभी-कभी कल्पना करती हूँ कि ये ग्राफिटी जीवंत होकर, सतह से उठते हुए उड़ान भरेंगी। मैं इन कल्पनाओं को सुबह की वॉक के लिए सहेज कर रख लेती हूँ, जब ये आकृतियाँ विशाल रूप में खिड़की गाँव को घेर लेती हैं।

उनकी कहानियों को नया आयाम देते हैं। जब हारून पानी में देखता है, “कहानियों के समुद’्र में: उसे हज़ारों रंग की लहरें दिखाई देती हैं (हर लहर में एक कहानी ), मुझे टेलीफोन और बिजली की उलझी हुई तारों का ख्याल आता है, जो खिड़की के आसमान में जालियों की तरह नज़र आते हैं, हर जिन्दा, सुप्त और ख़राब तार अपना वज़न खुद उठाती है। मेरा घर, कल्पनाओं और पढ़ने की नई आदतों का पुलिंदा बन गया है। जो भी अब पढ़ने के लिए उठाती हूँ, वह खिड़की के आकारों और रंगों का रूप ले लेता है, मानचित्रों और पन्नों से परे,मानो जेलिफ़िश ने मेरे घर को भेद लिया हो।

जब कभी मौसम अच्छा होता है, मैं सीढ़ी चढ़कर अपनी ईमारत की छत्त पर जाती हूँ, तो मुझे खिड़की की क्षितिज तक फैली छत्तों का नज़ारा दिखता है। यह ज़मीन पर खड़े होने के बिलकुल उलट है, यहाँ कदमों से ज़्यादा आसमान है। मुझे याद है, पहली गली का मोड़ मैं कभी-कभी सोचती हूँ कि पढ़ने मेरे घर के सामने कम होती इमारतों को लेकर मेरा प्यार, जगहों में कैसे की ऊँचाई और हमारे बिजली वाले विस्तृत हो जाता है। मेरी माँ अक्सर की फिल्मी चाल जब भी वह कोई कहती हैं, कि मैं उनके बनाये हुए फ़ोन कॉल उठाता है। जैसे ही मैं खाने का स्वाद याद रखूँगी और कैसे हारून और समुद ्री कहानियों की वो बाद में मेरे खाना बनाने की विधि किताबों को उठाती, तो मुझे समझ और स्वाद को प्रभावित करेंगी, आता ही कि मेरे रहने की जगह मेरे चाहे मैं दनिय ु ा के किसी भी कोने में पढ़ने के अनुभवों को प्रभावित करती क्यों ना हूँ। मैं रसोई में मसाले और है (शायद यह दस ू री या तीसरी जगह सामग्रियों के साथ उनकी कुशलता है); लिखे हुए शब्द खिड़की की को याद करती हूँ। शायद इसी तरह हवा में घुलमिल गए हैं:”कुछ नहीं शुरू के कुछ साल आपके व्यक्तित्व से कुछ नहीं निकलता, इसलिए; को आकार देते हैं। कहानियों को कोई भी कहानी कहीं से नहीं आती, लेकर मेरे प्यार ने खिड़की के 23/1 नई कहानियाँ पुरानी कहानियों से में एक पृष्ठभूमि ढू ंढ ली है। निकलती हैं- यह नया मिलन उसे इस नए रिश्ते में, मैं अपनी नया बनाता है।” कहानियों के लिए पृष्ठभूमि को नॉवेल के अंत को मेरी समझ स्वीकारती हूँ। अज़ान की आवाज़ में, खिड़की के दृश्यों में सहारा ग्रीष्म की सुबह में धीमी पड़ रही मिल गया हो। उद्देश्य की बहुतता, है। मेरा ध्यान कलकत्ता के दिनों में खिड़की की गलियों में ऊर्जा और चला जाता है, जब मेरे अब्बा, रोज़ा परिश्रमी और अन्य लोग जिन्हें शुरू करते थे। देखकर और बातचीत कर जानने आज मैं छत्त पर खड़ी, खिड़की लगी हूँ, अजीबो-गरीब तरीके से मेरे दिमाग में घर बनाकर, मेरी कल्पना को उगते देख रही हूँ। को पँख देकर, किताबों और

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खिड़की आवाज़ • ग्रीष्म अंक 2018

ख़ास पेशकश

बलपूर्वक समुद्र में ले जाया गया एक कलाकार की अपनी परदादी के जबरन प्रवास की गाथा की छठी किश्त

कोरनटाईन के पार शब्द और कलाकृतियाँ

एं ड्रू आनंदा वूगल

कुछ तो है दनि ु या में जो तुम्हें पूरी तरह थकाकर, तुम्हारी आत्मा को उन्माद से भर देता है, जो तुम्हें स्व से उठाकर अलग उं चाईयों पर ले जाता है, जहाँ साधारण ख़त्म हो जाता है और अनंत शुरू हो जाता है।

पे

रामरिबो, सूरीनाम, साउथ अमेरिका 1977

“हेलो मिस, क्या मि. कान भीतर हैं?” अटलांटिक की उजली सुबह की साफ़ लाली में, माला ने; जो पेरामरिबो में मिस्टर कान के कपड़ों के बुटीक के रैक की डस्टिंग में व्यस्त थीं, दरवाज़े की तरफ देखा तो एक काया-सी भीतर आ रही थी। विदेशी भाषा के उच्चारण वाली उस आदमी की आवाज़ हवा में धीरे से तैरती। वह झिझकी और बोली,”हाँ, मिस्टर कान हैं, थोड़ी देर प्रतीक्षा कीजिये।” उसने अपनी नज़र को आवाज़ की दिशा में केंद्रित किया ताकि, अपने मालिक को बुलाने से पहले, वह उसका चेहरा देख पाए। सुबह की रौशनी के विपरीत, उजाला उसके चेहरे पर पड़ा, तो एक लम्बा-दबु ला आदमी नज़र आया, उसकी आवाज़ के बिल्कु ल विपरीत। वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़कर मिस्टर कान के दफ्तर की तरफ बढ़ी। माला ने दरवाज़ा खटखटाया, तो भीतर से तेज़ आवाज़ आयी। “क्या है?”, मिस्टर कान ने पूछा। वे थोड़े तंदरुस्त हैं, जो दो चीज़ों के लिए जाने जाते हैं, चतुराई से बिज़नेस करने और अनियंत्रित हाथों के लिए। माला 4

यहाँ पिछले एक महीने से काम कर रही और अब तक उसकी अनुचित अनियंत्रित हाथों और आँ खों से बचती रही है। यह अफवाह है कि मिस्टर कान के अपने पुराने नौकरों से कई बच्चें हुए हैं, और उसने सभी का भरण-पोषण अच्छे से किया है। लेकिन उसे पूरी तरह यकीन नहीं है, कि नौकरी लेते वक़्त वे ये उम्मीद करते हैं।

पसंद किया जाता है, लेकिन तानाशाही में बदल रहा था। माला से जा रहे हैं।” तस्कर ने उन्हें जंगल अमरीकियों को ज़्यादा प्रसिद्ध नेता के 18वें जन्मदिन की पौ फूटने पर, और कोरनटाईन नदी के बीच में से समाजवाद फ़ैलाने का डर था, पोलो अपना मन बना चुका था। वह कहीं छोड़ा। पोलो ने अपनी पतलून तो लोगों के नेता को सुर्ख़ियों से माला को पडोसी देश में, अपनी बेटी को ठीक से जमाया और कमर तक हटाकर तख्तापलट किया गया। के घर ले जाने वाला था। वे उसे गहरे पानी में कूद गया। वे तीन घंटे मौजूदा प्रधान मंत्री ने, जो अमेरिका गाँव के हालात सुधरने तक रखने तक दलदले जंगल में चलते रहे और की कठपुतली बनकर उनके फायदे वाले थे। उस सुबह, उसने वहाँ के मच्छरों और बड़मक्खियों के काटने की बात करता है, भारतीयों और एक स्थानीय तस्कर को सामान्य से उनकी त्वचा लाल हो गई । धूप अश्वेतों के बीच, प्रचार-प्रसार के किराया देकर ‘पीछे के रास्ते’ के के उगने से, पेड़ों के बीच रौशनी के माद्यम से, गाँवों और बागानों में नाम से मशहूर डेमेरारा नदी के रास्ते गुच्छे बिखरने लगे और माला को रंगभेदी तनाव और हिंसा को बढ़ावा निकालने को कहा। आमतौर पर, कोरनटाईन नदी का तेज़ बहता हुआ चाहे जो भी हो, इनमें से कोई भी दिया। इसकी शुरुआत, आटे पर लोग इस रास्ते से चावल, कॉफ़ी, पानी नज़र आने लगा। बात माला को परेशान नहीं करती, कर लगाने से हुई। सरकार कहती सोने और अन्य ज़रूरी सामग्रियों उसकी शादी गाँव से दूर एक जाने- है कि भारतीय रोटी और नान बनाने की तस्करी करते। मानो अमेज़न यह नदी गुयाना और सूरीनाम माने परिवार में हुई है। शादी उसकी के लिए बहुत सारा आटा इस्तेमाल का सिल्क रुट हो। 3 से 5 घंटे के बीच प्राकृतिक सीमा की तरह मर्ज़ी से नहीं हुई, लेकिन जल्दबाज़ी करते हैं, जिससे अफ़्रीकी समुदाय का सुखद सफर था, वे सूरीनाम थी, जिसके किनारे, गैर-क़ानूनी में हुई, जैसे एक बुरा सपना गहरी के लिए ब्रेड और बेक्ड सामान और कोरण्टीन नदी के किनारे होंगे व्यापार के लिए बदनाम थे। दूसरे नींद को तोड़ देता है। माला को बनाने के लिए कम आटा बचता है। और उसकी बेटी जबरन भर्ती और छोर पर, एक नाव उनकी प्रतीक्षा अपनी शादी के समय को स्वीकारने इस धोखे के बाद, नई सरकार ने अत्याचारों से सुरक्षित रहेगी। वो कर रही थी, एक जर्जर सा हाथ में कठिनाई होती है, सबसे पहले चावल और अन्य ज़रूरी सामानों कोई कहानी बना देगा, जब कोई किसी डोंगी से उनकी तरफ बढ़ा कि, हुई ही क्यों, लेकिन उसने की रसद शुरू कर दी। जैसा इन्हें अफसर उसके घर आएगा, जैसे और माला को पानी से खींच लिया। अपने हालातों से समझौता कर ठीक लगता, ये अश्वेतों या भारतीयों कि वो जंगल में खो गई है या किसी उस आदमी के होठों पर, धीरे से लिया है। वह पेरामरिबो में एक पर इल्ज़ाम लगाते और टैक्स का लड़के के साथ भाग गई है और जलती हुई सिगरेट थी। पोलो भी साल से कम समय से अपनी बहन गबन कर, जबरन कर लगाते। माला उसने उसे देखा नहीं है, ऐसा कुछ नाव में कूद गया और उस आदमी और उसके परिवार के साथ रह रही के 18वें जन्मदिन से पहले, हिंसा अजीबो-गरीब कि वे उलट सवाल ने नाव के इंजन को चालू किया है। एक साल पहले, उसके 18वें उसके गाँव की तरफ बढ़ रही थी, नहीं कर पायेंगे। उसने उसका हाथ और कोरनटाईन नदी में निकल जन्मदिन की सुबह, उसके पिता पोलो को मालूम था कि नई सरकार पकड़ा, वह आँ खों से नींद को पोंछ पड़े। जैसे-जैसे सूरज बढ़ रहा था, लिफ्ता मान पोलो ने उसे उठाया माला को जबरन भर्ती कर मिलिट्री रही थी, उसने अपनी माँ के हाथों वे सूरीनाम की तरफ, निकरी-नाम और सामान बाँधने को कहा। उसके बैरक में ले जाएगी। को टकराते महसूस किया और पिता के एक छोटे से बंदरगाह नगर पहुँचे। देश का राजनितिक माहौल भी तेज़ी के हाथों को दरवाज़े से बाहर ले जाते पोलो को जल्द-से-जल्द वापस से बदल रहा था, एक नए प्रधान पोलो ने अपनी बेटी के 18वें महसूस किया। वे नाँव में कूदे, उसने बागान अपनी शिफ्ट पर वापस मंत्री को अमेरिकी सी.आई.ए. की जन्मदिन से पहले बहुत सोचा। अपने पिताजी से पूछा,”डैडी, हम भी पहुँचना था। वह माला को एक मदद से मनोनीत किया गया था। पड़ोसियों के बच्चों की स्थिति इस कहाँ जा रहे हैं?” पोलो ने अपनी स्थनीय दक ु ानदार के पास ले गया उसके विपक्षी नेता को, अश्वेत, जबरन भर्ती में अच्छी नहीं रही। बेटी की तरफ देखा और बुलद और पूरी कहानी बताई। दक ं ु ानदार, भारतीय और स्थानीय लोगों द्वारा प्रधानमंत्री का यह कार्यकाल आवाज़ में कहा,”हम पीछे के रास्ते मिस्टर कुमार, कोई सज्जन थे और


ग्रीष्म अंक 2018 • खिड़की आवाज़

सामने पृष्ठ पर: कोराटीन नदी, सिल्वर जेलेटिन प्रिंट ऊपर: कोराटीन नदी में एक नाविक, सिल्वर जेलेटिन प्रिंट नीचे: माला का घर, सिल्वर जेलेटिन प्रिंट दायें: कोराटीन और एस्क्विबो नदी का एक नक्शा (पूरा मानचित्र पृष्ठ 10 पर )

हाल ही में उन्होंने इस तरह की बहुत सी कहानियाँ सुनी थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि गुयाना में भारतीयों के लिए समय अच्छा नहीं चल रहा था। पोलो ने उसे थोड़े पैसे दिए और दरख़्वास्त किया कि वे उसकी बेटी का कुछ घण्टों के लिए ख्याल रखे। वह कुछ घण्टों बाद वह अपनी बड़ी बहन के गाँव के लिए बस पकड़ेगी। पोलो की स्थिति देखकर वह मान गया। माला अपने पिता को जाते देख दख ु ी हुई, लेकिन अचानक आये इस रोमांचक सफर को लेकर उत्साहित भी थी। वह मिस्टर कुमार के साथ बैठी हुई थी, वे उसके लिए चाय लाये और बात करने की कोशिश करने लगे। वे डच भाषा बोलते थे और वह सिर्फ क्रोले अंगरेज ् ी बोलती थीं। वे टू टी-फूटी हिंदी के ज़रिये ही थोड़ी बातचीत कर पाए। वे शाम की तरफ बस स्टॉप पर आये और बस में चढ़कर माला ने मिस्टर कुमार से विदा ली। वह अपनी बहन को देखने के लिए काफी उत्साहित थी, उसने सुना था कि कमला सूरीनाम में ब्याही है और उसके बहुत सारे बच्चे हैं, जिनसे वो कभी मिली ही नहीं। बस का सफर काफी उबड़-खाबड़ रहा और निकरी के बंदरगाह से निकलने पर माला का दिल तेज़-तेज़ धड़कने लगा। उसने

सड़क को ध्यान से देखा, हर मोड़ को याद रखने की कोशिश की, वह जानती थी कि वह कोरनटाईन से जितना दूर जायेगी, उसका गाँव भी पीछे छू टता जायेगा। वह कमला के गाँव शाम को पहुँच गई, पेरामरिबो में बाहर की तरफ एक भारतीय क़स्बा। उसने एक स्थानीय दक ु ानदार से अपनी बहन कमला के बारे में पूछा और दक ु ानदार ने उसके घर की तरफ इशारा किया। जैसे-जैसे वह मिटटी के रास्ते पर आगे बढ़ रही थी, लकड़ी के घर शाम के बैंगनी और गुलाबी आसमान में धुध ं ली परछाई से नज़र आ रहे थे। वह पहली बार किसी पुरानी डच कॉलोनी में आयी थी। यह पड़ोस की ब्रिटिश कॉलोनी की तरह ही थी, पर थोड़ी अलग। वह अपनी बहन के घर आ गयी थी। वह जानती थी, अहाते में शिव की मूर्ती के साथ पूजा स्थल भी था। माला को कई साल पहले कमला से एक पत्र मिला था, जिसमे कमला का पूरा परिवार, एक मंदिर के सामने खड़ा था। माला ने पुरानी लकड़ी के दरवाज़े को खटखटाया। उसे लकड़ी चरमराने की आवाज़ आई। मिस्टर कान ने कदम बढ़ाकर सीढ़ियों से नीचे की ओर देखा। उन्होंने अपनी

आँ ख पर ज़ोर दिया और देखने लगे कि इतनी सुबह कौन आया है।”ओssss.... मिस्टर वूगेल, आप कैसे हैं, कृपया मेरे दफ्तर में आईये”, मिस्टर कान ऊँची आवाज़ में बोले, लेकिन उनका सलीका विनम्र था। जिस आकृति को माला देख पा रही थी, वह निश्चित्त ही डच था,उसके सुनहरे घुघ ं राले बाल और नीली आँ खें ने उसे अचंभित कर दिया, जब वह सीढ़ी पर चढ़ रहा था। वह जब उसके सामने था, तो वह रुका। “थैंक यू मिस”, वह एक सहज हँसी के साथ बोला। माला ने उस आदमी को मिस्टर कान के दफ्तर में गायब होते देखा और अपने काम में जुट गई। वह सोचने लगी कि यह आदमी कौन हो सकता है, लेकिन कुछ ही देर में, इस रहस्यमय आगंतुक के बारे में भूल गई। माला उस पुरानी बुटीक के खिड़कियों की तरफ बढ़ी और उन्हें खोल दिया। सुबह की धूप ने दक ु ान के फर्श को रोशन कर दिया और सितारे जड़ी साड़ियों के नरम कपडे, पुरानी दक ु ान के अँधेरे और फफंू दी कोनो को जगमगाने लगे। जारी रहेगा….

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खिड़की आवाज़ • ग्रीष्म अंक 2018

प्यार प्रेम ठीक है पर इश्क मना है... 6


ग्रीष्म अंक 2018 • खिड़की आवाज़

भगवती प्रसाद

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खिड़की आवाज़ • ग्रीष्म अंक 2018 तस्वीर: सुरश े पांडे

घर की मीठी याद डोरकास चवारिका

ह ा श ि ये क ी आ व ा ज़ दिल्ली से सांस्कृतिक प्रतिनिधि, बायें से दायें, लीदा फिरोज़ी, इस्माईल, नगीना, मुज़म्मिल, आशिफ़ और सूरज

अदिती चौहान

ली

दा,आशिफ, रोमियो, मुज़म्मिल, इस्माइल, नगीना और यांकी की एक दूसरे से जान पहचान हमेशा थी , खिड़की सभी को जोड़ने वाली कड़ी रही है- कुछ के लिए घर और कुछ के लिए काम करने की जगह। यह कड़ी, उनकी दिनचर्या का हिस्सा लग सकती है, लेकिन उन सभी के लिए अनजान और बँटा हुआ-सा है। 20 मार्च, 2018, को वे एक दूसरे से पहली बार एक कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के अंतर्गत मिले, जो बाद में सभी की सोच को एक समावेशी सामाजिक वातावरण के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में उभरेगा। यह भाव आसपास के समुदाय के मानदण्डों के हिसाब से नहीं होगा, चाहे वे इसका हिस्सा पहले से हों या उसके साथ रहते हों। “लोग मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं अपना सिर ढकँू , क्योंकि मैं मुस्लिम हूँ”, कहकर लीडा ने रूढ़िवादी सोच को सांस्कृतिक नियम मानने पर आपत्ति जताई। रोमियो ने इसके समर्थन में हामी भरी, क्योंकि उसके अफ़्रीकी साथियों को भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उस दिन सभी ने, अपनी पसंद की भाषा और रूचि में खुद के बारे में बताया उन उदाहरणों के ज़रिये, जिनका उनकी खुद की धरोहर से कोई वास्ता ना हो। बहुत जल्द, सूरज, जिसे अपनी गैर-अनुरूप शारीरिक हाव-भाव और स्त्रीत्व से जुड़े कपड़ों की पसंद की वजह से अलगथलग महसूस होता था,ने; सबके साथ मिलकर एक ऐसी जगह बनायी, जहाँ सब सुरक्षित महसूस करते हैं। यह जगह उन सबकी सामूहिक कल्पना और व्यैक्तिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन है, जो सिर्फ समूह

में नज़र आता है, लेकिन शाश्वत होना चाहता है। न्यू मेक्सिको में अपने प्रतिरूप की तरह ही वे नई दिल्ली में अपनी सांस्कृतिक विरासत और पहचान को एक वर्चुअल एक्सचेंज प्रोग्राम “वॉइसेस फ्रॉम द मार्जिन्स” के अंतर्गत खोज रहे हैं। यह एक सामुदायिक कला की पहल है जिसकी शुरुआत खोज इंटरनेशनल आर्टिस्ट एसोसिएशन और ग्लोबल वन टू वन (यू.एस.ए) द्वारा संचालित और वर्ल्ड लर्निंग (यू.एस.ए) के सहयोग से एक वैश्विक प्रोजेक्ट - कम्युनिटीज कनेक्टिंग हेरिटेज के तहत चलाया जा रहा है। इस प्रोग्राम ने समूह को हाशिये और सांस्कृतिक विरासत की अहमियत को स्वअनुभूति और अभिव्यक्ति के साधनों से सवाल करने के लिए प्रेरित किया। नगीना, मजुम्मिल और इस्माईल ने खुद को अपने मन की बात रखने के लिए सक्षम किया, थिएटर, सामाजिक कार्य और आगाज़ थिएटर ट्रस्ट के मार्गदर्शन में, प्रयोगों के माध्यम से। आशिफ को अपने समुदाय द्वारा डांस अपनाने पर आलोचना का सामना करना पड़ा। बाकी तीनो को भी किसी न किसी रूप में भेदभाव का सामना करना पड़ा, जिनसे उन्होंने ज़िन्दगी के विकल्पों पर पुनर्विचार करने की सोची। हमारी मान्यतायें अक्सर हमारे व्यवहार को आकार देती हैं, और ‘दूसरों’ के प्रति बुरे विचार फैलाना आसान हो जाता है। मुज़म्मिल: लोगों को बदलाव से डर लगता है.... मानदण्डों से थोड़ा भी अलग होना उन्हें सामाजिक अस्तित्व पर खतरा लगने लगता है। इस्माईल: जब भी कोई बदलाव की

बात करता है, तो अक्सर, वह थोपा हुआ होता है, न कि स्वीकारा हुआ। लीदा: हम भूल जाते हैं कि संस्कृति पर हमारी पकड़ ज़्यादा होनी चाहिए ना कि इसके उलट। मैं बदल सकती हूँ अगर मुझे कुछ पसंद नहीं है.... हम सब बदल सकते हैं। अगर हम चाहें तो भेड़ बनने की बजाय एक शक्ति बन सकते हैं। ऐसा लगता है, हम संस्कृति से बड़े हैं। जब व्यैक्तिक जज़्बा बड़ा होता है, तब सांस्कृतिक धरोहर ऐच्छिक होती है। है की नहीं? आशिफ: क्या ऐसा नहीं है कि हम अपनी ज़रूरतों की तरह, पहचान का लेनदेन कर रहे हैं? ‘किस तरह हमें परंपरागत सामाजिक व्यवहार का पालन करना पड़ता है’, में, लीदा ने माना;”संस्कृति हमारी ज़रूरतों से निकलती है..।” आशिफ का मानना है,”अंगरेज ् ी हुकूमत के अत्याचारों के बावजूद, संस्कृति का आदान-प्रदान ( चाहे जबरन हो ), एक हद तक हमें अपनी परंपरागत प्रथाओं को विविध और समय के साथ चलने में सहायक रहा है।” सभी अंतर और दूरियों के साथ, एक ऐसी दनि ु या की परिकल्पना में जहाँ सब बराबर हों और अलग-अलग समुदाय साथ रह सकें, दिल्ली और न्यू मैक्सिको की टीम साथ आई।

क्या आपको कोई ऐसा दिन याद है, जब आप बहुत दख ु ी महसूस कर रहे हों और बिना वजह रोने लग जाएँ ? जब अकेलापन और उदासी हो, आपको परिवार वालों से एक झप्पी चाहिए होती है, लेकिन वे सब दूर हैं। ये काफी दखद ु है, आपको सच बताऊँ तो मैं खुश रहने का नाटक करती हूँ, लेकिन ये मेरा रोज़ का है, पिछले तीन सालों से, जब से पढाई के लिए मैं घर से दूर हूँ। अगस्त 2015, मेरी पहली विदेश यात्रा थी, हरारे, जिम्बावे में अपने घर से दूर, जहाँ मैं बड़ी हुई, ज़िन्दगी का एक बड़ा वक़्त बिताया। शुरू में मैं काफी उत्साहित थी, कि मुझे एक ऐसे देश जाने का मौका मिल रहा है, जिसमें मेरी काफी दिलचस्पी थी और जहाँ मैं हमेशा जाना चाहती थी। लेकिन यहाँ आने के एक महीने के भीतर मेरी ख़ुशी की भावना, परिवार और दोस्तों की याद में बदल गई। ज़्यादातर वक़्त, मैं घर की याद में डू बी रहती। माँ की सुन्दर हँसी और उनकी एवोकाडो के पेड़ के नीचे मधुर गाती हुई आवाज़, उनकी बहुत याद आती है। मुझे अक्सर रोना आ जाता है- मुझे जब भी भूख लगती है, तो उनके हाथ का बना हुआ चिकन सूप और सादजा याद आता है। वे हमेशा कॉल करके मुझे मज़बूत बने रहने के लिए कहती हैं, पर ज़्यादातर मुझसे रहा नहीं जाता, मैं एक छोटी बच्ची की तरह उनकी बाँहों में रहना चाहती हूँ। यह मुझे और उदास कर देता है। मैं एक दिन रोने वाली थी, जब एक दोस्त ने मुझे अपने घर बुलाया। उसकी माँ का बर्ताव, परिवार और स्नेह से मुझे

घर की याद आ गई। मैं उसके अंकल के चुटकुलों का खूब आनंद ले रही थी, मुझे अपने अंकल की याद आ गई, मैं उन्हें अंकल जोंसो द जोकर कहकर पुकारती थी, वे जब भी आते थे, ऐसे ही हँसी मज़ाक करते थे।

जिन चीज़ों को मैं पहले हलके में लेती थी, अब मुझे उनकी अहमियत पता चल गई है। सबसे मुश्किल वक़्त छुट्टियों के समय होता है, पुरानी यादें मन में घर कर जाती हैं, मैं और उदास हो जाती हूँ। वहाँ घर में, क्रि समस, नए साल और जन्मदिन पर, हम एक बड़ा पारिवारिक जश्न मनाते हैं, सब मौजूद होते हैं। पिछले तीन सालों में मैंने इन पलों को याद किया। वहाँ हम भारतीय फिल्में देखते, जो मेरी माँ और बहन को बहुत पसंद हैं। यहीं से मुझे भारतीय संस्कृति, संगीत और नृत्यों के बारे में रूचि जागी। मैंने अभी तक भारत को जितना भी अनुभव किया है, यह एक अच्छा देश है, लोग भी बहुत अच्छे हैं। लेकिन चाहे ये जितना भी दिलचस्प क्यों ना हो, मैं हमेशा परिवार के साथ रहना चाहती हूँ। जब भी मैं किसी मॉल जाती हूँ, तो मुझे अपना पसंदीदा-जोयना सिटी का मॉल याद आता है, जहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ घूमने जाती थी, शरारतें करते हुए। फिर भी, मुझे यहाँ रहना पसंद है और जब घर जाऊँगी तो यहाँ की याद आएगी। हे भगवान्! फिर से दोस्तों की याद आने लगी, लगातार, शायद ज़िन्दगी ऐसी ही है। घर की याद और उदासी मुश्किल होती है।

लेखक के हरारे में घर के आँ गन में एवोकाडो का पेड़

चार महीने का ये प्रोजेक्ट दोनों एक्सचेंज प्रोग्राम की मुलाकात और जून के अंत में एक प्रदर्शनी के साथ ख़त्म होगा। प्रदर्शनी का मकसद, इन बिंदओ ु को सांस्कृतिक विविधता और धरोहर संरक्षण को बढ़ावा देने और व्यैक्तिक और सामूहिक पहचानों के लिए ज़मीन तैयार करना है।

रजनी तिलक पिंजरा तोड़ कर आई हूँ

जीरो हूँ

घाव लगा के बैठे हैं न सता, ढू ंढ कोई और आसरा यहां कारवाँ लुटा के बैठे हैं।

स्त्री हूँ जीरो हूँ हर बार प्लस होती हूँ बनती हूँ प्यार का क्षितिज समा लेती हूँ सारी कंु ठाएं सारी निराशाऐं।

परिंदा हूँ मुझे खुला आसमान चाहिए, न बरगला मैं पिंजरा तोड़ के आई हूँ। ढू ंढ कोई और महबूबा न बहा अश्क, मैं आशिकी की दीवारें फांद कर आई हूँ। •

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जीरो हूँ जीरो से शुरू होकर चलते हुए कदमों का सपना देखती हूँ... ! जीरो हूँ... स्त्री हूँ पर कर सकती हूँ वो सब जो असम्भव है

मर सकती हूँ मैं उनके लिये जो लक्ष्य के लिए मरते हैं उठा सकती हूँ उन्हें जो नेक दिल रखते हैं

में जीरो हूँ जीरो से संख्या में बदलती हूँ और अपना स्थान रखती हूँ… •

हाँ मैं लड़ाकी हूँ लोग कहते है मैं लड़ाकी हूँ सच कहते है मैं लड़ाकी हूँ मैं लड़ रही हूँ बचपन से

किशोरी थी तो लड़ी अपनी खेलने की उम्र में उठाये फिरती थी गोद में छोटे बहन भाइयों को पढ़ने-लिखने की उम्र में जुत गयी थी घरेलू काम-धंधों में जवानी की दहलीज भी थी कंु ठा और घुटन भरी घरेलु हिंसा और क्ले श में आसमान छू ने के सपने छू टे परिवार कुटु म्ब की बेगारी में कभी यहां कभी वहां फिरकी सी जिंदगी घूमती रही बेचारी सी ही देखना चाहते है लोग इसलिए कहते मैं लड़ाकी हूँ ... । बेचारी से उबरना लड़ाकी कहलाना मुझे पसंद है

कदम-कदम अक्स को संभालना मेरा जीवन चक्र है। मेरे दोस्त...दशु ्मन लड़ाकी ही तुम्हें ललकार सकती है तुम्हरी सारे मुखौटे उतार सकती है तुम्हारे छल, बल, कपट घमन्ड और छदम रूप धिक्कार सकती है... लड़ाकी हूँ ‘टाइप्ड’ कर दो मेरी यही रूप तुम्हारे छदम को तोड़ेंगे... •

औरत औरत एक जिस्म होती है


ग्रीष्म अंक 2018 • खिड़की आवाज़ दूर का क्षितिज / पृष्ठ 3 से

शहर में प्यार के कई रंग आलिया सिन्हा द्वारा

कब, मैं अपनी माँ को, घूमने के अपने प्लान बता पाऊँगी, मैं चाहती तो हूँ, पर अपनी इच्छा अनुसार। मैं जब खिड़की की लेन से, हाल ही के बोनस को खर्च करने के लिए मॉल की तरफ जाती हूँ तो बुद्धा ग्राफिटी को खोजती हूँ। यह ग्राफिटी मेरे लिए बहुत ख़ास है; यह मुझे याद दिलाता है कि दृढ़ रहना है, चाहे इसका मतलब निर्वाण पाने के लिए जिज्ञासु रहना या अपने लक्ष्य को पाने के लिए धूल भरी आं धी में ऑक्सीजन मास्क पहनकर जाना हो। बुद्ध अब अदृश्य हो चुके हैं, लेकिन मैं और अधिक खुशकिस्मत महसूस कर रही हूँ। खिड़की ने मुझे बहुत से दोस्त दिए हैं, जिनमें से ज़्यादातर किसी वक़्त खिड़की में रहे हैं, जब भी में छींकती हूँ तो ‘गॉड ब्लेस’ करने के लिए, कोई ना कोई मेरे पास रहता है, और मैं खुशकिस्मती को साथ लेकर, अपने सपनों को पाने के लिए और मज़बूती से आगे बढ़ती हूँ। प्यारी माँ, मैं जल्द आऊंगी! आई लव माय इं डिया / पृष्ठ 1 से

की याद आती है।” वे पिछले कई सालों से यहाँ रह रहे हैं। ऐसे में समझ आने लगा कि देश से प्यार सीमाओं और किसी विचारधारा विशेष से बढ़कर है। सोनू शर्मा और मो. रशीद की दक ु ानें खिड़की के जे. ब्लॉक में आमने-सामने हैं। दोनों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यदि आप किसी से भी उनकी देशभक्ति का सबूत सबूत माँगते हैं, तो यह गलत है।”विचारधारा के अंतर को समझने की बजाय आजकल की राजनीती में, लोगों को राष्ट्रवाद के नाम पर बाँटा जा रहा है । इसमें न सिर्फ नागरिक अपनी जिम्मेदारी समझे साथ ही मीडिया भी बड़ी भूमिका निभाकर, समाज की सकरात्मक बातों के बारे में बात करे।”, कहकर सोनू शर्मा ने विदा ली। यदि हर कोई अपनी जिम्मेदारियों का ख्याल रखे, तो ही हम आज़ादी के सही मायनों को समझ सकते हैं। अब खिड़की एक्सटेंशन के लोगों से बात करने पर देशप्रेम के अलग-अलग रंगों की हमारी समझ बढ़ने लगी। सरलता से समझा जाये तो देश-भक्ति और राष्ट्रवाद एक निजी मामला है, और इसपर सवाल उठाना एक मज़ाक है।

की रात की नीरवता बंद खामोश कमरे में उपभोग की वस्तु होती है खुले नीले आकाश तले हर सुबह वो रूह समेत दिखती है पर डोर होती है किसी आका के हाथों जिस्म वो खुद ढोये फिरती है •

प्यार एक पदार्थ थकावट भरी नींद विवाह की कल्पना थी मृदल ु शांत प्यार की छत अहसासों की दीवारें परन्तु वह निकली एक रसोई और बिस्तर और आकाओं का हुक्म •

प्यार

पुस्तकें कहाँ हैं

सोचा था प्यार की दनि ु या बड़ी हसीन होगी ‘ऊसके’ साथ जिंदगी रंगीन होगी पाया एक अनुभव

पुस्तकें जो मैं पढ़ती हूँ दिखतीं नहीं किसी पुस्तकालय में इतिहास अधूरी है निर्बलों के उत्थान और पतन का। पुस्तकें जो देख रहीं हूँ जिक्र नहीं उनमें

कागज बीनते, भूखे-नंगे बच्चों की मानवेतर दर्दु शा का। कानों में गूँज रही गुलाबो कालबेलिया के मजबूर घुघ ं रुओं की चीख, किसी विश्वविद्यालाय ने इनकी दारुण चीख को इबारत नहीं बनाया। नंगे भूखे बच्चे जिन्हे मिठाई, पुस्तकें चिढ़ाती हैं चंद नोट थामे ये निरीह हर सदी में बलि हो रहे हैं। कहाँ हैं वे पुस्तकें जिनमें इनके बयान दर्ज है? •

कासे कहूँ कासे कहूँ, दख ु अपना कानून तो राज खुले, दिल की धड़कनों का छुपाऊं तो बड़े दर्द दिल का कासे कहूँ... छुपाना चाहूँ तो छुपती नहीं मेरी अपलक नयनों की खामोशी मुस्कु राना चाहूँ तो मुस्कु राती नहीं मेरे लुटे जज्बातों की जिंदगी

कवितायें मेरी धड़कन पर यूँ लगी पाबंदी •

खेला जाता है सीताओं को आज भी स्टोव से जलाया जाता है मासूम कलियों को खिलने से पहले बचपन में ही लूटा जाता है कोमल, मधुर मुस्कान को वासना की आग से सींचा जाता है रामायण हो, महाभारत हो या आधुनिक भारत हर समय स्त्री के जज्बात से खेला जाता है। •

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माला के सफ़र का नक्शा

खिड़की आवाज़ • ग्रीष्म अंक 2018

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ग्रीष्म अंक 2018 • खिड़की आवाज़

यह भी है एक रंग, इस रंग भरी दनु िया का सभा सैय्यद

चित्र श्रेय: आलिया सिन्हा

ब से कुछ बरस पहले, जब मुझे पता चला कि मेरी बेटी विकलांग है तब पहली प्रतिक्रि या थी कि क्यों? मैं ही क्यों? सच कहूँ तो इस वक़्त लिखते हुए महसूस कर पा रही हूँ कि वह दौर क्या था। लेकिन खुद को ख़ुशक़िस्मत समझती हूँ कि मेरी बेटी की विकलांगता का सच आया ज़रूर एक सदमे की तरह था, पर वह कठिन वक़्त जल्द ही गुज़र गया। हाँ, मेरी एक प्यारी सी पाँच साल की बेटी है, और उसे सेरिब्रल पॉलसी है, एक ऐसी अवस्था जिसमे दिमाग का शरीर के साथ ताल–मेल कम होता है या होता ही नहीं है। मेरी बेटी के मामले में उसके पैरों पर इसका असर सबसे ज़्यादा है और वह विशेष जूतों की मदद से अभी भी चलना सीख रही है। उसके आने के दो महीने बाद ही मुझे उसकी प्रतिक्रि याओं में फ़र्क दिख रहा था। मैं उसकी हर चीज़ पर ध्यान देती थी, शिकायत करती थी। यहाँ तक की तंग आकर, मेरे परिवार वालों ने मुझसे कहा कि मुझे उसमें सिर्फ ख़ामियाँ ही नज़र आती हैं। हालाँकि मुझे अंदाज़ा हो गया था, लेकिन डॉक्टर ने उसकी स्थिति के बारे में 22 महीने बाद ही बताया। और जब आधिकारिक तौर पर पता चला कि मेरी बेटी को सेरिब्रल पॉलसी है तब मैं घर आकर बहुत रोई। मैंने सोचा कि आख़िर मैं इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी कैसे संभाल पाऊंगी और वही सवाल, ‘क्यों?’ अच्छी बात तो यह थी

कि उसकी थेरप े ी अगले ही दिन से शुरू हो गई, यानी एक लंबी लड़ाई का दौर फ़ौरन शुरू हो गया था। लेकिन उसके बावजूद भी मन यह मानने को तैयार नहीं था कि वह विकलांग है, बस मेरे लिए थोड़ी स्पेशल है। एक दफ़ा हमारे थेरपिस्ट े से इनकम टैक्स रिटर्न की बात कर रही थी जब उन्होंने सलाह दी कि मुझे अपनी बेटी का विकलांगता प्रमाण पत्र बनवा लेना चाहिए क्योंकि वह 60–70 प्रतिशत विकलांग है और मुझे खासी छू ट मिलेगी। विकलांग? और मेरी बेटी? यह शब्द मानो मेरे दिल को भेदता हुआ निकल गया… सच कहूँ तो कुछ महीने लगे इससे उबरने में और यह मानने में कि मेरी बेटी विकलांग है, लेकिन अब ज़रूरी था कि मैं खुद को और इसे सबका सामना करने के लिए तैयार करूँ । बहुत मुश्किल – था और है – खुद के लिए यह स्वीकार कर पाना बिना किसी बेचारगी के एहसास के। पर आख़िर इस दनि ु या में किसकी परिस्थितियाँ परफेक्ट हैं? और इसी ख़्याल से अगर दोस्ती कर लें तो लड़ाई कम तो नहीं लेकिन लड़ने की क्षमता दोगुनी ज़रूर हो जाती है। और वैसे भी ये सब हमारे देखने और महसूस करने का नज़रिया ही तो है न? परिवार और दोस्तों की मदद से ख़ुद को समझाने का दौर तो जल्दी गुज़र गया था, पर मुश्किल है यह सब बाहरी दनि ु या को समझाने का दौर।कभी–कभी बहुत दःु ख होता है लोगों के रवैये से जब उत्तर पता होने के बावजूद भी लोग पूछने से बाज़ नहीं आते, जैसे कि विकलांगता कोई कमी या ख़ामी हो।

एक सदाबहार प्रेम कहानी / पृष्ठ 1 से

और रहन-सहन में अंतर रहा होगा, शादी के बाद सब कैसे संभाला? सं: शादी में बहुत कुछ बीवी पर निर्भ र करता है। मेरी वाइफ ने बहुत कम समय में सभी तौर-तरीके सीख लिए। हमारी अब दो बेटियाँ हैं। खि.आ.: आप अपने बच्चों को किस आस्था को अपनाने के लिए कहेंगे ? सं: हम दोनों में ये तय हुआ है कि हम उन्हें किसी भी आस्था को चुनने की आज़ादी देंगे। जब बच्चा बड़ा होगा और शिक्षित होगा तो अपना जीवन और आस्था खुद तय कर सके। जब ईद होती है तो बच्चे नानी के घर जाते हैं, और दिवाली भी खूब धूम से मनाते हैं।

क्

या आ

अक़्सर जब मैं अपनी बेटी को सड़क या बाज़ार में चला रही होती हूँ तो लोग आकर पूछते हैं, ‘चल नहीं पाती क्या?’ और मैं कहती हूँ, ‘क्यों चल तो रही है’। इसके बाद एक और मज़ेदार सवाल होता है, ‘नहीं, मतलब कुछ दिक्कत है?’ और मैं हँस कर कह देती हूँ कि आपको नहीं लग रहा तो मैं क्या बताऊँ? इसी कड़ी में कुछ दिनों पहले एक और

की सीट पर बैठी हुई महिला बेटी के जूते देख अचानक कह पड़ी, ‘अगर बचपन में ढंग से मालिश की होती तो ये नौबत नहीं आती’। एक दफा मैं अपनी बेटी को धीरे–धीरे बाज़ार में चला रही थी तभी एक जल्दबाज़ व्यक्ति ने मुझसे कहा, ‘इसे गोद में क्यों नहीं उठा लेती, रास्ता जल्दी खाली हो जायेगा’। बिना बहस किये मैं और मेरी बेटी एक किनारे

देती हूँ कि आपका मतलब ‘सो–कॉल्ड नॉर्मल’ है। ऐसा कहने से लोग सोचने ज़रूर लगते हैं कि आख़िर ‘परफेक्ट’ तो दनि ु या में कुछ भी नहीं है तो फिर ‘नॉर्मल’ के नाम पर ‘परफेक्शन’ की ख्वाहिश क्यों? रंगों की तरह ही दनि ु या में हर तरह के लोग होते हैं और कठिनाइयों से सब जूझते हैं– विकलांग, अविकलांग। हर

ु या को समझाने का “....पर मुश्किल है यह सब बाहरी दनि दौर।कभी–कभी बहुत दःु ख होता है लोगों के रवैये से जब उत्तर पता होने के बावजूद भी लोग पूछने से बाज़ नहीं आते, जैसे कि विकलांगता कोई कमी या ख़ामी हो।” वाकया जुड़ा। स्कू ल में जब बेटी को क्लास की तरफ ले जा रही थी तब एकम हिला ने मुझसे आकर पूछा, ‘इसके पैर ठीक तो हो जायेंगे न?’ मैंने पूरी तसल्ली दी कि हाँ, एक दिन मेरी बेटी अपने आप चलने लगेगी। न जाने क्यों लोग बार–बार यह जताना चाहते हैं कि आपका बच्चा ‘नॉर्मल‘ नहीं है। मन करता है चीखकर उनसे पूछू ँ कि यह ‘नॉर्मल’ क्या है? कुछ दिनों पहले, मेरी बेटी के स्कू ल की आया ने मुझसे कहा कि क्योंकि मैं एक कामकाजी महिला हूँ और डॉक्टर्स के भरोसे अपनी बेटी को छोड़ देती हूँ, खुद उसकी मालिश इत्यादि नहीं करती इसलिए वह ‘ऐसी’ है और चल नहीं पा रही है। इसी तरह जब बेटी के साथ मैं साझा टैक्सी में आ रही थी तो सामने

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हो लिए। बहुत हँसी आती है लोगों के रवैये को देखकर। ज़्यादातर मैं बहस नहीं करती, लेकिन किसी को यह हक़ देना कि वो मेरी बेटी को कमतर या कमज़ोर महसूस कराएँ यह मुझे कतई मंज़ूर नहीं। बहुतों के लिए यह समझना काफ़ी कठिन होता है कि दनि ु या में कई प्रकार के लोग हैं जिनकी ज़रूरतें और गुण हमसे अलग हो सकते हैं। क्यों हम लोगों को सामान्य और असामान्य के दो वर्गों में बाँटना चाहते हैं? क्यों हम विकलांगता को अपने और दूसरों के लिए बाधा समझते हैं? कई बार तो थेरपिस्ट े और डॉक्टर भी जताते हैं कि ऐसा करने से, वैसा करने से बच्चा ‘ज़्यादा नॉर्मल’ हो जायेगा। मैं बहस तो नहीं करती लेकिन टोक ज़रूर

रंग है, तो हर रंग मिलेगा ही।हमें भी अपना रंग इसमें सिर्फ शामिल ही नहीं करना बल्कि उसमें चमक लाना है कि लोगों को वह दिख सके। यह कब होगा और कैसे, इनसवालों का जवाब तो किसी के पास नहीं है पर हाँ, कोशिश पूरी कर सकते हैं। आख़िर इतने लोगों की कोशिश कभी न कभी, किसी न किसीदिन रंग तो ज़रूर लाएगी, है न?

• यह लेख पहली बार स्किन स्टोरीज़ द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह एक डिजिटल प्रकाशन है जो यौनिकता, विकलांगता और लिंग सम्बन्धी विषयों पर काम करता है

#KhirkeeVoice प्रकाशित फोटोग्राफर बनने का मौका

लेखनी वर्क शॉप खिड़की आवाज़ द्वारा खोज के सहयोग से

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भाग लेने के लिए, खिड़की की सबसे अच्छी तस्वीर को इं स्टाग्राम पर अपलोड करें और टैग करें #KhirkeeVoice सबसे बेहतरीन तीन तस्वीरों को खिड़की आवाज़ के सितम्बर के अंक में प्रकाशित किया जायेगा और कैश प्राइज दिया जायेगा! 11


जौहरी कवि

तस्वीर: महावीर सिंह बिष्ट

अश्विनी सोनी खिड़की एक्सटेंशन की अपनी दुकान में, कविताओं की अपनी डायरी के साथ।

एक कंजूस की शादी

आगे से नहीं जायेंगे, किसी कंजूस के, ये मैं में ठान ली। किसी कंजूस की शादी में, गर हो तुम्हारा जाना। अपना खाना तो भैया, घर से ही लेके जाना।

एक कंजूस की शादी में कंजूसियत इस कदर थी छाई। कि बातों-बातों में ही, उसने सबको मिठाईयाँ खिलाई। वो काजू-कतली क्या, मुँह में घुल जाती है। अरे इमरती दूध में डू बी हो, तो क्या महक आती है। मिठाई ही क्या उसने तो, पानी में भी कंजूसियत बोल दी। मिनरल वाटर में, बातों-बातों में बर्फ घोल दी। अपना सब्र तो जवाब देने लगा, उसने लिफाफा लेके, हमारी तरफ पीठ मोड़ दी। हम भी पीछा नहीं छोड़ने वाले थे, उसने जहाँ मुँह किया, हमने चार बातें जोड़ दी। जब फर्क नहीं पड़ा कोई उसको, तो हमने हार मान ली।

ए मेरी आँ ख के तारो मुझे तारो, मुझे तारो जिनपे भरोसा था उन्होंने बहुत लूटा कुछ ज़िम्मेदार तुम भी बनो कुछ सम्भालो, कुछ सवारो अपनी शाखाएँ मैं खुद ही काट रहा हूँ मुझ पर लिपट रही यह बेले तो उतारो मेरे दीपक बुझ रहे हैं रोज़

दोस्ती हवाओं से करो, या तूफान उतारो राष्ट्र-भक्ति सोच ही नहीं कुछ जज़्बों से, नियति में उतारो लेना-देना, बहुत हुआ व्यापारी बने, अब समाज सुधारो। • ऐ हुस्न तुझे नदारद क्या कीजे कभी हमारे पहलू में भी आया कीजे शोख अदायें दिल को गहरा देती हैं कभी देख हमें भी मुस्कराया कीजे हर वक़्त इन्तिज़ारे आम यही रहता है कब दिखे, कब नज़रे इनायत कीजे हर हवा का झोंका ये याद दिलाता है साँसे भी उनकी खुशबू सोच लिया कीजे खून ज़ख्म देख ये सोचता हूँ वो आये तो लाली ऐसी हुआ कीजे

अश्विनी सोनी की खिड़की में ज्वेलरी की एक दक ु ान है। उन्होंने 28 साल की उम्र में लिखना शुरू किया। हमने उनकी प्रेरणाओं के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने बताया कि उनके पिताजी लिखा करते थे। लेकिन अश्विनी जी को बचपन में लिखने में ज़्यादा रूचि नहीं। शुरुआत में वे मन हल्का करने के लिए लिखते और धीरे-धीरे समाज और उससे जुड़े विषयों पर लिखना शुरू किया। उनके विषयों में प्रेम, राजनीती, समाजिक कुरीतियाँ और सामाजिक बदलावों की झलक मिलती है। वे कहते कि पिछले कुछ वर्षों में उनकी शैली में काफी बदलाव आया है, उनकी भाषा सटीक और परिपक्व हुई है। तन्हाईयाँ मुझे रुलाती ही नहीं हर वक़्त कुछ एहसास उनका हुआ कीजे • कुछ मोमबत्तियां, कुछ दिए बाँटने को रखो गरीबी जेब की जज़्बों में ना रखो वो मज़हबी हैं, मज़हबी रहने दो उनको तुम इन्सानियत वाले हो इन्सानियत रखो •

स्थानीय प्रतिभा

खिड़की आवाज़ • ग्रीष्म अंक 2018

तेरी आँ खों का नशा ना छू टे मुझसे मैं सारा जहाँ छोड़ आया। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे में क्या मिले, मैं तेरा दर ही छू आया। तेरी सूरत में दिखती मुझे साड़ी दनि ु या, मैं घर बार सब छोड़ आया। तेरे प्यार से मिले मुझे वो सुकून, मैं हर ऐशो-आराम छोड़ आया। मैं लैला-मजनूं को जानता नहीं, मैं शिरी-फरहाद भी छोड़ आया। तेरी नज़रों के बुलाने पर ही, मैं अपना साया छोड़ आया। तू ना रही इस दनि ु या में तो क्या, मैं अपनी सांसें छोड़ आया। चल बसा ले, और एक दनि ु या, मैं ‘वो दनि ु या’ ही छोड़ आया। •

हीरे

जब तत्काल में रफ़ूचक्कर होना हो...

Layout design by Malini Kochupillai

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Edited by Malini Kochupillai & Mahavir Singh Bisht [khirkeevoice@gmail.com]

Supported & Published by KHOJ International Artists Association


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