Setu Hindi june 2016 सेतु पत्रिका प्रथमांक जून २०१६

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प्रथमांक जून 2016 सम्पादक: दीपक मशाल व अनुराग शमार् | िपट्सबगर् से प्रकािशत

सेतु िहं दी

सािहत्य सागर पर अंतरार्ष्ट्रीय सेतु


लेखक% से िनवेदन

सेतु िह/दी व अं3ेज़ी पि6का8 के िलए ग;, प; तथा दृ?य-शृC माEयम% मF कथा-कहानी, काC, हाGय, CंHय, नाटक, संGमरण, साLाMकार, जानकारी, समाचार, लेख, िच6 तथा अ/य हर Pकार कQ कला, संगीत, सािहMय, संGकृ ित, CिRगत िवकास, Pचिलत िवSान, तकनीक, पTरवार, GवाGUय, पयVटन, Pेरक Pसंग, तथा बाल सािहMय से संबंिधत रचनाएँ आमंि6त है। सेतु के िह/दी व अं3ेज़ी संGकरण एक दूसरे से पूणVतः Gवतं6 ह_।
 
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 सेतु पूणVतः अCवसाियक पि6का है। सामा/यतः इसमF रचनाएँ Pकािशत करने के िलए धनरािश भुगतान का Pावधान नह‡ है। आव?यकतानुसार रचना का शीषVक बदलने अथवा उसमF संपादन या सुधार करने या रचना के साथ िच6% को चुनने और लगाने का िनणVय और अिधकार संपादक मंडल के पास है।

PMया‰यान

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 सेतु मF Pकािशत सभी रचना8 के सवाVिधकार संबंिधत लेखक तथा Pकाशक के पास सुरिLत ह_। आिधकाTरक Gवीकृ ित के िबना इनके पूणV या आंिशक पुनPVकाशन कQ अनुमित नह‡ है।

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Tuesday, June 28, 2016


अनु’मिणका

सेतु

Pथमांक, जून 2016

स€पादकQय •

Pथमांक - दीपक मशाल

दो श†द - अनुराग शमाV

CंHय •

नमGकार का चमMकार - समीर लाल

दाल, िवलायती और िपरे म कQ िवकास या6ा -लािलMय लिलत

साLाMकार •

रे ‰ता के संGथापक संजीव सराफ़ से एक MवTरत वाताV

अंश-सारांश •

िबिGमल कQ आMमकथा - चुने ”ए अंश

कथा कहानी •

सेतु, एक कहानी - पु•षो–म पांडय े

कं बल - अिभनव सरकार

चोर जेब - िववेक िम—

नदी जो झील बन गई - सौरभ शमाV

शराब का दरोग़ा - शैल

शहतूत पक गये ह_!- संतोष —ीवाGतव

सब सीमाब सुनहरे - अनघ शमाV

सोने का सुअर- मनोज कु मार पांडय े


अनोखा Tर?ता, बालकथा- उषा छाबड़ा

लघुकथा •

अशोक भाTटया कQ लघुकथाž

अचVना ितवारी कQ लघुकथाž

चं•श े कु मार छतलानी कQ लघुकथाž

मधुदीप कQ लघुकथाž

शोभा रGतोगी कQ लघुकथा

संEया ितवारी लघुकथाž

काC •

रथवान - पं. नरे /• शमाV

अपूवV शुdल कQ किवताž

अिनल पुरोिहत कQ दो किवताž

दीपक पाटीदार कQ तीन किवताž

काCांश 'GपाटVकस' कQ कथा - शरद कोकास

अनुवाद •

पापा गु ा अनुवाद - एमाV बॉ€बैक (अनुवाद: अनुराग शमाV)

रोसाTरयो 6%कोसो कQ किवताž (अनुवाद: पूजा अिनल)

समीLा •

आवरण •

सेतु, एक समीLा - संजय वमाV "दृि¥"

अनुभव सोम

स€पादकQय िच6 •

फणी/• नाथ चतुव¦दी


कु छ कह रहा स€पादक भी... सािथय%,

िचत्र: फणीन्द्र नाथ चतुवेर्दी

सािहMय Gवयं मF एक सेतु है , संवे दनशीलता और पल-Pितपल मशीन मF त†दील होती जा रही

मानवजाित के बीच एक पुल जो दोन% को जोड़े रखने कQ भरसक कोिशश करता है। सािहMय चाहे |कसी भी भाषा का हो, dय%|क भाषा तो के वल स€Pेषण का माEयम है और िवचार ही मूल है। वतVमान मF जीवनमू§य% के बदलने के साथ-साथ इन जजVर होते जा रहे पुल% को बनाए रखने, बचाए रखने कQ िज€मेवारी हर इं सान कQ है तो सही ले|कन वह उन तमाम िज€मेवाTरय% के नीचे, िज/हF हम Pाथिमकताž समझते ह_, कु छ इस क़दर दब जाती है |क हमF इसका एहसास तलक नह‡ हो पाता। नतीजा यह |क हम खुद Pयास |कए िबना |दन-बा-|दन दूसर% को दोषी ठहराने के आदी होते जा रहे ह_। यहाँ आपके सामने PGतुत नेटपि6का 'सेतु' दुिनया को बेहतर बनाने के िलए चल रहे तमाम Pयास% के बीच एक और Pयास है, यह Pयास है िभª-िभª भाषा8, संGकृ ितय%, िवषय%, िवधा8, कलासंगीत, िवSान आ|द को आपस मF जोड़े रखने का। आगाज़ भले ही सािहMय कQ अिधकता से हो रहा है ले|कन िसफV सािहMय या सामिजक िवषय% तक सीिमत रहना हमारी मंशा िब§कु ल नह‡। इसीिलए अपने सभी शोध, िच|कMसा, अिभयांि6कQ, िशLा, ब_«कग, Pबंधन, समाजसेवा, Cवसाय, प6काTरता, कृ िष, Pशासन आ|द Lे6% से स€ब¬ दोGत% से अनुरोध है |क अपने-अपने Lे6 से जुड़े उन पहलु8 को िजनपर आमतौर पर दूसरे Lे6 के लोग% कQ नज़र नह‡ पड़ पाती उ/हF सबकQ समझ मF आ सकने वाली भाषा-शैली मF हम तक िलख भेजF। िह/दी मF पाठक% कQ घट रही आबादी के बीच लगभग तय है |क यहाँ भी आप और हम ही लेखक ह%गे, पाठक भी और Pयासक भी। इसिलए हम सबकQ कोिशश रहे |क जो भी लेखक िजस िवषय पर िलखे वह उसका िवशेषS ना हो तो कम से कम साल% से उस िवषय से जुड़ा ”आ हो। असल मF यह सेतु |क/ह‡ भी दो ज़मीन% के बीच हो सकता है ता|क एक ज़मीन के िवचार -य% के Mय%, अपने लगभग स€पूणV ®प मF दूसरी ज़मीन तक प”ँच सकF और उनके बीच पड़ने वाली नदीनाले या खाई के हवाले न हो जाž dय%|क िवचार% को तैरना नह‡ आता और न ही छलाँग लगाना इसिलए उ/हF माEयम कQ, एक सेतु कQ आव?यकता होती है। इस 'सेतु' के िलए ज®रत है आपके भी एक लकड़ी, एक पMथर या एक रGसी कQ, साथ आइए। इस अंक से जुड़े हर साथी को बेग़रज़ सहयोग के िलए शु|’या। ब”त अिधक बात न करते ”ए पहला अं क आपके हवाले है, कु छ ठीक लगे तो setuhindi@gmail.com पर िलख भेजF। आपकादीपक मशाल


िमत्रों,

आज हम एक अत्यंत रोचक समय में जी रहे हैं। मानव को चाँद पर पहुँ चे हुए

46 वषर् हो चुके हैं, छापेखाने की खोज को 575 साल और रेिडयो प्रसारण को भी अच्छा खासा समय बीत चुका है। ई-प्रकाशन के युग में भी आज तक पत्र-पित्रकाओं का महत्व कम नहीं हुआ, बिल्क पठन-पाठन की ओर जनता का रुझान बढता ही िदख रहा है। इं टरने ट तथा अन्य संचार माध्यमों के द्वारा संसार भर के रचनाकारों, पाठकों, प्रकाशकों, िवतरकों, और िवशेषज्ञों को एक दूसरे के िनकट आने का अवसर िमला है।

आश्चयर् की बात है िक पाठक वगर् की िनरंतर होती वृिद्ध के बावजूद आज अच्छी पठन सामग्री में कमी आ रही है। कुछ दशक पहले की धमर्युग, साप्तािहक िहंदुस्तान, सवोर्त्तम जैसे स्तर की पित्रकायें आज देखने को भी नहीं िमलतीं। डॉ सुनील शमार् की प्रेरणा, दीपक मशाल का सहयोग और संसार के िविभन्न छोरों पर बैठे हुए कुछ दृढप्रितज्ञ िमत्रों की शुभकामनाओं द्वारा आज हम उच्चस्तरीय पत्रकािरता की परम्परा को जीिवत रखने के इस नये प्रयास को आपकी सेवा में समिपर् त कर रहे हैं। आशा है आपको पसंद आयेगा. अपनी प्रितिक्रया से हमें अवगत कराते हुए हमारा उत्साह बढाने के साथ-साथ हमारी किमयों के बारे में भी हमें बताते रिहये तािक हमारा मनोयोग साथर्क हो। ‍अनुराग शमार्


नमस्कार का चमत्कार - व्यंग्य - समीर लाल ’समीर’

कुछ लोग नमस्कार करने में पीर होते हैं और कुछ नमस्कार करवाने में। नमस्कार करने वाले पीर, चाहे आपको जाने या न जाने, नमस्ते जरुर करेंगे. कुछ हाथ जोड़ कर और कुछ सर झक ु ा कर, शायद उनको मन ही मन यह शािन्त प्राप्त होती होगी िक अगले को नमस्ते िकया है और उसने जवाब भी िदया है, याने वो पहचानने लगा है और साथ वालों पर उसकी पहचान की धाक पड़ेगी। नमस्कार करवाने वाले पीर, सीधे चलते चलते, इतना स्टाइल में धीरे से सर को झटकते हैं और कभी कभी िसफर् आँ ख को िक मानो आपको नमस्ते कर रहे हों और जब आप पलट कर नमस्ते करते हो तो इतनी जोर से जवाबी नमस्ते करते हैं जैसे िक पहल आपने की हो। अक्सर वो अपनी वापसी नमस्ते के साथ हाल भी पूछते नजर आ जाते हैं िक कैसे हो? और िबना जबाब सुने आगे भी बढ़ चुके होते हैं अगले नमस्ते के इन्तजार में। इस केटेगरी में नेता बनने की पहली पायदान पर खड़े बहुतेरे शािमल रहते हैं और उससे ऊपर की पायदान वाले तो इसी पायदान से गुजर कर िनकले हैं तो उनकी तो खैर आदत हो गई है। वैसे नमस्कार, प्रणाम, चरणस्पशर् आिद पहले कभी आदर, अिभवादन के सूचक रहे होंगे िकन्तु समय के साथ साथ मात्र पहचान और नाम जमाने की औपचािरकता मात्र रह गये हैं। नेताओं को उनके चेले इतनी तत्परता से चाचा कह कर चरणस्पशर् करते हैं िजतनी जोर शोर से उन्होंने अपने चाचा की तो छोड़ो, कभी अपने िपता जी का भी न िकया होगा। इन नेताओं के चेलों को भी पता होता है िक चाचा को चरणस्पशर् करवाना िकतना पसंद है। अतः जब आप जैसे िकसी को उनसे िमलवाने ले जाते हैं तो आपकी रीढ़ की हड्डी का जाने कौन सा िहस्सा, चाचा से िमलवाते हुए, पीछे से दबाते हैं िक आप थोड़ा सा झक ु ही जाते हो और चाचा, एकदम से, खुश रहो के आशीष के साथ पूछते हैं – बोलो, काम बोलो. कैसे आना हुआ?


और इन सबके आगे एक जहाँ और भी याद आता है। पहले हम िकसी को पसंद करते थे और पसंद पसंद करते प्यार कर बैठते थे। याने िकसी को लाइक करना लव करने की पहली पायदान होती थी.. तब के जमाने में लड़का लड़की को, लड़की लड़के को लाइक करके धीरे-धीरे लव तक का सफर पूरा िकया करते थे। अब तो खैर लड़का लड़की का फामूर्ला भी आवश्यक न रहा। कोई भी िकसी को लाइक करके लव तक का सफर कर सकता है. ये सब दुिनयावी बातें अब सड़क से उठकर इन्टरनेट पर आ पहुँ ची है मगर व्यवहार वैसा का वैसा ही है। मगर यहाँ लाइक, मात्र लव का गेट वे न होकर नमस्कार, प्रणाम और चरण स्पशर् आिद सबका पयार्य बन चुका है। फेसबुक पर यिद कोई आपकी फोटो को, िलखे को या पोस्ट को लाइक करे तो कतई ये न समझ िलिजएगा िक उसे आप बहुत पसंद आ गये... आपका फोटो िफल्म स्टार जैसा है और आपका लेखन बहुत उम्दा है... इनमें से अिधकतर ने तो ऊपर बताई िकसी एकाध वजह से पसंद िकया होता है और वो भी चूँिक फेसबुक एक िक्लक मात्र में लाइक करने की अद्भुत क्षमता प्रदान करता है - बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। अन्यथा यिद िलखकर बताना होता िक आप को लाइक िकया है तब देखते की िकतने सही में लाइक करते हैं। अब आप ही देिखये, वो तो एक एक करके सौ जगह पसंद िबखरा कर चले गये मगर इन सौ लोगों ने जब पलट नमस्ते में इनकी तस्वीर या पोस्ट लाइक की, तो वहाँ एक साथ सौ लाइक िदखने लगे और जनाब हो िलए सेलीब्रेटी टाईप। ऐसे लोग आपको लाइक करने तभी आते हैं जब इन्होंने अपनी टाईम लाईन पर कुछ नया पोस्ट िकया हो और उन्हें लाइक की दरकार हो। इनका संपूणर् दशर्न मात्र इतना है िक मैं तेरी पीठ खुजाता हूँ , तू मेरी खुजा! िकसी ने ठीक ही कहा है िक दुःखी की आह और मूखर् की वाह सब भस्म कर देती है लेिकन करें तो करें भी क्या जो इन फेसबुिकया लितयों को इन लाइकों से वही ऊजार् प्राप्त होती है जैसी इन फूहड़ चुटकुलेबाज किवयों को तािलयों से, इन छु टभईया नेताओं को भईया जी नमस्ते से और इन सड़क छाप स्वयंभू सािहत्यकारों को सम्मािनत होने से भले ही उस सम्मान को कोई जानता भी न हो। आप देख ही रहे हैं िक आपसे ऊजार् प्राप्त िकए इन किवसम्मेलनों की हालत, इन छु टभईए नेताओं की हरकतें और सािहित्यक सम्मानों के नाम पर गली-गली खोमचेनुमा दुकानें। ध्यान रखना, यह समाज के िलए कतई िहतकर नहीं है। तो जरा संभलना, जहाँ फेसबुक पर लाइक करना एक लत बन जाती है वहीं यह अपने आपको सेलीब्रेटी सा िदखाने का नुस्खा भी है। इसका इस्तेमाल अपने िववेक के साथ करें वरना इस लत से आपका जो होगा सो होगा मगर समाज का ये स्वयंभू सेलीब्रेटी बंटाधार करके रख देंगे।


दाल, िवलायती और िपरेम की िवकास यात्रा - व्यंग्य - लािलत्य लिलत

कहते है ,दाल महंगी हो जाने से समाज के एक तबके ने महल्ले में हंगामा मचा िदया है, देखो न सरकार को, क्या अंधेरगदीर् आ गई है, अब तो न तो जी सकते है भाई साब और न ही मर सकते है। मैंने कहा इसमें मरने वाली बात कहाँ से आ गई, अभी आप की उम्र ही क्या है, भाभी जी का क्या होगा, आप के बच्चों को कौन पालेगा, इतना बड़ा काम धंधा कौन संभालेगा? एक सांस में मैं इत्ता कुछ कह गया था। सुनकर श्रीमान जी अत्यंत िवनम्र भाव से बोले - देिखये मैं िजस पाटीर् से जुड़ा हूँ ,उसका मोट्टो है 'हर हाल में देश का िवकास करना है', अब दाल थोड़ी बहुत महँ गी हो भी गई तो िचरकुट िचल्लाने की क्या आवश्यकता है, कौन से सरकार ने आपके फीते खोल िदए! कौन सी आपकी जमीन अपने नाम िलखवा ली! िवकास की प्राथिमकता सवोर्पिर है। देिखये न हमारे नेता जी, दुिनया भर में दौरे कर रहे है, अपने मुल्क को अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर पहचान िदलाने के िलए जी तोड़ कोिशश कर रहे हैं, और एक आप है जो अभी भी दाल -भात में अटके हुए है। नेताजी नवरात्रों में केवल जल का प्रयोग कर रहे है, अन्न का त्याग िकया हुआ है, िकसकी खाितर? आपकी खाितर ना। एक आप है जो सारा -सारा िदन जलूस िनकालने में अपनी एनजीर् वेस्ट कर रहे है, कोई काम धंधा है िक नहीं। बात करवा लो। आप कुछ सीिखये उनसे िक उनकी प्राथिमकता क्या है। बात आई गई हो गई। जीवन लीला में हमेशा की तरह मस्त हो गए, आिखर उनके बस का था भी क्या। लेिकन जो देश का मुद्दा था, आिखर देश का मुद्दा था, देश के िवकास की बात थी िजसे हर कीमत पर होना ही होगा, अपने बच्चों को रोजगार िमलेगा, लड़िकयों को काम धंधा िमलेगा, पक्के मकान िमलेंगे, हर घर में रौशनी होगी, साफ और मीठा पानी िमलेगा, खाली िदमाग शैतान का घर होता है, दो पैसे घर आएं गे तो माँ -बाप भी खुश होंगे। कम से कम औलाद अपना खचार् तो िनकाल ही लेगी। बात में दम था। बात भीतर तक घुस चुकी थी, पैसे आने लगें तो िकस को दुखते हैं भला!


लेिकन िवकास का मुद्दा था, जो प्रेिमका के भी गले की फांस बन चुका था, प्रेमी अपने तीर चलाता उससे पहले ही प्रेिमका कह देती - देखो यह तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है, तुम मुझे िनहार सकते हो पर नो छू ना-वूना। वनार् मैं नाराज हो जाउं गी और ज्यादा बदमाशी की तो वोह देखा है न सामने हवा में लहराता हुआ डंडा पुिलस अंकल का.... उनसे मदद ले लूंगी। बात लौंडे को समझ में आ गई थी। क्योंिक जब पीठ पर डंडा पड़ता है तो इश्क ऐसे गायब हो जाता है जैसे पंसारी की दुकान में सोमवार को िमटटी का तेल आया और दस िमनट में टैंकर खाली। केवल िनहारने िवहारने से वह बाज आने वाला नहीं था। वह नए ज़माने का आिशक था, समझता था अब जमाना पोस्टकाडर् का नहीं, वाट्सअप का है। छू ने का नहीं आगे को कुछ कर गुजरने का है। िबचारा मायूस हो कर लौट गया। उसका िवकास अभी नहीं हुआ था, उसके अरमान कलेजे में ठन्डे हो कर िकसी सरकारी फ़ाइल की तरह िकसी अँधेरे कमरे में शोभायमान हो गए। कब काम धंधा िमलेगा और कब उस का मागर् प्रशस्त होगा।यह तो उसका िदल जानता था और िवकास पुरुष। िकतने आवेदन िकये ,पर कोई िनयुिक्त पत्र भेजे तब न। जोहता इलाके का लौंडा अब पगला गया था। सोचता था ख़ुदकुशी कर लूँ, जहर खा लूँ, एकाध बार ट्राई भी िकया पर िमलावट होने से बच गया। इलाके के िवलायती राम चमनलाल के लौंडे िबट्टू को इस कदर परेशान देख भीतर से तो खुश थे िक आजकल लौंडा अपनी बाइिकया पर िपनिपनाता घूम नहीं रहा, जरूर प्रेिमका ने हाथ नहीं लगाने िदया होगा या बाप ने उसकी बाइिकया के िलए पैट्रोल नहीं िदया होगा। िवलायती का मन पसीज गया, आिखर वह भी तो िवकास का िहमायती था, अब चाहे िवकास पूंजीपित का हो या िकसी का पित बनने के इच्छु क अभ्यथीर् का। आिखर बचवा तो अपने महल्ले का ही है, अब जे प्यार नहीं करेगा तो बताइये क्या हम आप करेंगे। अल्ला कसम अब तो अपनी उम्र ऐसी रही नहीं िक मुंह में रख कर अखरोट पट से तोड़ दे, अब तो िकशिमश को भी पपोलना पड़ता है तब कहीं जा कर वह आत्मसमपर्ण करती है, देिखये क्या िदन आ गए! अब लौंडा अपना िवकास करना चाहता है तो हम रोकेंगे थोड़ा न। चल बेटा, कर ले िवकास। आिखर हमारे िवकास पुरुष का भी यही सपना है। युवाओं को आगे बढ़ना ही होगा। िवलायती ने लौंडे की दुखती रग पर हाथ रखा तो लौण्डा बरसाती मौसम की तरह बरस पड़ा - काम धंधा नहीं तो नहीं, नो छू ना और नो.... - बस बेटा, कंट्रोल कर, आगे की स्टोरी अपन ने सोच ली िक तेरे मन के कोने में हाई फीवर का करंट दौड़ रहा है अगर इसको प्यार की टेबलेट नहीं िमली तो इश्क की प्लेटलेट्स नीचे आनी शुरु हो जाएं गी। इलाके के सभी अनुभव प्राप्त लोग एकजुट थे िक बच्चे का िवकास तो महल्ले का िवकास, और महल्ले का िवकास तो देश का िवकास। हम िकसी भी कीमत में िवकास चाहते है। सारा महल्ला अब कुछ कर गुजरने की


इच्छा रखता था। लोगों को इस लव स्टोरी में मजा आने लगा था। सच बात यह आजकल ऐसे धाकड़ स्टोरी िमलती कहाँ हैं। सब ने बात की गंभीरता को समझा और लौंडे को कोयले की टाल पर लगवा िदया, दस हजार रूपया वेतन, रहने को खोली, बगल में फोन, आस पास हलवाइयों के ऑडर्र को पूरा करने की लौंडे से गारंटी ले ली थी िक काम से जी नहीं चुराएगा, लौंिडया को प्यार करेगा। िवकास करेगा, अपना भी। िबंिदया खुस थी, प्रेमी को काम िमला और उसकी शक्ल में उसको िमला अपना वर। ऐसा कर िवलायती ने आज सचमुच एक बड़ा काम कर िदया था। मैं न कहता था िक हमारी पाटीर् िवकास चाहती है। नवरात्र खतम हो गए, प्याज की कीमत रास्ते पर आ गई। लोगों ने दाल को कुछ िदन के िलए खाना छोड़ िदया था। एक रपट ने बतलाया था िक इस िवशेष दाल को खाने से एक लाइलाज रोग होने की सम्भावना है, ऐसा एक िरसचर् में पता चला और जब तक िरपोटर् नहीं आ जाती आम जनता से परहेज रखने की बात कही गई है। जनता परहेज रख -रख कर हार गई। लेिकन पाण्डेय जी की िवकास यात्रा उठान पर है आिखर हमारे महल्ले के युवा िवकास पुरुष जो हैं, आजकल िवकास का ही ज़माना है, आप तो सब जानते ही है। आप से कौनो बात छु पी है क्या! वैसे बाई दवे एक िकलो प्याज मेरे िलए भी ले आना, घरवाली ने कहा है आज तरकारी बनानी है, बहुत िदन हुए इं डी -िभन्डी खा कर। अब कुछ जायका बदला जाए। तो भूिलये गा नहीं, प्याज एक िकलो ले आना शाम को। संपकर्- लािलत्य लिलत,बी -3/43 ,शकुंतला भवन,पिश्चम िवहार,नई िदल्ली-110063


रेख्ता के संस्थापक संजीव सराफ़ से अनुराग शमार् की वातार्

आज के इं टरनेट युग में उदूर् शायरी में रुिच रखने वालों में िवरले ही होंगे िजन्होने रेख़्ता.ओगर् का नाम न सुना हो। रेख़्ता उदूर् शायरी की ऐसी साइट है िजसपर इस समय 1900 से अिधक उदूर् शायरों की हज़ारों रचनायें उपलब्ध हैं। इसे अन्य सभी अंतजार्लीय स्थलों से अलग करने वाला िविशष्ट पक्ष यह है िक इसमें उदूर् शायरी को फ़ारसी के अितिरक्त देवनागरी और रोमन िलिपयों में भी देखा सुना जा सकता है तािक फ़ारसी िलिप से अपिरिचत व्यिक्त भी उदूर् शायरी के अपने पसंदीदा कलाम पढ़ सकें। ऑिडयो और वीिडयो की सहायता से यहाँ पर उदूर् शायरी को पढ़ने के साथ ही सुना भी जा सकता है। शक्ल में भी पेश िकया गया है। रेख़्ता।ओगर् की एक प्रमुख शिक्त इसका शब्दकोष है िजसमें शायरी के िकसी भी शब्द पर िक्लक करके उदूर्, िहंदी या अंग्रेज़ी में उसका अथर् जानने की सुिवधा उपलब्ध है। रेख़्ता के इस अनूठे कृितत्व के बारे में सेतु के पाठकों को अिधक जानकारी देने के िलये अनुराग शमार् ने रेख़्ता के संस्थापक श्री संजीव सराफ़ से बातचीत की िजसका गद्य यहाँ प्रस्तुत है।

अनुराग: नमस्ते, सबसे पहले तो आप हमें यह बताइये िक उदूर् शायरी में आपकी रुिच कैसे बनी? क्या उदूर् आपकी मातृभाषा है? संजीव: नमस्कार, उदूर् मेरी मातृभाषा नहीं है, मैं िहंदी और अंग्रेज़ी के माहौल में पला बढा हूँ । उदूर् पर पकड़ मैंने िहंदी-अंग्रेज़ी के बाद में हािसल की । मुझे उदूर् शायरी से गहरा भावनात्मक लगाव है और मैंने उदूर् िलिप भी सीखी है। अनुराग: उदूर् मातृभाषा नहीं होने पर भी आपने उदूर् की प्रगित के िलये इतना काम िकया, उदूर् से कुछ तो पहचान रही होगी


संजीव: जी, बचपन से ही घर में बेगम अख्तर, फ़रीदा खानम और मेहदी हसन जैसे कलाकारों की आवाज़ में उदूर् की स्वर लहरी गूंजती रही है। िपताजी को संगीत और खासकर गज़लों का बहुत शौक था। अपना बचपन यही सुनते हुए बीता। बाद में, पहले पढाई और िफर काम-काज़ के िसलिसले में शौक पीछे िछप गये, लेिकन जुडाव बना रहा। अनुराग: जी, आपने पढाई की बात की तो हमारे पाठकों को अपनी िशक्षा-दीक्षा के बारे में कुछ बताइये संजीव: आइआइटी खड़गपुर में जाने से पहले मैं ग्वािलयर के िसंिधया स्कूल का छात्र रहा हूँ । अनुराग: अरे वाह। आप तो िशक्षा के मामले में भी चमकते िसतारे रहे है। पढाई के बाद का सफ़र कैसा रहा? संजीव: पढाई पूरी करके मैंने ओिडशा में अपना पुश्तैनी कारोबार संभाला और िफर पॉिलप्लेक्स कंपनी की स्थापना की। पॉिलप्लेक्स भारत और थाईलैंड़ की एक पंजीकृत कंपनी है। अनुराग: रेख़्ता आरम्भ करने का िवचार कैसे आया? संजीव: देिखये। मैं भारत में हूँ और आपने अमेिरका में बैठकर रेख़्ता को देखा। यह है इं टरनैट की पहुंच। ये जानकारी का ऐसा सागर है िजसकी कोई सीमा नहीं है। जो महंगी िकताबें, िरसाले नहीं पढ सकते उन तक भी सािहत्य को पहुंचाने के िलये यह एक बहुत अच्छा साधन है। न कोई भौगोिलक सीमा है और न ही वैसा आिथर् क बंधन जैसा िक परम्परागत साधनों में होता है। रेख़्ता को डेढ सौ से ज़्यादा देशों में देखा जाता है। िपछले एक साल में ही इसे लगभग ढाई लाख लोग देख चुके हैं।

अनुराग: रेख़्ता जैसे स्तम्भ को खडा करना आसान काम नहीं। अपने व्यवसाय और अन्य िज़म्मेदािरयों के साथ अपने शौक को िनभाना, ये सब कैसे िकया आपने? संजीव: काम की िज़म्मेदािरयों को बखूबी िनभाया। व्यवसाय अब स्थािपत है और मेरे कमर्चारी बहुत ही अच्छे हैं। अब मुझे काम में से समय िनकालना आसान है। तो 4-5 साल पहले मैं अपनी पहली रुिच की तरफ़ वापस आ गया।


अनुराग: सािहत्य के बारे में वैसे तो इं टरनैट पर बहुत कुछ है लेिकन अच्छी पहचान वाली साइट्स िगनी चुनी हैं। उनमें भी रेख़्ता खास है। आपके ख्याल से रेख़्ता में क्या खास है? संजीव: रेख़्ता में स्थािपत नामों के साथ-साथ बहुत से नये शायर भी अपने कलाम के साथ मौजूद हैं। यहाँ मौजूद शायरी को उदूर् के साथ-साथ िहंदी (नागरी) और अंग्रेज़ी (रोमन) में भी पढा जा सकता है। िकसी शब्द पर िक्लक करके आप उसका अथर् देख सकते हैं ... अनुराग: जी, प्रामािणक शब्दाथर् के िलये तो मैं िकतनी ही बार इं टरनैट पर खोजते हुए रेख़्ता तक ही पहुंचा हूँ । रेख़्ता की कुछ अन्य खािसयतें? संजीव: रेख़्ता में ऑनलाइन सामग्री के अलावा एक बडा ई-पुस्तक भाग भी है जहाँ उदूर् की पुरानी िकताबें भी हैं, उदूर् शायरी से संबंिधत िहंदी और अंग्रेज़ी पुस्तकों को भी िडिजटाइज़ करके सुरिक्षत रखा गया है। रेख़्ता ऐसी पहली वेबसाइट है जहाँ मीर तक़ी मीर और िमज़ार् ग़ािलब की सारी ग़ज़ले और सआदत हसन मंटो की सारी कहािनयाँ एकसाथ मौजूद हैं। अनुराग: रेख़्ता के बारे में कुछ और? संजीव: रेख़्ता पर शायरों की आवाज़ में ऑिडयो और वीिडयो भी मौजूद हैं। हमने एक लेक्चर सीरीज़ भी शुरू की गई है िजसे उदूर् के छं द-िवधान अरूज़ के मािहर श्री भटनागर ‘शादाब’ प्रस्तुत करते हैं। इस सीरीज़ में उदूर् के छं दिवधान अरूज़ से पिरचय कराया जाता है। इसके अलावा रेख़्ता को अिधक फैलाने के िलए, अब इसे टैबलेट और मोबाइल फ़ोन पर ऐप के ज़िरये भी उपलब्ध कराया जा रहा है। इसके अलावा हमने जश्न ए रेख्ता भी शुरू िकया है िजसका बहुत स्वागत हुआ है। अनुराग: इतना किठन प्रयोग इतनी अच्छी तरह से कैसे िकया गया? संजीव: मेरा उसूल है िक जो काम िकया जाये उसे अच्छी तरह िकया जाये, श्रेष्ठ बनाया जाये। अनुराग: क्या उदूर् की तरह िहंदी के िलये भी रेख़्ता जैसा कुछ करने की इच्छा है। संजीव: बहुत इच्छा है लेिकन िफर इच्छाओं का कोई अंत भी तो नहीं है। िकतना कर पायेंगे पता नहीं, िफ़लहाल रेख़्ता को तो बेहतर बनाते ही रहेंगे। अनुराग: जी, आपकी यह बात भी सही है। उदूर् शायरी के अलावा आपकी क्या अिभरुिचयां हैं? संजीव: मुझे पढ़ने का ज़बदर्स्त शौक़ है। िचत्रकला और संगीत से तो गहरा गहरा लगाव है ही। अनुराग: हमारे पाठकों के िलये आप क्या सलाह देना चाहेंगे?


संजीव: अपने िदल की बात सुिनये, उसका अनुसरण कीिजये। प्रयास कीिजये। और कभी अड़चन आये तो नया रास्ता बनाइये। जो भी करें, उसे िदल लगाकर कीिजये। अनुराग: बहुत उपयोगी सलाह है संजीव जी। हमें इतना समय देने के िलये आपका बहुत बहुत धन्यवाद!

नोट: श्री संजीव सराफ़ पॉिलप्लेक्स कापोर्रेशन िलिमटेड के संस्थापक, अध्यक्ष और मुख्य अंशधारक हैं। यह कापोर्रेशन दुिनया में पीईटी िफ़ल्में बनानेवाली सबसे बड़ी कंपिनयों में एक है। श्री सराफ़ ने ‘मनुपत्र’ नामक क़ानूनी सूचना उपलब्ध करनेवाली वेबसाइट भी बनाई है। पयार्वरण से अपने गहरे सरोकार को दशार्ते हुए उन्होंने पंजाब, उत्तराखंड़ और िसिक्कम में पन-िबजली प्रॉजेक्ट स्थािपत िकये हैं। वे कई कंपिनयों के बोडर् के सिक्रय सदस्य भी हैं। श्री सराफ़ की कंपनी की जनिहतकारी गितिविधयों के अंतगर्त चलाये जा रहे चैिरटेबल स्कूल में 1200 बच्चे िशक्षा पा रहे हैं।


िबिस्मल की आत्मकथा - चुने हुए अंश परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूरी होती िदखाई देती है। मैं तो अपना कायर् कर चुका। मैने मुसलमानों में से एक नवयुवक िनकाल कर भारतवािसयों को िदखला िदया, जो सब परीक्षाओं में पूणर्तया उत्तीणर् हुआ। अब िकसी को यह कहने का साहस न होना चािहये िक मुसलमानों पर िवश्वास न करना चािहये। पहला तजबार् था जो पूरी तौर से कामयाब हुआ। अब देशवािसयों से यही प्राथर्ना है िक यिद वे हम लोगों के फांसी पर चढ़ने से जरा भी दुिखत हुए हों, तो उन्हें यही िशक्षा लेनी चािहये िक िहन्दू-मुसलमान तथा सब राजनैितक दल एक हो कर कांग्रेस को अपना प्रितिनिध मानें। जो कांग्रेस तय करें, उसे सब पूरी तौर से मानें और उस पर अमल करें। ऐसा करने के बाद वह िदन बहुत दूर न होगा जब िक अंग्रेजी सरकार को भारतवािसयों की मांग के सामने िसर झक ु ाना पड़े, और यिद ऐसा करेंगे तब तो स्वराज्य कुछ दूर नहीं। क्योंिक िफर तो भारतवािसयों को काम करने का पूरा मौका िमल जावेगा। िहंदू-मुसिलम एकता ही हम लोगों की यादगार तथा अिन्तम इच्छा है, चाहे वह िकतनी किठनता से क्यों न हो। जो मैं कह रहा हूं वही श्री अशफ़ाक उल्ला खां वारसी का भी मत है, क्योंिक अपील के समय हम दोनों लखनऊ जेल में फांसी की कोठिरयों में आमने सामने कई िदन तक रहे थे। आपस में हर तरह की बातें हुई थी। िगरफ़्तारी के बाद से हम लोगों की सजा पड़ने तक श्री अशफ़ाक उल्ला खां की बड़ी उत्कट इच्छा यही थी, िक वह एक बार मुझसे िमल लेते, जो परमात्मा ने पूरी कर दी। श्री अशफ़ाक उल्ला खां तो अंग्रेजी सरकार से दया प्राथर् ना करने पर राजी ही न थे। उन का तो अटल िवश्वास यही था िक खुदाबन्द करीम के अलावा िकसी दूसरे से दया की प्राथर्ना न करना चािहये, परन्तु मेरे िवशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया प्राथर्ना की थी। इसका दोषी मैं ही हूं, जो अपने प्रेम के पिवत्र अिधकारों का उपयोग करके श्री अशफ़ाकउल्ला खां को उन के दृढ़ िनश्चय से िवचिलत िकया। मैंने एक पत्र द्वारा अपनी भूल स्वीकार करते हुए भ्रातृ िद्वतीया के अवसर पर गोरखपुर जेल से श्री अशफ़ाक को पत्र िलख कर क्षमा प्राथर्ना की थी। परमात्मा जाने िक वह पत्र उनके हाथों तक पहुंचा भी या नही, खैर ! परमात्मा की ऐसी ही इच्छा थी िक हम लोगों को फांसी दी जावे, भारतवािसयों के जले हुये िदलों पर नमक पड़े, वे िबलिबला उठें और हमारी आत्मायें उन के कायर् को देख कर सुखी हों। जब हम नवीन शरीर धारण कर के देशसेवा में योग देने को उद्यत हों, उस समय तक भारतवषर् की राजनैितक िस्थित पूणर्तया सुधरी हुई हो। जनसाधारण का अिधक भाग सुिशिक्षत हो जावे। ग्रामीण लोग भी अपने कतर्व्य समझने लग जावें।


सेतु - एक कहानी - पुरुषोत्तम पांडेय

ये आप्तोपदेश है: िपता शत्रु ऋणकतार् माता शत्रु व्यिभचािरणी संतित शत्रु अपिण्डता भायार् शत्रु कुलक्षणी. इस श्लोक में पित शत्रु की व्याख्या नहीं की गयी है, पर वीणा को इससे कोई फकर् नहीं पड़ता है क्योंिक उसका पित देवेश तो हर तरह से उसका शत्रु हो चुका है. अब समझौते की भी कोई गुंजाइश नहीं है, और वह समझौता करना भी नहीं चाहती है. बहुत भुगत िलया है इन दस वषोर्ं में. वीणा का िववाह लव मैरेज भी था और अरेंज्ड भी. बड़े अरमानों के साथ उसने वैवािहक जीवन शुरू िकया था, पर देवेश ऐसा िनकम्मा िनकलेगा उसने सपने में भी नहीं सोचा था. छोटे-मोटे मन मुटाव तो गृहस्थ जीवन में होते रहते है. पर पित िनखटटू हो तथा गैर िजम्मेदार हो तो गाड़ी आगे सरकने में किठनाई आ जाती है. ऐसा ही हुआ इनकी जीवन यात्रा में. वीणा के िपता हिरनारायण गुप्ता एक उद्योगपित थे. फरीदाबाद में उनका अच्छा कारोबार चल रहा था. वीणा ने देवेश के बारे में अपनी पसंद भाभी के माफ़र्त आपने माता-िपता को बतायी. देवेश उनकी दूर की िरश्तेदारी में ही था पर उसकी डीटेल्स उनको पता नहीं थी. आदमी की शक्ल सूरत व पहनावे से उसके अन्दर के जानवर को नहीं पहचाना जा सकता है. जब आप उसके साथ रहते हैं, उसके बात व्यवहार को भुगतते हैं तभी आपको सच्चाई का अनुभव होता है. देवेश करनाल के िकसी िसडकुल फैक्ट्री में सुपरवाइजर के बतौर काम कर रहा था. जब देवेश के िपता माधवानंद अग्रवाल को िरश्ते का पैगाम िमला तो उसकी बांछें िखल गयी क्योंिक हिरनारायण गुप्ता एक नामी-िगरामी व्यिक्तत्व था. घूम-धाम से िववाह भी हो गया. दहेज में गृहस्थी का पूरा सामान तो था ही साथ में शहर के मध्य में एक जमीन का प्लाट भी बेटी के नाम रिजस्टर करवा िदया.


माधवानन्द एक मध्यम वगीर्य व्यिक्त थे. एक छोटी सी परचून की दूकान चलाते थे. उनको पता नहीं था िक बहू के आते ही बेटा पराया हो जायेगा. हिरनारायण ने जब माधवानंद के पिरवार का रहन-सहन देखा तो उन्होंने तुरन्त ही प्लाट पर मकान बनाने की प्रिक्रया शुरू कर दी. माधवानंद खुश थे िक समधी जी उनके पिरवार के िलए एक बिढ़या घर बनवा रहे हैं. देवेश भी सोच रहा था िक अब बड़े घर में ससुराल हो गयी है तो छोटी-मोटी नौकरी कहाँ लगती है? वह अपनी ड्यूटी के प्रित लापरवाह हो गया और मकान बनाने की सुपरवाइजरी करने लग गया. खचेर् भी रईसी होने लगे. अब उसका अड्डा ससुराल में ही हो गया. ससुर जी ने चार सेटों वाला दुमंिजला मकान बनवा िदया. बिढ़या ढंग से गृहप्रवेश भी हो गया. इस बीच वीणा गभर्वती थी सो एक पुत्र को उसने सकुशल जन्म भी दे िदया. देवेश अपने माँ-बाप व भाईयों से दूर दूर ही रहने लगा. घर का खचार् पूरी तरह ससुरािलयों पर आ गया. ससुर जी ने जब देखा िक जवांई जी बेरोजगार हो गए हैं तो उन्होंने दो लाख रुपयों की इलैक्ट्रोिनक गुड्स की एक दूकान खुलवा दी. देवेश के ठाठ हो गए पर घड़े में छे द हो तो जल्दी खाली होने लगता है. ऐसा ही हुआ दूकान में सामान कम होता गया, खचार् बढ़ता गया; तीन साल के अन्दर िफर िठकाने पर वापस आ गया. देवेश के साले इस बात से बहुत खफा थे िक िपता जी देवेश को जरूरत से ज्यादा मदद दे रहे हैं और वह उड़ा रहा है. इसी दौरान हिरनारायण गुप्ता स्वगर् िसधार गए. देवेश िनराधार हो गया. वही हुआ िजसकी बड़े िदनों से आशंका थी. देवेश अपने शौक पूरे करने के िलए वीणा के गहने बेचने लगा. जब पोल खुली तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंिक वीणा पीहर वालों से देवेश के कारनामे छु पाते आ रही थी. लेिकन जब नौबत बतर्न बेचने की सामने आई तो वह फूट पडी. उसने ससुर माधवानंद को िशकायत की, पर माधवानंद पहले से ही भरे हुए थे. वे इस बात से नाराज थे िक वीणा ने उनके बेटे को पिरवार से छीन िलया है अत: उन्होंने वीणा को ही भला-बुरा कह डाला तथा उसके पिरवार वालों पर बेइमानी के गंभीर आरोप लगा िदए. बात जब हिरनारायण के लड़कों तक पहुँ ची तो हालत बदतर हो गए. उन्होंने देवे श के साथ हाथापाई की और घर से बाहर कर िदया. गेट पर देवेश का नामपट्ट भी उखाड फैंका. वकील के माफ़र्त तलाक का नोिटस िभजवा िदया. जब आदमी बेरोजगार हो, आलसी हो, और बेघर हो जाये तो उसकी दयनीयता का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब उसके पास माँ-बाप के घर जाने के अलावा कोई चारा न रहा. वह अपने बेटे का भी क्लेम नहीं कर सकता था क्योंिक खुद सड़क पर आ गया था. उधर वीणा ने बेटे श्रवणकुमार को िशमला में एक बोिडर्ं ग स्कूल में डाल कर समझदारी की. स्कूल व होस्टल वालों को ताकीद कर दी िक उसके ससुराल वाले बच्चे से नहीं िमल सकें. यों तो सब टेंसन में थे पर सबसे ज्यादा टेंसन में देवेश की माँ को थी, जो अपने पोते के िलए िदन रात िवलाप करती थी. पाँच साल गुजर गए हैं. इस बीच खबर है िक देवेश में बहुत बदलाव आ गया है. वह पुन: करनाल के ही िकसी कारखाने में नौकरी करने लग गया है तुलसीदास जी ने िलखा है 'का वषार् जब कृषी सुखाने,' पर ये भी है िक िजस तरह् िमत्रता स्थाई नहीं होती है शत्रुता भी स्थाई नहीं रह सकती है.


श्रवण अब िरश्तों की समझ रखने लगा है. उसे िपता की की कमी हमेशा खलती रही है. एक िदन एकांत में उसने िपता को एक हृदयिवदारक पत्र िलख डाला, जो एक काल्पिनक सेतु सा था. वह माँ-बाप दोनों को िमलाना चाहता था. पत्र देवेश को िमलने से पहले ही वीणा के हाथों में पड़ गया. मानव मन भावनाओं में िपघलता ही है. वह देवेश के साथ िबताये अन्तरंग क्षणों को याद करके िवह्वल हो गयी. सोचने लगी 'िरश्ते इतने िबगड गए हैं, इतनी गांठें इस धागे में पड़ गयी हैं, क्या इनको सुलझाना आसान होगा? इस सेतु को अगर बनाना भी चाहे तो अपनों में इं जीिनयर कौन बन सकता है? कौन फटी में पैर डालेगा? भाईयों में बड़े भाई-भाभी कर सकते हैं, लेिकन उसने उनको पहले इतना िवपरीत कर रखा है िक शायद ही वे इस सोच को स्वीकारें. िरश्तेदारों में बड़े-बड़े वकील, डाक्टर व प्रशाशिनक अिधकारी लोग हैं पर िकसी ने अभी तक उसके इस श्रािपत िजंदगी के बारे में आकर कुछ मदद करने की बात की?' ये सोचते हुए उसका िदल भर आया. उसके पास इतना बड़ा घर है िकराया भी खूब िमलता है, रुपयों की कोई कमी नहीं है, पर जीवन साथी के िबना सब सूना है. बहुत भावुक क्षणों में उसने वह पत्र भेजूं या ना भेजूं के उधेड़बुन में आिखर पोस्ट कर ही िदया.

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कंबल - अिभनव सरकार

उस वाकये को असार् बीत चुका है। मगर जब भी कोई सदीर् से कांपता बुजर्ग मेरी आं खों के सामने आता है तो याद, वक्त की न जाने िकतनी दीवारें लांघकर उस दौर में चली जाती है िजस दौर में वो बूढ़ी अम्मा थीं। तब िपता जी का तबादला उस शहर में नया नया ही हुआ था और उस अंजान शहर में मैं और मेरा पिरवार हाल ही में रहने पहुंचा था। िपता जी ने जो मकान िकराये पर िलया था वह िकसी पुरानी हवेली से कम नहीं था। गोल दरवाजे वाले घर में घुसते ही एक पुरानी सी बैठक थी िजसनें बड़ी बड़ी अलमािरयां थी। इतनी बड़ी की मैं और मेरी छोटी बहन छु टकी एक ही अलमारी में आराम से बन जाये। िफर एक आं गन, िजसमें बायें हाथ पर एक छोटा सा कमरा था। िजसे मम्मी ने िकिचन बना िलया। सामने दो छोटे छोटे कमरे थे िजसनें एक हम दोनों भाई बहन को और दूसरा भगवान जी को अलाट िकया गया। बगल में एक बड़ा कमरा था िजसमें बाकी ग्रहस्थी जमा दी गई। उसी के बगल से छत पर जाने का रास्ता जाता था। हालांिक छत पर भी दो कमरे थे मगर एक में पहले से ताला पड़ा था। िजसके बारे में हम भाई बहन को ये बताया गया था िक इस कमरे में भूत रहते हैं। इसका राज तब खुला जब एकबार मैंने िहम्मत करके भूत को देखने की कोिशश की। उसने कुछ पुराने भारी बेकार सामान के अलावा मुझे कुछ नजर नहीं आया। जो शायद िपछले िकरायेदार या मकान मािलक का था। तब समझ में आया िक कच्ची मुंड़रे के डर से मम्मी ने यह कहानी गढ़ी थी। दूसरे कमरे में थोड़ा बहुत सामान रख िदया गया। मकान तक पहुंचने वाली गिलयां संकरी तो नहीं थी लेिकन आपस में उलझी जरूर थी। हमारी गली के पीछे थोड़ी दूर पर नहर थी। िजसके बगल पर बनी पगडंडी पर िपता जी रोज टहलने जाते थे। िपता जी ने िहदायत दी थी िक घर के बाहर कहीं न जाये। सुबह आॅ िफस जाते वक्त िपता जी के साथ स्कूलबस तक जाते और लौटकर आते तो मम्मी गली के बाहर इं तजार करती िमलती। मुहल्ले में ज्यादातर गरीब तबके के लोग रहा करते थे जो बैंक में कैिशयर, िपता जी को इज्जत की नजरों से देखा करते थे। मिहलायें भी मम्मी से जान पहचान बढ़ाने के िलये बेताब थी और रोज शाम को चार पांच अडोस पडोस की औरतें हमारे दरवाजे पर झं◌ुड बनाकर बैठ जाती और मम्मी से बात करने लगती। इस चचार् के बहाने मुझे और छु टकी को बाहर खेलने का मौका िमला जाता। धीरे धीरे हमें थोड़ी दूर तक जाने की इजाजत िमलने लगी। मुहल्ले के नये दोस्तों के साथ हम दोनां◌े उन गिलयों का मुआयना करने िनकलने लगे। हमारी गली में दो दुकानें


थी। एक बड़ी दुकान थी। िजस पर हर वक्त ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी। इसिलये दुकानदार एक दो रुपये वाले, ग्राहक हम बच्चों को ज्यादा तवज्जों नहीं देता था और दूसरी एक बूढ़ी दादी की। िजन्हें मुहल्ले के बच्चे अम्मा कहकर बुलाते थे। बूढ़ी अम्मा ने अपनी दुकान उनके दो कमरें के मकान के बाहर वाले कमरे में सजा रखी थी। िजसमें वह अपनी छोटी सी चारपाई पर बैठी बैठी चीजें बांटती रहती और पैसों को एक अपनी कमर से बंधी एक कपड़े की पोटली में रख लेती। बूढ़ी अम्मा की दुकान पर िसफर् बच्चों के सामान िमला करते थे इसिलये सब बच्चे अपनी एकन्नी चवन्नी लेकर उन्हीं की दुकान पर पहुंच जाते कोई जीभ रंगने वाला चूरन लेता तो कोई हरी लाल चटपटी गोिलयां बूढ़ी अम्मा हरेक बच्चे को उतने ही लाड़ प्यार से चीजें बांटती िजतने िक दूसरे को। उनकी झिु रर् यों में धंसी गहरी आं खें हर वक्त मुस्कुराती रहती थी। मैं और छु टकी भी उन्हीं की दुकान पर जाकर अपना सामान ले आते। हालांिक अम्मा सभी बच्चों से कोई भेदभाव नहीं रखती थी मगर छु टकी उन्हें कुछ ज्यादा ही प्यारी लगने लगी। छु टकी के प्रित लगाव के कारण कभी कभी तो अम्मा छु टकी को मुफ्त में ही कोई चीज दे देती। स्कूल में भी कुछ नये दोस्त बनें। मगर असल मजा गली के दोस्तों के साथ अम्मा की दुकान पर गुजारने में आता था। हफ्ते दर हफ्ते मैं और छु टकी अम्मा के करीब होते गये और उनके घर में अंदर तक पैठ बना ली। दो कमरों के उनके मकान में बीच में एक बड़ा सा आं गन था। िजसमें एक ओर उनकी बकरी बंधी रहती थी और दूसरी ओर अम्मा ने एक छोटी सी बागवानी लगा रखी थी। िजसमें टमाटर, िमचर् और कद्द ू के पौधे लगे थे। वहीं हमने पहली बार कद्द ू को उसकी बेल पर लटकता देखा था। मेरे और छु टकी के साथ मुहल्ले के बाकी बच्चे भी अम्मा के घर के अंदर दािखल होने लगे। उनका घर हमारे िलये एक ऐसी जगह थी जहां हम आराम से दुिनया के नये अजूबे देख सकते थे। वनार् उस नादान उम्र में कोई कहता भी तो भी हमें यकीन नहीं होता िक कद्द ू बेल पर उगा करते है। मगर जब खुद अपनी आं खों से देखा तो पता चला िक दुिनया अजूबों से भरी पड़ी है। जैसे टमाटर का रंग हरा होता है धिनया घास जैसी जमीन पर पर उगती है। कभी कभी अम्मा हमें पुराने जमाने की कुछ कहािनयां भी सुनाती िजनको सुनते वक्त छु टकी का चेहरा ऐसा हो जाता। जैसे वह अंतिरक्षयान में बैठी चांद की सैर पर हो। एक िदन शाम को चांद को िनहारते छु टकी ने मम्मी से पूछा मम्मी क्या चांद भी िकसी बेल पर लटकता है? मम्मी ने उसके माथे पर हल्की सी चपत लगाकर कहा, नहीं! कौन सी मैडम पढ़ाती है ये सब? छु टकी बोली, अम्मा ने बताया था। मम्मी इस नई िशक्षक के बारे में जानने के िलये पूछा। कौन अम्मा? वहीं िजनकी पीछे वाली गली में दुकान है। छु टकी ने जवाब िदया। मम्मी ने छु टकी जवाब पर ज्यादा तवज्जों नहीं दी।


अब तो हर शाम हम दोनों अपने गली मुहल्ले के दोस्तों के साथ अम्मा की दुकान पर पहं◌ुच जाते जेब में पैसे न हो तो भी। उनकी दुकान में बैठ जाते और खामोशी भरी उस बूढ़ी औरत की आं खों में ताकते रहते। जो हमें अपने सीलन भरे कमरे से पिरयों के जहां की सैर करा देती थी। अम्मा के घर में िकसी और को न देखते हुए हमें ◌ं हैरानी तो होती थी। मगर जब भी यह सवाल िदमाग में आया उस बूढ़ी मुस्कुराहट को देखकर भूल खो गया। बच्चों की स्मृित वैसे भी कम ही होती है। मगर एक िदन अम्मा की कहानी में खलल डालते हुए छु टकी ने पूछ ही िलया अम्मा आपके घर में कौन कौन है? अम्मा ने मुस्कुराकर जवाब िदया मैं और मेरी बकरी। छु टकी ने अगला सवाल दागा, और आपके मम्मी िपताजी? वो मासूम धंसी आं खे िफर से मुस्कुरा उठी, वो बहुत दूर रहते हैं। सात साल की छु टकी ने िफर सवाल दागा, जैसे मेरी नानी रहती हं◌ै न? मैं छु टकी से पांच साल बड़ा था और यह जानता था िक ज्यादा बूढ़े लोग मर जाते है। खैर छु टकी दनादन सवाल िकये जा रही थी और अम्मा हंसती मुस्कुराती हर सवाल का जवाब उतनी ही संजीदगी से देती िजतनी संजीदगी से छु टकी सवाल कर रही थी। उसके अल्हड़ सवालों से दूर अब मुझे भी इस बात की िचंता होने लगी थी िक यह बूढ़ी औरत िजसके घर के हर िहस्से से हम वािकफ है। इसके पिरवार के बारे में कुछ क्यों नहीं जानते? कुछ सवाल मेरे भी जेहन में उभरे मगर अम्मा को उस शाम छु टकी के सवालों से फुरसत ही नहीं िमली। रात के ढलने से पहले हम घर आ गये। उस िदन अम्मा की कहानी अधूरी ही रह गई िजस का मलाल हमें था लेिकन घर आने से पहले अम्मा ने जो टॅािफयां हमें बांटी थी। वे कुछ ज्यादा ही मीठी थी। दूसरे िदन कहानी पूरी करते हुये अम्मा ने हमें िफर टॅािफयां बांटी। हम अपने घर की हर बात उन्हें बताते और उनसे हर परेशानी का हल पूछते। कभी कभी वो हमारे होमवकर् के बारे में बारे पूछती और उसमें थोड़ी मदद भी कर देती। तब हमें यह पता चला िक अम्मा थोड़ी बहुत पढ़ी िलखी है। एकिदन मैंने कौतूहल में पूछा अम्मा आपका नाम क्या है? अम्मा ने अचरज में पूछा, क्यों? क्या करना है? मैंने कहा, बस यूं ही अम्मा। अम्मा ने एक ठं डी सांस भर कर जवाब िदया, जुलैखा।


खैर हमें नाम से कोई खास वास्ता तो नहीं था। मगर सवाल था तो जवाब भी जरूर चािहये था, सो िमल गया। उनका नाम जानने के वाबजूद कभी हमने उन्हें उनके नाम से न तो याद िकया, न बुलाया। पहले वो हमारे िलये दुकान वाली अम्मा थी और िफर िसफर् अम्मा बन गई। अजीब सा जादू था उन दो कमजोर आं खों में जो बच्चों को देखकर हमेशा चमक उठती थी। उन सूखे होठों में िजनसे िनकले हर अल्फाज पर हमें उतना ही यकीन था िजतना हमें मम्मी की बातों पर था। एक िदन अम्मा हमारे दरवाजे से िनकली तो छु टकी ने उन्हें देख िलया और दरवाजे की तरफ दौड़ती हुई चीखी, अम्मा! अम्मा पलटी। छु टकी को देखकर उनकी आं खें चमक गई और मुस्कुराती हुई खड़ी हो गई। िबल्कुल वहीं, जहां वह खड़ी थी जैसे छु टकी ने उनका नाम न िलया हो विल्क स्टैच्यु बोल िदया हो। छु टकी के पीछे पीछे मैं आया और मेरे पीछे पीछे मम्मी चली आई। मम्मी ने ऊपर से नीचे तक उन्हें िनहारा। एक पुराना सा सलवार कुतार्, झक ु ी हुई कमर सर पर सफेद बाल। उस बूढ़ी काया में मम्मी को कोई खास आकषर्ण नजर नहीं आया। मगर हम दोनों के िलये तो वो इस सुस्त और मतलबी शहर की सबसे खास शख्स थी। हमारी अम्मा। छु टकी ने अम्मा का पिरचय मम्मी से कराते हुये बताया मम्मी ये अम्मा है, दुकान वाली अम्मा। मम्मी ने कोई खास प्रितिक्रया नहीं दी। बस एक झूठी हंसी िदखाकर मुस्कुरा िदया। उनकी यह बेरुखी छु टकी को तो नजर नहीं आई लेिकन मैंने देख ली। छु टकी ने अम्मा से अंदर आने का आग्रह िकया। शायद वह भी अम्मा को पूरा घर िदखाना चाहती थी। मगर अम्मा हालात भांप चुकी थी। अम्मा उसी तरह मुस्कुराई और बोली, नहीं बेटा, मुझे बाजार से दुकान के िलये सामान लेने जाना है। यह जवाब छु टकी को पसंद नहीं आया मगर उसने िजद नहीं की। बिल्क अपना गुस्सा उस शाम अम्मा की दुकान पर न जाकर उतारा। छु टकी उस शाम घर में ही रही मगर जब शाम ढले मैं घर वापस आया तो अम्मा के घर में हुये हर वाकये की खबर ली िक कौन कौन आया था? िकसने क्या क्या िलया? वो कद्द ू िकतना बड़ा हो गया? हरे टमाटर िकतने लाल हुये? अम्मा ने आज कौन सी कहानी सुनाई? जब मैंने उसे बताया िक आज तुम नहीं आई थी तो अम्मा ने कोई कहानी नहीं सुनाई। तब जाकर छु टकी की जान में जान आई। दूसरे िदन स्कूल से लौटकर जब छु टकी वापस आई तो उसने अपना बस्ता एक ओर पटका और मम्मी से दो रुपये मांगें। रुपये साथ लेकर मेरे साथ अम्मा की दुकान पर पहंची। कल शाम से गुस्से में भरी मासूम छु टकी अम्मा के दरवाजे को पार करते ही िबफर गई, अम्मा कल तुम मेरे घर क्यों नहीं आई? अम्मा की आं खें मुस्कुरा दी उन्होने िबना जवाब िदये एक िडब्बे से छु टकी का पसंदीदा हाजमोला का एक पैकेट िनकाला और छु टकी की तरफ बढ़ा िदया। छु टकी ने उनके उपहार को न करते हुये सवाल िफर दोहराया, नहीं पहले बताओ। अम्मा आगे बड़ी और छु टकी को गोद में उठा िलया। छु टकी उनकी गोद में पहुंचते ही उनसे िचपक गई और िससक उठी और उसके बाद अम्मा की भी आवाज भारी हो गई। अम्मा ने भारी आवाज में उसे अपने सीने से िचपका कर कहा, क्योंिक कल मेरी छु टकी की हाजमोला खत्म हो गई थी अगर तुम्हारे घर रुक जाती तो बाजार


बंद हो जाता और शाम को िफर तुम मुझसे लड़ती। छु टकी उनकी तरफ देखकर बोली, तो पूरी बात बताया करो न। अब कब आओगी मेरी घर। अम्मा ने कहा, कल आऊंगी। कल पक्का? छु टकी ने सौदे मुहर लगाने के िलये एक बार िफर पूछा। हां, कल पक्का! अम्मा ने भी करार पर मुहर लगा दी। उस िदन अम्मा ने छु टकी से हाजमोला के पैसे नही िलये। उन पैसों का इस्तेमाल छु टकी ने अम्मा की दुकान पर टॅािफया लेकर सबको बांटने में िकया। उस शाम सब टािफ़यां बांटती छु टकी ऐसी लग रही थी जैसे उसे बरसो से िबछड़ा पुराना कोई दोस्त िमल गया हो। अम्मा भी बहुत खुश थी उन्होने उस िदन छु टकी को अपनी गोद में बैठाकर पिरयों की कहानी सुंनाई। जब हम घर जाने के िलये तैयार हुये तो छु टकी ने अम्मा से अपना करार िफर दोहराया। अम्मा ने आने का वादा कर हमें िवदा िकया। हम घर चले आये और छु टकी रात भर अम्मा के आने की बातें करती रही। कभी वह कहती िक सबसे पहले अम्मा को भगवान जी का कमरा िदखायेगी तो कभी यह तय करती िक अम्मा को अपने कमरे में लायेगी और पिरयों जैसे कपड़े पहनने वाली अपनी गुिड़या से िमलवायेगी। कभी यह बताती िक जब अम्मा कल आयेगी तो उन्हें छत पर ले जाकर भूत वाला कमरा िदखाकर डरा देगी या कभी उन्हें यह बतायेगी िक मम्मी ने हमसे इसिलये झूठ बोला था क्योंिक हमारी मुंड़रे कमजोर है। िफर उन्हें पीछे बहने वाली नहर िदखायेगी। अपनी बातें करते करते छु टकी को कब नींद आ गई न मुझे पता चला न छु टकी को। सुबह िपता जी ने जैसे ही भगवान की पूजा शुरु की हम उठ गये। िपता जी पूजा करते वक्त जो घंटी बजाते थे वह हमारे िलये अलामर् का काम करती थी। हम उठे और नहा धो कर स्कूल चले गये। छु टकी उस िदन घर जाने को िजतना आतुर थी उतना पहले कभी नहीं रही। घर पहुंचकर वह अम्मा का इं तजार करने लगी। अम्मा का िदखाने के िलये उसने अपनी गुिड़या भी िनकाल कर रख ली। कभी वह घड़ी देखती तो कभी दौड़कर दरवाजे तक जाती और गली के उस मोड़ को िनहारती जहां से मुड़कर अम्मा की दुकान थी। हर एक सेकेंड के साथ छु टकी का इं तजार और लम्बा हो जाता। िदन ढलता गया लेिकन अम्मा नहीं आई। मम्मी ने छु टकी को होमवकर् पूरा करने के लये कहा तो वह उदास मन से कमरें में चली गई। मैं उसकी उदासी को समझ गया और उसके पीछे पीछे कमरें में पहुंचा और छु टकी के पास जाकर बैठ गया। छु टकी ने मेरी तरफ देखा और बोली, अम्मा क्यों नहीं आई, भईया? मैंने समझाने के अंदाज में जवाब िदया, शायद कोई काम आ गया होगा या िफर बकरी परेशान कर रही होगी। तो थोड़ी देर के िलये आ जाती। छु टकी ने अपना तकर् िदया। इस बात का कोई जवाब तो नहीं था पर उदास बहन को समझाने के िलये कह िदया, शायद हम जब स्कूल गये थे तब आई होगी। धत्त! मैं भी उल्लू हूं भाई कल उन्हें बताकर आना चािहये था न हमें िक हम स्कूल से आ जाये तब आना बेचारी आई होगी और चली गई होगी। छु टकी अपनी पेंिसल को अपने माथे पर मारती हुई बोली। छु टकी को अब अपनी गलती पर ज्यादा भरोसा हो रहा था। उसे समझाने के िलये जो तकर् िदया गया था। वह अब नयी परेशानी बन गया था। मैंने जब


उसे यह भरोसा िदला िदया िक जब तुम्हारा होमवकर् हो जायेगा तब दोनों मम्मी से पूछेंगे िक अम्मा आई थी या नहीं और उसके बाद उनकी दुकान पर चलेंगे। तब जाकर कहीं बात बनी। अपना होमवकर् खत्म करके छु टकी ने मम्मी की ओर दौड़ लगाई जो उस वक्त िकिचन में काम कर रही थी। छु टकी ने अपनी परेशानी जािहर करते हुये पूछा, मम्मी क्या अम्मा आई थी? कौन अम्मा? मम्मी ने सवाल के जवाब में सवाल कर िदया। वही दुकान वाली अम्मा, जो उस िदन बाहर से िनकली थी, छु टकी ने उतनी ही मासूिमयत से जवाब िदया। नहीं, कोई नहीं आया था। मम्मी ने छु टकी की ओर िबना देखे जवाब िदया। छु टकी ने मेरी ओर देखा। मैंने मम्मी से पांच रुपये मांगे। मम्मी ने दस का नोट थमाकर बाकी के वापस देने की बात कही। मैंने हां में सर िहलाया और छु टकी को इशारा िकया। हम दोनों दुकान जाने की बात कहकर घर से िनकल गये। तेज कदमों की चाल के साथ हम दुकान पर पहुंचे अम्मा बकरी को चारा डाल रही थीं। छु टकी ने पूछा अम्मा क्यों नहीं आई मेरे घर? बस आने वाली थी मगर बकरी को कौन देखता तो सोचा िक तुम तो आओगी ही, इसिलये नहीं आई। तो बोला क्यों था? छु टकी ने नाराजगी जताते हुये कहा। चलो कल पक्का आऊंगी। अम्मा ने भरोसा िदलाया। छु टकी ने हाजमोला िलया और अंदर कद्द ू की बेल देखने पहुंच गई। उस शाम को घर पहुंचने हमें थोड़ी देर हो गई। मुहल्ले का एक बच्चा आया और बोला, छु टकी तुम्हारी मम्मी तुम्हें बुला रही है। हम अम्मा की कहानी बीच में छोड़कर नहीं जाना चाहना चाहते थे। मगर अम्मा ने वादा िकया िक आज की छू टी कहानी कल पूरी करेगी। तब हम घर पहुंचे तो देखा मम्मी दरवाजे पर परेशान खड़ी थी। रोज मम्मी के पास बैठने वाली मुहल्ले की दूसरी औरतें भी खड़ी होकर हमारा इं तजार कर रही थी। मेरे देहरी पर कदम रखते ही मम्मी ने मुझे एक झापड़ रसीद कर िदया। यह देखकर छु टकी कांप गई। कहां गये थे? मम्मी ने पहला सवाल िकया। अम्मा की दुकान पर, मैंने िसर नीचा झक ु ाये जवाब िदया। छु टकी मेरे पीछे आकर खड़ी हो गई। इतना वक्त लगता है क्या? कल से कहीं नहीं जाओगे तुम दोनों। घर रहोगे। बहुत आवारा हो गये हो तुम। मम्मी ने िहदायत दी। इसी बीच एक औरत बोली, अरे छु टकी की मम्मी बेचारी के कोई औलाद नहीं है। तो बच्चो से खास लगाव है उसे। इसिलये दुकान के बहाने मन बहला लेती है। अकेली रहती है। बेचारी खाने को मोहताज है। मम्मी उस मिहला की तरफ पलट कर बोली, नहीं! ये दोनों बहुत िबगड़ गये है। उसका घरवाला नहीं है क्या? उसने कहा, नहीं बेचारे को टीबी थी। दो साल पहले गुजर गया। तब से अकेली रहती है। उसे भी है क्या?, मम्मी ने सवाल िकया। पता नहीं, मम्मी को जवाब िमला। मम्मी यह सब सुनकर हमें अंदर ले आई। बाहर बैठी भीड़ चली गई। मगर मम्मेी अपनी बात से नहीं पलटी और उस िदन से हमें पैसे िमलना बंद हो गये। हमें जो चािहये होता वह िपता जी ले आते। शाम को घूमने के नाम पर मम्मी हमें अपने साथ नहर के िकनारे वाली सड़क पर ले जाती। नहर जाने का रास्ता अम्मा के दरवाजे के सामने से िनकलता था। इसी बहाने रोज मैं और छु टकी अम्मा को देख लेते । कुछ िदनों बाद अम्मा भी अपनी बकरी


लेकर हमारे पीछे आ जाती और नहर के पास बैठकर हमें को देखती रहती। शायद उन्हें दूसरे बच्चों से पता चल गया था िक हमें पाबंद कर िदया गया था। पता नहीं कौन सा डर मम्मी के िदल में समा गया था। मम्मी ने पहले कभी भी ऐसी पाबंदी हम पर नहीं लगाई थी। धीरे धीरे िदन छोटे होने लगे। सिदर् यां बढ़ गई। अब मम्मी थोड़ा पहले घूमने िनकलने लगी। मगर अम्मा का पीछे से आना बंद नहीं हुआ। िदसंबर की शुरुआत थी ठं ड अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। िपता जी हमारे खेलने के िलये फुटबाल लाये थे। उसे लेकर हम रोज नहर के िकनारे खेलने जाते थे। एक रोज नहर से लौटते वक्त अम्मा पीछे पीछे हमारे घर चली आई और दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। उन्होने आवाज लगाई, छु टकी की मम्मी। छु टकी और मैं उनकी आवाज सुनकर बाहर पहुंच गये। मगर इस बार छु टकी की िहम्मत नहीं हुई िक अम्मा से कहे िक आओ अम्मा, आपको पिरयों के कपड़े वाली गुिड़या िदखानी है। मम्मी भी आकर खड़ी हो गई। अम्मा थोड़ा झक ु ी और बोली, छु टकी की मम्मी अगर कोई पुराना कंबल हो तो दे दो। मम्मी ने कहा, देख लूंगी। हुआ तो दे देंगे। अम्मा शायद कुछ और कहना चाहती थी लेिकन मम्मी ने हमें खींचकर दरवाजा बंद कर िदया। आज कंबल मांगने आई है कल इसी बहाने तुम लोग िफर जाने लगोगे। मैं नहीं दूंगी इसको कंबल। मम्मी का यह रवैया हमें पसंद नहीं आया। न तो अम्मा ने िफर कंबल को कहा न मम्मी ने उन्हें कोई कंबल िदया। मगर अम्मा का हमें नहर के िकनारे देखने आना बदस्तूर जारी रहा। िदसंबर के आिखरी हफ्ते में गला देने वाली सदीर् की एक शाम मैं और छु टकी नहर के िकनारे फुटबाल खेल रहे थे। अम्मा दूर बैठी हमें देख रही थी और मम्मी पास बनी एक मुंडेर के िकनारे खड़ी थी। तभी फुटबाल के पीछे भागते छु टकी का पैर िफसला और वह िफसल कर नहर में जा िगरी। मैं और मम्मी नहर की तरफ भागे। छु टकी ठं डे पानी में गोते लगा रही थी। मम्मी िचलाई, अरे मेरी बेटी डू ब रही है। बचाने को लोग दौड़ते इससे पहले पानी में कुछ और िगरने की आवाज आई। यह अम्मा थी। अम्मा धीरे धीरे तैरते हुये छु टकी की ओर बढ़ी और उसे थाम िलया। अपनी छाती से िचपका कर अम्मा उसे लेकर िकनारे की ओर बढ़ी। मम्मी बदहवास हालात मे लगातार रोये जा रही थी और मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था िक क्या करुं? अम्मा उसे िकसी तरह उसे सड़क पर लेकर आई और लाकर मम्मी के हाथों में छु टकी थमा दी। छु टकी एकदम ठं डी पड़ चुकी थी और बेहोश हो चुकी थी। मम्मी उसी बदहवास हालत में छु टकी को लेकर हॅ ािस्पटल भागी। डॅ ाक्टरों ने पांच इं जेक्शन देकर उसे बचाया। िपता जी भी आ गये और हम छु टकी को लेकर घर आ गये। रात बहुत हो चुकी थी। िपता जी के आॅ िफस वाले छु टकी को देखने के िलये आये। जब तक वो गये आधी रात बीत चुकी थी। छु टकी अब होश में तो थी मगर कांप रही थी। मम्मी रात भर उसे अपने सीने से लगाये बैठी रही। सुबह जब छु टकी की कुछ ठीक हालत हुई तो मम्मी ने उसे गमर् रजाई में िलटा िदया और अलमारी से एक मोटा मखमल का कंबल िनकाल कर मुझे देते हुये कहा, जाओ ये अम्मा को दे आओ। मैं एकदम खुश हो गया िक


इतने िदनो बाद मम्मी ने अम्मा के घर जाने के िलये बोला है। मैं दौड़ा अम्मा के घर पहुंचा तो उनका दरवाजा बंद था। थोड़ी देर आवाज लगाई मगर अंदर से कोई जवाब नहीं आया। तो वापस आकर मम्मी को बताया। मम्मी ने छु टकी पर शॅाल डाला और उसे गोद में लेकर मेरे साथ चली आई। िपता जी भी पीछे से आ गये। िपता जी ने भी अम्मा को जोर जोर से आवाजे दी। मगर इस बार भी कोई जवाब नहीं आया धीरे धीरे लोग जुटने चालू हुये और फैसला हुआ दरवाजा तोड़ िदया जाये। दरवाजा तोड़ा गया। हम अंदर गये तो देखा दरवाजे की आवाज से बकरी ने सारी दुकान फैला दी थी और अम्मा की चमकती आं खे पथरा गई थी और उनके शरीर पर कमर तक एक पतला जूट का कंबल पड़ा था।


चोर जेब - िववेक िमश्र

बादल ऐसे िघरे थे िक िदन में रात लगती थी। मानो सूरज को ग्रहण लग गया हो। तेज़ हवा के साथ उड़ती छोटी-छोटी बूँदों ने तापमान ग्यारह से सात िडग्री पर ला िदया था। साँस खींचो तो फेफड़ों में टीस उठती थी और छोड़ों तो पसिलयाँ काँप जाती थीं। होंठ नीले और चेहरा पीला हुआ जाता था। पािकर्ंग की जगह रेस्टॉरेन्ट से बहुत दूर िमली थी। गाड़ी से िनकल तो ठं ड भीतर तक धंसती मालूम हुई। लगता था वहाँ तक पहुँ चते पहुँ चते टाँगें जड़ हो जाएं गी। िफर भी वह गले में िलपटे मफ़लर को नाक तक चढ़ाए, कोट की जेबों में हाथ डाले, गीली सड़क पर आगे बढ़ता जा रहा था। तभी फोन की घण्टी बजी। इसे भी अभी ही आना था िफर सोचा सुन ले शायद बेटी का हो पर याद नहीं आया िक फोन कहाँ रखा है इसिलए उसने बारी-बारी अपनी पेन्ट, कोट और शटर् की जेबें टटोलीं पर फोन नहीं िमला। लगा फोन नहीं है पर है तभी तो बज रहा है। शायद वह कोट की चोर जेब में है िजसका प्रयोग वह बहुत कम करता है। चोर जेब का ख्याल आते ही उसका हाथ कोट के भीतर सरक गया। हाथ फोन को छू पाता िक फोन कट गया। उसे लगा उसके भीतर भी एक चोर जेब है। शायद सभी के भीतर एक चोर जेब होती है िजसमें हम कुछ जरूरी चीज़ें रख छोड़ते हैं। जब उन जेबों में से कोई आवाज़ आती है तो हम मन के सारे कोने थथोलते हैं िसवाय उस चोर जेब के। यह उस चोर जेब में रख छोड़ी गई चीजों से बच िनकलने का एक सरल तरीका है िजससे वे हमारे साथ रही भी आती हैं और हम उन्हें ख़ुदकी और दूसरों की नज़रों से बचाए भी रखते हैं। बढ़ती उम्र में उससे लगातार दूर होती जाती बेटी, हिड्डयों के भीतर से उठता ददर्, िनतांत िनजी कोने में संजोया अकेलापन और श्रीमती निलनी महापत्रा की उदास पनीली आँ खें, यह सब उसकी चोर जेब में ही तो है। सामने एक रेस्टॉरे न्ट िदख रहा है शायद यही वह जगह हो जहाँ उसे निलनी महापात्रा से िमलना है। पास जाकर पता चला यहाँ िसफ़र् जगह के नाम का बोडर् है। रास्ता पीछे से है। एक संकरी गली में तंग सी सीिढ़याँ हैं। वह झंझ ु लाता है। कहीं कुछ भी सीधा नहीं है। न लोग, न रास्ते। घुटनों में ददर् के बावज़ूद वह अपेक्षाकृत तेज़ी से सीिढ़याँ चढ़ता है। वह अक्सर िकसी अंदरूनी उत्तेजना में ऐसा करता है। श्रीमती महापात्रा जब भी िदल्ली आतीं


ख़ुद ही िमलने चली आतीं। िपछली बार जब आईं थीं तो उन्होंने रात का खाना साथ ही खाया था। बहुत देर तक बातें करतीं रहीं। उन्होंने चलते हुए कहा था ‘घर बहुत अच्छे से रखा है आपने, हर कोने पर आपकी पसंद की छाप है।’ उस समय उसने बड़ी बेिफक्री से कहा था ‘जी जब तक यहाँ हूँ , अपनी तरह से रखा है, वनार् घर तो आपका ही है, जब कहेंगी सामान समेट कर चल दूंगा।’ इसपर कुछ उदास होते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं जानती हूँ आप बड़े िहम्मतवाले पर इतने िदनो से इस घर में हैं अब इसे छोड़कर कहाँ जाएं गे जब तक चाहें रिहएगा। अब केवल मकान मािलक और िकरायेदार का िरश्ता नहीं है हमारा’ ऐसा कहते हुए उनकी आँ खें एक जगह िस्थर हो गई थीं िफर अगले ही पल पलक झपकाते हुए कहा था, ‘अब हम दोस्त भी हैं।’ इस बार इतनी ठण्ड में उनका उसे रेस्टॉरेन्ट में बुलाना कुछ अजीब था। िफर भी उसे लग रहा था िक उनसे िमलकर िदल कुछ हल्का हो सकेगा। सालों से उनके मकान में िकराएदार है। साल में दो-एक बार मुलाक़ात भी होती है। हरबार िमलकर अच्छा लगता है पर हर बार कुछ अनकहा रह जाता है। जैसे दोनो एक दू◌्सरे के अकेलेपन को छू ते तो हैं पर उसमें पाँव रखने से डरते हैं। सीिढ़याँ ख़त्म हो गईं सामने दीवार पर एक शीशा आ गया िजसमें देखकर उसे एहसास हुआ िक वह यह सब सोच नहीं रहा है बिल्क बाक़ायदे बड़बड़ा रहा है। क्या सोच रहे होंगे उसे देखकर नीचे उतरते हुए लोग। क्या वे मन ही मन उसकी उम्र को कोस रहे होंगे। नहीं अन्ठावन की उम्र भी कोई उम्र होती है। वह पीठ सीधी करते हुए रेस्टॉरेन्ट में दािखल हुआ। सामने ही बैठी हैं-निलनी महापात्रा। इसबार सालभर बाद देख रहा है उन्हें, थोड़ी दुबली हो गईं हैं। रूप जस का तस पर चेहरा थोड़ा बुझा हुआ। उसे देखकर उन्होंने कृित्रम मुस्कान ओढ़नी चाही पर वह बीच में ही िचरकर िखिसयाहट में बदल गई िफर भी उन्होंन बात को शुरू करने के िलए पूछा, ‘कैसे हैं? बेटी कैसी है?’ उसने सपाट-सा जवाब िदया ‘मैं ठीक हूँ , बेटी तो अब आपके शहर बेंगलोर में ही पहुँ च गई है। अभी कल ही बात हुई, आपका बेटा कैसा है?’ उन्होंने टेबल पर िटकी कोहिनयाँ खींचकर, हाथों से कोट के िसरों को कसते हुए कहा, ‘वह ठीक है। शादी कर रहा है।’ ‘वाह! अच्छा है, इतना बढ़ा हो गया!, समय कैसे बीत जाता है!, उन्होंने साँस छोड़ते हुए कहा ‘हाँ, अब बहुत बड़ा हो गया,…आपकी बेटी क्या कर रही है’ ‘अभी तो िकसी कम्पनी के साथ ट्रेिनंग पर है पर इसके बाद वह शादी नहीं करना चाहती बिल्क फरदर स्टडीस के िलए बाहर जाना चाहती है’ ‘ये तो अच्छा है, देिखए ये भी क्या संजोग है, इतनी बार िदल्ली आना हुआ पर आपकी बेटी से मुलाक़ात नहीं हो सकी।’ वेटर पहले से ऑडर्र की गई कॉफ़ी के दो मग टेबल पर रख गया। कुछ पल उनके बीच ख़ामोशी ितरती रही िफर जैसे उन्होंने अपने ही भीतर डू बते हुए कहा, ‘मैंने आपको यहाँ इसिलए बुलाया है क्योंिक मैं जो कहना चाहती हूँ वह आपके घर पर नहीं कह पाऊँगी। मैं जानती हूँ इस मौसम में आपको तक़लीफ़ तो होगी पर मैं चाहती हूँ िक आप,…मकान खाली कर दें’ उसके बाद जैसे बीच की टेबल लम्बी होती चली गई। उसे लगा जैसे बाहर की सदीर् शीशे को भेदती हुई भीतर आकर सीधी उसकी हिड्डयों में समा रही है। अंजाने ही उसने अपनी चोर जेब में हाथ डाला और कोई नामालूम-सा सहारा ढूँ ढने लगा। तभी उसे लगा उसकी चोर जेब में कई सच्चाइयों


के साथ कई झूठ भी हैं जो उसी ने खड़े िकए हैं। उनमें से एक अभी-अभी उसने निलनी महापात्रा से बोला था। अपनी बेटी के बारे में िक उससे अभी कल ही बात हुई है जबिक उससे बात हुए तो महीनों बीत जाते हैं। कैसे कहे उनसे िक वह अन्ठावन का नहीं बासठ साल का है। उसमें िहम्मत नहीं िक वह यूँ अचानक इस मौसम में रहने की जगह तलाशे और उसके िलए यह भी बहुत मुिश्कल है िक वह मकान िजसमें बारह साल से वह अपना घर समझकर रहता आया है, यूँ अचानक खाली कर दे। उन्होंने बहुत दूर से आती-सी आवाज़ में कहा, ‘देिखए ऐसे यूँ अचानक यह सब कहना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर मेरा बेटा शादी के बाद यू एस मे सेटल होना चाहता है और उसका कहना है िक मुझे उसके जाने से पहले यह प्रोपटीर् बेच देनी चािहए। दरसल उसे पैसे की जरूरत है।’ वह श्रीमती महापात्रा की बातों में अपने घर को मकान, मकान को प्रोपटीर् और प्रोपटीर् को पैसे में बदलते हुए देख रहा था। वह अपनी उस जेब से निलिन महापात्रा की उदास पनीली आँ खें िनकाल कर उनकी असली आँ खों से िमला रहा था। वे मेल नहीं खा रही थीं। वे अपने बेटे के आगे हारी हुई लग रही थीं। तभी जैसे उन्होंने अपनी बात पर और वज़न रखने के िलए कहा, ‘यह सब मुझे इसी हफ़्ते करना होगा। अगले महीने उसकी शादी है। यह देिखए उसके एन्गेजमेन्ट की तस्वीर’ उन्होंने अपने मोबाइल पर एक तस्वीर को बड़ा करते हुए उसकी ओर बढ़ा िदया। उसमें उनका बेटा और उसकी होने वाली पत्नी थे। उसे श्रीमती महापात्रा की बात के समथर्न के िलए िकसी सबूत की जरूरत नहीं थी। िफर भी उसने एक उड़ती नज़र उस तस्वीर पर डाली। उसे िवश्वास नहीं हो रहा था िक तस्वीर में निलनी महापात्रा के बेटे के साथ उसकी बेटी भी थी। उसने िफर अपने मन की उस चोर जेब को थथोला िजसमें उसे अभी भी उन तमाम चीजों के होने का आभास हो रहा था जो िकसी अन्जाने, अनदेखे समय में उसे थाम लेने के िलए उसने वहाँ रख छोड़ी थीं पर उसे लगा जैसे वह धीरे-धीरे खाली हो रही थी। उसमें अचानक ही कई छे द हो गए थे। उसने काँपते हाथों से अपने कोट की चोर जेब से अपना फोन िनकाला। उसमें बहुत देर पहले आई एक िमस्ड कॉल थी पर वह नम्बर इस बार भी उसकी बेटी का नहीं था। उसके बाद वह श्रीमती निलनी महापात्रा से घर खाली करने के िलए एक िदन की मोहलत लेकर एक बासठ साल के घुटनों के ददर् से आिजज आ चुके इं सान की तरह रेस्टॉरेन्ट की सीिढ़याँ उतरता हुआ गली में आ गया।


नदी जो झील बन गई - सौरभ शमार्

स्मृित जोशी 2-53 संगम रोड, िटहरी उत्तराखंड आशा है सब वहाँ बहुत कुशल होंगे । यहाँ लंदन पहुँ चे मुझे दो महीने हो गए, िदल्ली में मुझे िवदा करते वक्त तुमने कहा था िक पहुँ चते ही लैटर िलख देना लेिकन यह हो न सका। आज बहुत फुरसत में हूँ । लंदन के नीले आकाश के नीचे लेटा हुआ, चाँदनी में सारे तारे सजे हुए हैं िजस इलाके में हूँ वो चकाचौंध का इलाका नहीं है। उसे वैसे ही रहने िदया गया है सोलहवीं सदी का। बगैर ज्यादा रोशिनयों का। हाँ िजस हरी घास में लेटा हूँ उसके ठीक सामने टेम्स बह रही है। इसमें बहुत सी नावें ितर रही हैं। प्रेमी-प्रेिमका इनमें सवार हैं हर उम्र के( वे पित-पत्नी भी हो सकते हैं अगर वे सचमुच अब आपस में प्रेम करते हों)। कभी गंगा तट में मैंने िकतनी ही ऐसी शामें गुजारी थीं। आज टेम्स में गुजारने का सौभाग्य िमल रहा है। राहुल सांकृत्यायन ने गंगा से वोल्गा तक यात्रा वृत्तांत िलखा था, मैं िलखूँगा गंगा से टेम्स तक। अभी पहले महीने तो लंदन मेट्रो का ही आनंद िलया, वहाँ िब्रिटश अखबार टेलीग्राफ, टाइम्स पढ़ते हुए लंदन शहर का नजारा लेने का अलग ही लुत्फ है। और लंदन के लैंड माकर् देखे। ट्राफल्गर स्क्वायर के कुछ फोटोग्राफ्स मैंने तुम्हें भेजे हैं, कुछ पुरानी यादें ताजा होंगी। हाँ टेलीग्राफ में िटहरी का एक समाचार भी देखा था, बांध का िवरोध बढ़ गया है। क्या अपडेट हैं इं तजार करूँ गा। अपनी िरसचर् के बारे में जल्दी ही िलखूँगा, अभी तो बस शुरूआत की है। हिषर् त स्कूल आफ अफ्रो एं ड एिशयन स्टडीज लंदन


23 माचर् 2003 ................... हिषर् त स्कूल आफ अफ्रो एं ड एिशयन स्टडीज तुम्हारी िचंता थी। खत िमला तो बहुत अच्छा लगा। मैंने टेम्स में गुजारी हुई तुम्हारी शामों का खाका अपने मन में खींच िलया, फोटोग्राफ्स बहुत अच्छे हैं और सबसे अच्छा यह है िक इस समय तक कोई गोरी मेम तुम्हारे बगल में खड़ी नहीं हुई है। नहीं तो उत्तराखंड के अखबारों के िलए यह अच्छी फोटो बन जाती, कैप्शन होता- ट्राफल्गर स्क्वायर में एडिमरल नेल्सन के साथ लेडी हैिमल्टन। तुमने कहा था िक फोटोग्राफ से जरूर कुछ याद आएगा- हाँ याद आया। िशमला में हम लोग स्कूल िट्रप में गए थे। वहाँ म्यूिजयम में इं स्ट्रक्टर ने एडिमरल नेल्सन का िकस्सा बताया था, ट्राफल्गर की बड़ी लड़ाई जीतने वाले नेल्सन के बारे में िजसने नेपोिलयन के वचर्स्व का दौर समाप्त कर िदया था। उनकी प्रेिमका के साथ तस्वीर पर कमेंट करते हुए इं स्ट्रक्टर की शरारती आँ खें मुझे अब भी याद हैं। लुक आन हर, द इनफेमस साइड आफ ग्रेट एडिमरल नेल्सन। हमारे इस छोटे से शहर की खबरें टेलीग्राफ में भी लग रही हैं यह सुनकर बहुत अच्छा लगा। लेिकन बाँध को लेकर हम हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। तुम जैसे लोग जो हमारे नेल्सन हो सकते थे, इितहास की गिलयों को छानने यूके में हैं जबिक यहाँ उनका अपना जीवन इितहास की गतर् में समाने जा रहा है। इस बार हम लोगों ने घर में पुताई भी नहीं कराई। जाने कब वो बांध का गेट बंद कर दें और हमारा घर जलसमािध ले ले। घर में सब तरफ झाड़-झंखाड़ उग रहे हैं अजीब सा सूनापन घर में पसर गया है। ऐसे ही हालात जैसे गदर के समय िदल्ली में रहे होंगे, िजस पर गािलब ने अपनी हवेली में बैठे-बैठे उदासी में िलख िदया होगा। उग रहा है दरोदीवार पर सब्ज गािलब। हम िबयाबां में हैं और घर में बहार आई है। स्मृित, 12 िसतंबर 2003 ................. स्मृित, गोरी मेम अब तक नहीं िमली है लेिकन तलाश जारी है। वीकेंड् स में मैं गांधी जी की आटोबायोग्राफी में विणर् त की हुई लंदन की तमाम जगह देखने चला जाता हूँ । एक अच्छी शाम मैंने वेंटनर में भी गुजारी। वहीं जहाँ गांधी जी भी वीकेंड् स पर जाते थे और ऐसे ही एक शाम मेजबान लड़की उन्हें पहाड़ पर ले गई थी जहाँ बड़ी शिमर्ं दगी के साथ उन्हें लड़की के हाथों का सहारा लेकर उतरना पड़ा था। अब शायद कोई भी न बता पाए िक वो कौन सी


चट्टान थी। वैसे गांधी भाग्यशाली थे, मैं उनके जैसा शमीर्ला न होकर भी अकेले ही घूमने मजबूर हूँ । िलंकन इन में पढ़ने के दौरान गांधी जी िजस घर में रहे थे, वो फ्लैट अब तक केंिसग्टन स्ट्रीट में है। मैंने फेिरंग्टन स्ट्रीट के चक्कर भी खूब काटे हैं जहाँ गांधी जी ने नये नये इं िडयन वेज रेस्टोरेंट खोजे थे। गांधी की कोई स्मृित अब इन रेस्टोरेंट में नहीं है। हाँ फेिरंग्टन स्ट्रीट में एक जगह जरूर िलखा िमला- अगर महात्मा गांधी की तरह ही वेज खाने की तलाश में है तो आप िबल्कुल सही जगह पर हैं। हाँ, मैं बेडफोडर् स्क्वायर भी गया। जहाँ राजा राममोहन राय रहे थे। अब उनके घर में ब्लूमसबरी पिब्लकेशन का हेडआिफस है। कहते हैं िक हैरी पॉटर को छपाने के िलए मैडम रोिलंग ने इससे पहले 11 पिब्लशर के चक्कर काटे थे। अब अपने िरसचर् के टािपक पर, मुझे यूरोप में िजिप्सयों पर काम करना है। वे हजार साल पहले भारत से आए थे, बताते हैं िक ये भारत के नट हैं िजन्होंने महमूद गजनवी के आक्रमण के दौरान भारत छोड़ा होगा। उनकी भाषा पर काम, उनकी वेषभूषा पर काम और डांस में भारतीय परंपरा की िनशािनयाँ देखना मेरी िरसचर् का िहस्सा है। इसी िसलिसले में बल्गािरया भी गया, यहाँ िजिप्सयों की एक ऐसी बस्ती देखी जो हूबहू राजस्थान के बंजारों से िमलती-जुलती है। यहाँ िटहरी से आने वाली खबरों की बाढ़ सी लग गई है। अच्छा हुआ, इस समय मैं वहाँ नहीं हूँ नहीं तो अपनी आँ खों से तबाही का मंजर देखना बहुत किठन होता है। और तुम एक इितहासकार से क्यों आशा करने लगी हो िक वो आए तुम्हारी धरोहर बचाए। वो नेताओं की िजम्मेदारी है तुम्हें उनकी ओर मुखाितब होना चािहए। इितहास िलखना कोई छोटा दाियत्व नहीं है। नीरद बाबू ने अपनी पुस्तक आटोबायोग्राफी आफ अननोन इं िडयन की शुरूआत इस टैग लाइन से की थी- इितहास बहुतेरे बना सकते हैं लेिकन बहुत कम ही इसे करीने से िलख पाने में सक्षम होते हैं। हिषर् त, 21 माचर् 2004 ................. हिषर् त, इितहास िलखना बहुत बड़ा दाियत्व है लेिकन ऐसे समय में जब आपको इितहास बनाने की िजम्मेदारी हो, इितहास िलखना बड़ा अजीब लगता है यह अपराध जैसा ही है। मैं तुमसे आशा नहीं कर रही िक तुम हमारी धरोहर बचाने आओ, मैंने तो केवल तुम्हारे अपराध की ओर इं िगत िकया। वैसे िब्रिटशसर् इस मामले में हमसे ज्यादा अच्छे हैं अभी अमर उजाला में एक स्टोरी पढ़ी। 1857 के िवद्रोह के दौरान कानपुर और बनारस में खूब नरसंहार करने वाले कनर्ल नील का पड़पोता अभी यूपी में है। उसने एक घोड़ा िलया है और गाँव-गाँव घूमकर लोगों से हाथ जोड़कर अंग्रेजों द्वारा गदर के समय िकए गए अत्याचार की माफी माँग रहा है।


िटहरी के ताजा अपडेट यह हैं िक यहाँ िफजा में जहर घुल रहा है। नये-नये चेहरे िदख रहे हैं। बरसों से िटहरी छोड़ चुके लोग मुआवजे के लालच में िफर पहुँ च गए हैं और पिरवारों में आपस में क्लेश का अजीब सा वातावरण बन गया है। सबसे ज्यादा खराब िस्थित उन गरीबों की हैं िजन्होंने ऐसे ही कहीं झोपड़ी तान दी थी, नई िटहरी में उनके िलए िकस तरह का पुनवार्स होगा। कोई भी नहीं जानता। और जब कोटर् ने ही हाथ खड़े कर िदए हैं तो कोई क्या कर सकता है। और क्या कोई न्यायाधीश भी अपने समय बहुमत द्वारा प्रस्तुत िकए जा रहे िवचारों से अलग राय रख सकता है प्रायः ऐसा नहीं होता। एक उदाहरण से अपनी बात समझाती हूँ - िहटलर के उत्कषर् के दौर में शायद ही कोई ऐसा जमर्न हो जो ये सोचता हो िक नाजीवादी िवचारधारा देश के िलए खतरनाक है या स्टािलन के दौर में यकीन कर पाना मुिश्कल होता होगा िक कम्युिनज्म में भी दोष होते होंगे। तो हमारे समय का किथत सच यह है िक बड़े बांध, बड़ी फैिक्ट्रयाँ इन्हीं से िवकास आएगा और हम बहुत खुश हो जाएं गे। हाल ही में हाईकोटर् में एक पीआईएल लगी थी, उसमें मध्यप्रदेश के एक टाइगर िरजवर् से फोर लेन सड़क गुजरनी थी। जािहर है शेरों के पक्ष में केवल एक यािचकाकतार् था लेिकन सड़क के पक्ष में कई उद्योगपित और व्यवसायी। कोटर् ने जंगल के राजा की अपील की तुलना में दुिनया की सवर्श्रेष्ठ प्रजाित मनुष्य के पक्ष में जाना उिचत समझा। अब टाइगर िरजवर् को चीरती सड़क बन रही है। ऐसे में अमेिरका के पेनसेलवे िनया प्रांत का िकस्सा भी याद आता है। यहाँ एक बड़ी नदी में नौपिरवहन की योजना थी। एक यािचकाकतार् ने इसके िवरोध में यािचका लगाते हुए दलील दी िक नौपिरवहन के चलते एक खास िकस्म की मछली की प्रजाित हमेशा के िलए नष्ट हो जाएगी। कोटर् ने फैसला मछली के पक्ष में िदया। हम अमेिरकन संस्कृित को घिटया मानते हैं इस घटना को नजीर के रूप में देखना चािहए। स्मृित, 10 िसतंबर, 2004 .............................. स्मृित, योर ऑनर, मैं अपने अपराध कबूल करता हूँ लेिकन जज साहब पहले अपने िववेक पर भी नजर डािलए, आपकी अदालत की अवमानना की सजा भुगतने का जोिखम लेकर यह बात कह रहा हूँ । आप एक बहुत छोटे से शहर में रहती हैं और मायोिपक िवजन का िशकार हैं। अपनी खोल से बाहर िनकिलए और दुिनया देिखये। लंदन, न्यूयाकर्, पेिरस जैसे शहर क्यों आगे बढ़े क्योंिक उन्होंने उद्यमशीलता की राह चुनी, जोिखम िलया। अपनी शिक्त से प्रकृित को िनयंित्रत िकया और आप शिक्त के हर िवचार की िवरोधी हैं। आपका नारा है न्यूिक्लयर बम एवं िबग डैम आर वीपन आफ मास िडस्ट्रक्शन। लेिकन क्या इस शिक्त के बगैर आप दुिनया में कहीं भी पैर िटका सकेंगे। यहाँ इं िडयन हाईकिमश्नर आिफस में एक िकस्सा अक्सर सुनाया जाता है। इसे साझा करना चाहूँ गा। जय दुबाशी सत्तर की दशक में लंदन में एक सड़क पार करने वाले थे। नफासत से भरी एक बुजुगर् मिहला ने उनसे सड़क पार करा देने कहा। उन्होंने सड़क पार कराई। मिहला ने उन्हें थैंक्यू नहीं कहा। और यह भी पूछा िक बताओ मैंने थैंक्स क्यों नहीं कहा। जब जय ने उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- क्योंिक मैं तुम्हारी रानी हूँ ।


वायसराय वैवेल की पत्नी। तो अभी िब्रिटशसर् की रस्सी जली भी नहीं है और इसका बल भी नहीं गया है। साफ है इतने अरसे बाद भी हम अपनी हीनता से मुक्त नहीं हो पाए हैं क्योंिक हमारे िलए अब भी गरीबी बड़ा मुद्दा नहीं है। हम अब भी जल-जंगल-जमीन जैसे बेमानी मुद्दों पर चचार् करने में लगे हैं। इस बार गािजर् यन ने िटहरी िववाद को आधे पेज की जगह दी है और सुंदर लाल बहुगुणा का इं टरव्यू भी छापा है। उन्होंने िचपको आं दोलन पर भी बहुत सी बात की है। जब उनसे पूछा गया िक क्या बांध का बनना उनके आं दोलन की हार है। उन्होंने क्लािसक उत्तर िदया। गािजर् यन के िरपोटर् को बताया िक दरअसल िचपको आं दोलन का जन्म उत्तराखंड में नहीं राजस्थान में हुआ था, वहाँ के स्थानीय राजा ने सत्रहवीं सदी में कई पेड़ों को एक साथ काटने का आदेश िदया था। वहाँ की िबश्नोई मिहलाएँ पेड़ों से िलपट गई। राजा ने सबको काटने का आदेश िदया। उन्होंने जान दे दी लेिकन पेड़ नहीं छोड़ा, तब लगा होगा िक आं दोलन िवफल हो गया लेिकन जब 300 साल बाद उत्तराखंड में िचपको आं दोलन हुआ तो उसे कोई रोक नहीं पाया। कोई भी प्रयास िवफल नहीं होता, उसका पिरणाम भले ही हमारे जीवन में न िमले। मुझे आश्चयर् होता है िक जो उत्तराखंड की मिहलाओं ने 20 साल पहले कर िदखाया, आज क्यों नहीं कर पा रही। हिषर् त, 2 िदसंबर 2004 ...................... हिषर् त, तुम्हारे तो सात खून माफ हैं। तुम्हें मैं यूँ ही दुखी कर देती हूँ । लेिकन यह फ्रस्ट्रेशन कम नहीं हो रहा। िकसी मरते हुए आदमी को देखना बहुत अजीब लगता है लेिकन अगर एक पूरा शहर आपके आँ खों के सामने दम तोड़ने लगे तो कैसा लगेगा। उधर ऊपर में नई िटहरी बसाई गई है लेिकन यह िकसी भद्दी साम्यवादी कालोनी की तरह लगती है। िटहरी के कुछ लैंडमाकर् यहाँ जरूर बनाए गए हैं लेिकन यह भी उनकी भद्दी प्रितकृितयाँ ही हैं जैसे ताजमहल की भद्दी प्रितकृित बीवी का मकबरा। तुम्हारा सवाल िबल्कुल लािजमी है िक उत्तराखंड की मिहलाएँ इतनी अशक्त कैसे हो गईं। मेरी मम्मी को िचपको आं दोलन के समय गाये सारे गीत याद हैं लेिकन अब ऐसा कोई आं दोलन करने की िहम्मत उनमें भी नहीं है। रामपु र ितराहे की घटना ने सबको डरा िदया है। आप मिहलाओं को लाठी-डंडे से नहीं रोक सकते लेिकन उनके साथ की गई बदसलूकी उन्हें तोड़ देती है। ज्यादा कुछ िलखने को नहीं है, िटहरी के कुछ आखरी फोटोग्राफ्स भेज रही हूँ । स्मृित, 2 माचर् 2005


.................... स्मृित, पता नहीं तुम्हें यह खत िमले या नहीं, मैंने पढ़ा है वहाँ बांध के गेट बंद करने की तैयारी कर ली गई है। तुम इतना भावुक क्यों होती हो, समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। तुम्हें सोचने पर अमीर खुसरो की नाियका याद आती है जो हमेशा नैहर और बाबुल शब्द की रट लगाती रहती है। लड़िकयों को अपना एक माइं टसेट बनाना पड़ता है उन्हें ससुराल जाना है। एक अलग गृहस्थी बसानी है और तुम्हें कौन िटहरी जैसे शहर में रहना है, कम से कम तुम्हारी जैसी अच्छी लड़की के िलए तो सफेद घोड़े में आने वाले राजकुमार का सपना सच होगा ही। अब िचिट्ठयाँ िलखने की मेहनत मुझसे नहीं होती, अपना ईमेल एड्रेस harsh_bedfod@yahoo.co.in दे रहा हूँ । इस पर ईमेल करना। यूँ भी तुम अपनी भावुकता में िचिट्ठयों का सारा जखीरा अपने ससुराल तो लेकर जाओगी ही, और पुरानी िफल्मों की तरह यिद यह तुम्हारे जीवनसाथी के हाथ में पड़ जाएं तो बेवजह वो गलतफहमी के िशकार हो जाएं गे। अपने व्यिक्तगत संवाद हम क्यों इतने खुले माध्यम से जािहर करें, इं टरनेट हमारी प्राइवेसी को बेहतर स्पेस प्रदान करता है। खुश रहो, सब कुछ अच्छा होगा। हिषर् त, 11 अगस्त 2005 ------------------Harsh.bedfod@yahoo.co.in तुम्हारा पत्र िमला और उसके बाद ही हमारी दुिनया ने जलसमािध ले ली। हमारी िशवहरी डू ब गई िजस पर रोज गंगा जी का जल चढ़ाते थे। गंगा जी िजन्हें िशव जी की जटाएँ भी नहीं रोक पाई थीं। बांध ने रोक िलया। अब वो एक शांत झील में बदल गई है जब वो बहती थीं तो लगता था िक एक शरारती लड़की खूब चहचहाते स्कूल जा रही है लेिकन जैसा िक हर लड़की की िनयित में होता है वो बड़ी हो जाती है और उसकी शरारत जाने कहाँ चली जाती है वो शांत थमी झील बन जाती है। जहाँ हमें िरहैिबलेट िकया गया है वो बहुत सुंदर जगह है उस टू िरस्ट स्पॉट के िबल्कुल पास जहाँ से िटहरी बांध और थमी हुई झील िदखती है। पयर्टक यहाँ आते हैं और कहते हैं िक यह तो स्वगर् सा दृश्य है बादल हमारे िबल्कुल करीब से गुजर रहे हैं और नीचे गंगा जी का अथाह पानी। अभी एक किजन कुछ िदनों की छु ट्टी में आई थी वो कह रही थी दीदी आप बहुत भाग्यशाली हो, स्वगर् में रहती हो। मैंने उससे कहा िक स्वगर् तो हम लोग छोड़ आए हैं। मैंने पहले भी िलखा था िक तुम्हारे सात खून माफ है। मैं कभी नहीं चाहती िक तुम िकसी ऐसी िगल्ट में रहो जो मैंने तुम्हे दी है। तुमसे िकए गए सारे संवाद एक पिवत्र क्षण में हुए संवाद थे, मैं इसे िकसी को भ्रष्ट नहीं करने दूँगी। मैंने तुम्हारे सारे खत आज गंगा जी की उस थमी झील में अिपर् त कर िदए। बार- बार जगजीत की वो गजल मेरे िदलोंिदमाग में कौंध रही है।


तेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे तेरे हाथों के िलखे खत मैं जलाता कैसे तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ ।


शराब का दरोग़ा - शैल

कमरे के बाहर नेम प्लेट पर िलखा था - पी सी झा, माने प्रेमचंद झा। नाम से ही िमिडल क्लास लगता है। जैसे कभी राही मासूम रज़ा ने कहा था िक ऐसे नाम का आदमी तो पैदा होते ही बुड्ढा हो जाता है। झा जी के ऐसे ही बुड्डे संस्कार भी थे। प्राइमरी स्कूल का टीचर बाप और क्या संस्कार दे सकता था.... - बेटा, हराम की कमाई में बरकत नहीं होती। हराम का पैसा हराम में ही जाता है । ऐसा पैसा, जब िनकलता है, बड़ी मुिश्कल से िनकलता है। यही संस्कार लेकर बड़े हुए थे झा जी। जब स्टेट पिब्लक सिवर् स किमशन में भतीर् हुए तो पहली बार दुिनयादारी से वास्ता पड़ा। िहंदुस्तान में कुछ तो बात अभी भी बाक़ी है िक जनरल कैटेगरी का पढ़ाकू, तेल िचपोड़ने वाला बच्चा िबना िकसी पौवे के सिवर् स किमशन में नौकरी पा गया। िजसने नौकरी दी होगी, वो भी अपने िमिडल क्लास के वैल्यू िसस्टम से बाहर नहीं िनकल पाया होगा। अभी तक ख़ुद के बनाए कुऐं में हीं मेंढक बना रहा होगा। जब ट्रेिनंग कम्प्लीट हुई तो पता चला िक लगभग सभी ऊँची पहुँ च वाले लोग थे। सबके बाप, मामा- चाचा या कोई न कोई िरश्तेदार िकसी ना िकसी सरकारी ओहदे पर थे या रहे थे। सबने वतर्मान सरकार, िपछली सरकार या आने वाली सरकार के माननीय नेताओं के साथ जुगाड़ िबठा रखा था। सब िहसाब-िकताब पक्का था। उनको भेजा खचर्ने की जरूरत ही नहीं थी िक िकस को कौन सा िवभाग और कहाँ पोिस्टंग िमलेगी, मुिश्कल तो पीसी झा जैसे लोगों की थी। िपछले बीसेक साल में गाँव के नक़्शे में वो बदलाव आए हैं िक पहचानना मुिश्कल है। िपताजी बची-खुची ईमानदारी से तिनक पहले के ज़माने के थे, तो प्राइमरी में अध्यापकी िमल गयी थी। तानौकरी पूरी ईमानदारी से पढ़ाते रहे, बावज़ूद इसके प्राचायर् बनने के पहले ही िरटायर हो गए। बाक़ी तो गाँव से पढ़े िलखे लड़के ज़्यादा से ज़्यादा चपरासी बन जाना चाहते थे या िफर नलकूप िवभाग में, जो कुछ बहुत पढ़ िलए तो लेखपाल हो गए ।


प्राईवेट नौकरी की मंिजल होती िकसी फामार् कपनी में MR बन जाना। जब प्रेमचंद पढ़ाई करने शहर िनकले तो मौसी ने कहा था, "पढ़ाई छोड़ो, नौकरी कर लो, बम्बई चले जाओ, अच्छी नौकरी है, दरबानी की, पूरे आठ हज़ार रुिपया तन्खा िमल जावेगी। आदमी को पैर उत्तेई पसारन चईये िजत्ती लम्बी चादर होवे।" आिख़र एक गाँव वाला इससे दूर और अलग सोच भी क्या सकता था? प्रेमचंद भाई को रेवेन्यू िडपाटर्मेंट िमला था। शुद्ध िहंदी में आबकारी िवभाग। जब पता चला की सरकारी नौकरी िमल गई है, बीडीओ वाली, तो गाँव भर में ख़ुशी फैल गयी। कहीं कहीं मातम भी छा गया। ऐसा क्यों हुआ, यह वही समझ सकता है जो गँवई राजनीित से वािक़फ़ हो। बीडीओ बड़ी बात थी। लोगों को िवभाग समझ नहीं आया। आबकारी िवभाग क्या होता है? मोटा-मोटा जो समझ आया वह था 'शराब का दरोग़ा'। देशी ठे कों पर छापा मारना है, शराबी-कबाबी को दौड़ा दौड़ा के पकड़ना है। गाँव के नौजवान जो बड़े बुज़ुगोर्ं से छु प-छु पा कर पीते थे, दौड़े-दौड़े िमलने आए। - भैया, कोई सहयोग चािहए तो बताइएगा। दरअसल भैया से ज़्यादा, उन्हें ख़ुद सहयोग चािहए था। उस पर हमारे संस्कारी PC भैया ऐसे िक शराब की गंध से भी उबकाई आ जाए, पीना तो बड़ी दूर की बात है। पुराने ज़माने में इसे ही संस्कार कहते थे। ख़ैर, ट्रेिनंग के बाद पोिस्टंग हुई अमनगंज में। आबकारी िवभाग के अपने टारगेट होते है। अमनगंज मुिस्लम बहुल इलाक़ा है। ईमान से शराब हराम है। सो पहली दफ़ा तो लगा की टारगेट बड़ा मुिश्कल है। जब कोई पीता ही नहीं होगा तो खपत कैसी और टारगेट कैसे अचीव हो! हुसैन जाफ़री उनके ड्राइवर थे। पहले झा जी की मासूिमयत पे बहुत देर तक हँ से। िफर कहा, "सर, िफ़क्र ना करें। धीरे धीरे सब समझ जाएँ गे।" जाफ़री साहब समझ गए की बालक नादान है, उम्र में छोटा भी तो है। जाफ़री ज़हीन और ज़मींदारी ख़ानदान से थे। आधे बुज़ुगर् बँटवारे के वक़्त पािकस्तान िनकल गए, बािक़यों ने बची-खुची िरयासत इसी हराम में नीलाम कर दी । जाफ़री साहब भी ऑड मैन ऑउट थे। धीरे धीरे दोनों में बनने लगी। कुछ लोगों को ईमानदारी का कीड़ा होता है। कीड़ों के कई ग्रेड होते है। झा जी को भी ऐसे ही बड़े ग्रेड वाले कीड़े ने काटा था। ईमानदारी का यह कीड़ा बहुत भीतर तक घुसा हुआ था। जाफ़री साहब ने बहुत समझाया पर माने नहीं। रात-रातभर गश्त लगाते, टाइम से ठे के बंद हुए या नहीं, कहीं ग़ैर क़ानूनी शराब तो नहीं बन रही। कोई हूच ट्रैजडी नहीं चािहए थी। लोगों में सुगबुग़ाहट मची, धंधे से जुड़े लोगों को परेशानी भी होने लगी। ऊपर से नीचे तक बात होने लगी। जाफ़री ने कहा भी िक, "सर थोड़ा धीरे चलें, स्लोस्लो।"


पर नयी नौकरी का नया जोश और ऊपर से समाज बदल देने का जज़्बा। न सुनना था तो ना सुना। तभी अचानक कुछ बदला। नयी सरकार ने शराबबंदी की घोषणा कर दी। पहली अप्रैल से सारे राज्य में शराब की िबक्री बंद। जैसे गाज िगर गयी। माने शाम होने का मतलब ही ख़त्म हो गया। अब शाम को करेंगे तो क्या करेंगे। महीने दस िदन गुज़रे। शराब बंदी का असर िदखने लगा। सड़क पर पी के टु न्न पाए जाने वालों की संख्या कम हो गयी। पीकर गाडी चलाने के कारण होने वाले ऐिक्सडेंट्स भी कम होने लगे। झा जी को लगा भाई बात में दम है। गांधी, िवनोबा भावे ने ऐसे ही इसके िख़लाफ़ मोचार् नहीं खोला था। कहा ना झा जी पुराने िवचार धारा के थे। नया नया जागा देश प्रेम नहीं था। सामािजक बदलाव का िहस्सा होने की ख़ुशी हो रही थी। अच्छा अच्छा सा लग रहा था। एक रात जब झा जी सो रहे थे तो िबजली चली गई। मारे गमीर् के आँ ख खुल गयी। बंगले के एक ओर से कई सारी बैलगािड़यों के साथ-साथ चलने की आवाज़ सुनाई पड़ी। आज के समय में कहाँ सुनाई पड़ती हैं बैलों के गले की घंिटया, पूरी तरह जाग गए, बाहर टहलने आ गए। देखा बग़ल की नदी के पीपापुल पर कई सारी बैलगािड़याँ जा रही थी। कुछ सामान्य नहीं लगा। कुछ तो खटका। साहब की खतर-पटर सुनकर जाफ़री भी अपने कमरे से बाहर िनकल आए। - जाफ़री जी, क्या हो सकता है? एक साथ इतनी गािड़याँ? - सामान जा रहा है सर। सो जाइए। - सामान मतलब? कैसा सामान? ट्रक, टेम्पो में क्यों नहीं जा रहा है? - सर उसको मेन रोड से ले जाना पड़ेगा। चुंगी देना पड़ेगा और हर नाके पे पुिलस को भी चारा डालना पड़ेगा? - मतलब कुछ गड़बड़ सामान है? - सर जाने दीिजए, िसराजुद्दीन का सामान है। - पर सामान है क्या? - दारू ही है सर, शराब है। भूसा गाड़ी में छु पा के।


प्रेमचंद झा जी बमक गए। इलाक़े के इं चाजर् होने की हैिसयत ने भीतर तूफ़ान उठाना चालू कर िदया, भुजाएँ फड़कने लगी। सारे देश में चल रहे टॉलरेंस-इन्टॉलरें स में देश का प्रितिनिधत्व करने का बोझ इन्हीं के कंधे पर आ गया। रेस्पॉिन्सिबिलटी भाव से दुहरे हो कर तुरंत गाड़ी िनकालने का आदेश िदया। - सर, िसराजुद्दीन के आदमी है, टंटा ठीक नहीं। समझदारी से काम लीिजए। िसराजुद्दीन को कौन नहीं जानता! इस इलाक़े में रहकर, िबना जाने रह नहीं सकते। पता ना हो तो, क़दम-कदम पर बता िदया जाता है। मगर उसका क्या करें िक ईमानदारी के सुलेमानी कीड़े ने ज़ोर से काटा। - मैंने कहा ना गाड़ी िनकलो। रास्ते में लोकल पुिलस थाने को फ़ोन कर िदया की एक गाड़ी भर के लोग भेज दें, रेड मारना है। हुकुम के ग़ुलाम जाफ़री ने िबलकुल िफ़ल्मी अंदाज़ में सबसे आगे जा कर चरर् से गाड़ी रोकी। झा जी गाड़ी रुकने के पहले ही हीरो के मािफ़क़ एक पैर के बल पर उतर गए। बैलगािड़यों का कारवाँ थम गया, कुलबुलाहट मच गयी। - क्या जा रहा है? कहाँ जा रहा है? - हुज़ूर भूसा है। ग़रीब आदमी है माई-बाप.... मवेशी के िलए भूसा ले जा रहे है। - खोल के िदखाओ। - नहीं खुलेगा। लगा जैसे आकाशवाणी हुई हो। देखा तो सामने ताड़ सा लंबा एक कसाईनुमा आदमी खड़ा था। आँ खों में काजल, पान खाए दाँत, गाल में मस्सा। मेक-अप पूरा िफल्मी था। कसाई के बाईशेप्स, झा जी के दोनो जाँघों के बराबर थे। अगर आमने सामने का दाँव होता तो झा जी एक झटके में िपदिपदा जाते। जो चीज़ प्रेमचंद बंधु को हौसला देती थी वो थी, सच्चाई की ताक़त। गाड़ी पर लहराता ितरंगा, जोश दुगुना कर देता था। ऊपर से क़ानून का साथ िक अब तो शराब बंदी हो गयी है। अगर मौक़े पे पकड़ िलया तो, बहुत मज़बूत केस बनेगा। वैसे भी आज तक िसराजुद्दीन के िख़लाफ़ कोई गवाह, सबूत िमला नहीं था। अंधेरे में बटेर हाथ लग गया था। - ज़ब्त कर लो, सारा सामान। एन्फ़ॉस्मेर्ंट देखते ही झाजी और चौड़े हो गए थे। जत्था अब थाने की ओर चला।


थाने के असली वाले दरोग़ा जी को जब पता चला िक िसराजुद्दीन भाई का सामान है, तो िसट्टीिपट्टी गुम हो गई। घर पिरवार वाले थे, िपछले तीन-चार साल से इसी थाने में थे सो सबको जानते थे। आबकारी साहेब, ओहदे में बड़े लगते है, कुछ कह भी नहीं सकते। ऊपर से आधी रात का समय, अपने सीिनयर को जगाना भी ठीक नहीं। ख़ुद ही हैंडल करना चािहए। प्रेमचंद बाबू, कीड़े के काटे, बमके-बमके िफर रहे थे। पहली बार इतनी भारी मात्रा में 'सामान' क़ब्ज़े में िकया था। असली दरोग़ा जी ने, बड़े प्यार से बुला के िबठाया, चाय पानी का इं तज़ाम कराया। िफर धीरे से कसाई से मामला पूछा। पता चला िसराजुद्दीन भाई तो आउट आफ स्टेशन है। वैसे भी उनको पता चला तो थाना िमट्टी में िमल जाएगा। दरोग़ा जी झा जी को भी जानते थे, इसिलए उनकी सनक का भी अंदाजा था। प्रेमचंद बाबू कह रहे थे िक ज़ब्ती िदखाई जाए। दरोग़ा बाबू टालमटोल कर रहे थे। िजतना मना करते, झा जी उतना कूदने लगते। कसाई भाई और दरोग़ा जी दोनो, फ़ोन पर फ़ोन घनघना रहे थे। कोई बीच का रास्ता िनकल जाए। पर झा जी, तो टस से मस नहीं हो रहे थे। जैसे की भवानी चढ गई हो। दो घंटे होते-होते, शास्त्री जी ने थाने में प्रवेश िकया। शास्त्री जी, याने िसराजुद्दीन के दािहने हाथ। बड़ी भारी क़द काठी, गोरा बदन, ललाट पर ितलक चंदन, गले में कंठीमाला। शास्त्री जी िसफ़र् दो रंग के कपड़े पहनते थे, सफ़ेद या गेरुआ। अपने हावभाव, व्यवहार से बड़े ही शांतिचत्त पुरुष थे। िकसी ने उन्हें बमकते हुए देखा नहीं था। इस शांतिचत्त चेहरे के पीछे , एक बड़ा ही शाितर िदमाग़ था। आते ही शास्त्री जी ने झा जी को गले से लगाया। वह तो झा जी उम्र में छोटे पड़ते थे, नहीं तो पैर भी छू लेते। ऐसे नाज़ुक वक़्त में गधे को भी बाप मानना होता है िफर झा सा'ब तो पढ़े-िलखे समझदार अफसर थे। शास्त्री जी ने बात सम्हालनी चाही - पंिडतजी, पंिडतजी, लगता है, बच्चा लोग से ग़लती हो गया है। आप का कौशल समझ नहीं पा रहे है। महराज, तिनक बैिठये। ज़रा मिस्तष्क शांत रिखये। कपाल पर चंदन मंदन लगाइए। - सुिनए सर, अभी हम बोल रहे है ना! बीच में काहे टोक रहे है। िजव्हा को शांित दीिजए। राउया सुना जाए। - देिखए, िसराजुद्दीन, आप के उम्र का था जब हम से िमला था। आप्पे के जैसा तेवर। बहुत जान होती है, हौसले में। हम बड़ी इज़्ज़त करते है उसकी। झा जी, िसराजुद्दीन पाँच बखत का नमाज़ी है, िकसी के फटे में पैर नहीं डालता है। अपने काम से काम रखता है । सरकार, कसाई का काम भी धंधा करना ही होता है ना। अच्छा बुरा क्या होता है उसमें। रिवदास को तो भैया उसी कठौती में गंगा िदख गयी थी, जहाँ वो जूता धोते है।


शास्त्री जी बोले जा रहे थे। - देिखए, हम को ज्ञान मत दीिजए, हम भी अपना काम कर रहे है। जो काम ग़ैर क़ानूनी है, तो ग़ैर क़ानूनी है। हमको भी कोई मतलब नहीं है की िसराजुद्दीन क्या धंधा करता है या क्या नहीं करता। हमें क्या? अबकी बारी झा जी की थी। - कौन गाँव पंिडतजी? शास्त्री जी ने दाँत कुरेदते हुए पूछा। प्रेमचंद बाबू चुप। - दरभंगा के दामाद का बहुत सेवा िकया जाता है। जानते है ना। कहे दामाद बने हुए है, सर। देिखए हम दोनों िमल के सलटा लेते है। आप के ऊपर जाएगा तो आपके िलए अच्छा नहीं होगा और मेरे ऊपर जाएगा तो मेरे िलए अच्छा नहीं होगा। लगेगा की हमको अपना काम नहीं आता है। - क्या बात करें गे, आप को पता नहीं है क्या िक शराब बंदी है। लाइसेन्स राज में बात अलग है। जुमार्ना दे के छोड़ देते। यहाँ तो आप क़ानून का खुल्लम -खुल्ला उल्लंघन हो रहा है। - अब समझा आया। सरकार यह तो चरणामृ त है। चढ़ावा सबको चढ़ेगा। ऊपर से नीचे तक कोई भी छू टेगा नहीं। िसराजुद्दीन भाई ईमान के पक्के है। कोई भी ग़ैर-इमानी काम नहीं करते। मैं भी कंठाधारी पंिडत हूँ , झूठ नहीं बोलता। कसाई रे, ज़रा डब्बा तो उठा ला भाई सुरती वाला। ... दरोग़ा जी, इधर आईये। प्रेमचंद जी िबफ़रे, "आप क्या कर रहे है? ऐसे लोग आप के थाने में आकर ऑडर्र छाँट रहे है और आप उधर क्या कर रहे है?" दरोगा अपना िपण्ड छु ड़ाने में लगे थे, बाहर की तरफ़ जाते-जाते बाँच गए - अरे सर, गाँव में एक कांड हो गया है, उधर ही िबज़ी हूँ । एक मुसलमान लौंडा िकन्हीं यादव जी के घर में घुस गया है, मार मार के ससुर हलुवा टाइट कर िदया है लौंडे का। डर है िक लव िजहाद के चक्कर में कहीं साम्प्रदाियक दंगा ना हो जाया। हम ज़रा गस्त मार के आते है। आप शास्त्री जी से सलट लीिजए ना। हमरा भी कपार छू टेगा। - दारोगाजी, मैं आपके िख़लाफ़ कम्प्लेन कर दूँगा, आप समझते क्या हैं? ऐसा लग रहा है जैसे हम ही कोई ग़लती कर के बैठे है। जैसे आप ही हुकुम चला रहा है। प्रेमचंद जी बोलते रहे, सुनने वाला कोई नहीं था।


"झा जी, इसको दुिनयादारी कहते है। आपका गाँव घर हम को मालूम है। पहला आदमी है ना अपने गाँव के जो इधर आ गया है, तभई जोश आ रहा है लगता है। मत्स्य न्याय सुने है कभी? जंगल का कानून? होगा तो वही जो हमेशा होता आया है। बड़ा मछली, छोटा मछली को खा जाएगा। पर आज कल परजातंत्र है ना। छोटों मछिलयों को भी तो मत का अिधकार है ना! उसका भी इज़्ज़त करना पड़ेगा ना। कुछ लोगों को ऊँगली करने में मज़ा आता है, जैसे आप को आ रहा है। पूरे ज़माने का ठे का आप ही िलए हुए है क्या? कबीरपंथी है क्या? - जग सोता है, तो आप भी सोइए ना, काहे जाग कर टसुआ बहा रहे है।" शास्त्री जी झा सा'ब को िबना मौक़ा िदए लगातार बोले जा रहे थे। "सर देिखए, बमिकए मत शांत रिहए। कोई नहीं सुनेगा, कोई नहीं आएगा। मैं जानता हूँ आपके ख़ानदान को, कोई साइकल से आगे नहीं गया है। ईमान धमर् का झंडा कब तक पकड़े रिहएगा! दुिनया आगे बढ़ गया है। उसी को पकड़े रहेंगे तो फ़ालतू में पीछे रह जाएँ गे।" शास्त्री जी ने शांत मन से कहा और एक नोटों की गड्डी आगे कर दी। प्रेमचंद ने जब नोटों की गड्डी देखी तो आपे से बाहर हो गया। मार ग़ुस्से के हाथ फड़फड़ाने लगे। एक झटके में टेबल पलट िदया, सारा सामान फैल गया। आवाज़ सुन के दरोग़ा जी अंदर आ गए। अंदर का माहौल देख के दंग रह गए। प्रेमचंद थर थर काँप रहे थे। लगता था जैसे, प्रेशर से िजस्म का सारा ख़ून नाक से िनकल जाएगा। - आप मुझे िरश्वत देने की कोिशश कर रहे है! आपने अपने आप को समझ क्या रखा है! शास्त्री जी ग़ज़ब के शांत आदमी थे, चेहरे का भाव भी नहीं बदला। तभी िसराजुद्दीन का काम संभाल लेते है। - दरोगाजी, यह आदमी िरश्वत देने की कोिशश कर रहा है। िगरफ़्तार कर लीिजए। झाजी बोले। दरोग़ा जी हैरान खड़े थे। उनकी िज़ंदगी में आज तक ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया था। पता नहीं था कैसे रीऐक्ट करना है। शास्त्रीजी धीरे से उठे , प्रेमचंद का हाथ पकड़ा - देखो झाजी, तुमको झंडा उठाने का बड़ा शौक़ है, तो उठाओ झंडा। तुमको लगता है कौनऊ इं क़लाबउं कलाब ले आओगे, आज़ादी-वाजादी आ जाएगी!

शास्त्रीजी ने धोती में खोसी हुई बंदक ू झा जी के हाथ में रख दी - इसको बंदक ू कहते है, छू के देख लो। जब यह ठं डा-ठं डा गरम हो जाता है ना, तो सब िज़ंदाबाद-िज़ंदाबाद िपछाड़े में घुस जाता है।


प्रेमचंद सकते में आ गए। दरोग़ा ने बोला, "शास्त्री जी हमको कोई बवाल नहीं चािहए, जो सलटना है बाहर जा के सलिटए।" शास्त्री जी आवाज़ में सख़्ती लाते हुए बोले, "झा जी बहुत मुिश्कल नहीं है। वैसे भी बहुत सारे आतंकवादी घुसे आते है, गाड़ी वाड़ी भी अगवा कर लेते है, गोली वोली भी चिलहे जाता है। जान जोिखम हो जाता है, ख़ून ख़राबा आम है िहंया।" दरोग़ा जी घबराए हुए, बाहर भागे। िकसी भी घटना के गवाह बनना नहीं चाहते थे। कमरे के अंदर बड़ी देर तक ख़ामोशी बनी रही। जैसे कोई बोल ही नहीं रहा था। िफर थोड़ी हलचल हुई। कुछ देर बात प्रेमचंद झा जी कमरे से बाहर िनकले। धीमी आवाज़ में जाफ़री से गाड़ी िनकालने का इशारा िकया और घर की तरफ़ रवाना हो गए। शास्त्री जी भी िनकले। कसाई ने इशारे से पूछा, "क्या हुआ?" - ज़रा ज़्यादा जोश था, सोच रहा था कोई बड़ा दाँव खेलने को िमला है। तौल रहा था िक कहाँ तक जाएगा, इसिलए बमक रहा था। बंदक़ ू देख के पैंट गीली हो गई। पहले मान जाता तो कुछ फ़ायदा भी होता गरीब आदमी का। आदमी को पता होना चािहए िक पतंग को कब ढील देना है, कब टाइट करना है। छोटा आदमी, छोटा ही सोच सकता है। मध्यमवगीर् जो ठहरा। झाजी की गाड़ी अंधेरे में चली जा रही थी। हेड्लाईट की रोशनी में एक कहानी याद आ रही थी। बचपन में पढ़ी थी। 'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना। यह तो पीर का मज़ार है, िनगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चािहए। ऐसा काम ढूँ ढना जहाँ कुछ ऊपरी कमाई हो। मािसक वेतन तो पूरनमासी का चाँद है जो एक िदन िदखता है और घटते-घटते ग़ायब हो जाता है। ऊपरी आय बहता स्रोत है, िजससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन तो मनुष्य देता है, इसी से इसमें कोई बढ़त नहीं होती। ऊपरी आमदनी खुदा देता है, इसिलए उसमें बरकत होती है।' झाजी सोच रहे थे 'पतंग उड़ाना भी एक कला है, काश िक बचपन में सीखी होती।’


शहतूत पक गये हैं! - संतोष श्रीवास्तव

समुद्री तूफ़ान था। रातभर तेज हवाएँ चलती रहीं। हवा की सांय-सांय के साथ पानी की बौछारें भी बंद िखड़की, दरवाज़ों से टकराती रहीं। मुँह अँधेरे दूध वाले की घंटी से मेरी आँ ख खुली। िदिदया नहीं उठीं क्या? रोज़ तो वही दूध लेती हैं। दूध की थैली चौके में रखते हुए उनके कमरे की तरफ िनग़ाह गयी। बत्ती जल रही थी। उठ तो गयी हैं वे...िफर दूध लेने क्यों नहीं आयीं? उनके कमरे के दरवाज़े को हल्के से ठे लकर मैंने अंदर झाँका। वे पलंग पर बेसुध गहरी नींद में थीं। िखड़की के पल्ले भी खुले थे। बौछारों से उनका कमरा भीग गया था। िबस्तर भी, िदिदया भी। रात भर चली तेज हवाओं के संग गुलमोहर भी मानो बरसता रहा था और उसके फूल पंखुड़ी-पंखुड़ी िदिदया के बदन पर िबछ से गये थे। मैं भय से कांप उठी थी-‘िदिदया उिठए...पूरी भीग गयी हैं आप।’ मैंने उनके बफर् से ठं डे हाथ पकड़कर उन्हें झँझोड़ डाला था लेिकन उनकी देह िनश्चल थी, आँ खें अस्वाभािवक रूप से बंद। मैं चीख़ पड़ी थी-‘माँ...जल्दी आओ... िदिदया कुछ बोलती नहीं।’ मेरी चीख़ एकबारगी पूरी घर को िहला गयी। आधे घंटे बाद डॉक्टर ने आकर उनकी जाँच की और धीरे से जता िदया-‘शी इज़ नो मोर...हाटर् फैल्योर...डेथ तीन चार घंटे पहले हो गयी थी।’ एक सन्नाटा सा िखंच गया पूरे घर में। िदिदया की िज़ंदगी ही सन्नाटे से भरी थी। अपनी िबयाबान िज़ंदगी की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंिडयों पै चलते हुए उन्होंने उम्र के बांसठ साल गुज़ारे थे। िपछले पंद्रह सालों से तो वे यहाँ हमारे पास ही रहती थीं। दादी-बाबा अब नहीं रहे थे और उन्हें अपने सबसे छोटे भाई यानी मेरे पापा से बेहद लगाव था। दादी बताती थीं िक पापा जब छोटे थे तो उन्हें दीदी की ज़गह िदिदया बुलाते थे। तब से वे सबकी िदिदया हो गयी थीं। उनका सुंदर सा नाम दमयंती स्कूल-कॉलेज के प्रमाणपत्रों तक ही सीिमत रहा। हम लोग भी उन्हें बुआ न कहकर िदिदया ही कहते। िदिदया ने


शादी नहीं की थी। जबिक सभी चाचा, बुआओं की शादी हो गयी थीं। बुआएँ स्कूल की पढाई पूरी कर अपनेअपने ससुराल िवदा हो गयी थीं पर िदिदया पढ़ती रहीं। एम. ए. करके वे नौकरी करना चाहती थीं पर बाबा को लड़िकयों की नौकरी से सख़्त ऐतराज़ था। धीरे-धीरे न नौकरी की उम्र रही, न शादी की... पर ये रहस्य बना रहा िक उन्होंने शादी क्यों नहीं की? वह तो बहुत बाद में उन्होंने मुझे बताया िक... तेज धूप िछटक आयी थी। रात के तूफ़ान का कहीं नामोिनशान न था। सब कुछ शांत, िस्थर सा... नीचे सड़क पर ओर-छोर गुलमोहर के फूलों की पंखुिड़यां, टू टे पत्ते फैले थे। कई पेड़ों की टहिनयाँ टू टकर पेड़ों में ही झूल रही थीं। शहर जाग चुका था। माँ ने िदिदया का भीगा गद्दा, चादर बाल्कनी की मुंडरे पर धूप में सूखने के िलए डाल िदया था। िदिदया फ़शर् पर चटाई के ऊपर सफ़ेद चादर ओढ़े अंितम यात्रा के िलए तैयार लेटी थीं। उनका गोरा खूबसूरत चेहरा अभी भी जीवंत लग रहा था। बड़ी-बड़ी पलकें मानो असीम सुख से मुंदी थीं। यह मुट्ठी भर सुख िमला होगा उन्हें िखड़की से आती बौछारों से, बदन पर सजते गुलमोहर के फूलों से...प्रकृित के बहुत अिधक िनकट थीं वे। पानी से उन्हें गहरा लगाव था। बौछारों के जल में भीगते हुए उन्होंने मौत को बहुत संतुिष्ट से गले लगाया होगा। कैसी शांित से मरी वे... न अस्पताल की भागदौड़... न सेवा टहल... िखड़की से आता पानी उन्हें तृप्त करता रहा। िज़ंदगी से ही मुँह मोड़ िलया। बाबा के घर में आँ गन में बीचों-बीच कुआँ था। िदिदया कुएँ से पानी खींच-खींच कर अपने हाथों लगायी फूलों और सिब्ज़यों की क्यािरयों को लबालब सींच डालती। एक भी पौधा सूखता या मुरझाता िदिदया उदास हो जातीं। वे पौधों को हाथों से सहलाकर उनसे बातें करतीं। आकाश में घुमड़ते बादलों को देख कहतीं-‘िबन बरसे मत लौट जाना... मेरे सारे पौधे बहुत आस से तुम्हें देख रहे हैं।’ कई-कई िदन के िलए जब बादलों की झड़ी लगती तो वे झँझ ु ला जातीं-‘अब िकतना बसोर्गे? मुँह उठाये बरसते ही चले जा रहे हो?’ लेिकन उस बरसते पानी को वे व्यथर् नहीं जाने देतीं। आँ गन में खंभों के सहारे चादर बाँध कर उसके नीचे घड़ा रख देतीं। चादर में बीचो-बीच लुिढ़या। सारा पानी धार बनकर घड़े में िगरता जाता। बरसात भर वही पानी िपया जाता। उसी से खाना बनता और उसी पानी से िदिदया अपने बाल धोतीं। उनके लंबे-लंबे बाल रेशम से मुलायम हो जाते। दादी कहतीं- ‘मँगली है न... इसीिलए शादी नहीं हो पा रही है।’ ऐसा नहीं था िक उनके िलए लड़के देखे नहीं गये, पर वे ही नाक-भौं िसकोड़ती रहीं। उनका मन लगता पढ़ाई में। ढेरों िकताबें पढ़ डाली थीं उन्होंने। एक बड़े से रिजस्टर में हर िकताब की समीक्षा िलखी थी उन्होंने, पर कभी छपवायी नहीं। जो भी िकताब पढ़ चुकी होतीं उसमें एक पीला गुलाब दबा देतीं। अक्षरों की रोशनाई में एक पीली उजास लरज कर थम जाती, दब जाती। िफर वे हफ़्तों गुनगुनाती रहतीं। उन्हीं ने मुझे िसखाया- ‘देख रूना... अपनी िज़ंदगी फालतू के शौकों में मत बरबाद कर डालना। गहनें, कपड़े, साजिसंगार तो हर आम औरत करती है। तू ख़ास बनना।’


िफर चमड़े की छोटी अटैची खोलकर डाक िटकटें िदखतीं। ढेरों िटकटें, देश िवदेश की। उनमें से एक िटकट छांटकर िदखातीं-‘ये बड़ी रेयर िटकट है। इसे प्रथम चंद्रयात्री नील आमर्स्ट्रांग ने चंद्रमा की सतह पर बनाया था। यह नीली गोल गेंद हमारी धरती है।’ मैं आश्चयर् से उनकी चमकती आँ खें और उं गिलयों में फँसी िटकट देखती रह जाती। वे मखमल का उन्नावी रंग का बटु आ खोलतीं-‘और ये दुिनया भर के िसक्के... ये ऑस्ट्रेिलया का ताँबे का िसक्का और उस पर दौड़ता कंगारू... रुना, इनकी देखभाल साज-संवार में मुझे तो कभी अकेलापन नहीं सालता।’ जानवरों से िदिदया को बहुत प्यार था। कुत्ता, िबल्ली उन्होंने खुद पाले थे। आँ गन में फुदकती गौरैया िचिड़याएँ भी उनके हाथ से दाना चुगतीं और सेम, तोरई के मंडप के नीचे रखी पत्थर की कुंडी में से पानी पीतीं। िदिदया सुबह कुंडी धोकर उसमें पानी भर देती थीं। बगीचे में अगर गाय-भैंस घुस गयी और पानी से भरी बाल्टी में उन्होंने मुँह डाल िदया तो वे कभी भागती नहीं थीं। पानी भरपेट पीने देतीं उन्हें। दादी कहतीं-‘ये तो पानी की जीव है... ग़लती से मनुष्य योिन में जन्म ले िलया।’ सचमुच नमर्दा नदी में घंटों तैरकर भी वे कभी नहीं थकती थीं। मैं िकनारे बैठी रहती तो कहतीं-‘देख रुना...मैं डू बी।’ और जो डु बकी मारतीं तो मेरी तो साँस ही रुक जाती। लगता उन्हें डू बे घंटों बीत गये... कुछ पल भारी पड़ जाते मेरे िलए। जब वे छ: बरस की थीं तो बाबा ने उन्हें तैरना िसखाया था। वे लहरों पर बतख की तरह तैरतीं। बाबा उन्हें बतख ही तो कहते थे, पर वहाँ नदी थी, कुआँ था, भरपूर पानी... पानी ही पानी। लेिकन ये ठहरा महानगर। पानी टैंकर से आता है। सात मंिजल की इस इमारत में अभी तक नगर िनगम का पानी नहीं आया। टैंकर से छत की टंकी भर कर िफर पानी छोड़ा जाता है। हर फ्लैट के अलग-अलग मीटर हैं। िजतना पानी खचर् करो उतना पैसा भरो। िदिदया का हाथ पानी के मामले में खुला है। अब िबल दुगना आता है। पापा झल्लाते-‘िदिदया, काहे को इतना पानी ढु लकाती हो। ये महानगर है। यहाँ बूँद-बूँद पानी की कीमत है। थोड़ा कम पानी इस्तेमाल िकया करो।’ िदिदया हँ स पड़ती-‘लो, पानी न हुआ घी, दूध हो गया।’ ‘घी दूध ही समझो जीजी... इतना पानी खचर् करोगी तो एक िदन नहाने को भी तरस जाओगी। माँ ताना मारती।’ अब इस समय बड़े-बड़े दो ड्रम लाकर बाल्कनी में रख िदये गये हैं। सोसायटी ने दो घंटे ज्यादा पानी छोड़ा है। नाते-िरश्तेदारों से घर भर गया है। जो िजतना चाह रहा है पानी इस्तेमाल कर रहा है। अब कौन रोके टोके उन्हें? मातम का माहौल है पर मेरा मन मसोस उठा है... िदिदया कबूतरों तक को पानी िपलातीं तो माँ टोक देतीं। बाल्कनी में सुबह शाम झँडु के झँडु कबूतर आते। िदिदया का िनयम था िकलो भर ज्वार बाल्कनी में िबखेरतीं और तसला भर पानी रखतीं। सड़क के कुत्ते भी उनसे लहट गये थे। वे उन्हें िबिस्कट, दूध पानी देतीं। इस बढ़े हुए


खचर् को वे ट्युशन करके पूरा करतीं। रोज़ शाम चार-पाँच लड़िकयाँ उनसे िहंदी संस्कृत पढ़ने आतीं... उनका मन बड़ा रमता लड़िकयों के बीच। िदिदया ने आगे-पीछे दोनों तरफ की बाल्किनयों में फूलों के पौधे लगाये थे। सुबह-शाम गमलों में पाइप से पानी सींचती वे। िफर गमलों से बहे पानी, िमट्टी, सूखे फूल-पत्तों को वे धोकर बाल्कनी साफ कर डालतीं। िकतना पानी बरबाद होता, रोज़ ही इसका िहसाब सुनाया जाता उन्हें। ‘यह िफ़जूल का खचार् है पानी का। थोड़े से फूलों के िलए इतना पानी!!! िदिदया, महानगर में महानगर की तरह रहना सीखो।’ एक िदन झल्ला पड़ीं वे-‘हम तो जैसे रहते आये हैं रहेंगे... हमारे मरने के बाद तुम हमारी अिस्थयाँ सूखे कुएँ में झोंक देना।’ हमेशा मुस्कुराने वाली बेहद नरम िदल िदिदया के मुँह से ऐसी कठोर बात मैंने पहली और आिख़री बार सुनी। हालाँिक इसके बाद पापा ने उन्हें हुलसकर सीने से लगा िलया था और वे रो पड़ी थीं। उस िदन भी बहुत रोयी थीं वे जब उनकी िकताब पढ़ते हुए अचानक हाथ आयी एक तस्वीर मैंने उन्हें िदखाते हुए पूछा था-‘िदिदया, ये कौन हैं?’ वे झपट कर उठीं और तस्वीर मेरे हाथ से छीन ली-‘ये कहाँ िमली तुझे?’ मैं घबरा गयी। अपराधी मुद्रा में मैंने िसर झक ु ा िलया-‘सॉरी िदिदया।’ उन्होंने प्यार से मुझे चूम िलया-‘पगली...मेरे जैसा भावुक िदल लेकर कैसे रहेगी तू... यह दुिनया हम जैसों की नहीं रुना...’ देर तक वे मेरा चेहरा अपनी हथेिलयों में भरे रहीं। िहम्मत कर मैंने उनके चेहरे की ओर देखा... बड़ी-बड़ी काली आँ खों में आँ सू भरे थे जो, अब ढु लकना ही चाहते थे। ‘ये जगदीश है रुना...’ उनकी आवाज जैसे िकसी सुरंग से आ रही हो... उनका चेहरा रिक्तम हो उठा जैसे रात के आगोश में जाने से पहले सूरज का हो जाता है। वे पलंग से िटककर बैठ गयीं। आँ खों में दबे सपने पलकें उघाड़कर बाहर िछटक आये। ‘हम दोनों जैसे एक दूसरे के िलए ही बने थे। बरसों बरस एक दूसरे के िलए गुज़ारे हमने। अपने पूरे जीवन को खंगाल, छान कर हमने एक दूसरे के िलए साझा सपना रच िलया था। वह सपना हर वक़्त हमारी आँ खों में मुस्कुराता रहता। उसी सपने को हम ओढ़ते, उसी को िबछाते थे। उसी से तृप्त होते, उसी की आस में जीते थे िक


कभी हमारा घर होगा... प्यार ही प्यार होगा जहाँ और हमारे बच्चों की िकलकािरयाँ होंगी पर... वह फौज़ में था। चीन के साथ युद्ध में उसे फ्रंट पर जाना था। मैं िज़द पर अड़ गयी िक वहाँ जाने से पहले हम शादी कर लें, पर इनकारी िमली दोनों पिरवारों की ओर से। एक तो जाित दूसरी थी िफर मैं मंगली...उसके घर से संदेशा आया िक हम क्या जवानी में ही अपने बेटे को मौत का रास्ता िदखा दें? बाबू ने भी उत्तर िभजवा िदया िक हमें भी कोई शौक नहीं है बेटी को िवधवा करने का। वह िजद्द ही िजद्द में फ्रंट पे चला गया िक, ‘तुम सबके िलए िज़ंदगी शहीद करने से तो अच्छा है देश के िलए शहीद हो जाऊँ।’ वह चला गया। मेरा मन तड़प उठा... िफर भी मैं उसका इं तज़ार करती रही। युद्ध समाप्त होने के बाद जब वह लौटा तो उसका दायाँ पैर कटा हुआ था। बैसािखयों के सहारे चलकर मुझसे िमलने आया कहने लगा-‘तुम शादी कर लो दमयंती। मेरी िज़ंदगी तो बोझ बन गयी है। मैं तुम्हें कोई सुख नहीं दे पाऊँगा।’ ‘मैं जानती थी, तुम यही कहोगे। लेिकन मेरी कई-कई रातों की प्रतीक्षा का क्या जवाब है तुम्हारे पास? जब हर साँस मैंने तुम्हारे िलए जी है। तुम कहा करते थे िक कोई भी सपना िज़ंदगी से बढ़कर नहीं होना चािहए। और िवश्वास? िवश्वास का महत्व तो तभी है न जगदीश जब वह स्वयं िज़ंदगी से ऊपर हो। तुम मेरा िवश्वास हो जगदीश।’ उसके होंठ काँपने लगे पर वह रोया नहीं। हम देर तक ख़ामोश एक दूसरे की ओर देखते रहे। चांदनी की िकरणें हमारे पैरों से िलपटती रहीं। बाबू ने एक सामंती घराने में मेरे िरश्ते की बात चलायी। उन्हें वािरस चािहए था और मैं इस शतर् के िलए तैयार नहीं थी... यह शतर् मेरी इनकारी की वज़ह बन गयी। बाबू कठोरता से बोले-‘क्यों उस लंगड़े के िलए अपनी िज़ंदगी बरबाद करने पर तुली है?’ मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। लंगड़ा वह नहीं है बाबू... ‘लंगड़ी तो आपकी बेटी हो गयी है’, मैंने कहना चाहा था। मैंने अपने आपको जगदीश के िबना अगरबत्ती की तरह आिहस्ता-आिहस्ता जलने को तैयार कर िलया था। कोई नहीं जानता रुना िक बाबू की मृत्यु के बाद जगदीश ने मेरा िकतना साथ िदया। उस िवशाल घर में मैं अकेली और छ: बरस तक अपनी जानलेवा बीमारी से खिटया भोगती अम्मा। उनके इलाज में वे सारे ज़ेवर एक-एक कर िबकते गये जो अम्मा ने मेरी शादी के िलए गढ़वाये थे। ऐसा नहीं िक भाई मदद नहीं करते थे पर िकतना करता! उनके अपने पिरवार, अपने ख़चेर्... पर जगदीश। वह तो िकसी और ही िमट्टी का बना था। बैसािखयों के सहारे अस्पताल के चक्कर लगाता। दवा, फल...एक िदन भी मुझे कहना नहीं पड़ा िक फल, दवा खत्म हो गयी है। अब हमने अपने िलए सोचना छोड़ िदया था। मान िलया था िक हम िमलने के िलए नहीं बने हैं। जब तक साँस है जीना है, वरना िज़ंदगी के कोई मायने नहीं रह गये। जगदीश नौकरी पाने के िलए तड़पता रहा पर अब वह न


फौज़ के लायक था, न नौकरी के। माँ-बाप भी िकतने िदन िखलाते? कभी-कभी मन होता हम साथ-साथ रहें पर जो काम बाबू के सामने नहीं हो सका उसे उनकी मृत्यु के बाद अंजाम देना! नहीं, यह िज़ंदगी अब हमारी नहीं रही...बस शाप ढोना है... अंितम साँस तक। उस िदन जगदीश िमठाई का िडब्बा िलये आया-‘लो, मुँह मीठा करो। लग गयी नौकरी।’ ‘अरे! कहाँ?’ मुझे लगा िज़ंदगी िकसी मोड़ पर तो िठठकी। पैरों के नीचे मानो मखमली पंखुिड़याँ िबछ गयीं। ‘उत्तरांचल के एक फौजी स्कूल में मेस इं चाजर् की। कुसीर् पर बैठे-बैठे बस हुकुम चलाना है।’ मैं उदास हो गयी-‘तो तुम चले जाओगे यहाँ से? िफर मैं िकसके सहारे िजऊँगी?’ ‘मैं कहाँ जा रहा हूँ ? ये लंगड़ा शरीर जा रहा है। मैं तो तुम्हारे संग हूँ -हमेशा।’ जगदीश ने नौकरी का अपॉइन्टमेंट लेटर िनकालकर िदखाया। मैंने कागज़ हाथ में िलया पर पढ़ा नहीं। जानती थी वह कागज़ नहीं एक संिधपत्र है िजसमें हम दोनों की बरबादी का इकरारनामा िलखा गया है और हम दोनों की िज़ंदिगयों ने िजस पर बरसों पहले हस्ताक्षर कर िदये थे। उसी रात अम्मा चल बसीं बैसािखयों को फ़शर् पर िटकाये वह रात भर अम्मा की लाश के िसरहाने दीपक की बत्ती उकेसाता बैठा रहा जब तक िक सुबह सब आ नहीं गए। और िफर सब कुछ छू ट गया। वह घर, उस घर से जुडी तमाम यादें, वह बगीचा... वे मेरे पक्षी, जानवर, नदी, कुआँ और जगदीश... जगदीश अक्सर एक पठानी गीत गाता था... फौज़ से सीखकर आया था। गीत के अथर् तो मुझे समझ में नहीं आते थे पर वह हर पंिक्त के बाद उसका अथर् समझाता... ‘घने जंगल में मजनूं रो पड़ा है क्योंिक शहतूत पक गये हैं और लैला मर गयी है।’ उत्तरांचल में जाने से पहले जगदीश ने भी शहतूतों का पकना ज़रूर देखा होगा। और िदिदया फूट-फूट कर रो पड़ी थीं। उन्होंने उड़ना चाहा था पर अपना आसमान तय नहीं कर पायीं वे। िदिदया का अिस्थ कलश लाल कपड़े में िलपटा रखा है। मैंने पापा से िज़द्द की-‘मैं भी हिरद्वार जाऊँगी।’ उन्होंने मौन स्वीकृित दे दी। मैंने उनकी िकताब में रखी जगदीश की तस्वीर और वे तमाम पन्नों में दबे रखे सूखे फूल उन्हीं के रुमाल में बाँध िलये जो िनश्चय ही जगदीश और उनके प्रेम िवह्वल क्षणों के साक्षी रहे होंगे। माँ ने पापा के नज़दीक आकर कहा-‘दान-दिक्षणा में कमी मत करना। िज़ंदगी भर जीजी किमयों में ही जीती रहीं। ईश्वर ऐसा नसीब िकसी का न बनाये।’ और वे सुबकने लगीं। पापा ने उनके कंधे थपथपाये और हम सब स्टेशन के िलए रवाना हो गये।


छल-छल बहती गंगा का तीव्र प्रवाह जुहू बीच के सागर के पानी जैसा मटमैला था। तो क्या गंगा मैया जान गयी हैं िक िदिदया को जुहू बीच पर उमड़ी आती सागर की लहरों में चलना अच्छा लगता था? फेिनल लहरें िदिदया को घुटनों तक िभगो देतीं। लेिकन वे तब तक लहरों में खड़ी रहतीं जब तक सूरज का अंगारा सागर की छाती में बुझ नहीं जाता। िफर वे उदास हो जातीं...धीरे-धीरे पांव पसरते अँधेरे को आत्मसात करना उनके िलए किठन था। ‘गोमुख में पहाड़ िगर गया है...उसी की िमट्टी बह रही है गंगा जल में। हर की पौड़ी में मटमैली गंगा के तीव्र प्रवाह में िहचकोले लेती नौका पर पापा, चाचाओं के संग मैं बैठी हूँ । बीच में अिस्थ कलश। गेंदे की माला अिस्थकलश से िलपटी है। पंिडत साथ में है। मल्लाह ने नाव गंगा के बीचो बीच रोक दी। पंिडतजी मंत्र पढ़ने लगे और सबने िमलकर कलश लहरों पर छोड़ िदया। मैंने सबकी नज़रें बचाकर ऐन तभी रुमाल से बनी पोटली गंगा में छोड़ दी। पोटली में जगदीश की फोटो और सूखे फूल थे। पोटली कलश से िचपक कर बहने लगी। जब कलश का मुँह पानी से भर गया तो वह ितरछा होकर नदी में समाने लगा। उसकी माला में अटकी पोटली भी कलश के संग ही नदी में समाने लगी। िदिदया गहरे डू बती चली गयीं। अपने प्रेम के संग आिहस्ता-आिहस्ता। अब उन्हें पानी की कोई कमी नहीं रहेगी। अब उनके मंगली होने को कोई नहीं कोसेगा। अब चारों ओर गहरा जल ही जल है। िदिदया कहीं नहीं। गंगा की लहरों पर मानो शहतूत उग आये हैं... पके फलों से भरे... ‘जगदीश! तुम्हारी दमयंती मर गयी’... मुझे लगा जगदीश घने जंगलों में नहीं बिल्क गंगा के अथाह जल में समाता जा रहा है िदिदया से िमलने... मैं पापा से िलपट कर रो पड़ी। सभी खामोश आँ सू बहा रहे थे। जब नाव िकनारे लगी, अँधेरा हो चला था। िदिदया को गये महीना गुज़र गया। उनके कमरे का सन्नाटा अक्सर मुझे छील डालता है। हालाँिक सब कुछ वैसा ही चल रहा था जैसा तब होता था जब वे थीं। मुझे लगा था पानी की िफज़ूलखचीर् को लेकर सबने राहत महसूस की होगी। लेिकन पूरे घर को हो क्या गया है आिख़र? सब िदिदया की तरह क्यों जीने लगे हैं? पापा िदिदया के लगाये पौधों को उसी तरह पाइप से िबला नागा सींचते हैं, रगड़-रगड़ कर बाल्कनी धोते हैं। कबूतरों के िलए तसला भर पानी और िकलो भर ज्वार िबखेरने की ड्यूटी भी वे बखूबी िनभाते हैं, मुझसे कहते हैं-‘जा रुना...सड़क के कुत्तों को दूध िबिस्कट िखला आ।’ अपनी सफ़ेद कमीज़ माँ को िदखाते हुए कहते हैं-‘कैसी धोयी है तुमने... पीलापन िलये है... साबुन की बास भी भरी है। ऐसी भी क्या पानी की कंजूसी? िदिदया जैसी धोया करो।’ मैं सामने दीवार पर टंगी िदिदया की तस्वीर के आगे फुसफुसाती हूँ -‘तुम मरी नहीं िदिदया...जल बन िज़ंदा हो हमारे बीच।’


सब सीमाब सुनहरे - अनघ शमार्

िकसी समय,िकसी देश ,िकसी देशकाल में कभी भी िकसी परछाईं का रंग रूप उजला नहीं हुआ। न िकसी औरत के सर पे न ही िकसी आदमी के कन्धों पर कभी कोई परछाईं िटक सकी है। शाम होते होते हर परछाईं,हर भ्रम को पैरों से नीचे उतर ही आना है। ………………………………………… "'रशीद '' तुम्हारी िचट्ठी तो समय पर िमल गयी थी,पर ड्राफ्ट थोड़ा देर से िमला तो तुम्हें थोड़ा रुक अब ख़बर भेज रही हूँ । आजकल बड़ी बेचैनी रहती है जैसे अंदर अंदर कुछ चल रहा हो। ख़ैर यूँ भी ग़ौर से देखो तो हमारे आस पास हमारे व्यिक्तत्व में जाने िकतने िकतने ढू ह टीले उग आये हैं ....... रेत की िफसलन भरी छोटी छोटी पहािड़यां िजन पर पाँव धरो तो अंदर धंस जाओ ,भंवर के गोल छल्ले जो िदखने में तो बड़े अच्छे चमकीले लगते हैं पर जब अपने अंदर खींचने लगते हैं तब उनकी जिटलता का अनुभव होता है। सािहर की एक नज़्म सुना कर सआदत ने मुझे बड़े गहरे तक छू िलया था,आज उसी छु अन की िसरहन काटनी पड़ रही है। छू ने की स्पशर् की जो अनुभूित होती है न रशीद वो भी कई दफ़ा बड़ी काली अँधेरी होती है। यहाँ इस मंिदर के अँधेरे गभर्गृह के सामने हल्की रोशनी वाले कमरे में बैठ कर तुम्हें िचट्ठी िलखते समय मुझे बार-बार पीछे मुड़ कर देखना पड़ रहा है। दो-दो लोग अपनीअपनी कंटीली िववशता में बंधे दीखते हैं मुझे। वहां अपने िबस्तर पर अपने अब गया तब गया जैसे छू टते हुए जीवन को थामे छोटी नानी हैं,और यहाँ तुम्हें िचट्ठी िलखती मैं। सआदत चौबे की तो बस परछाईंयाँ ही परछाईंयाँ है यहाँ कभी इस कोने तो कभी उस कोने। तुमने जो पैसे भेजे थे नानी के िलए वो मैंने धमर्शाला के कमरे के िलए दान दे िदए हैं। कमरा पूरा हो जाये और ये िबना िकसी परेशानी के अपनी गित को पाएं तो मैं भी दीक्षा लूँ सत्रह साल हो गए खुद को सौंपे हुए। समय िमले तो हमसे िमलने आ जाना। हाल के महीनों में अगर जल्दी आओगे िमलने तो शायद छोटी नानी को देख पाओ और मुझे भी, वरना एक बार दीक्षा में गयी हुईं औरतें बाहर के लोगों से िमल नहीं सकती।


1 हवा बीच हवा एक पिरंदा गोते खा रहा था। कभी तेज िहचकोले खाता बड़ी तेजी से नीचे आता तो कभी ऐन ज़मीन के ऊपर से वापस लौट जाता। बड़ी देर तक करतब करने के बाद थक हार के पिरंदा जब मंिदर की घंटी पे बैठा तो हवा में एक रुनझनु लहक गयी और दोपहर का सन्नाटा मानो एक पल को अंगड़ाई ले कुछ बोल गया हो। आवाज़ से चौंक कर वो पलटी। उसने पिरंदे को देखा और पिरंदे ने उसे। दोनों ही हैरान थे। वो सोच रही थी,कैसा अजब पिरंदा है ?आज से पहले कभी देखा ही नहीं,और पिरंदा सोच था िक ये वही जानकी है। िकतनी बदल गयी है। बाल कानों तक कटवा िदए है और टखनों तक जाने कैसी साड़ी लपेट रखी है। उल्टे हाथ की कलाई में कभी एक कंगन हुआ करता था। जाने कहाँ गया ? अब तो दोनों कलाईयाँ कोरी हैं। िशव मंिदर की पुजारनें इतनी नीरस,रूखी क्यों होती हैं ? उसने सोचा।िशव,िशव,िशव,िशव करता हुआ पिरंदा दोपहर की चुप्पी तोड़ता हुआ दूर रखे िशविलंग पर चढ़े बेलपत्रों पे जा कर चोंच मारने लगा। वो उठी,आँ गन के एक कोने में झाड़ू फ़ेंक आँ गन के दूसरे कोने में बने िशविलंग की तरफ़ बढ़ गयी। उसे अपनी तरफ आता देख पिरंदा एक झटके से उठा और दोपहर के धूसर आसमान में गायब हो गया। ………………………………………… लम्बी सीधी ढलानों सा िफ़सलता हुआ िदन ,शाम के पत्थरों से िनकलता हुआ रात की देहरी पे खड़ा हो जाता है। रात भी ऐसी जैसे गुड़हल के फूल में ओस पलभर ही में चुक जाये। ये दस बाई आठ का कमरा ही अब उसका घर था। सब काम िनबटा कर जब वो कमरे में पहुंची तो रात िघर आई थी। दूर परदेस का पंछी अब उसकी िखड़की के आस पास मंडरा रहा था। उसने बत्ती जलाई ,एक आले में रखी िशव की मूितर् को धूप के धुएं से ज़रा और िचकट कर पूजा का उपक्रम पूरा िकया। िफर बेले में दलीया और ज़रा दूध डाल एक कोने में खाने बैठ गयी,पिरंदा िखड़की के कुछ और पास आ गया। कुछ देर चक्कर काटने के बाद वो वहीँ िकनारे पे बैठ गया। वो उठी एक ब्रेड का टु कड़ा िखड़की पर रख आई और वापस आ कर ज़मीन पे िबछे िबस्तर पर लेट गयी। इसी कमरे में दायीं तरफ़ एक लोहे का पलंग पड़ा रहता था। उस पर सोती थीं छोटी नानी। जैसे तूताखामेन के मकबरे में सुनते हैं अनिगनत रहस्य बंद हैं ठीक वैसे ही इस कमरे में जानकी और छोटी नानी के मन में जाने िकतने-िकतने रहस्य बंद थे। िकतनी इच्छायें िकतने राज़ अपने साथ ले गयी होंगी छोटी नानी। उसने मुहँ तक चादर खींची और करवट बदल कर लेट गयी। िदन भर की थकान ने नींद को फ़ौरन ही उसकी चौखट तक ला कर छोड़ िदया। दूरदराज़ के भटके ,थके मुसािफ़र िक़रदार एक-एक करके उसके पायतें आ बैठने लगे ,जाने कब कृष्ण की तरह उसकी आखें खुलें और सामने बैठे अजुर्न पर पड़ जाएं । िकरदारों की भीड़ में जो सबसे पहला चेहरा उसे दीखा वो रशीद का था। ……………………………… ''आप चाहें आसमान में वृिश्चक ढू ढं ें या सुरैया ,इस ख़ोज से इन तारों -िसतारों पर कुछ फ़कर् नहीं पड़ता। ये आपकी सहूिलयत के िलए नीचे नहीं झक ु आते हैं। हाँ अगर दूरबीन न हो तो शितर् या खोजने वाले की आखें फूट जाती हैं। िज़ंदगी एक ब्लाइं ड फोल्ड है जानकी और िजसमें के दूरबीन इक्का-दुक्का हाथों को ही िमल पाती है। तुम्हारे हाथों में कोई दूरबीन नहीं है और आखों पर भी काला चश्मा चढ़ा रखा है तुमने जानकी। जो अपना ही घर छोड़ कर भाग गया हो। अपंने पीछे एक औरत को लावािरस छोड़ गया हो ,उसके पीछे अपना वक़्त ज़ाया क्यूँ


कर रही हो। जानकी िकसी ग़मगुसार का हाथ हाथों में होना ,िकसी ख़ैरख़्वाह का साथ िज़ंदगी के िलए बहुत ज़रूरी है। '' "मुझे कुछ समझ नहीं आया रशीद।” वो इतना ही बोली। ''ग़मगुसार कहो या ख़ैरख़्वाह मतलब तो साथ िनभाने वाले ही से है। " चाय का प्याला होठों तक ला वापस रख िदया जानकी ने। एक पल रुकी मानो गले में फंसी आवाज़ को धकेल कर बाहर ला रही हो। '"रशीद हम लोग बहुत अलग हैं और यूँ भी अभी तक मैं खुद श्योर नहीं हूँ िक मेरे और सआदत के बीच क्या था? क्या नहीं ?" "'सआदत भी तो मेरे ही मजहब का हुआ। " ''नहीं! सआदत तो उसका पेन नेम है। असली नाम तो मोंटी चौबे है। िफर कौन जाने कभी हमारे बीच बात बने भी या नहीं।" "क्यू?ँ '' "वो राम को पूजते हैं और हमारे यहाँ रावण का मान है। वो देवताओं की फ़ोटोज़ लगाते हैं अपने दरवाज़ों पर,हम बिल की। हमारे तो मान के देवता भी अलग-अलग हैं । िजनका हम मान मानते हैं उन्हें वो लोग दूसरी आँ खों से देखते हैं। हम सब की लाइफ़ कई शैडोज़ से िघरी है ,इतने अंधेरों में रौशनी का आना-जाना मुिश्कल लगता है अभी तो। यूँ भी तुमने कहा िज़ंदगी ब्लाइं ड फोल्ड है तो मैं आँ खों पर बंधे इस फोल्ड को खोलने की कोिशश में हूँ ,देखो आँ ख खुले तो क्या िमले ? उजाला-अँधेरा। " "'तुम वापस पॉिन्डचेरी क्यूँ नहीं चली जातीं?” "वहां जाने से पहले तो िचदंबरम जाउं गी।” ''िकस िलए?'' ''बताया तो था तुम्ह।ें '' ''अभी भी तुम्हारे िदमाग में मंिदर जाने का िफ़तूर बसा हुआ है। '' ''अभी तो मेरे िदमाग में आगरा जाने का िफ़तूर है। एक बार उस लेडी से िमलना चाहती हूँ । ज़रा जाने का अरेंजमेंट करवा दो यार। "' 2 "रशीद यहाँ इस शहर में एक बहुत अजीब चीज़ है। चालीस एकड़ में बने मंिदर से लगभग आधे से ज्यादा शहर दो िहस्सों में बंटा हुआ है। लोग आने जाने को मंिदर का पिरसर ही इस्तेमाल करते हैं। अपने अपने जूते -चप्पल मंिदर के एक तरफ़ उतारते हैं और दूसरी तरफ़ जा के पहनते हैं। मैंने यहाँ तमाम सूट -बूट पहने लोग भी देखे हैं जो बड़ी श्रद्धा से सर झक ु ाये एक हाथ में अपने कामकाजी सामान दूसरे में अपने पाँव की चीज़ें पकड़े सुबह-शाम गुज़रते हैं। यूँ तो ये िशव मंिदर है वो भी नटराज स्वरुप का। देवी पावर्ती के िसवाकामी (िशव की कामना करने


वाली ) रूप की भी यहाँ पूजा होती है। इनके मंिदर की छत पर िकतनी िकतनी आकृितयाँ उकेरी गयी हैं ,िजन्हें िबना लेटे देखा नहीं जा सकता। और यहाँ गोिवन्द राज पेरुमल की भी बड़ी मान्यता है ,गोिवन्दराज पेरुमल यािन िवष्णु। इन लेटे हुए िवष्णु की दोनों वक़्त आरती इनकी दोनों पित्नयों के साथ की जाती है। एक तो लक्ष्मी है और दूसरी हैं हाँडल। हाँडल यूँ तो छठी शताब्दी में कृष्ण भिक्त ,िवष्णु भिक्त की प्रचारक थीं िजन्हें बाद की लोक मान्यताओं में िवष्णु की पत्नी माना गया है,ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे यहाँ मध्यकाल में मीराबाई को माना गया है। ख़ैर ये तो शहर और मेरे िठकाने की बात हुई। ये बताओ सआदत का कुछ पता चला क्या? । वैसे छोटी नानी का अब मन लगने लगा है यहाँ। जल्दी िचठ्ठी भेजना मुझे इं तज़ार रहेगा। जानकी '' ………………………………………… पिरंदे की चहचहाअट ने उसे बड़ी सुबह ही उठा िदया।थकान अभी जानकी की बाहों से िनकली भी नहीं थी की जाने िकस दरार से सरक कर धूप अंदर सीधे उसके िबस्तर तक चली आई। इधर-उधर करवट बदल कर वो उठी और कमरे की एक मात्र एक हाथ बड़ी िखड़की खोल दी। कौन जाने ये आले नुमा िखड़की पल्लव वंश,चोला वंश ,या पांडे वंश के समय बनी हो। हवा का झोंका उस तक आया उसे छु आ और वापस लौट गया। ''पुरवा हो या पछवा एक उम्र के बाद घुटनों को कोई भी हवा मािफ़क़ नहीं बैठती,तब आदमी को िबन हवा जीने की आदत डालनी चािहए। कुछ लम्बे-लम्बे क़तरे साँस के खींच के गहरे उतार लेने चािहये और िफर बाकी बची उमर इस उम्मीद से काटनी चािहये िक ये चंद क़तरे ही िज़ंदगी की लिग्ज़श बनाये रखने में क़ामयाब होंगे जानकी '' िखड़की पे खड़ी जानकी के मन में छोटी नानी की ये बातें बार- बार गूँज रहीं थीं। वो बार-बार सोचती जाने साँस के िकतने क़तरे खींचे होंगे छोटी नानी ने जीने के िलए और उसको िकतने की ज़रुरत पड़ेगी। अगर अफ़ीम चाट कर साँस खींचे तो साँस का स्टॉक कुछ परसें ट ज्यादा हो पाये। छोटी नानी िकतनी जल्दी चली गयीं,न जाने वाली उम्र में ही। बस पंद्रह बरस ही तो बड़ी थीं उससे। उसने पलट कर अपने को शीशे में देखा िकतनी बूढ़ी लगने लगी थी वो,सैंतािलस-अड़तालीस ऐसी तो कोई उम्र नहीं होती बूढ़ी लगने की। ख़ैर औरतें यूँ भी जल्दी ही बड़ी लगने लगती हैं। उसने ख़्याल को झटका और घुटनों की मािफ़क़ हवा के िलए िखड़की का दूसरा पल्ला भी खोल िदया। ....................................................................... शाम का आसमान अजब नारंगी से रंग में डू बा हुआ था। वहाँ अक्सर ऐसे नारंगी बादल ज़रा देर बरस के खाली हो जाते थे। वो दोनों मंिदर की सीिढ़यों पर बैठी थीं। आसमान धीरे-धीरे अँधेरे से गहराता जा रहा था। बस एक कोना कहीं अभी भी हल्का पीला बचा रह गया था। ''आपको कभी अपने घर की याद नहीं आती नानी?'' ''नहीं '' ''कभी भी नहीं? ऐसे हरे-हरे खेत ,पानी के पोखर,डू बती-उभरती कमल की पित्तयां,धुला हुआ पीला आसमान। '' ''पीला रंग मुझे कभी पसंद नहीं आया जानकी। '' ‘‘ओह!िकतना तो सुंदर होता है पीला रंग ,चमकदार,सुनहरा ,सोने सा,धूप सा। ''


''धूप होना बहुत मुिश्कल काम होता है। एक तो सारी उमर एक ही जगह खड़े रहना होता है। एक घूमते हुए िपंड के उजाले-अँधेरे दोनों का दारोमदार आपके कंधे पर होता है। आप भले ही से जिलये,सुलिगये ,प्यासे मिरये पर आप धूप हैं तो आपको उस घूमते हुए िपंड पे जीवन बनाये रखने के िलए न जाने िकतना-िकतना पानी इकठ्ठा करना होगा,बरसाना होगा। तुम धूप बनना छोड़ो जानकी। कब तक मोंटी के िलये छायाओं का इं तज़ाम करती रहोगी। '' ''अब मोंटी है ही कहाँ नानी।'' ''तभी तो कह रही हूँ की खाली सड़क पे िकसके िलए दीप-ज्योित जलाये िफर रही हो। अिग्नहोत्र की परंपरा भी महाभारत के बाद खत्म हो गयी, और वो भी कुण्ड में अिग्न रखते थे अपने भीतर नहीं। '' ''ये महादेव भी तो सुलगते रहते हैं नानी। '' ''अजी ख़ैर मनाओ काहे सुलगते हैं। ये तो भस्म लगाते हैं नेचुरोपैथी की तरह, जलता तो कोई और है। जलने वाली तो एक बार कुण्ड में उतरी तो ख़ाक हुई जानो। '' ‘’िशव मंिदर में बैठ कर ऐसी बातें कर रही हो आप?’’ ‘’साँच को आँ च नहीं। िशव को ऊष्मा बनाए रखने न जाने िकतने-िकतने सूयर् चािहए। तुम मोंटी के िलए सूयर् न बनो। जाओ इन मंिदर संन्यास के झंझट से बाहर िनकलो। जानती हो जानकी प्रेम,कलुष,पाप और प्रायिश्चत जीवन में एक बार ज़रूर आपको ईश्वर के द्वार पर ला कर खड़ा कर देते हैं या अंजान िनजर्न में। इन चारों में ही बुखार सी गमीर् रहती है जो सीधे आप के सर जा लगती है। सिन्नपात में सुनते हैं या तो वजन बढ़ जाता है या घट ही जाता है या बाल बहुत बढ़ जाते हैं या िबलकुल ही झड़ जाते हैं। कहते हैं एक बार जब पावर्ती िशव को पाने के िलए तपस्या कर रहीं थीं तो उनकी माँ उन्हें देखने आयीं। क्या देखती हैं की लड़की मारे बुखार के तप रही है। नाड़ी देखी तो लक्षण सिन्नपात के थे। अंट-शंट जाने क्या बडबडा रहीं थीं।बाल बढ़ के इतने लम्बे हो गए थे की पत्थर की िशला से ढलक के दूर तक फैल गए थे। माँ ने बाल काढ़े,बांधे और िफर अपने साथ लाये फलाहार के थाल खोल िदए। पावर्ती ने हाथ िहला कर मना कर िदया। माँ को कुछ समझ नहीं आया, क्या कहा ये सुन भी नहीं पायीं? कान पावर्ती के मुंह के पास तक लायीं तो फुसफुसाहट में इतना ही सुन सकीं ‘पणार्’। एक धक्का सा लगा रानी मैना को।मारे प्यार के चक्कर में फँस के लड़की अब फलाहार भी छोड़ बैठी। पत्ते खा के िदन िबता रही है।िपछली बार जब आयीं थीं तो बता रही थी की िकसी साधु को अपना अन्न दान कर िदया था और साधु महाराज ने राजी ख़ुशी सब समेटा और अन्नपूणार् नाम का झनु झनु ा थमा गये। तो लाली ये होते हैं मुहब्बत के झमेले। आदमी िचंिदया के आपकी थाली की रोटी भी उठा ले और आप मारी मुफ़्त में अन्नपूणार् सुन के इतराओ।’’ “िशव मंिदर में बैठ कर िशव की ही बुराई।” “बुराई थोड़े सच्ची बात की है।” “तो िफर िशव की पूजा क्यों करती हो आप?” “कुछ अपनी ख़ुशी के िलए और ज्यादा तुम्हारी के िलए।” “पाप पड़ेगा।”


“पड़ने दो, भगवान् की शरण में हैं तो उतर भी जाएगा। अच्छा बातें छोड़ो अब,मैं ज़रा जाप कर लूँ तुम तब तक सामान रख रखा के फ्री हो लो िफर आरती सुन के चाय पीने चलेंगे।” चाय की दुकान तक जाने के िलए पहले मंिदर का बड़ा प्रांगण पार करना पड़ता था और िफर एक लम्बी सड़क। दोनों औरतें हर आठ-दस िदन में एक बार बाहर आती थीं। इस समय सड़क पे हल्की हल्की बूँदें पड़ रहीं थीं। एक हाथ में बीस का नोट दबाये दूसरे में छाता पकड़े जानकी पीछे चल रही थी और आगे-आगे छोटी नानी। सड़क पार कर के एक बस से बाल-बाल बचते हुए छोटी नानी चाय की दुकान में घुसीं। बस वाले को एक गाली दे के वो वहीं पास पड़ी बेंच पर इस बात की परवाह िकये िबना धम्म से बैठ िक िमट्टी-पानी की िमलीजुली नाली उन्हीं के पाँव पखार के बह रही है। दो चाय-दो टोस्ट का आडर्र दे कर वो जानकी से मुख़ाितब हुईं। “ज़रा भी चल-िफर लो तो थकान हो जाती है अब हमें।पर सोचते हैं की हफ़्ते-दस िदन में इतना भी नहीं चले तो घुटने जाम हो जायेंगे,और इसकी चाय इतनी अच्छी है की आने का लालच भी नहीं छू टता।” चाय के छोटे से ग्लास को हाथों बीच कुछ देर दबा के जानकी ने दोनों हाथ अपने गालों पर फेर िलए। “हम भी अपने छु टपन में खूब करते थे ऐसा जानकी जब ठण्ड लगती थी। ज़रा हाथ तापे और झट गालों पर लगा िलए। हाय! हमारी धोती खराब हो गयी। बताओ ऐसा तो पानी नहीं पड़ा की कीच की गंगा-जमुना बह जायें।” “तो आप यहाँ बाहर ही क्यों बैठ गयीं ? अंदर िकतनी जगह तो खाली है।” वो बोली। “अरे चल-चल के थक गए थे।” “हूँ ,उस िदन नीनू आया था न अंदर तो बता रहा था िक पीछे जो आठ-नौ दुकानों का एक माकेर्ट हुआ करता था न अब उसी को तोड़ताड़ कर एक बड़ा शो-रूम बन रहा है गािड़यों का।ये सारी रेत उसी मलबे की होगी। यूँ भी खंडहर सी हो गयीं थीं सब दुकानें।” “सच ही है खंडहर की ईंट छै नी-हथोड़े से तोड़-तोड़ के नीवं में भर दी जाती है तािक नई इमारत बन सके। हर खंडहर के पदोर्ं के ठीक पीछे एक बड़ी सुंदर इमारत छु पी होती है।ये इस बात की सब से बड़ी गवाही है की िसफ़र् बसंत के पेट से पतझड़ नहीं जन्म लेता,पतझड़ के गभर् से भी बसंत का पहला फूल िखल सकता है जानकी। हाँ पर ये हर फूल हर पत्ते का अपना ख़ुद का िनणर्य होता है िक वो पतझड़ से जन्म लेगा या बसंत से।” “िनणर्य लेने की आज़ादी कहाँ है नानी? ये तो िस्थित के हाथ होते हैं जो आपको खांच-े खांचे घुमाये िफरते हैं और जब थक जाते हैं तो जो खांचा सबसे पास हुआ उसी में छोड़ देते हैं। हम ख़ुद क्या चुन सकते हैं ?” “तुम चुन सकती हो अपने िलए आज़ादी।” “आज़ादी का कोई ऐसा बड़ा उत्साह तो नहीं हमें।जी को ही बहलाये रखना है बस।” “जी का बहलना बड़ा मुिश्कल काम है और जो जी को भा जाये वो जरुरी तो नहीं की जीने के िलए माक़ूल हो जानकी।” “जी को भाया हुआ ही तो आिखर तक साथ जाता है नानी।” “तो बताओ कहाँ है मोंटी ? कहीं है तुम्हारे साथ? एक बात जानती हो।”


“क्या?” “िक जी को जाने कैसे-कैसे भरम ले डू बते हैं। तुम्हारी बात ठीक है िक खांचे-खांचे घूमना अपने हाथ में नहीं। पर जी की िबगडैल इच्छाओं के चलते िकसी गलत खांचे में आ बैठना तो सरासर मूखर्ता की बात है। जो इस जी के लायक ही नहीं उसके िलए जी क्यूँ कुढ़ाना जानकी? समय रहते-रहते सोच लो अपने बारे में जानकी।” 3 िटटहरी की तेज आवाज़ ने िदन ही में उसे कंपा िदया। चलती बस में ठं डी हवा से उसे गले के आस-पास पानी की अनुभूित हुई मानो िकसी ने बफ़र् का एक टु कड़ा िघस के िबना पोंछे ही छोड़ िदया हो।उसने हाथ लगा कर देखा तो सच ही में गले के आस-पास पसीना आ रखा था। उसने हाथ बढ़ा खुले बालों से बंधी फूलों की पतली डोरी तोड़ कर चलती बस से फ़ेंक दी। जानकी अम्मन वुड वक्सर् की जानकी ने सीट पर सर िटका िदया और आँ खें बंद कर सआदत चौबे के बारे में सोचना शुरू कर िदया। बंद आँ खों में रौशनी के फ़्लैश से चमक जाते थे पर िचत्र कोई भी सामने नहीं आता था। वो बार-बार अपनी आँ खें खोलती-बंद करती पर मजाल थी की एक बार भी उसे सआदत का चेहरा दीखा हो। “तुम हेलन ऑफ़ ट्रॉय हो,िजसने सब पा कर सब खो िदया और चाह कर भी कुछ पाया नहीं।” महीनों से सोतेजागते कोई उसके पास आ कर उसके कानों में ये फुसफुसाता और छू हो जाता। तंग आ कर उसने अपनी आँ खें खोल दी और बस के सहारे-सहारे भागते रास्ते को देखना शुरू कर िदया। ........................................................................ उसने तंग गिलयों के बारे में तो सुना था पर इस शहर आगरा की कुछ गिलयां तो तंग के अलावा बड़ी चुस्त भी हैं। तंग गिलयों से तो एक बारगी िनकला जा सकता है पर ऐसी चुस्त गिलयों को कोई कैसे पार करे। मकान हर दम ऐसे लगते हैं जैसे उनके ऊपरी माले जैसे एक दूसरे से सर िमलाने को झक ु े जा रहे हों। जगमगाती कपड़ों की दुकानें,िबजली के तारों से िबजली पा रहीं हैं।उन तारों के बेतरतीब झण्ड ु को जा-ब-जा सर के ऊपर देख जानकी को चक्कर से आ गए। ख़ुद को थोड़ा संभाल फुव्वारे बाज़ार के अब िगरा तब िगरा की िस्थित में खड़े एक मकान को जानकी ने देखा। तारों के बेतहाशा फैले झंडु के पीछे उसने देखा मैले पड़ चुके अक्षरों में चौबे िनवास िलखा था। नाम के ऊपर ही एक टाइल पे स्वािस्तक का िनशान बना था िजसका रंग कभी चटक नारंगी रहा होगा जो आज उड़-उड़ के धूसर पड़ चुका था। उसी के बगल में एक और टाइल लगा था िजस पे गणेश जी का िचत्र था जो अब जाने िकतने सालों की िमट्टी से अटा पड़ा था। दूर कहीं िकसी मंिदर की घंटी बजी..........जैसे जानकी को याद िदला रही हो िक वो ख़ुद को दिक्षण के मंिदर में समिपर् त कर चुकी है। अगर सआदत जल्दी ही नहीं लौटा तो उसे चले जाना होगा वहां,जहाँ कुछ समय बाद संस्कार होगा।ये लम्बे-लम्बे बाल आठ अंगुल तक काट िदए जायेंगे। चटक रंग की जगह काली या हरी िकनारी की धोती टखनों तक पहननी पड़ेगी। हवा के सहारे एक गंध उसको छू कर गुज़र गयी। ओह!िकसी ने अपनी रसोई में मूली छोंकी है। ज़रा िझझक कर उसने घंटी बजाई। बार-बार घंटी बजाने के बाद िकसीने छज्जे से झाँका,तेज धूप में जानकी ठीक से देख नहीं पाई,बस एक साया सा सरक के गुज़र गया।


थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। जानकी ने उन्हें पहली बार देखा और पहली झलक ही में उन्हें पहचान िलया। आदमी अपने भीतर कोई बड़ी उत्कंठा िलए िकसी के दरवाज़े तक पहुंचे तो अक्सर ही ढू ढं ने वाले को िबना पिरचय के पहचान लेता है। “जी किहये?” “मैं जानकी हूँ , िदल्ली से आई हूँ । आप छोटी नानी हैं न?” उन्होंने त्योिरयों पर बल डाला और िफर अनचाहे मेहमान को मुस्कुरा के देखा। “आप पहले अंदर तो आइये, पूरा पिरचय क्या यहीं धूप में ही देंगी मुझे ?” “मेरे पीछे -पीछे ऊपर चली आइये ऊपर रहती हूँ मैं। पर सोच रही हूँ अब नीचे िशफ्ट हो जाऊं। बार-बार ऊपरनीचे आने-जाने में थकान हो जाती है। “आप अकेली रहती हैं यहाँ ?” “हाँ।” अब तक दोनों सीिढ़याँ पार कर के एक कमरे में पहुँ च चुकी थीं। “देखा चार सीढ़ी चढने में ही सांस फूल गयी।” “तो आप नीचे ही रिहये िफर।”तख़्त पे बैठते हुए जानकी ने उनसे कहा। उसकी बात अनसुनी कर के वो बोलीं तुम आराम से बैठो मैं पानी ले कर आती हूँ । जब तक वो पानी ले कर वापस आयीं जानकी पूरे कमरे का मुआयना कर चुकी थी। कमरा छोटा था पर व्यविस्थत था। एक अजब से हरे रंग में पुता हुआ था जो न िपस्ता ही था न तोतई।एक लम्बी अलमारी में प्लािस्टक की पट्टी िबछी हुई थी िजसके एक कोने में फटी िजल्द की आठ-दस कानून िकताबें रखी हुई थीं,दूसरे कोने में एक बड़े फ्रेम में मढ़ी हुई िशव की मूितर् थी िजसके पास िशवपुराण रखा हुआ था। सामने के आले में एक छोटा हाथ शीशा था िजसके बगल में एक िढमरी और मािचस पड़ी हुई थी। कमरे में आमने-सामने दो िखड़िकयाँ थीं एक अन्दर आँ गन की ओर खुलती थी और दूसरी बाहर छज्जे की तरफ़। ये दूसरी िखड़की बड़ी थी िजस पर बाहर की तरफ़ से कूलर लगाया गया था,िजसने िखड़की का आधा िहस्सा घेर रखा था।िखड़की का दूसरा पल्ला बंद था िजसे खोलने पे नीचे बाज़ार की चलती-िफरती सड़क साफ़ देखी जा सकती थी।

4 रात के जाने कौन पहर जानकी की आँ ख खुली। कमरे में हल्का उजाला तो था पर इतना भी नहीं की आँ ख खुले और सब साफ़ नज़र आ जाये । उसने सरहाने रखे ग्लास से पानी िपया और दुबारा लेट गयी। अब तक उनींदी आँ खे हलके उजाले में देखने के क़ािबल हो चुकी थीं। सामने िखड़की के पल्ले से सट कर एक छाया खड़ी थी,िजसकी साड़ी का पल्ला बारबार कूलर की हवा से उड़ रहा था। इतनी रात गए ये यहाँ क्यों खड़ी हैं ? सोच कर घडी भर को उसने अपने सीने की धड़कन गले के ऊपरी िहस्से में सुनी। िफर डर को क़ाबू कर जानकी उनके पास जा कर खड़ी हो गयी। “अरे! तुम जग क्यूँ गयीं ?”


“पानी पीने उठी थी िफर आपको यहाँ देखा तो.....।” “चाय िपयोगी ? बना लाऊँ अगर तुम्हारा मन कर रहा हो तो।” “नहीं! रहने दीिजये इतनी रात को कौन चाय पीता है ?” “मोंटी पीता था।” बेसाख्ता उनके मुँह से मोंटी का नाम िनकल गया। एक चुप में दोनों ने एक-दूसरे को देखा और िफर बाहर सड़क पर आँ खें िटका दीं।गली के कोने पे एक कपड़ों की दुकान थी।िजसकी िनऑन लाइट वाले बोडर् के ठीक नीचे िकन्हीं डॉ.शेख़ के दावाखाने का इिश्तहार िचपका हुआ था। उससे कुछ दूर दो-तीन कुत्ते आड़े-टेड़े एक दूसरे से िचपके सो रहे थे। अचानक उन्होंने जानकी की तरफ़ एक सवाल उछाल िदया। “यूँ तो तुम मोंटी की खोज-ख़बर लेने नहीं आयीं होंगी यहाँ? िजसने तीन साल से पलट कर नहीं देखा। कोई खोज-ख़बर नहीं ली। कहाँ गया ?िकस कारण गया ?कब लौटेगा? ये भी कौन जाने? उसकी उम्मीद ही छोड़ो।ये हम में से कौन जाने की िकस की साइकोलॉजी कब िकस चीज़ से गवनर् हो, हाँ पर ये सुना है कभी-कभी अपनी निनहाल ख़बर कर िदया करता था।” “अपनी निनहाल?” “हाँ उसकी असली निनहाल। मैं उसकी सगी नानी नहीं हूँ ।” “तो िफर आप कौन है उसकी? “नानी।” “मतलब।” उन्होंने इस बात का कोई उत्तर नहीं िदया। बिल्क अपना प्रश्न िफर दोहरा िदया। “तुमने बताया नहीं तुम यहाँ िकसिलए,िकस कारण इतनी दूर आई हो?” “आई तो आपसे ही िमलने हूँ । मन में एक बात है सालों से। उसी िसलिसले में िमलना था आपसे। सोचा था पूछ कर जवाब िमल जायेगा तो मन को चैन पड़ जायेगा।” “ऐसी क्या बात है ?िजसके िलए तुम्हें मुझसे सवाल-जवाब करने की जरुरत पड़ गयी,जबिक आज पहली बार ही िमले हैं हम। खैर चलो पूछो क्या पूछना है?” उसने थूक िनगला। गले की सूखी दीवारों पे िचपकी आवाज़ को बाहर िनकाला ही था िक बत्ती चली गयी। एकदम कमरा गले-गले पूरे अँधेरे में डू ब गया। अपनी पसीने से तर हथेिलयाँ पोंछ जानकी ने झट अँधेरे का हाथ पकड़ िलया। इतने कद्दावर साथी का हाथ,हाथ में आते ही अब तक जो आवाज़ सूख चली थी िफर खुल कर गले में लहलहा उठी। “जी मुझे पूछना था िक ?” “िक क्या? क्या पूछना था ? पूछो।” “जी,जी, के मोंटी आपसे इतना इन्फ्लुएं स रहता था।हर वक़्त आपकी बातें। आप लोगों का सम्बन्ध? आप इतनी यंग हैं की .......................,दस ही साल तो बड़ी हैं बस आप उससे।”


ऐसा सवाल मारे घबड़ा के अँधेरे ने जानकी का हाथ छोड़ िदया। चंद्रमा पिश्चम की तरफ़ दो इं च और सरक िखड़की के मुहाने तक आ गया। िकसे देखे? जानकी को या उन्हें। िकसे सुने? जानकी को या उन्हें। उन्होंने जानकी को देखा और बोलीं। “उधर कोने में एक फोिल्डं ग चेयर रखी है। ले आओ,कब तक ऐसे यहाँ खड़ी रहोगी। जानकी वहीं ज़मीन पर पालथी मार बैठ गयी तो उन्होंने कहना शुरू िकया। .......................................................... “सन तेंतीस में मेरे दादा अकाल के बाद अपने बचे पिरवार को िजसमें मेरे िपता, मेरी बुआ, और मैं ही रह गए थे। इन सब को लेकर बंगाल से जालौन चले आये। जालौन ऐसा कोई बड़ा शहर नहीं था। शहर तो क्या तब तो कस्बा भी नहीं था। खैर-खैर करके इस नयी जगह रहना शुरू कर िदया। पर न खाने-पीने का साधन न ही रहने का कोई िहसाब। शुरू में एक रैन-बसेरा टाइप जगह हमारा घर बनी, िफर उसके बाद कभी यहाँ रहे,कभी वहाँ रहे। यूँ हमने शुरूआती दो-तीन साल इस तरह गुज़ारे। हमारे यहाँ लड़िकयों का डोमेिस्टक हेल्प की तरह अलग-अलग शहरों में जाना बड़ा पुराना चलन है।लडिकयां जाने कब-कब से यूँ ही अपना घर,अपना देस,अपने बच्चे छोड़ अंजान-परायों के यहाँ जा कर रोटी कमाती रहीं हैं। सो मेरी बुआ पहले यहाँ आगरा सी.पी. के बहनोई के घर काम करने भेज दी गयीं। बाद में उन्ही के माफ़र्त मुझे यहाँ सी.पी. के घर उनके पांच साल के धेवते की आया के काम पर भेज िदया गया। इस मकान में वो ही दोनों थे। मोंटी के पेरेंट्स कैसे खत्म हुए न कभी सी.पी. ने बताया न मैंने कुरेद-कुरेद कर पूछना ज़रूरी समझा। मोंटी पांच साल का था तब और मैं पन्द्रह की थी। भाइयों जैसा था,बेटे जैसे था मेरे िलए। पर था तो मािलकों का बच्चा अपना कैसे हो जाता। नौकर िकतना ही चाहें, लाड लड़ाएं पर फ़कर् तो रह ही जाता है। खैर से ये फ़कर् भी िमटा िदया गया। मेरे दादा ने सी.पी. से मेरी शादी करा दी। मुझे मालूम है ज़रूर इसके िलए मेरे घरवालों को पैसे िदए गए होंगे,पर िकतना ये मुझे आज तक नहीं पता चल पाया।” जानकी सारा िकस्सा दम साधे इतनी तन्मयता से सुन रही थी िक उन्हें बीच-बात में उसे टोकना पड़ा। “ऐ सो गयीं क्या?” “नहीं तो! िफर क्या हुआ ?” “हुआ तो ये िक कई बार ऐसी जवान लडिकयां माल-टाल ले कर भाग जाती थीं। मेरी बुआ भी िकसी साड़ी बेचने वाले के साथ िनकल गयीं थीं। लाख ढू ढं ने पे भी कोई पता नहीं चला। और थीं भी िकतनी बड़ी,मुझसे से तीन साल बड़ी थी। उन्नीस की थीं उस वक़्त। सो उनके जाने के बाद सबने अपने-अपने असासे -पूँजी सुरिक्षत कर ली। मेरे घरवालों ने कहा की एक बेटी के जाने के बाद दूसरी का ठौर िठकाना पक्का होना बड़ा ज़रूरी है। सी.पी. ने कहा िक मोंटी के िलए उनके बाद कोई अपना होना चािहए।अपना चािहए था तो उसकी दिदहाल छोड़ आते।भरा-पूरा घर था मोंटी के िपता का।सबने अपने-अपने वशर्न बना रखे हैं इस िकस्से के पर मेरी तईं ये ह्यूमन ट्रैिफिकंग का मामला है। पैसे के लेन-देन पर बड़ी उमर के आदमी को शादी के नाम पर लड़की बेच देना। और तुम्हारी बात का जवाब ये की मोंटी सी.पी. का धेवता था तो मेरे िलए भी धेवता ही था।अलावा इसके न उन्नीस न इक्कीस।”


बाहर ओस पड़ रही थी। उदास चंद्रमा बार-बार यही सोचता हुआ न जाने िकधर िखसक रहा था। “िक मेरी तईं ये ह्यूमन ट्रैिफिकंग का मामला है।” “चलो तुम अब सो जाओ। बत्ती भी आने वाली होगी। अगर सुबह जल्दी उठ गयीं तो मनकामेश्वर के दशर्न कराने ले चलूँगी।” 5 “तुम्हारा मायका कहाँ हैं?” “पोंिडचेरी।” “अच्छा !कौन-कौन है तुम्हारे मायके में?” “कोई भी नहीं। िपता थे,कई साल हुए खत्म हो गए। माँ ने बहुत पहले,मेरे बचपन ही में अलग हो कर दूसरी शादी कर ली थी। सो अब उनसे कोई मेलजोल नहीं है।” “ओह! तो तुम्हारा रहना-सहना,खाना-खचार् ?” “मेरे िपता की कुड्डालोर में लकड़ी की दुकान थी,रेडीमेड दरवाजों की। बाद में चाचा देखभाल करते रहे हैं उसकी तो पढाई-िलखाई के िलए वहीं से पैसा आ जाता था।” “ये कुड्डालोर कहाँ है ?” “पोंिडचेरी के पास है। वहीं उसी िजले में िचदम्बरम करके एक जगह है जहाँ के िशव मंिदर में समिपर् त कर िदया है ख़ुद को मैंने।” “हें ..................! एक लम्बा भौंचक्का सा स्वर उनके मुंह से अनायास ही िनकल गया। “हाँ एक बार इसका कहीं पता चल जाये तो ठीक वरना तो जाना ही पड़ेगा।” “क्यूँ ऐसा भी क्या हुआ िक ज़रा कोई खाली कोना दीखा तो उसी में सरक लीं ? उन्नतीस-तीस साल की लड़की हो। ज़माना भर सामने खुला पड़ा है। पढ़ी-िलखी हो आप अपनी राह बनाओ।” “राह बनाई तो थी पर साथी बीच राह ही गायब हो गया।” उसने कहा। रात अभी बीती नहीं थी।िकसी छत से एक ओस पगी धुंधली आवाज़ तैरती हुई चली आई। जाने कहीं कोई लड़की गाना गा रही थी या कोई ट्रांिजस्टर ही बज रहा था। उन्होंने अचानक बड़ी धीमी आवाज़ में बोलना शुरू कर िदया जैसे आवाज़ को अँधेरे में संभल-संभल कर चलने की िहदायत दे रहीं हों। “जानकी मैंने इसी मकान की इसी िखड़की पे खड़े हो जाने िकतनी-िकतनी लड़िकयों को सब्जी वालों से सौ-सौ ग्राम कचनार की कली के िलए मोलभाव करते सुना है। ये वही लडिकयां है िजन्हें तुम अक्सर रातों में छत पर टहलते हुए “”सैयां एक कली कचनार की जाओ तुमपे अपने बालों की उधार की “” गाते भी सुन सकती हो।रात को गाये जाने वाले मुहब्बत के गीत और िदन में चूल्हे में पकने वाली चीज़ों में ज़मीन-आसमान सा अंतर होता है। एक ही चीज़ से जीवन बहलाना बहुत मुिश्कल होता है।समझदार लोग बाज़दफ़ा बालों से किलयाँ िनकाल सामने जीवन की तरफ़ भी देखते हैं।”


“जीवन तो दो लोगों का एक ही संगठन में बीतने का नाम है।” “सच्ची बात।िफर भी दुिनया का कोई भी शीराज़ा,कोई भी संगठन कभी पक्का नहीं हो सकता ......... उसे टू टना ही होता है। समय अलग अलग समय में बनाये गए शीराज़े-संगठन को समय-समय पर तोड़ता रहता है,और िफर उस टू टे मलबे से नया कुछ बनता है। बनाने-िबगाड़ने के मामले में समय बड़ा शाितर है जानकी।” “िफर भी िकसी का साथ जीवन में ऊष्मा भर देता है,उजाला भर देता है,चमक भर देता है,सब कुछ सुनहरा कर देता है।” जानकी ने कहा। “ज़री,सुनहरा,चमकीला पीला कैसा गहरा रंग है न। सब में दीवानगी की हद तक भरा हुआ है जो नकार देता है बाकी रंगों को अपनी चमक से ............... पर सबमें अलग चाँदी की छाँव वाला सफ़ेद या सीमाब (पारे) का रंग बड़ी िढठाई से कुछ अलग जब कलछाँव सा जब चमकता है तो उसके सामने सुनहरे की कोई िबसात नहीं। पारा जब टू ट कर िगरता है तो छोटी-छोटी न टू टने वाली बूंदों में बदल जाता है जानकी। ये बूँदें ढरकती-सरकती रहती हैं,टू टती हैं िफर एक दूसरे में िमल जाती हैं और आगे के सफ़र को बढ़ जाती हैं। अपनी कद-काठी में ये रंग ऐसे लगता है जैसे िकसी रेिलंग पर झक ु ी धूल भरी बेल का ताज़ा िखला सफ़ेद फूल हो। रात की चाँदी की रंगत सा ये पारा सोने की चमक से कई कई गुना सुंदर है। िसयाह-सफ़ेद के हािशये पे खड़ा पारा ही बुखार नापने के काम आता है। ज़री नहीं,सोना नहीं। जो तुम्हारा बुखार हर सके उसे तलाशो िकसी और को नहीं।” कई बार बीच की बफ़र् िपघलने के िलए दो बात ही बहुत होती हैं। धूप की पहली िकरण जब कमरे में आई तब उन दोनों को पता चला की रात तो कब की बीत गयी। पर रात जानकी के मन के सब पूवार्ग्रहों को िमटा के बीती थी। आसमानी हवेली के रात के चौकीदार ने ठोक-बजा कर जब तसल्ली कर ली की अब उन दोनों को मोंटी नाम के पुल की ज़रूरत नहीं रहीं तो आसमान का कारोबार सूरज के हाथों सौंप उसने िवदा ली। उन्होंने पल्ले से गले के पास आया पसीना पोंछा और पास पड़ी कुसीर् पर बैठ गयीं। घंटों िखड़की के सहारे खड़ेखड़े उनके पाँव अकड़ गए थे। “तुम अब थोड़ी देर सो लो उठोगी तो मंिदर ले चलूँगी िदखाने।” “आप चािलये मेरे साथ मंिदर।आपका जीवन भर ध्यान रखूंगी। जो िजम्मेवारी मोंटी नहीं िनभा पाया वो मैं उठाना चाहती हूँ अब।” “कहाँ ?” वो कमरे से बाहर जाते-जाते िठठक गयीं और जानकी को हंस के देखा। “िचदम्बरम।” “यूँ तो मैं िकसी के िलए कोई िजम्मेवारी नहीं की िकसी को आगे बढ़ कर उठाना पड़े। साहचयर् और िजम्मेवारी दो अलग-अलग रास्ते हैं। सम्बन्ध की मजबूती उसके साहचयर् में होती है न की उसे िजम्मेवारी मानने में।सबको अपना-अपना बोझ ख़ुद ही उठाना पड़ता है और जानकी जीवन बड़ा भारी पहाड़ है। इसे उठा कर चलने वाले को कभी-कभी बीच-बीच में रुक कर तलवों पे कडवा तेल और पानी िमला कर लगाते रहना चािहए। एक तो थकान िमटती है और छाले भी नहीं पड़ते। िबन छालों के पैरों से चलोगी तो दूर तक चल पाओगी और कन्धों के बोझ को भी संभाल पाओगी। मोंटी तुम्हारे जीवन का छाला है,इसे िनकालो और कोई रूई का फाहा धरो।


6 छाँव के बड़े-बड़े टु कड़े आसमान के धुंधलके में अठखेिलयाँ कर रहे थे। ये बािरश का मौसम था। ज़रा धूप हुई और शाम तक बरसात। िपयाऊ के एक कोने खड़े हो कर कुछ लड़िकयां पानी पड़े खुरदरे फ़शर् पर एिडयाँ िघसिघस कर पाँव साफ़ कर रहीं थीं। िपयाऊ के पीछे ही एक छोटे तालाब था िजस के पास धमर्शाला बनाने का काम बड़ी तेजी से पूरा िकया जा रहा था। इसीमें एक कमरे का िनमार्ण जानकी उनके नाम से करवा रही थी। धमर्शाला के लम्बे-लम्बे बरामदों िमट्टी और कागज़ की लुगदी से बनी िशव की बड़ी-बड़ी मूितर् याँ रखी हुईं थीं। िजसपे धूल की एक चादर यूँ िचपकी हुई थी मानो िकसी ने ठण्ड से बचाने के िलए उन्हें शाल उढ़ा िदया हो। “चिलए ज़रा देख आयें कमरे का िकतना काम हुआ है। िमस्त्री कह रहा था आज फ़शर् बैठायेगा।” जानकी ने उन्हें खटोले से उठाते हुए कहा। “चलो।” अचानक चलते-चलते वो िठठक गयीं। “उधर देखो जानकी,वो बिच्चयां जो कुछ देर पहले िपयाऊ पे पैर साफ़ कर रहीं थीं,देखो यहाँ क्या कर रही हैं ?” जानकी ने पलट कर देखा। बरामदे के दूसरे छोर पर लडिकयां कपड़ों के बड़े-बड़े टु कड़ों से िशव की मूितर् याँ साफ़ कर रहीं थीं। “सफाई ही तो कर रहीं हैं। साफ़ करके अभी अंदर रख देंगी वरना अभी बािरश हुई तो ये सब कीच सी हो जायेंगी।इसमें नया क्या ?” “नया ये की समय की धूल िकसी को नहीं छोडती। यहाँ तक की ईश्वर कहे जाने वाले तत्व को भी अपने अंदर समेट लेती है। इस िलए मौके-बेमौके झाड़-पोंछ बहुत ज़रूरी है।और एक तुम हो की मार अतीत की गदर् लपेटे घूम रही हो।” चिलए छोिड़ये ना ये सब,जानकी ने ज़रा उकता के कहा। “कमरे का काम देख लें पहले िफर आप के डॉक्टर के भी चलना है। िफर लौट के पूजा भी करनी है मुझे।” “कैसी पूजा?” “चंद्रग्रहण है आज। लौट के देव पूजने होंगे न।” “बड़ी व्यथर् बातें करती हो तुम कभी-कभी जानकी।” उन्होंने कहा। “मुझे कभी-कभी हंसी आती है आपकी बातों पे।” वो बोली। “हंसी तो हंसी होती है लाली चाहे होंठों बीच रह जाये या आँ खों की िकनोर तक फैल जाए। और िजन योग्यताओं,पूजाओं की तुम बात करती हो उन्हीं के नीचे जाने िकतने-िकतने ज़हर के नाले-परनाले खुले हुए हैं। िजस चंद्रमा को जानकी तुम अघ्यर् चढ़ा-चढ़ा के बौराये जाती हो। उसी से कहते हैं सत्ताईस बहनें िबयाह दी गयीं थीं। इसे ऐसे मत देखना की दक्ष को एक बड़ा ही होनहार लड़का िमला बेिटयाँ िबयाहने को। क्षय का मरीज़ था न वो। इसे ऐसे देखना की साठ बेिटयों के साधन संपन्न बाप ने कतई अपने जूते भी नहीं िघसे और एक ही की


बाड़ में बाँध दी बेिटयां। िसफ़र् सर ही काटना ही नहीं ऑनर िकिलंग कई और भी तरीके की होती है। रशीद के बारे में क्या सोचा तुमने ?” बेनागा तुम्हें िचठ्ठी भेजता है। मेरा खचार् भेजता है।” “क्या सोचूं? मोंटी के बाद कुछ सोचने का मन नहीं करता। और न ही कोई ऐसा है जो आँ खों को जंच जाये।” “आँ ख का काम देखना भर होता है जानकी। इनके नीले,हरे,भूरे,काले या गोल,सपाट,या कमानीदार होने से कोई फ़कर् नहीं पड़ता। इनका काम बस आपके िदमाग में एक उल्टा दृश्य बनाना है, िजसे बाद में ये आपको साफ़सीधा िदखा सकें। अलावा इसके और कुछ नहीं। हर िजंदगी एक ख़ास मक़सद के िलए होती है इसे यूँ ही िकसी फ़ज़ूल रूमािनयत के िलए बबार्द नहीं करते। रूमािनयत बस थोड़ी ही देर साथ देती है जो दूर तक हाथ पकड़ के साथ चले झट उसकी हथेली थाम लेनी चािहए।” “हम्म्म्मम्म्म्म” “यूँ अपना आप ख़ुद नहीं िमटाते जानकी। िकसी कहानी की नाियका होना प्रोटोिग्नस्ट होना ये कब कहता है की आप लीक और लोक दोनों को तोड़ ही न सकें।” बािरश की बूँदें अब पड़ कर थम चुकी थीं पर हवा में नमी और ठण्ड अभी भी घुली हुई थी। आसमान में अँधेरा गहरा गया था। सड़क िकनारे क़तार में लगे गुलमोहर पानी की मार से फूल िबखेर कर अब खड़े-खड़े हांफ रहे थे। 7 समंदर की तेज लहरों का शोर उसका ध्यान भटकाने की व्यथर् कोिशशों में कभी बड़ी तेजी से उसकी तरफ़ बढ़ता कभी पीछे लौट जाता। ये उसका अपना शहर था पर िपछले सत्रह सालों में इतना बदल गया था। और बदला भी था तो इतना की अब जानकी उसका कोई भी रेशा पहचानने में समथर् नहीं थी। तागे-तागे रेशे-रेशे की बुनावट-बनावट उसकी समझ से कोसों परे थी। िपछले इक्कीस-बाईस िदन से वो यूँ ही भटक रही थी। कभी अस्पताल तो कभी लॉज। घंटों यूँ ही समंदर के सामने बैठे-बैठे वो भूल ही गयी थी िक यहाँ क्यों आई थी? पानी की उड़ती छीटें डू बते सूरज के सामने िप्रज्म बना रहीं थीं। एक धुंधला सा इन्द्रधनुष जानकी के सामने बनता तो कभी िमट जाता। कभी-कभी रंग सामने होते हैं पर नज़र पकड़ नहीं पाती उन्हें। छोटी नानी जानकी के जीवन का ऐसा ही इन्द्रधनुष थीं िजन्हें जानकी मंिदर में त्यागे गए रंगों की सफ़ेद चादर के पार कभी देख ही नहीं पाई। वो जैसे एक िदन उसके साथ चली आईं वैसे ही उसे छोड़ भी गयीं। “िज़ंदगी फ़तहजंग नाम के एक बहुत बड़े हाथी का नाम है। इसकी हौद पे बैठे सवार को कभी न कभी नीचे उतरना ही पड़ता है। और एक बार जो भी उतरा वो कभी वापस नहीं चढ़ पाया।” मामूली से घुटने का ऑपरेशन ऐसा िबगड़ा की उनकी िकडनी ले बैठा। उन्नीस िदन डायलायिसस पर रह कर उन्होंने जानकी से आँ खें फेर लीं। “शुक्र है अस्पताल सरकारी था वरना वो इतना महंगा ईलाज कैसे करा पाती?” उसने सोचा। उसने हाथ बटु ए में से दो छोटी-छोटी पुिडया िनकालीं। इनमें छोटी नानी की राख थी। िसवाय इन दो पुिड़यों के जानकी अस्पताल से कुछ वापस नहीं लाई थी। उसने एक पुिडया खोली और समंदर में बहा दी। दूसरी वापस


बटु ए में रख ली और सोचा की जा कर नटराज के पैरों में चढ़ा देगी। जो अनंत से भस्म लगा रहे हों क्या इस चुटकी भर राख को न स्वीकार करेंगे। उसने खुले बालों का जूड़ा लपेटा और सड़क पर उतर आई। .................................................................................. समय अपने दोनों िकनारों पर फैले अनंत िवस्तार को देखता है। दायें-बायें पैर के अंगूठे को देखता है।सोचता है कल ही तो िकसी पे काले रंग का धागा बांधा था दीख नहीं रहा। खैर कोई बात नहीं ये धागा मंिदर में समिपर् त िस्त्रयों के बालों को बट के बनाया जाता है, िमल ही जायेगा। गदर्न झक ु ा बादलों के परदे के पार दूर देखता है। सुदरू एक िशव मंिदर में सीमेंट के लाल-भूरे ज्यािमित वाले पत्थर पे कोई औरत उकडू हो कर बैठी था। तेज हवाओं के साथ िसवाकासी के मंिदर से आती िशव-िशव की आवाज़ उस तक भी पहुँ च रही थी। यूँ तो मंिदर पावर्ती का है पर जाप िशव का ही होता है। नटराज के इस मंिदर में कोई उनसे ऊपर नहीं है। नाईन बाल काटने को कब से इं तज़ार में बैठी हुई थी उसे ध्यान ही नहीं था। उसकी नज़र सामने धमर्शाला के एक कमरे पे लगे पत्थर पे िटकी थी। िजस पे बड़े-बड़े अक्षरों में िलखा था। “श्रीमती दुलारी चौबे की याद में।” उन्हें अब िकसी सम्बन्ध, उपनाम की जरूरत नहीं उसने सोचा। छोटी नानी को गए सवा महीने से ऊपर हो गया था। रशीद की कोई िचठ्ठी नहीं आई थी इधर और सआदत के बारे में अब उसने सोचना ही छोड़ िदया था। “आप शुरू कीिजये और कानों तक ही कािटए बाल, जैसे लड़कों के होते हैं।” नाईन ने ज्यों ही कैंची चलाई, एक तेज ढरकती बूँद कहीं दूर िकसी चाय की केतली पर जा िगरी और वापस मौसम की नमी में खो गयी। मंिदर से दूर गली के मुहाने पर कोई लड़का अभी टेम्पो से उतर कर खड़ा भी नहीं हो पाया था की झमाझम पानी उसे िभगो गया। अंदर उसके समपर्ण संस्कार शुरू हो गए थे। कोई पुजारी िकसी कोने में बैठा पंचाक्षर स्त्रोत गुनगुना रहा था। “नागेन्द्र हाराय ित्रलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय िनत्याय शुद्धाय िदगम्बराय तस्मे न काराय नम: िशवाय” बाल कटाने के बाद उसने सर धोया और अपने कमरे में चली गयी। लड़का धीरे-धीरे मंिदर की ओर बढ़ा चला जा रहा था। मंिदर के दरवाज़े के ऐन सामने वो रुका। िफर अचानक मुड़ कर कुछ दुकान पीछे जा खड़ा हुआ और बोला। एक स्टीम टी दीिजये ज़रा। मंिदर से अब तक िशव,िशव,िशव,िशव की आवाज़ आ रही थी।


सोने का सुअर - मनोज कुमार पांडेय

चंद ू बहुत खुश हैं। बापू मामा के यहाँ से लौट कर आए हैं और अभी उन्होंने अम्माँ से कहा िक कक्षा आठ से आगे की पढ़ाई के िलए चंद ू का मामा के यहाँ रह कर पढ़ना तय हो गया है। ऐसा नाना और बापू ने िमल कर तय िकया है।

मामा का घर मामा के गाँव में सबसे ऊँचा है। छत पर चढ़ जाओ तो मामा का ही गाँव नहीं बिल्क आसपास के और भी कई गाँव िदखाई पड़ते हैं। पूरब में नरायनगं ज, पिश्चम में न्यायीपुर, उत्तर में सोरांव और दिक्षण में नहर पार नेवादा। मामा के गाँव का नाम है चौबारा। चौबारा के दिक्षण में गाँव से लग कर एक नहर बहती है। नहर के दोनों िकनारों पर िवलायती बबूल फैले हुए हैं। नहर के दिक्षण में आपस में जुड़े हुए कई छोटे छोटे तालाब हैं जो बािरश में िमल कर एक बड़ा तालाब बन जाते हैं। तालाब के पूरब में एक ऊँचा टीला है िजस पर तरह तरह के पेड़ों का एक जंगल छाया हुआ है। चंद ू को मामा के यहाँ जाना अच्छा लगता है। इस भूगोल के अलावा इसकी और भी कई वजहें हैं। पहली तो यही िक चंद ू के आने जाने की इकलौती यही जगह है जहाँ वह कभी कभार आ जा सकते हैं। उन्हें पास के बाजार भी अकेले नहीं जाने िदया जाता। ऐसे में मामा का घर उन्हें मुिक्त और नएपन की तरफ ले जाने वाला एक सुंदर रास्ता लगता है िजसके िकनारे िकनारे खजूर और जामुन के पेड़ों की एक लंबी कतार है। चंद ू के पूरे गाँव में इनके एक भी पेड़ नहीं हैं जबिक दोनों ही उन्हें बहुत अच्छे लगते हैं। गिमर् यों में पहले जामुन पकता है िफर खजूर। काले काले जामुन और सूखे संतरे के रंग के खजूर।

मामा का घर पक्का है। फशर् इतनी िचकनी िक चाहे फशर् पर खाना खा लो और चंद ू का घर खपड़ैल है िजसकी छत से गोजर और िबच्छू िगरते हैं। चंद ू को दोनों से बहुत डर लगता है। बापू को िबच्छू बहुत जम कर चढ़ती है। उन्हें जब कभी िबच्छू डंक मारती है, वे हफ्तों बेसुध चारपाई पर पड़े रहते हैं। चंद ू की उन िदनों चारपाई से नीचे


उतरने की भी िहम्मत नहीं पड़ती। और गोजर के बारे में तो चंद ू ने सुन रखा है िक वह चमड़ी में अपने पैरों को धँसा कर कुछ इस तरह िचपक जाती है िक चाहे उसके लाख टु कड़े कर डालो, िफर भी वह नहीं िनकलती।

मामा के घर में िबजली है। चंद ू के घर में िचमनी जलती है। मामा के यहाँ टी.वी. है। चंद ू के यहाँ रेिडयो भी नहीं है। मामा के यहाँ सब खूब गोरे हैं। चंद ू के यहाँ चंद ू और उनकी अम्माँ को छोड़ कर सब काले। चंद ू सोचते हैं िक िकतनी अच्छी बात है िक वे अम्माँ पर गए हैं। गोरे और खूबसूरत। और भी कई कारण हैं जैसे चंद ू जब मामा के यहाँ से आने लगते हैं तो नानी उन्हें पाँच या दस रुपये देती हैं। पूरे साल में यह चंद ू को इकट्ठा िमलने वाली सबसे बड़ी रकम होती है। रास्ते में बापू या अम्माँ पूछती हैं िक िकतना िमला तो चंद ू झूठ बोल जाते हैं और आधा ही बताते हैं। बाकी पैसे उन्हें कुछ िदन अपने मन का बादशाह बनाये रखते हैं। चंद ू पूरा सही सही बता दें तो पैसे अम्माँ ले लें या िफर गुल्लक में डालना पड़े और गुल्लक चाहे िजसकी हो घर के गाढ़े वक्तों में काम आती है जो िक चंद ू के घर में आता ही रहता है।

अनेक कारणों में एक कारण यह भी है िक चंद ू ने अभी तक शहर नहीं देखा है और मामा का घर शहर से जुड़े कस्बे के नजदीकी गाँव में है। चंद ू िजस स्कूल में पढ़ने जा रहे हैं उसका रास्ता उस कस्बे के बीचोंबीच होकर गुजरता है िजस पर चंद ू साइिकल चलाते हुए रोज ब रोज गुजरा करेंगे। साइिकल साल भर पहले आ गई थी पर अभी तक इस पर दीदी का कब्जा था। वह साइिकल से स्कूल जाती थी और चंद ू पैदल गाँव के दूसरे लड़कों के साथ लड़ते झगड़ते। साइिकल को लेकर अक्सर उनका दीदी से झगड़ा होता रहता। वह चंद ू को साइिकल छू ने भी नहीं देती थी। चंद ू दीदी से तो िपटते ही बाद में दीदी ये बातें बापू से भी कुछ इस तरह बताती िक चंद ू को वहाँ भी डाँट पड़ती। ये बीस इं च की कत्थई रंग की हीरो साइिकल चंद ू को अनायास ही िमल गई क्योंिक दीदी दसवीं की परीक्षा पास कर गई और आसपास ऐसा कोई स्कूल नहीं था जहाँ वह आगे पढ़ाई के िलए जाती। चंद ू के स्कूल जाने के रास्ते में दो िसनेमाघर हैं। आते जाते िफल्मों के पोस्टर सड़क के िकनारे की दीवारों या पान की गुमिटयों की साइड में िचपके िदखाई पड़ते हैं। बृहस्पितवार के िदन दोनों िसनेमाघरों की दो टेंपो िनकलती हैं िजनमें चारों तरफ अगले िदन से लगने जा रही िफल्म के पोस्टर िचपके होते हैं और एक व्यिक्त लाउडस्पीकर पर िफल्म और उसके कलाकारों के बारे में बताता चलता है। हर पाँच िमनट बाद बताने वाला थक जाता है तो वह बीच में सुस्ताने के िलए िफल्म के गाने लगा देता है। 
 िपछली गिमर् यों में छोटे मामा जब सबको चंद्रलोक टॉकीज में िफल्म िदखाने ले गए थे तो बाकी का तो चंद ू नहीं जानते पर उनकी वह टॉकीज में देखी गई पहली िफल्म थी। िफल्म का नाम था 'नगीना की िनगाहें'। इसके बाद चंद ू का मन इच्छाधारी नाग होने का करने लगा था। उनके सपनों में इच्छाधारी नाग आते और बीन की आवाज सुनते ही उन्हें अमरीश खेर याद आने लगता। िपछली गमीर् से इस गमीर् के बीच चंद्रलोक टॉकीज का नाम बदल


कर गंगा टॉकीज हो गया है। गंगा टॉकीज में तीन तरह के िटकट हैं िजनके दाम हैं पंद्रह रुपये, दस रुपये और पाँच रुपये। इतने पैसे चंद ू के पास इकट्ठे कभी नहीं होते हैं सो चंद ू िसफर् पोस्टर देखते हैं या िफर शो टाइम में कभी कभी टॉकीज चले जाते हैं और िनकास की तरफ की सीिढ़यों पर बैठ कर िफल्म के गाने और डॉयलाग सुनते हैं। इस तरह बहुत सारी िफल्में चंद ू ने देखी भले नहीं है पर उनके पूरे डॉयलाग उन्हें याद हैं। 
 मामा के लड़के अक्सर िफल्म देखने जाते हैं मामा के साथ, मामी के साथ और कई बार अकेले भी। चंद ू िसफर् पोस्टर देखते हैं, एक ही िफल्म के अलग अलग पोस्टर और पोस्टर के आधार पर िफल्म की कहानी की कल्पना कर लेते हैं। इस तरह गंगा टॉकीज और सूयार् टॉकीज, इन दोनों ही टॉिकजों में चलने वाली हर िफल्म की दो दो कहािनयाँ होती हैं। एक वह जो सचमुच िफल्म की कहानी होती है और दूसरी वह िजसे पोस्टरों के आधार पर चंद ू रचते हैं। इस दूसरी कहानी के बारे में िसफर् चंद ू को पता होता है। 
 मामा के घर आकर कई ऐसी मुिश्कलें खड़ी हो गई हैं िजनके बारे में चंद ू ने पहले कभी सोचा ही नहीं था। अभी कल की ही बात ले लो। कल दशहरे के मेले का िदन था। चंद ू के सभी ममेरे भाई बहन एक से एक रंगीन कपड़ों में मेला जाने के िलए तैयार थे। पर चंद ू के पास नए कपड़े के नाम पर स्कूल ड्रेस है, गाढ़ा नीला पैंट और आसमानी शटर्। इसके अलावा एक और शटर् है जो कॉलर पर पूरी तरह िघस गई है और अंदर का अस्तर बाहर िनकल आया है। एक हॉफ पैंट है जो चूतड़ पर इस तरह से िघस चुकी है िक रंगीन तागे जो शायद सूती रहे होंगे, िघसते िघसते गायब हो गए हैं और दोनों उभारों पर टेरीकॉट के तागों के दो गोल धूसर घेर भर बचे हैं जो पैबंद नहीं हैं िफर भी पैबंद की तरह िदखाई पड़ते हैं। एक फुलपैंट भी है जो छोटी हो गई थी तो बापू ने नीचे की मोहड़ी खोल कर बड़ा करवा िदया। अब वह पैंट चंद ू के नाप की तो हो गई है पर एक दूसरी मुिश्कल पैदा हो गई है। पूरे पैंट का रंग धुंधला हो गया है पर पैंट की मोहड़ी खुलने के बाद जो िहस्सा नीचे से ऊपर आया है वह अभी भी पहले के रंग में है। इसिलए वह अलग से जोड़ी गई पट्टी की तरह िदखाई पड़ता है। एक चौड़ी मोहड़ी का पजामा भी है पर उसके बारे में चंद ू की राय यह है िक उसको पहनने से अच्छा है िक चड्ढी पहन के घूमते रहो। चड्ढी चंद ू के गाँव में तो चल जाती थी जहाँ बचपन से ही वह चड्ढी पहनते आए थे पर यहाँ उनका हमउम्र ममेरा भाई मुन्ना चूड़ीदार पजामा या रेडीमेड हॉफ पैंट पहनता है। चंद ू घर से बापू की सफेद धोती उठा लाए हैं िजसे दुहर कर वह लुंगी की तरह पहनते हैं। वैसे उन्हें यह जरा भी नहीं पसंद है पर इस तरह वह अपनी एक ठसक बनाये रखने की कोिशश करते हैं और यही जािहर करते हैं िक उन्हें तो यही पसंद है। 
 यह िस्थित िसफर् कपड़ों के ही मामले में नहीं है। जूते, िकताबें सारे मामलों में यही होता है। मुन्ना के पास नई नई िकताबें होती हैं और चंद ू के पास हमेशा वही पुरानी िकताबें िजनके कई कई पन्ने फटे रहते हैं। चंद ू लगातार इन िस्थितयों के बारे में सोचते हैं और पछताते हैं िक वे यहाँ क्यों आए। चंद ू को बापू पर गुस्सा आता है। वे भूल जाते हैं िक वे खुद भी यहाँ आने को लेकर िकतने उत्साही और उतावले थे। बहुत सोचने लगे हैं चंद ू और िजतना सोचते हैं उतना ही क्षोभ और हीनता के गतर् में समाते चले जाते हैं। बार बार उनका मन कुछ तोड़ने फोड़ने का करने लगता है पर िकसी तरह से वह खुद को रोके रखते हैं।


िदक्कत वहाँ से आई जहाँ पहले से ही हीनता के गतर् में िसर से पाँव तक धँसे चंद ू को अनेक तरीकों से बार बार यह एहसास कराया जाने लगा िक वे िकतने हीन हैं और इस काम में नाना, जो िक एक अथर् में उनके यहाँ रहने की वजह बने थे, से लेकर मािमयाँ, ममेरे भाई बहन, यहाँ तक िक गाँव के लोग भी जाने अनजाने भागीदार होते। यह काम कई तरीके से होता। मान लो परवल चंद ू को नहीं पसंद, तो मामी कहतीं कभी परवल खाया भी है। पराठे चंद ू को कभी नहीं अच्छे लगे तो इसको लेकर उन पर ताना कसा जाता िक बाजरे की सूखी रोटी तोड़ी है अब जबान को नरम चीजें कैसे पसंद आएं गी। 
 ऐसे ही चंद ू एक बार कपड़ा धुल रहे थे तो उनकी एक मौसी िजन्हें अपने संपन्न होने का बड़ा घमंड था, कह गईं िक चंद ू ये िरन साबुन है, यह कपड़े के एक ही तरफ लगाया जाता है, दोनों तरफ नहीं। इसके बाद एक गंदी नखरीली हँ सी का दृश्य है िजसे चंद ू कभी नहीं भूल पाएँ गे। हँ सने के बाद मौसी ने कहा िक तुम्हारे घर में साबुन आता भी है या कपड़े रेह से ही धुले जाते हैं। 
 मौसी के इस वाक्य के बाद चंद ू शमर् से काँपने लगे। उनके मन में आया िक कुछ ऐसा हो जाए िक वे वहीं का वहीं गायब हो जाएँ । चंद ू तो गायब नहीं हो पाए पर साबुन जरूर गायब होने लगे। चंद ू के गुस्से को एक िदशा िमल गई। नहाने का हो या कपड़े का, चंद ू साबुन उठाते और छत पर पहुँ च जाते। मामा के घर के पीछे एक गड़ही थी िजसमें आसपास के सभी घरों का गंदा पानी जमा होकर सड़ता रहता था। इस गड़ही के चारों तरफ घनी बँसवािरयाँ थीं, िजन पर जो िजसकी तरफ थीं उन लोगों ने कब्जा कर रखा था। इन बँसवािरयों से होकर कोई गड़ही की तरफ जाने का रुख भी नहीं करता था िलहाजा कुछ भी उठा कर फेंक देने के िलए ये जगह बेहद मुफीद थी। चंद ू दुमंिजली छत पर जाते और गड़ही की तरफ साबुन की िटिकया उछाल देते, जो गंदे बजबजाते पानी में एक आवाज भर पैदा करती। यह आवाज चंद ू को एक िहंसक खुशी से भर देती। जब घर में साबुन की गुम िटिकया ढू ढ़ं ी जा रही होती तो चंद ू भी अपने ममेरे भाइयों बहनों के साथ ढू ढ़ं रहे होते। उनका मन भीतर ही भीतर खुशी से खदबदाता रहता। हालांिक बाद के िदनों में उन पर शक भी िकया गया िक वह साबुन की िटिकया छु पा कर रखते जाते हैं और जब घर जाते हैं तो उठा ले जाते हैं पर सही बात कोई नहीं जान पाया। दरअसल चंद ू िवरोिधयों के बीच थे इसिलए वे धीरे धीरे घात लगा कर काम करना सीख गए थे। पता चला िक पंद्रह बीस िदन सब कुछ सामान्य है और कोई घटना नहीं घटी पर अगले हफ्ते चंद ू कई कारनामे एक साथ कर गुजरते। साबुन से शुरुआत हुई तो चंद ू खुलते ही चले गए। उन्हें एक रास्ता िमल गया था िजससे वे अपने भीतर की आग को बुझाते रहते। वह लगातार मौके का इं तजार करते। मन ही मन सािजशों के जाल बुनते और पता नहीं क्या क्या सोचते रहते। सोचते सोचते कभी उदास हो जाते तो कभी मुस्कुराते और इस क्रम में धीरे धीरे वे


इतने घुन्ने होते चले गए िक उनके चेहरे पर तो एक चुप्पी छाई होती और मन में खुिशयों के लड्डू फूट रहे होते या िफर इसका उल्टा वे उदासी के महासागर में गोते लगा रहे होते। 
 बाद के अनेक दृश्य हैं िजनमें चंद ू ममेरे भाई की िकताब के पन्ने फाड़ रहे हैं। चंद ू साइिकल पंक्चर कर रहे हैं। कोई िकताब छु पा कर टांड़ पर फेंक दे रहे हैं। छत पर से कोई कपड़ा िपछवाड़े िगरा दे रहे हैं, कुछ इस तरह िक कोई देखे तो यही समझे िक हवा से चला गया होगा। अपने इन कारनामों के िलए चंद ू हमेशा ऐसा कोई समय चुनते जब उनके ममेरे भाइयों में आपस में कोई झगड़ा िदखाई पड़ता। छोटे मामा का बड़ा लड़का बंटी चंद ू की नाक में दम िकए रहता पर वह नाना और मामा मामी को इतना प्यारा था िक हर संदेह से परे था। चंद ू अपने कारनामों की वजह से कभी नहीं िपटे बिल्क बंटी की झूठी िशकायतों की वजह से ज्यादा िपटे। िपटने के कई मौके ऐसे भी रहे जब उन्हें िकसी बात का प्रितकार करने की वजह से पीटा गया । 
 इस बंटी का िकसी से कोई झगड़ा होता तो यह चंद ू के िलए बदले का सबसे सुनहरा मौका होता। यह तरीका इतना प्रभावी रहा िक धीरे धीरे दूसरे मामा का पिरवार उसे संदेह की नजर से देखने ही लगा। इस बंटी का और क्या करें चंद?ू आलू की बुवाई हो रही है। नाना सब बच्चों को लेकर आलू की बुवाई करवा रहे हैं। चंद ू भी हैं। बंटी खेत से ढेले उठा उठा कर चंद ू को मार रहा है। जब भी ढेला लगता है चंद ू िखिसया कर रह जाते हैं। वह सीधा प्रितकार करना चाहते है पर बंटी नाना के आसपास ही चक्कर लगा रहा है। ऐसे ही एक तेज ढेला आकर चंद ू की कनपटी पर लगता है। चंद ू गुस्से से तनतना जाते हैं और इतने िदनों का अिजर् त अभ्यास िक बदला लेने के िलए सही मौके का इं तजार करें उनसे नहीं हो पाता। वह बदले में एक बड़ा सा ढेला उठाते हैं और पूरे दमखम से बंटी को दे मारते हैं। चंद ू का दुभार्ग्य िक वह ढेला बंटी को न लग कर नाना को जा लगता है। नाना चंद ू को खदेड़ लेते हैं। चंद ू पकड़े जाते हैं और उनकी उसी खेत में जी भर के कुटम्मस होती है। चंद ू के अगले कई िदन अब छु प छु प कर बीतेंगे। उनके छु पने की कई जगहें हैं। मामा के घर के आगे का िहस्सा पहले कच्चा था और पीछे का पक्का बना था। बाद में जब आगे वाला िहस्सा बना तो पीछे वाले िहस्से की छत नीची रह गई। अब मकान के नए िहस्से की छत पर से पुराने िहस्से की छत पर जाने के िलए एक सीढ़ी नीचे उतरती है। सीढ़ी के नीचे की जगह में कुछ फालतू सामान पड़े रहते हैं। चंद ू ने अपने िलए उन्हीं फालतू सामानों के बीच एक छोटी सी जगह खोज िनकाली है। िजसमें वह गाहे बगाहे जरूरत के वक्त जाकर बैठ जाते हैं। मकान के पुराने वाले िहस्से में छत पर दो कमरे हैं िजनमें से एक कमरे में दो पुरानी चारपाइयाँ पड़ी हुई हैं। इन चारपाइयों पर अब कोई नहीं लेटता। चारपाइयों पर फटे पुराने िबस्तर गंजे रहते हैं। कई बार चंद ू भी इन िबस्तरों का िहस्सा बन जाते हैं। एक बार जब उन्हें लाल हाँड़ा ने डंक मारा तो वह पूरे दो िदन उन्हीं िबस्तरों पर करवटें बदलते रहे। दूसरे िदन शाम को जब छोटे मामा को चंद ू की सुिध आई तो उन्होंने चंद ू को बुलाया और कुछ झाड़ फूँक का नाटक िकया। चंद ू का ददर् तब तक ऐसे ही काफी कम हो गया था सो उन्होंने मामा को खुश करने के िलए कह िदया िक उनका ददर् चला गया। इसके बाद चंद ू उठे और अपने मनपसंद काम में जुट गए।


मामा के घर के सामने एक िशव मंिदर है। मंिदर के पीछे काफी जगह खाली है। चंद ू ने यहाँ वहाँ से लाकर तमाम तरह के पौधे वहाँ लगा रखे हैं। गेंदा, गुड़हल, बेला, हरिसंगार, चांदनी, मुगर्केश, तरह तरह के फूल, वैसे ये सब अलग अलग मौसम के फूल हैं पर चंद ू अपनी स्मृितयों में जब भी इस फुलवाड़ी को देखेंगे तो उन्हें सारे ही फूल एक साथ िखले नजर आएं गे। 
 नानी चंद ू से खुश रहती हैं, इसिलए भी िक उन्हें पूजा के िलए तरह तरह के फूल िमल जाते हैं। चंद ू के पहले उन्हें िसफर् पीले कनेर के सहारे ही रहना पड़ता था। तो नानी चंद ू से खुश तो रहती हैं मगर... बस यही एक मगर लगा रहता है। नानी अकेली हैं जहाँ से चंद ू को थोड़ी ओट िमलती है पर ये ओट भी कई बार ओट में ही िमल पाती है। चंद ू का अपने ममेरे भाइयों बहनों से झगड़ा वगैरह होता है तो गलती चाहे िकसी की भी हो, नानी चंद ू को ही समझाती हैं। कई बार तो मीठे लहजे में डाँट भी देती हैं। चंद ू को ये डाँट तब और मीठी लगती है जब नानी उन्हें अपनी कोठरी में बुलाती हैं और कभी पेठा, कभी अनरसे की पूड़ी, कभी दलपट्टी तो कभी बेसन के लड्डू देती हैं।

चंद ू के ममेरे भाइयों के अलावा कुछ दूसरे भी स्थायी दुश्मन हैं। एक िचतकबरी गाय है िजसका नाम नाना ने गौरी रख छोड़ा है। गौरी पता नहीं क्यों चंद ू को पसंद नहीं करती। जब चरने जाती है तो चंद ू को इतना परेशान करती है िक चंद ू का दम िनकल जाता है जबिक मुन्ना उसे डाँट भी देता है तो वह गाय से भीगी िबल्ली बन जाती है। इसी गौरी को चंद ू डंडा िदखाता है तब भी उसके ऊपर कोई फकर् नहीं पड़ता। चंद ू गौरी के पीछे पीछे दौड़ता रहता है िफर भी कभी वह इस खेत में मुँह मार देती है तो कभी उस खेत में। एक बार वह ठकुराने के ददन िसंह के खेत में घुस गई िजनकी मामा के यहाँ से पुरानी दुश्मनी है। तो ददन िसंह ने चंद ू का कान जम कर उमेठा, बाहें मरोड़ी और पीठ पर मुक्का मारा। चंद ू अपमान और ददर् से रोते िबलिबलाते गौरी पर झपटे और गुस्से में गौरी की पीठ पर दनादन डंडे बरसा िदए। गौरी भागती रंभाती नाना के पास जा पहुँ ची। पीछे लुटे पीटे दौड़ते हाँफते चंद ू आए जहाँ पन्नालाल का बेंत उनका इं तजार कर रहा था। पन्नालाल का बेंत चंद ू का दूसरा स्थायी दुश्मन है। छोटे मामा के पास एक बेंत है िजसे वह महीने में एक बार तेल जरूर िपलाते हैं। इस बेंत को बातचीत में सब पन्नालाल का बेंत कहते हैं। पन्नालाल गाँव का ही गरीब आदमी था िजसको िकसी बात पर छोटे मामा ने इस बेंत से मारा था। इसके बाद पन्नालाल बहुत िदन िदनों तक चारपाई पर पड़ा रहा और ठीक होने के बाद कमाने के बहाने गाँव छोड़ कर कहीं चला गया। तब से बेंत का नाम पन्नालाल का बेंत पड़ गया। 
 इसके बाद से मामा का जब भी िकसी से झगड़ा होता है वह उसे पन्नालाल के बेंत का नाम लेकर धमकाते हैं और चंद ू के ममेरे भाई बहन उन्हें धमकाते हैं िक आने दो पापा को, पन्नालाल के बेंत से चमड़ी न कटवा दें तब कहना। चंद ू इस बेंत से बहुत डरते हैं।


चंद ू सलमान खान से भी बहुत डरते हैं। 
 मामा के यहाँ टी.वी. पर िफल्में वगैरह देखते देखते अचानक एक िदन चंद ू ने महसूस िकया िक उनके सीने में भी एक िदल है जो साथ में पढ़ने वाली एक लड़की के िलए धड़कता है। प्यार के जोश में चंद ू ने एक िदन लड़की को आई लव यू बोल िदया। लड़की कुछ नहीं बोली और चली गई। लड़की बड़ी मामी की सहेली की बेटी है और मुन्ना से उसका ठीकठाक संवाद है। दूसरे िदन ठीक उसी समय चंद ू ने उसे िफर से आई लव यू बोला तो लड़की ने चप्पल िदखाई और दूसरे िदन क्लासटीचर से तथा मामी से बताने की धमकी देकर चली गई। क्लास में तो चंद ू अफोडर् कर सकते थे पर मामी को बताया जाना, अपने िपछले अनुभवों के आधार पर उन्होंने तुरंत कुछ दृश्यों की कल्पना कर ली िक मामी उनसे सारी बातें खोद खोद कर पूछ रही हैं, मुन्ना छु प कर सारी बातें सुन रहा है। मामी सारी बातें मामा को बता रही हैं, मामा सारी बातें नाना को बता रहे हैं, नाना ने बापू को बुलाया है और चंद ू को बापू की मार के कई भयानक दृश्य आज भी याद हैं। चंद ू बापू की मार से बहुत डरते हैं। 
 तो यही सब सोच कर उन्होंने प्यार से तोबा कर ली पर इससे अच्छा तो वे इस खेल में शािमल ही रहते। दो िदन बाद ही मुन्ना उनसे मजे लेने लगा और उनकी आिशकी के िकस्से पूछने लगा। चार िदन बाद से ही चंद ू की भूतपूवर् संभािवत प्रेिमका के पास सलमान खान की िचिट्ठयाँ पहुँ चने लगीं। जािहर है िक चंद ू को इसके बारे में कुछ भी नहीं पता चला। तब भी नहीं जब एक िदन बड़े मामा ने पूछा िक चंद ू तुम्हें सलमान खान बहुत पसंद है क्या, तो चंद ू ने िमनिमनाती आवाज में कहा िक नहीं, मुझे सलमान खान िबल्कुल नहीं पसंद है। मुझे तो गोिवंदा पसंद है। मामा उस समय तो कुछ नहीं बोले पर मामा के पूछने का मतलब चंद ू को तीन िदन बाद रिववार के िदन समझ में आया जब मामी और लड़की की माँ के सामने उनकी बाकायदा पेशी हुई। चंद ू के सामने सलमान खान के खतों का पुिलंदा रख िदया गया और पहले से ही यह तय मानते हुए िक सलमान खान कोई और नहीं बिल्क चंद ू ही हैं, उन पर देर तक जोर डाला गया िक वे कुबूल कर लें िक वही सलमान खान यानी िक इन खतों के लेखक हैं। िफर उन्हें झाँसा िदया गया िक अगर वे अपनी गलती मान लें तो उन्हें कुछ नहीं कहा जाएगा और नाना या बापू से भी नहीं बताया जाएगा। चंद ू नहीं माने तो नहीं माने इसके बावजूद शक की सुई लंबे समय तक उन पर टंगी रही। बात आगे बढ़ती रही। नाना से बताया गया और बापू से बताने के िलए िवशेष व्यूह की रचना की गई। 
 हुआ यह िक िफल्मी गीतों की एक फटी पुरानी िकताब चंद ू को जाने कहाँ से िमल गई। िजस समय उन्हें वह िकताब िमली उस समय वह प्रेम में थे सो वह िकताब उन्हें अच्छी भी लगी। चंद ू ने लेई से िचपका कर िकताब की हालत सुधार ली और उस पर अपने िप्रय हीरो गोिवंदा की तस्वीर िचपका दी। चंद ू एक िदन इसी िकताब का पारायण करते हुए बैठे थे िक बड़ी मामी ने यह िकताब देख ली और यह कह कर चंद ू से माँग िलया िक वे भी पढ़ना चाहती हैं। चंद ू बेचारे भला क्या करते, उन्होंने िबना िकसी नानुकुर के वह िकताब मामी को दे दी। बाद में कई बार चंद ू का मन हुआ िक वह मामी से िकताब वापस माँग लें पर उनकी िहम्मत नहीं पड़ी। मामी ने िकताब


क्यों माँगी थी इसका खुलासा तब हुआ जब चंद ू के बापू आए। मामी ने चंद ू के बापू को िफल्मी गानों की वह िकताब िदखाई और बोली िक देिखये आप के चंद ू आजकल क्या क्या पढ़ रहे हैं। इसके बाद उन्होंने पूरा सलमान खान प्रसंग बापू को बता िदया। जािहर है िक मामी की इस कहानी में सलमान खान कोई और नहीं बिल्क चंद ू ही थे। 
 चंद ू की रीढ़ तक में कँपकँपी दौड़ गई। बापू के गुस्से से वह अच्छी तरह पिरिचत थे पर पता नहीं क्या सोच कर बापू ने समझदारी िदखाई और चंद ू पर एक ठं डी नजर भर डाल कर रह गए। बापू जब घर जाने लगे तो उन्होंने कहा िक चलो घर हो आओ। तुम्हारी अम्माँ ने बुलाया है, एक दो िदन में लौट आना। चंद ू बापू को ना नहीं बोल सके। वैसे जबसे वह यहाँ आए हैं अपना घर उन्हें पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा लगने लगा है पर इस समय चंद ू घर नहीं जाना चाहते क्योंिक बापू के इरादे उन्हें अच्छे नहीं लग रहे थे और बापू के भीतर से िपटाई के घने बादलों के उमड़ने घुमड़ने की आवाज आ रही थी। पर चंद ू को घर जाना पड़ा। मामा के घर से चंद ू का घर करीब बीस मील है। पूरे बीस मील चंद ू बापू की साइिकल के कैिरयर पर िसकुड़े से बैठे रहे। पूरे रास्ते बापू उनकी खबर लेते रहे। रही चंद ू की बात तो पहले तो उन्हें यही नहीं समझ में आया िक एक पुरानी िफल्मी गाने की िकताब पढ़ने या रखने में भला क्या िदक्कत थी पर चूंिक मामी से लकर बापू तक सभी ऐसी नािकस िकताब रखने के िखलाफ थे इसिलए चंद ू ने िमनिमनाते हुए अपना अपराध दूसरे पर धकेलने की कोिशश की और कहा िक ये िकताब उन्हें नवाब अली यानी चंद ू के स्कूल के संगीत टीचर ने दी थी और कहा था िक गाने याद कर लेना तो सुर लय ताल िसखा देंगे। बापू ने कहा िक वे नवाब अली को जानते हैं और िमलने पर उनसे इस बारे में पूछेंगे। 
 बापू थोड़ी देर चुप रहे, िफर पूछा िक ये सलमान खान का क्या िकस्सा है। चंद ू ने कहा िक वे सलमान खान नहीं हैं और उन्हें मुन्ना फँसा रहा है। यह कहते कहते चंद ू रोने लगे। ये उनका आिखरी अस्त्रा था या शायद डर का चरम। बापू चुप हो गए िफर पूरे रास्ते बापू कुछ नहीं बोले िफर भी चंद ू पूरे रास्ते सँसे रहे। कोई पूछे तो चंद ू यही बताएं गे िक यह सफर उनकी िजंदगी का एक मुिश्कल सफर रहा। बापू जब तक उनकी खबर लेते रहे और बाद में जब चुप भी हो गए तब भी पूरे रास्ते चंद ू को यही लगता रहा िक बापू अभी साइिकल रोकेंगे और सड़क पर ही उन्हें पीटना शुरू कर देंगे। पर चंद ू की िकस्मत अच्छी थी। बापू ने ऐसा कुछ भी नहीं िकया। िफर भी पूरे रास्ते िजस भयानक डर और आशंका में उनका समय गुजरा वह शायद िपटाई से भी बढ़ कर था। इससे अच्छा तो बापू ने उन्हें पीट ही िदया होता तो इस डर और आतंक से तो उन्हें मुिक्त िमल गई होती। 
 घर पहुँ च कर बापू ने पानी मंगाया, िपया और िफर चंद ू को अपने पास बुलाया। चंद ू को लगा िक अब बस कयामत आ ही गई। काँपते हुए चंद ू बापू के पास पहुँ चे। बापू बहुत देर तक चंद ू को देखते रहे। चंद ू की नजरें उठा कर बापू की तरफ देखने की िहम्मत तो नहीं हुई पर बापू की उस िनगाह में ऐसा कुछ जरूर था िजसे चंद ू पहचान नहीं पा रहे थे। बापू ने चंद ू से बैठने के िलए कहा तो चंद ू बैठ गए। आिखरकार बापू की चुप्पी टू टी,


उन्होंने चंद ू के िसर पर हाथ रखा और बोले अब तुम इतने बड़े हो गए हो िक घर की हालत देख सकते हो। वहाँ पढ़ने गए हो तो पढ़ने में मन लगाओ। इस तरह की चीजों में नाक क्यों कटा रहे हो। बापू िफर चुप हो गए, थोड़ी देर बाद बोले जाओ, सुबह तैयार हो जाना। कल मुझे कचहरी जाना है। मैं तुमको सोरांव में छोड़ दूँगा। वहाँ से तुम चले जाना। चंद ू को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। चंद ू को इस बात पर भी भरोसा नहीं हुआ िक बापू ने उन्हें िबना मारे छोड़ िदया। वे वैसे ही बुत बने पड़े रहे और जब उन्हें इस बात का एहसास हुआ तो खुशी के मारे वह वहीं खड़े खड़े भें भें करके रोने लगे। अब चौंकने की बारी बापू की थी। बापू ने चंद ू को चुप होने के िलए कहा और उठ कर खेत की तरफ चल िदए। 
 बापू गए तो अम्माँ पास में आ गईं। अम्माँ ने चंद ू से पूछा क्या हुआ क्यों रो रहे हो। चंद ू उसी तीव्रता से चुप हो गए पल भर पहले िजस तीव्रता से रो रहे थे। वे अम्माँ से कभी नहीं झूठ बोल पाये। उन्होंने सब कुछ अम्माँ को जैसे का तैसा बता िदया। अम्माँ सुनतीं रहीं। उनके चेहरे के भाव पल पल बदलते रहे। जब चंद ू सब कुछ कह चुके तो अम्माँ बोलीं, थोड़े िदनों की बात है बेटा, अपने पर काबू रखो। ये जो कुछ तुम कर रहे हो, इससे तुम्हें क्या िमल जाता है? मुन्ना की िकताब फाड़ने पर तुम्हें नई िकताब िमल जाती है क्या? िफर ये सब करने का क्या फायदा। उनकी िकस्मत उनके साथ हमारी िकस्मत हमारे साथ। िफर अम्माँ एक एक करके नानी, नाना, मामी, मामा, या और भी गाँव के तमाम लोगों के बारे में पूछती रहीं। चंद ू ने सबके बारे में बताया। अम्माँ ने सब कुछ सुना िफर बोली बेटा िकसी भी तरह िनबाह लो और ये बातें भूल कर भी अपनी दादी या बापू से मत कहना। मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ। 
 दूसरे िदन चंद ू िफर से मामा के यहाँ पहुँ च गए। इस बार चंद ू और चुप चुप रहने लगे। इस बार के बापू चंद ू की समझ में नहीं आए। इस बार की अम्माँ चंद ू की समझ में नहीं आयीं। वह लगातार बापू, अम्माँ और अपने घर के बारे में सोच रहे थे। आिखर में उन्होंने सोचा िक अगर उनके पास खूब पैसा हो जाए तो िस्थितयाँ एकदम बदल जाएँ गी। इसके बाद चंद ू ने इस बारे में िवस्तार से सोचा िक जब उनके पास पैसा हो जाएगा तो वे क्या क्या करेंगे। सबसे पहले उन्होंने सोचा िक वह मामा िक गाँव में ही एक पक्का घर बनवाएं गे जो मामा के घर से दुगुना ऊँचा होगा। िफर उन्होंने अपने गाँव के घर के बारे में सोचा। कपड़ों के बारे में सोचा, िकताबों के बारे में सोचा, िफल्मों के बारे में सोचा, अपना एक िसनेमाहॉल बनवाने के बारे में सोचा और आिखर में उन्होंने एक हीरोपुक खरीदने के बारे में सोचा। मुन्ना साइिकल से स्कूल जाता है तो वे हीरोपुक से जाएँ गे। 
 चंद ू अपने में मगन बैठे यही सब सोच रहे थे िक हीरोपुक में ब्रेक लग गया। नाना िचल्ला रहे थे िक इतनी देर हो गई और अभी तक गौरी की सानी पानी नहीं हुई। चंद ू बेमन से उठे , खाँची उठायी और भूसा िनकालने के िलए भुसौल की तरफ बढ़ गए। भूसा िनकालते हुए उनके सामने यह यक्षप्रश्न उपिस्थत हुआ िक सब कुछ तो ठीक है वे करेंगे पर इसके िलए पैसा कहाँ से आएगा। पैसा आने का एक रास्ता तो वही था िजसके िलए बापू ने रास्ते में


समझाया था पढ़ िलख कर कलेक्टर बनने' का। पर यह रास्ता बहुत लंबा था दूसरे इसमें हीरोपुक से स्कूल जाने की गुंजाइश नहीं बचती थी इसिलए सानी पानी करते हुए चंद ू ने पैसे कमाने के कुछ दूसरे तरीके खोजने शुरू िकए और तब उन्हें सोने के सुअर का ध्यान आया। 
 सोने के सुअर का िकस्सा चंद ू को पहले कभी नानी ने सुनाया था िक नहर के पार का टीला िजस पर तमाम तरह के पेड़ रहते हैं, वहीं पेड़ों के बीच में एक कुआँ है। कुएँ में कुएँ की दीवाल से िचपका हुआ एक पीपल का पेड़ है िजसकी जड़ें कुएँ की दीवाल फाड़ कर िमट्टी में तो समाई ही हैं, सीधे दीवाल में िचपकी हुई पानी के भीतर तक चली गई हैं। पानी में एक सुअर रहता है। सुअर सोने का है और सात कड़ाही सोने का मािलक है। जब सुअर चलता है तो उसके पीछे सोने की सात कड़ािहयाँ घूमती हुई चलती हैं। उस समय जमीन में कान लगाओ तो जमीन से घनन घनन की आवाज आती है। धरती धीरे धीरे काँपने लगती है। जब कभी ये सुअर धरती के ऊपर टहलने के िलए िनकलता है तो कुएँ की जगत फट जाती है और कुएँ से पानी बहने लगता है। पूरे टीले के चारों तरफ पानी भर जाता है। टीले के बगल में जो तालाब हैं वह कुएँ के पानी से ही बारहों महीने लबालब भरे रहते हैं। टहलने के बाद जब सुअर कुएँ में वापस लौटता है कुएँ की जगत िफर पहले जैसी हो जाती है। 
 तो नानी ने बताया िक सुअर कुएँ में रहता है। उसका सब कुछ सोने का है, सोने की पूँछ, सोने की थूथन, सोने के दांत, सोने के बाल। उसकी पूरी की पूरी देह सोने की है और जो उसे एक बार देख लेता है िफर वह कुछ और देखने के कािबल नहीं बचता। यही सोने का सुअर चंद ू के भीतर समा गया। पल पल बेचैन करने लगा। वह लगातार इसी सुअर के बारे में सोचते रहते। उन्होंने सुअर पर एक तुकबंदी भी रच डाली िजसे वह गाहे बगाहे गुनगुनाते रहते। सोने के सुअर के सोने के बाल हैं सोने के सुअर की सोने की खाल है सोने के सुअर के सोने के नाखून हैं सोने के सुअर में सोने का खून है। 
 ऐसे ही करते करते सुअर चंद ू के सपनों तक में घुस गया। कभी अपनी थूथन से चंद ू को चूमता, कभी पूँछ से हवा करता, कभी गुरार्ता तो कभी दूर से ही ललचाता और एक िदन उसने चंद ू को इस बात के िलए राजी कर िलया िक वह टीले पर सुअर से िमलने जाएँ गे। यह एक घनी अँधेरी रात थी िजसमें चंद ू ने सुअर से िमलने जाने की िहम्मत जुटायी। रात का पहला पहर बीत रहा था जब चंद ू अपने कमरे से िनकले। पहले बारजे पर आए िफर िखड़की के सहारे नीचे आ गए। अँधेरी रात सन सन कर रही है। कहीं कहीं कुत्ते भौंक रहे हैं। आसमान में तारे चमक रहे हैं पर उनकी चमक कुछ भी देखने के िलए


नाकाफी है। चंद ू रास्ता टटोलते हुए आगे बढ़ रहे हैं। उनके रोंगटे सन्न भाव से खड़े हैं और हल्की से हल्की आहट को भी उन तक पहुँ चाने के िलए तत्पर हैं। उनकी आँ खों की पुतिलयाँ लगातार नाच रही हैं। चंद ू ने अपना रास्ता इतना चुपचाप तय िकया िक एक कुत्ता तक नहीं भौंका। चंद ू नहर पर पहुँ चे तो नहर कलकल गलगल की आवाज करते हुए बह रही थी। नहर के पास ठं डी ठं डी हवा बह रही थी। चंद ू ने एक एक करके अपने सारे कपड़े उतारे और नहर िकनारे लगे एक पेड़ की डाल पर टाँग िदया। इसके बाद चंद ू नहर में उतर गए। नहर पार करने के बाद चंद ू ने बदन का पानी झटका और टीले की तरफ बढ़ गए। 
 टीला अपने ऊपर के जंगल सिहत जैसे कोई बूढ़ा शैतान लग रहा था। चंद ू को डर सा लगा, सीने में कुछ धक सा होकर रह गया। एक बार तो चंद ू ने सोचा िक वापस लौट जाएँ पर तभी उन्हें भूतों और चुड़ल ै ों से जुड़े बहुत सारे िकस्से याद आ गए िजनमें डर कर भागने वालों का भूत पीछा करते हैं और उन्हें पकड़ लेते हैं पर जो भूतों से नहीं डरता भूत खुद उससे डरते हैं और उसकी मनचाही मुराद पूरी करते हैं। सो चंद ू वापस नहीं पलटे और धीरे धीरे चलते हुए कुएँ के पास पहुँ च गए। यह एक िवशाल कुआँ था। चंद ू कुएँ की जगत पर पहुँ चे तो उन्हें आभास हुआ िक कुआँ काँप रहा है। कुएँ के कई खंभे िगर गए थे िजनकी जगह खाली हो गई थी। जो खंभे खड़े थे वे अपने अिनयिमत क्रम में और भी डरावने लग रहे थे। कुएँ की जगत पर उगा पीपल का पेड़ ऐसा लग रहा था जैसे कुएँ का ही एक खंभा जीिवत होकर बढ़ता चला गया हो। हवा के बहाव में पीपल के पत्ते चटचट की आवाज कर रहे थे। तभी ऊपर से चाँद िनकल आया जो एकदम कुएँ की सीध में था। चंद ू को ऐसा लगा जैसे आसमान से कोई उनकी मदद के िलए टाचर् िदखा रहा है। उत्तेिजत चंद ू ने पुकारा। सोने के सुअर कहाँ हो तुम? तुम जो इतनी धन दौलत लेकर घूमते हो वह तुम्हारे िकसी काम की भी है? सुनो क्या तुम मेरी बात सुन रहे हो? 
 चंद ू को लगा, जैसे कुएँ में कुछ चमका िफर तुरंत ही चमक गायब हो गई। चंद ू कुएँ में झाँकते हुए बोले, क्या तुम मुझसे आइस पाइस खेल रहे हो? सोने के सुअर िकस बात का घमंड है तुम्ह?ें क्या इसका िक तुम सोने के हो या इसका िक तुम्हारे पास सात कड़ाही सोना है? इस सोने का आिखर क्या करोगे तुम? आवाज दो या तुम बोल ही नहीं पाते हो? हाँ तुम तो सुअर हो और सुअर भला बोल कैसे सकता है? जवाब में नीचे से एक घनघनाती हुई गुरार्हट आई। गुरार्हट की आवाज चंद ू को सहलाती हुई लगी। उन्हें लगा िक सुअर उन्हें नीचे बुला रहा है। उन्हें लगा िक उनका सपना साकार होने में बस थोड़ी ही देर है। सुअर से वे कहेंगे िक सुअर अगर उन्हें एक कड़ाही सोना दे दे तो वे यहीं मामा के गाँव में जहाँ उन्होंने अपना घर बनवाने के िलए सोच रखा है वहीं घर के सामने सुअर का एक मंिदर बनवाएं गे और रोज सुबह शाम सुअर की पूजा िकया करेंगे।


यही सब सोचते सोचते चंद ू ने पीपल की जड़ को थाम िलया और नीचे उतरने लगे। नीचे से िफर घुरर् घुरर् की आवाज आई। चंद ू ने नीचे उतरते हुए सुअर को िफर से पुकारा और कहा िक वह चारों तरफ सुअर की मिहमा का प्रचार िकया करेंगे। इस तरह चारों तरफ सुअर की जय जयकार हो जाएगी। चंद ू नीचे उतरते हुए लगातार प्राथर्ना कर रहे थे िक सुअर सामने आओ। सुअर सामने आओ। नीचे से घुरर् घुरर् की आवाज िफर से आई। चंद ू भूल गए िक वे अँधेरी रात में एक भयानक कुएँ में पीपल की जड़ों से लटके हुए और भी गहरे अंधेरे में उतरते चले जा रहे हैं। चंद ू एक सम्मोहन में पहुँ च गए। एक जुनून था जो उन पर तारी हुआ जा रहा था। ऐसे ही चंद ू नीचे उतरते रहे। घुरर् घुरर् की आवाज आती रही। लगातार नीचे बुलाती हुई आवाज, चंद ू को ललचाती हुई आवाज। अचानक चंद ू को लगा िक जैसे जैसे वे नीचे उतरते जा रहे हैं वैसे वैसे पानी भी नीचे उतरता जा रहा है। चंद ू पल भर को जैसे जड़ हो गए िफर उन्हें वो सारे िकस्से याद आ गए िजनमें भगवान अपने भक्तों का इम्तहान लेते हैं। उन्हें लगा िक सुअर भी उनका इम्तहान ले रहा है। और आिखरकार उनके ऊपर खुश होकर उन्हें उनका मनचाहा वरदान देगा। तो चंद ू िफर से नीचे उतरने लगे पर अब तक चंद ू थक गए थे सो हाँफने लगे। एक साँप चंद ू के बदन पर सरसराता हुआ ऊपर की तरफ िनकल गया। चंद ू कुछ इस तरह िसहर गए िक पीपल की जड़ उनके हाथों से छू ट गई और वह कुएँ में जा िगरे और इसी के साथ कुएँ का सारा पानी पाताल में समा गया। अब कुएँ में िसफर् कीचड़ भरा हुआ था। नंगे चंद ू कीचड़ में कुछ इस तरह लथपथ हो गए िक वे भी कीचड़ का ही एक िहस्सा लगने लगे। 
 चंद ू ने कान लगाया िक शायद कहीं से घुरर् घुरर् की आवाज आए पर आवाज बंद हो चुकी थी। कुएँ में एक भयानक सन्नाटा फैला हुआ था। चंद ू ने चीखते हुए कई बार आवाज लगाई िक सुअर तुम कहाँ हो, सुअर कहाँ हो पर न कहीं कोई चमक उभरी न कहीं से गुरार्हट की आवाज आई। अब चंद ू को डर लगा और जोर की झरु झरु ी आई। चंद ू ने ऊपर की ओर देखा। आसमानी टाचर् गायब थी। कुएँ में भयानक अंधेरा था। चंद ू को कुछ भी नहीं िदखाई पड़ रहा था। उन्होंने कुएँ की दीवाल टटोली तो पीपल की जड़ उनके हाथ में आई। चंद ू पीपल की उसी जड़ के सहारे ऊपर चढ़ने लगे। ऊपर पहुँ चते पहुँ चते चंद ू िनढाल हो गए। उनके बदन में जरा सा भी दम बाकी नहीं बचा। उनका सपना पहले ही टू ट चुका था। ऊपर पहुँ च कर चंद ू पस्त होकर वहीं जगत पर लेट गए। पीपल जरा नीचे होकर उन पर हवा करने लगा। हवा से चंद ू जरा चैतन्य हुए तो उन्होंने पाया िक हजारों जोंकें उनके बदन से िचपकी हुई हैं। चंद ू ने जोर की झरु झरु ी ली और जल्दी जल्दी जोंकों को नोचने लगे। जोंकें िफसल िफसल जा रही थीं। चंद ू को जोर की उबकाई आई। चंद ू को जोर से डर लगा। पीपल के पत्ते अभी भी सटासट बज रहे थे। चंद ू को लगा जैसे पीपल के ऊपर कोई बैठा उनके ऊपर हँ स रहा है। पर चंद ू की उपर की ओर देखने की िहम्मत नहीं हुई। उन्हें कँपकँपी हुई। 
 अचानक चंद ू पूरा जोर लगा कर नहर की ओर भागे। टीले पर के पेड़ों ने एक नग्न आकृित जो कीचड़ में िसर से पाँव तक सनी हुई थी और िजस पर सैकड़ों जोंकें यहाँ वहाँ िचपकी हुई थीं को देखा होगा तो डर के मारे काँप


गए होंगे। चंद ू भागते हुए आए और नहर में कूद गए। चंद ू नहर के पानी में अपने बदन को मल मल कर नहाते रहे, जोंकें छु ड़ायीं और बाहर िनकल आए। अब नंगे चंद ू को ठं ड लगने लगी। चंद ू हाथों से बदन का पानी पोछते हुए उस पेड़ तक पहुँ चे जहाँ उन्होंने अपने कपड़े रख छोड़े थे। कपड़े गायब थे। आसमान अब भी वैसे ही तारों से भरा था। कभी नानी ने चंद ू को बताया था िक तारे इं द्र भगवान की आं खें हैं िजनसे वह पूरी दुिनया पर नजर रखते हैं। चंद ू ितक्त भाव से मुस्कुराये िक इं द्र भगवान के रहते हुए उनके कपड़े गायब हो गए। िचढ़ के मारे उन्होंने इं द्र भगवान को अपना सूसू िदखाया और दबे पाँव मामा के घर की तरफ चल िदए। 
 रात खत्म होने की तरफ बढ़ रही थी। पूरब की तरफ से आसमान में एक िसंदूरी आभा उतरने को थी। चंद ू पस्त कदमों से जरा भी आहट न करते हुए मामा के घर की तरफ लौट रहे थे। उनसे थोड़ी दूरी बनाये हुए एक कुत्ता चुपचाप उनके पीछे चला आ रहा था। घर पहुँ च कर चंद ू वैसे ही बदन की पूरी चुप्पी के साथ िखड़की पर चढ़े, वहाँ से बारजे पर चढ़े िफर अपने कमरे में पहुँ च गए जहाँ दूसरी चारपाई पर उनका ममेरा भाई मुन्ना सोया हुआ था। सुबह जब मुन्ना उठा तो उसने पाया िक चंद ू नींद में सुअर सुअर बड़बड़ा रहे थे। मुन्ना िशकायत करने के िलए भागा िक चंद ू उसे सुअर कह रहे हैं। नाना आए और उन्होंने पाया िक चंद ू बुखार से तप रहे हैं। नाना ने नानी को बुलाया। चंद ू के पास बैठ कर उनका माथा सहलाते हुए नानी ने सोचा िक चंद ू ने तेज बुखार के बीच शायद कोई डरावना सपना देखा होगा। अपनी ही सुनाई हुई सोने के सुअर और उसके पैरों से बंधी सात सोने की कड़ािहयों की बात नानी शायद भूल चुकी हों। अगले तीन िदनों तक चंद ू ऐसे ही बुखार में पड़े रहे और बीच बीच में सुअर सुअर बड़बड़ाते रहे। बच्चों को उनके आसपास फटकने की मनाही कर दी गई। बस नानी ही अकेली थीं जो पूरे समय उनके साथ बनी रहीं। बाकी लोग आते रहे और अपनी अपनी राय देते रहे। नाना ने चंद ू के बापू को खबर करवायी। चौथे िदन जब चंद ू के बापू वहाँ पहुँ चे थे उसी िदन सुबह चंद ू को होश आया था। होश में आते ही चंद ू ने नानी से कहा िक वे अपने गाँव जाएँ गे और अब वे यहाँ नहीं रहेंगे। नानी कुछ भी नहीं बोलीं। पल भर बाद चंद ू के चेहरे पर नानी का एक बूंद आँ सू िगरा। चंद ू ने आँ खें मूँद लीं। थोड़ी देर बाद चंद ू उठे और एक झोले में अपना सामान समेटने लगे। नानी पहले तो उन्हें देखती रहीं िफर उनकी मदद में जुट गईं। 
 दोपहर बाद जब चंद ू के बापू वहाँ पहुँ चे तो लगभग उसी समय चंद ू अपने घर पहुँ च चुके थे और यहाँ मामा के यहाँ सब चंद ू को ढूँ ढ़ रहे थे। नानी चुपचाप अपने कमरे में लेटी हुई थीं।


घर पर चंद ू ने अम्माँ को बताया िक वे हमेशा के िलए मामा का घर छोड़ आए हैं, तो अम्माँ भी कुछ नहीं बोलीं, बस बैठी चंद ू का माथा सहलाती रहीं। चंद ू ने पाया िक अम्माँ हूबहू नानी की तरह उनका माथा सहला रही हैं और इस बात पर अचरज से भर गए। ठीक इसी समय एक बूँद आँ सू अम्माँ की आँ ख से भी िगरा जो चंद ू का माथा सहला रहे अम्माँ के ही हाथों पर िगरा। आँ सू की इस एक बूँद के बारे में चंद ू क्या कभी जान पाएँ गे।


अनोखा िरश्ता बालकथा - उषा छाबड़ा

करण सड़क पर तेज़ी से भाग रहा था, पर उसे वह दूर तक कहीं िदखाई नहीं दे रहा था। गली के मोड़ तक पहुँ चते-पहुँ चते वह हाँफने लगा था। उसने मोड़ पर पहुँ चकर इधर-उधर िफर से देखा। नहीं, वह वहाँ नहीं था। अभी ग्यारह ही बजे थे, पर धूप काफ़ी थी। वह भारी मन से घर की ओर लौट चला। घर पहुँ चते ही वह अपने िपताजी को देखकर फफक कर रो पड़ा। उसके िपताजी को कुछ समझ नहीं आया। “करण बेटा, क्यों रो रहे हो, क्या हुआ?” संदीप ने पूछा। करण बोलने में भी असमथर् था। शब्द मानो गले से िनकलने का साहस ही नहीं कर पा रहे थे। संदीप के बार-बार पूछने पर करण ने रोते-रोते कहा, “िपताजी वह माले …!” “अरे माले! वह कहाँ है? उसे क्या हुआ?” संदीप ने करण को झकझोरते हुए पूछा। करण और ज़ोर से रोने लगा। संदीप ने घर से बाहर िनकलकर देखा। दूर माले का कहीं कोई नामोिनशान नहीं था। वे िफर दौड़कर करण के पास आए और बोले, “माले को क्या हुआ? कहाँ है वह?” “पापा, माले का गले का पट्टा मैंने खोला हुआ था तािक वह सड़क पर आराम से टहल सके। तभी दूसरी ओर से मोहल्ले के चार- पाँच कुत्ते आकर उस पर भौंकने लगे। मैंने सोचा माले को वापस ले चलू,ँ पर तब तक वे कुत्ते नजदीक आ चुके थे। माले तेज़ी से भागा। वे भी उसके पीछे -पीछे भागे। माले बहुत तेज़ दौड़ने लगा। चारों ओर से कुत्ते उसकी तरफ लपके। मैं माले को बचाने के िलए बहुत तेज़ दौड़ा लेिकन पापा पता नहीं वे इतनी रफ़्तार से भागे िक मैं समझ नहीं लगा पाया िक हुआ क्या! मैंने उसे बहुत ढूँ ढा पर वह मुझे कहीं नहीं िमला पापा। वे कुत्ते कहीं … ” बोलते बोलते करण ज़ोरों से रोने लगा।


“नहीं, नहीं! ऐसा नहीं हो सकता। चल तू मेरे साथ चल” संदीप ने कहा। वे दोनों माले को खोजते हुए िनकल पड़े। माले उनका छोटा सा दाशहंड नस्ल का कुत्ता था। िकतने वषोर्ं से उनके साथ रहता था। उसके साथ खेलतेखेलते ही तो करण बड़ा हुआ था। माले की सारी हरकतें याद करते हुए करण की आँ खों में आँ सू आए जा रहे थे और िपता के साथ वह सड़क पर दौड़ता जा रहा था। संदीप ने भी आस-पास लोगों को पूछा पर िकसी को उसके बारे में पता नहीं था। बहुत ढूँ ढने पर भी माले उन्हें कहीं नहीं िमला। दोनों िफर भारी मन से घर वापस आ गए। दोपहर हो चुकी थी।रोिहणी के घर वापस आने का समय हो चुका था। संदीप ने करण से कहा िक माँ को बताने की अभी आवश्यकता नहीं है, पहले उसे खाना खा लेने देना, िफर बताएँ गे। रोिहणी जब घर वािपस पहुँ ची, तो घर में अजीब सा सन्नाटा था। बाहर माले भी उससे नहीं िमला था, नहीं तो जब वह स्कूल से दोपहर को वािपस आती थी तो हर बार वह उसे पूँछ िहलाता हुआ खड़ा िमलता था और उसकी आँ खें हमेशा जैसे यही कह रही हों, माँ इतनी देर क्यों लगा दी! आज शायद कहीं अंदर घर में लेटा हुआ हो, यह सोचकर वह सोफ़े पर जाकर बैठ गयी। करण के चेहरे पर भी उदासी थी। पूछने पर करण ने कुछ नहीं बताया। खाने की मेज़ पर सब बैठ कर खाना खाने लगे। अभी अपने मुँह में कौर डाला ही था िक करण रोने लगा। रोिहणी की समझ में कुछ नहीं आया। उसने पूछा, “क्या बात है करण, तुम रो क्यों रहे हो?” करण के आँ सू तो जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। “क्या हुआ?” रोिहणी ने पूछा। रोिहणी की समझ में नहीं आया। उसने घबराकर संदीप की ओर देखा। उसकी आँ खों में भी आँ सू आ गए। रोिहणी परेशान हो गई। उसने पूछा, “बताओ न, क्या बात है?” करण ने माले वाली सारी बात बताई। रोिहणी के गले से अब रोटी का एक िनवाला भी नहीं उतर पाया। वह तुरंत इन दोनों के साथ सड़क पर िनकल गई। िफर सब से उसके बारे में पूछने लगी। रोिहणी तो जैसे पागल ही हो गई थी। करण अपनी माँ के मन की हालत समझ सकता था। माले अिधकतर घर में उन्हीं के साथ तो रहता था। उसने सड़क पर हर आने -जाने वाले से माले के बारे में पूछा। कहीं कोई जवाब नहीं िमला। रात हो आई थी। सभी थक गए थे। माले के िबना तो रोिहणी को उसका घर खाने को दौड़ रहा था। उसका माले! िकतना छोटा सा था जब वह उसके घर आया था। भूरे रंग का प्यारा सा माले। इं सान के पास तो कहने के िलए शब्द होते हैं और माले, उसकी आँ खें तो जैसे हर बात कह देती थीं! शब्दों को न कह पाने की कमी जैसे िक माले को कभी हुई ही नहीं! जब तक वह माले से खेल न लेती, वह उसको नहीं छोड़ता था। रात को माले रोिहणी के पलंग के पास सोता था। बार-बार रोिहणी के पुचकारने के बाद ही वह सोता था। सोने के पहले िकतनी बार रोिहणी के पैरों पर िलपटता था। जब तक रोिहणी उसकी गदर्न सहला नहीं लेती थी, वह सोता नहीं था। रोिहणी पल-पल माले के साथ िबताए वषोर्ं को याद कर रही थी और उसकी आँ खों से आँ सू झरे जा रहे थे। िबना सोए ही उसकी पहली रात बीत गई। जैसे ही करवट बदलती तो उसे माले का ही चेहरा िदखाई देता। कई बार हल्की सी झपकी भी लगी तो िफर तुरंत िहल कर बैठ जाती, उसकी उं गिलयाँ माले की गदर्न सहलाने अपने


आप चल पड़तीं। पर माले, वह तो वहाँ था ही नहीं। माले को िकतनी गमीर् लगती है, िबना दही के तो वह खाना भी नहीं खाता। ओह! उसने क्या खाया होगा? पता नहीं वह िकस हाल में होगा? िकसी अनहोनी की आशंका के डर से रोिहणी बार – बार काँप उठती थी। रोिहणी ने तो सारी रात करवटें बदलते- बदलते ही गुज़ार दी। रोिहणी और संदीप सुबह उठकर घर के पास बने पाकर् की ओर चल पड़े ,जहाँ वे प्रितिदन उसे सैर के िलए लेकर जाते थे। वहाँ भी सबको उसके बारे में पूछा। माले की फोटो िदखा कर कई लोगों से पूछताछ की, पर िफर भी कोई हल ना िनकला। िफर उसी मोहल्ले के कुत्ते के डॉक्टर के पास चले गए जहाँ वे कई बार माले को इं जेक्शन लगाने ले जाते थे। उन्हें भी उसके खोने की बात बताई। वे पास ही बसी झिु ग्गयों में भी गए िक कहीं शायद िकसी तो कुछ पता चले। उन्होंने उसे ढूँ ढ कर लाने वाले के िलए इनाम भी घोिषत कर िदया था, पर िफर भी माले का कुछ पता नहीं चला। पूरा पिरवार सुबह से रात तक इसी उधेड़बुन में रहा िक आिखर उसे ढूँ ढें तो कहाँ! तभी िकसी ने बताया िक उसने देखा था िक गली के कुछ कुत्ते एक छोटे से पालतू से िदखने वाले कुत्ते को उस मोहल्ले से बाहर खदेड़ रहे थे िकसी तरह यह रात बीती। रोिहणी तो यह सुनकर बेहोश- सी हो गई। माले तो कभी इस गेट से बाहर गया ही नहीं , वह बेचारा कहाँ भटक रहा होगा – सोचकर उसका तो िदल ही बैठा जा रहा था। आज माले के िबना दूसरा िदन था। वह उनके पिरवार के सदस्य के समान था। उसके िबना तो एक पल भी जीना जैसे दूभर हो रहा था। रात को जब उनके नौकर ने खाना बनाया, तो िकसी से खाया नहीं जा रहा था। सबसे पहले खाने का समय होने पर माले रसोई के बाहर आकर बैठ जाता था, उसे सबसे पहले िखलाया जाता था, तब सब खाते थे। आज तो उनका नौकर भी रोटी बनाने-बनाते रो रहा था! मुिश्कल से उसने चार रोिटयाँ बनाई ओर चुपचाप गुमसुम-सा बैठ गया। तीनों ने ठीक से भोजन भी नहीं िकया। करवटें बदलते, िबना सोए दूसरी रात भी बीत गई। अगले िदन सुबह कहीं से फोन आया िक पास के मोहल्ले में शायद िकसी जानकार ने उसे देखा था। बदहवास से वे दौड़ते-दौड़ते वहाँ गए, पर वहाँ कोई और ही कुत्ता था। वहाँ पहुँ चकर उन्हें बड़ी मायूसी हुई। वे घर की ओर लौटने लगे तो डाक्टर साहब का फोन आया िक उनके यहाँ कोई माले को लेकर आया है। उन तीनों की ख़ुशी का िठकाना न था। तीनों उस डॉक्टर के चेंबर में पहुँ चे। वहाँ एक मिहला बैठी थी। रोिहणी ने पहले उन्हें देखा और िफर पहचान िलया, अरे! ये तो िमसेस खुराना थीं। उनकी पुरानी पड़ोिसन जो उनके पहले वाले मकान के साथ वाले घर में रहती थीं क्या ये लाई हैं माले को! उनके साथ कोई िकशोरी भी थी, शायद उनकी बेटी थी। कहाँ है माले? वह ठीक तो है ना? खूब सारे सवाल रोिहणी को घेरे हुए थे। िमसेस खुराना ने बताया िक कल शाम जब उसकी िबिटया सैर करके वािपस आ रही थी तो उसने माले को देखा। वह ज़ख्मी हालत में था और दुबक कर सड़क के िकनारे धीरे-धीरे चल रहा था। क्योंिक उनके पास भी


इसी नस्ल का कुत्ता था तो उनकी िबिटया ने उसके माले को उसी तरह पुचकारा। माले उसके पास डरते -डरते आया। उसने उसे उठाया और घर ले आई। माले को जंगली कुत्तों ने काफी गहरे जख्म िदए थे और सड़क का इधर-उधर का खाना खाकर उसका पेट भी खराब हो गया था। इसिलए वे उसे डॉक्टर को िदखाने लाए थे। संयोगवश यह वही डॉक्टर थे िजनके पास वे भी अपने कुत्ते का इलाज कराने आते थे। डॉक्टर साहब को िमसेस खुराना ने सारी घटना बताई तो डॉक्टर साहब सब कुछ समझ गए। उन्होंने इसिलए रोिहणी को फोन कर िदया था। रोिहणी तो सारी घटना सुनकर फफक कर रो पड़ी। बेचारा माले! िकतना कष्ट सहा था उसने! रोिहणी तो माले को देखने के िलए बेताब हो रही थी। उसने पूछा, “कहाँ है माले?” उन्होंने अपनी गाड़ी की ओर इशारा िकया। माले गाड़ी में था और वह िखड़की से बाहर देख रहा था। रोिहणी को देखते ही माले जोर से भौंकने लगा। िकतना बदला हुआ सा लग रहा था माले! इतना ज़ख्मी! उसकी ऐसी अवस्था देख कर तो रोिहणी बस टू ट सी गई। रोिहणी ने दरवाज़ा खोला और माले उससे िलपट गया। सबकी आँ खों से तो आँ सू जैसे रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। माले था िक बस बेतहाशा रोिहणी को चाटे जा रहा था। िमसेज़ खुराना, उनकी बेटी भी रोिहणी के कंधे को सहला रहे थे। संदीप और करण की आँ खों में ख़ुशी के आँ सू थे। रोिहणी तो बस मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देते नहीं थक रही थी। पीछे खड़े डॉक्टर साहब इस अनोखे और प्यारे िरश्ते को समझ कर मुस्कुरा रहे थे।


अशोक भािटया की लघुकथाऐं

युग मागर् मौसम करवटें बदल रहा था। इन िदनों ठं डक पर तिपश ने दिबश दे रखी थी |हवा थी,पर चल नहीं रही थी |वृक्षों के पत्ते िववश होकर हलचल बंद कर चुके थे| यह सुबह का समय था| िकरयाने की इस दूकान पर इस समय बड़ी चहल-पहल रहती है| ठीक इसी समय एक साधारण-सा आदमी दूकान पर आया और अपने थैले में दूध के दो पैकेट डालकर िखसकने लगा | दूकानदार ने आवाज़ लगाई - हाँ भाई पैसे ? - अभी िदए तो हैं | -नहीं िदए | पता चला िक वह िपछले दो िदन से पैसे िदए िबना इसी तरह दूध ले जा रहा है| एक ग्राहक के पूछने पर िक िकतने पैसे िदए, उसने दूध का दाम गलत बताया| तभी उसका कालर पकड़ िलया गया| कुछ ग्राहक िटप्पिणयां छोड़ने लगे, िजनका सार था िक ‘ये लोग ऐसे ही होते हैं |’ हवा में तिपश बढ़ चली थी| एक ग्राहक, जो ध्यान से सब देख रहा था, उस आदमी के पास आया | उसका कालर छु ड़वाकर एक तरफ ले गया| उस आदमी ने कुछ राहत महसूस की | - बच्चों के िलए ले जा रहे थे दूध?


यह सवाल पूछने पर उस आदमी का सर झक ु गया| अब वहां चेहरे के नाम पर िसफर् उसकी भद्दी मूंछों की एक पंिक्त दीख रही थी, िजस पर नाक मानो पेपरवेट की तरह रखी लगती थी| उस मिरयल सूखे आदमी ने अपना झक ु ा सर बहुत छोटी सी ‘हाँ’ में िहलाया और एक बहुत बड़ा िन:श्वास छोड़ा| िन:श्वास के साथ उसके भीतर से िनकली पीड़ा की तिपश को उस ग्राहक ने भी महसूस िकया| उसने उस आदमी के कंधे पर हल्का-सा हाथ रखकर कहा - ठीक है,आप जाओ | िफर वह भरे मन से दुकानदार की तरफ लौटा| अभी भी वह आदमी दुिवधा में वहीं खड़ा था| िप्रय पाठक ! कहानी अभी अधूरी है| उस ग्राहक ने दुकानदार से कहा - उसके दूध के पैसे? और पसर् से रूपये िनकालने लगा| इस सारे घटनाक्रम से ग्राहकों के सब िक्रयाकलाप ठहर गए थे| वह ग्राहक दूध के रूपए िनकाले, उससे पहले दुकानदार ने उसके पसर् पर हाथ रख िदया, िफर उसकी तरफ नमीर् से देखकर मुस्कराने लगा| वहां खड़े ग्राहक कुछ अच्छा, कुछ अजीब महसूस करने लगे थे | रुकी हुई हवा अब चल िनकली थी | सामने वृक्ष पर पत्ते झूमने लगे थे | ठं डक अब तिपश को दिबश देने लगी थी।

पापा जब बच्चे थे कुछ िदन पहले ही बेटी ने कॉलेज में प्रवेश िलया था |माता-िपता ने उसे बड़े चाव से मोबाइल फोन ले िदया था | मोबाइल के अपने फ़ायदे हैं |देर-सबेर हो जाए या कोई दुःख-तकलीफ या कोई उं च-नीच हो जाए तो फ़ौरन घर बता सकते हैं | बारह सौ का मोबाइल था, माँ-बाप की हैिसयत से बढ़कर | बेटी के आत्मिवश्वास को चार चाँद लग गए | ‘थैंक यू पापा |’ बेटी खुश थी | लेिकन आज कॉलेज से उसका फोन आया | बड़ी परेशान लग रही थी | ‘पापा,मैं दूसरे नंबर से फोन कर रही हूँ |आप मुझे डान्टोगे तो नहीं ?...’ उसके िपता एकबारगी घबरा गए | िकसी अनहोनी के िलए तैयार होने लगे ...कल्पना के घोड़े चारों तरफ बदहवास-से भाग पड़े...मोबाइल खो गया होगा...िकसी ने छीन िलया होगा...पर यह दूसरा नंबर..बड़े डर और परेशानी वाली आवाज़ थी..कहीं कुछ और ... इतने में बेटी बोली-पापा मेरा मोबाइल खो गया है |सब जगह ढू ढं ा,कहीं नहीं िमला |पापा,आप मुझे डान्टोगे तो नहीं | सॉरी पापा..|’ कहकर बेटी चुप हो गई | दोनों तरफ चुप्पी पसर गयी थी | बेटी की आवाज़ में डर इस कदर समाया था िक उसके िपता भी िसहर गए -उसकी बेटी इतना डरती है उससे ! इस सन्नाटे में िपता के ख्यालों में अपने बचपन की दो घटनाएँ कौंध गयीं | तब वे नवीं-दसवीं के छात्र थे |िपता के पास समय कम होता था | एक बार उसके बूट खरीदे जाने थे | िपता ने उसे खुद ही खरीद लाने को कह िदया था | वे बड़ी उमंग से बूट ले आए


थे | रात को िपता ने बूट देखकर कहा था-क्या कुत्ते के मुंह जैसे उठा लाया है | फ़दौड़ हैं |’िपता की बात सुन उनका सारा उत्साह ठं डा पड़ गया था |उन्हें भी वे बूट िबलकुल बेकार लगने लगे थे | तब बूटों की पॉिलश का काम भी माँ ही िकया करती थी | हफ्ते में एक बार ही पॉिलश होती थी |तब हफ्ते बाद उन्हें बूट पोिलश करने का भी अवसर िमल गया था |आती तो थी नहीं,न ही माँ को पॉिलश करते देखा था |बस,खूब सारी पॉिलश की परत िचपका दी | तभी बड़े भाई ने देख िलया |गुस्से में बूट उठा िलए-इसे िपताजी को िदखाऊंगा | आ लेने दे रात को |’ भाई ने बूट िछपा िदए थे | तब से लेकर रात िपताजी के आने तक के वक्त में उन्होंने महसूस िकया िक डर क्या होता है..शेर के मुंह जैसा भयानक.... वे वतर्मान में आये—वही डर आज बेटी के मन में गरज रहा है |’वे फ़ौरन बोले-‘कोई बात नहीं खो गया तो |चीज़ें खो जाया करती हैं | और ले लेंगे,परेशान न हो ,घर आ जा |’ िपता के मन से बचपन का वह बोझ भी उतर गया |बेटी के मन से भी डर की भारी परत छं ट गयी | ‘थैंक यू पापा’ उसने उमंग से कहा | उस िदन से बाप-बेटी आपस में दोस्त बन गए हैं |

लोक और तंत्र सोया हुआ तंत्र जाग उठा। लोक के पास आकर पूछा – क्या चािहए ?” लोक बोला – रोज़गार। नौकरी। दरअसल गांवों में चुनाव थे। तंत्र गाँव-गाँव गया। इस गाँव भी आया। गिणत का मन्त्र लगाया। गाँव में दिलत ज्यादा थे। तंत्र मुस्कराया। गाँव के मुिखया को जीत का मन्त्र बताया। िपछड़े वगर् के मुिखया ने यंत्र की तरह घोषणा की। दिलत बारूराम की बीवी को स्कूल में लगायेंगे। मुिखया की सरपंची पक्की। घोषणा से उस गाँव का लोक जागा। सरपंची का एक और उम्मीदवार उठ भागा। साथ में अगड़े जागे। पाठक जागे। झा जागे। ठाकुर जागे। दबे-दबे सवाल जागे। दिलत औरत को नौकरी क्यों ? उसका बनाया िमड-डे मील बच्चे छु एं गे भी नहीं। प्रचार हुआ। बात का संचार हुआ। दिलत की बीवी को स्कूल में नहीं लगने देंगे।िफर होना क्या था। गाँव में खाड़ा हो गया। अखाड़ा बन गया। बहसें हुईं। खींचतान हुई। झगड़े हुए। खून खौले। प्रशासन िहला। अमला आया। पुिलस आई। बयान हुए। बैठकें हुईं। अगड़ों की। िपछड़ों की। दिलतों की। बवाल हुआ। गाँव में जीना मुहाल हुआ। जेबें गमर् हुईं। पुिलस कुछ नमर् हुई।बारूराम की बीवी ने नौकरी करने से मना कर िदया। तंत्र फौरन हरकत में आया – ऐसे कैसे! मामला देखो। प्रशासन जागा। मुिखया जागा – मसला हम िनपटायेंगे।रामप्रसाद जागा – मुिखया की नहीं चलने देंगे। मामला हम देखेंगे। पुिलस आई – हम तो देखते ही रहेंगे। तंत्र हंस रहा है। लोक रो रहा है। बदस्तूर।


अचर्ना ितवारी की लघुकथाऐं

बौरा‍ बौरा, हां इसी नाम से तो पुकारते थे सब उसे वह एक कंधे पर पुरानी शाल डाले और दूसरे कंधे पर झोला लटकाए ऑटो स्टैंड के िकनारे बने चबूतरे पर हमेशा बैठा िदखता था। वहां बैठे-बैठे वह हर आने-जाने वाले का मुस्कुराकर अंग्रेजी में अिभवादन करता। वह कौन है ? क्या करता है ? कहां रहता है ? इससे िकसी को कोई सरोकार नहीं था। न ही कोई जानता था। लेिकन जब वह नहीं िदखता तो लोगों की नजरें उसे खोजती थीं। दोपहर में जब सवािरयों का आना-जाना कम हो जाता तो बौरा, ऑटो वालों और आसपास की गुमटी वालों के मनोरंजन और समय िबताने का साधन बन जाता। मौसम चाहे जो भी हो, लेिकन उसके कंधे से शाल कभी नहीं हटती थी। अक्सर दोपहर में जब वह बैठे-बैठे ऊंघने लगता तो कोई ऑटो वाला धीरे से आकर उसकी शाल खींचकर भाग जाता और बौरा उसको लेने के िलए बदहवास, परेशान सा उसके पीछे -पीछे भागने लगता। उस शाल को वापस पाने के िलए वह उन सबकी हर ऊल-जलूल फरमाइश पूरी करता। वे उससे जैसा करने को कहते वह वैसा ही करता। उसकी यह िस्थित देख लोग तािलयां पीट, हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाते। अंत में शाल पा लेने पर वह िफर से उसी चबूतरे पर िवराजमान हो ऐसे मुस्कराने लगता जैसे कुछ हुआ ही न हो। आज सुबह से बौरा पता नहीं कहां चला गया था। दोपहर भी बीतने लगी थी, लेिकन आज लोगों की नज़रें उसको नहीं खोज रहीं थीं। आज उस चबूतरे पर कहीं से एक औरत आकर लेट गई थी। उसके तन पर िलपटे मैले कपड़े में कपड़ा कम छोटे-बड़े झरोखे ज्यादा िदखाई दे रहे थे। ये झरोखे आज सड़क पर हर आने-जाने वालों के आकषर्ण का केंद्र बने हुए थे। वहां से गुजरते लोगों की नजरें उन झरोखों में अटक-अटक जा रही थीं। कुछ नजरें ऐसी भी थीं जो चुपके से उधर जातीं और िफर अनदेखा कर ऐसे आगे बढ़ जातीं जैसे िक कुछ देखा ही न हो। कुछ िहकारत भरीं कोसतीं, बड़बड़ातीं हुई आगे बढ़ जातीं। लेिकन कई नजरें तो चबूतरे के चारों ओर पिरक्रमा


लगाती हुईं उसे हर कोण से देख लेने के भरसक प्रयास में लगी थीं। जैसे दुिनया का आठवां अजूबा यहीं अवतिरत हो गया हो। तभी अचानक न जाने कहां से बौरा प्रकट हुआ। जब वह चबूतरे की ओर बढ़ने लगा तो पीछे से सीटी बजने और तािलयां पीटकर हंसने की आवाजें आने लगीं। लेिकन वह चबूतरे के पास दो पल के िलए िठठका और िफर आगे बढ़ गया। उस औरत के तन पर िलपटे कपड़ेनुमा झरोंखों को बौरा ने अपनी शाल के पट से बंद कर िदया था। आज पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कुराहट के बजाय गंभीरता िदख रही थी और आसपास के तमाम हंसने वाले चेहरे जैसे खुद पर शिमर् न्दा थे।

भूख का ईमान िचलिचलाती धूप। पारा सैंतािलस पार कर चुका था। लगभग नौ-दस साल का एक लड़का थमोर्कोल के बक्से में पानी की थैिलयाँ रखकर बेच रहा था। जब भी कोई ऑटो या बस बाईपास पर रूकती तो वह हाथों में थैिलयाँ िलए ‘पानी ! पानी !’ की आवाज़ लगाता हुआ उनकी ओर दौड़ पड़ता। लोग पानी की थैिलयों के बदले उसकी हथेली पर िसक्का रख देते। वह चहकता हुआ उन िसक्कों को एक िडब्बे में डाल देता। उस समय उसके चेहरे पर अपार संतोष िदखाई देता। पास में एक छोटा सा मिन्दर था। जहाँ िभखािरयों और साधुओं का मजमा लगा था। कुछ लोग उन्हें भोजन के पैकेट बाँट रहे थे। कुछ ऑटोवाले, िरक्शेवाले भी उन पैकेटों को लेने के िलए खड़े थे। एक िरक्शेवाला लड़के के पास बैठकर पैकेट से पूिरयाँ िनकाल कर खा रहा था। वातावरण में ताज़ी पूिरयों की सुगंध फैल गई थी। लड़का िरक्शेवाले को एक टक देखे जा रहा था। “जा के तुमहू लय लेव पािकट !” िरक्शेवाले ने उसे घुड़का। “नाह ! अम्मा घरे से रोटी लय के आवत होइहै।” लड़के ने इन्कार करते हुए बताया। “ढेर सेखी न बघार, अबिहये चुक जाई त मुँह तिकहौ !” िरक्शेवाले ने चेताया। लड़का उसको अनसुना कर सड़क से नीचे जाती पगडण्डी की ओर उचक-उचक कर देखने लगा। शायद माँ की राह देख रहा था। लेिकन ऐसा लग रहा था िक उससे अब भूख बदार्श्त नहीं हो रही है। वह रह-रह कर सूखे होठों पर अपनी ज़ुबान फेर लेता था। तभी एक व्यिक्त पैकेट बाँटते-बाँटते उस लड़के के पास आ गया। उसने लड़के की ओर पैकेट बढ़ाते हुए कहा, “लो बेटा !” बच्चे ने एक क्षण उस पैकेट को देखा। िफर धीरे से इन्कार में िसर िहला िदया। “ले लो बच्चे, सबने िलया, तुम भी ले लो !” उस व्यिक्त ने प्यार से कहा। पैकेट से आती खाने की सुगंध और भूख से कुलबुलाती आँ तों के आगे लड़के ने आिखरकार हार मान ली। लड़के ने िहचकते हुए पैकेट थाम िलया। वह व्यिक्त लड़के को पैकेट थमा कर धीरे-धीरे अपनी कार की ओर वापस लौट रहा था। लड़के की िनगाह उसके पीछे ही लगी थी। अचानक उसने पीछे से पुकारा, “बाउजी !” और िबजली की गित से नीचे झक ु ा। व्यिक्त ने देखा थमोर्कोल के बक्से से पानी की दो थैिलयाँ िनकाल कर लड़का उसकी ओर दौड़ा आ रहा है।


चंद्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाऐं

उम्मीद भीषण गमीर् के कारण कुछ िदन पहले ही सूखे कुँए के आसपास बहुत भीड़ जमा थी, गाँव के िनवासी अपनेअपने घरों से पानी भरने के पात्र, बाल्टी और रिस्सयाँ लेकर आये हुए थे और आशा भरी िनगाहों से कुँए के अंदर देख रहे थे|
 गाँव के मुख्य मंिदर का पुजारी भी वहीँ था, कुँए में तीन-चार आदमी खुदाई कर कुँए को गहरा कर रहे थे और पुजारी मुंह में सुपारी चूसते हुए, चंदन का ितलक लगे अपने उन्नत भाल पर हाथ रखे बहुत ध्यान से कुँए में झाँक रहा था, साथ में कुछ मन्त्र भी बुदबुदा रहा था| 
 जैसी अपेक्षा थी, खोदते-खोदते एकदम पानी का फव्वारा छू टा और खोदने वालों में से एक आदमी गीला भी हो गया|
 यह देखते ही पुजारी िचल्लाया, "तुरंत बाहर आओ, एक क्षण की भी देरी मत करो!"
 वो सभी व्यिक्त तेज़ी से ऊपर चढ़े और कुँए से बाहर आ गए, िजस स्थान से वो बाहर िनकले, वहाँ खड़े लोगों ने अपने-अपने पात्र उठा कर, उनके िलए रास्ता खाली कर िदया|
 अब पुजारी कुँए के मुहाने पर खड़ा होकर पिवत्र-जल, फूल और अन्य सामग्री कुँए में फैंकते हुए मन्त्र पढने लगा|
 और लगभग पांच िमनट के बाद पुजारी ने कहा, "अब पानी भर सकते हैं|" 
 तब तक थोड़ा पानी भी कुँए में भर चुका था, सभी ने खुश होकर पानी भरना प्रारंभ िकया|
 और जो आदमी कुँए के अंदर गीला हुआ था, वह वहीँ एक पेड़ के पीछे खड़ा अपनी कमीज़ को आिखरी बार िनचोड़ कर पानी को अपने चुल्लू में भर अपनी बेटी को िपलाते हुए कह रहा था, "पी ले, सवणोर्ं के कुँए का मीठा पानी है, पता नहीं िफर कब नसीब हो?"

भूख


"उफ़.." रोटी के थाली में िगरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी| रोज़ तो िदन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेिकन आज उसके मािलक नया मकान बनने की ख़ुशी में िभखािरयों को भोजन करवा रहे थे, इसिलए अपनी अन्य सािथयों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था|
 
 थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मािलक आगे बढ़ा, तो देखा िक िभखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और िभखारी रोटी का एक टु कड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ बढ़ा रहा है, मकान-मािलक ने लात मारकर कुत्ते को भगा िदया|
 
 और पता नहीं क्यों िभखारी भी िवचिलत होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया|
 
 यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँ सते हुए कहा, "कुत्ता इं सानों की पंिक्त में और इं सान कुत्ते के पीछे !"
 
 रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर िदया, "जब पेट खाली होता है तो इं सान और जानवर एक समान होता है| भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है|"
 
 सुनते ही थाली को वहीँ खड़े मकान-मािलक के चेहरे का प्रितिबम्ब अपने बाहरी िकनारों में िदखाई देने लगा|

अपिवत्र कमर् पौ फटने में एक घंटा बचा हुआ था| उसने फांसी के तख्ते पर खड़े अंग्रेजों के मुजिरम के मुंह को काले कनटोप से ढक िदया, और कहा, "मुझे माफ कर िदया जाए| िहंदू भाईयों को राम-राम, मुसलमान भाईयों को सलाम, हम क्या कर सकते है हम तो हुकुम के गुलाम हैं|"
 कनटोप के अंदर से लगभग चीखती सी आवाज़ आई, "हुकुम के गुलाम, मैं न तो िहन्दू हूँ न मुसलमान! देश की िमट्टी का एक भक्त अपनी माँ के िलये जान दे रहा है, उसे 'भारत माता की जय' बोल कर िवदा कर..."
 उसने जेल अधीक्षक की तरफ देखा, अधीक्षक ने ना की मुद्रा में गदर्न िहला दी | वह चुपचाप अपने स्थान पर गया और अधीक्षक की तरफ देखने लगा, अधीक्षक ने एक हाथ में बंधी घड़ी देखते हुए दूसरे हाथ से रुमाल िहला इशारा िकया, तुरंत ही उसने लीवर खींच िलया| अंग्रेजों के मुजिरम के पैरों के नीचे से तख्ता हट गया, कुछ िमनट शरीर तड़पा और िफर शांत पड़ गया| वह देखता रहा, िचिकत्सक द्वारा मृत शरीर की जाँच की गयी और िफर सब कक्ष से बाहर िनकलने लगे| 
 वो भी थके क़दमों से नीचे उतरा, लेिकन अिधक चल नहीं पाया| तख्ते के सामने रखी कुसीर् और मेज का सहारा लेकर खड़ा हो गया| 
 कुछ क्षणों बाद उसने आँ खें घुमा कर कमरे के चारों तरफ देखना शुरू िकया, कमरा भी फांसी के फंदे की तरह खाली हो चुका था| उसने फंदे की तरफ देखा और फफकते हुए अपने पेट पर हाथ मारकर िचल्लाया,


"भारत माता की जय... माता की जय... मर जा तू जल्लाद!"
 लेिकन उस की आवाज़ फंदे तक पहुँ च कर दम तोड़ रही थी|

भय "कल आपका बेटा परीक्षा में नकल करते हुए पकड़ा गया है, यह आिखरी चेतावनी है, अब भी नहीं सुधरा तो स्कूल से िनकाल देंगे|" सवेरे-सवेरे िवद्यालय में बुलाकर प्राचायर् द्वारा कहे गए शब्द उसके मिस्तष्क में हथौड़े की तरह बज रहे थे| वो क्रोध से लाल हो रहा था, और उसके हाथ स्वतः ही मोटरसाइिकल की गित बढा रहे थे| 
 "मेरी मेहनत का यह िसला िदया उसने, िकतना कहता हूँ िक पढ़ ले, लेिकन वो है िक.... आज तो पराकाष्ठा हो गयी है, रोज़ तो उसे केवल थप्पड़ ही पड़ते हैं, लेिकन आज जूते ही....|" यही सोचते हुए वो घर पहुँ च गया| तीव्र गित से चलती मोटरसाइिकल ब्रेक लगते ही िगरते-िगरते बची, िजसने उसका क्रोध और बढ़ा िदया|
 दरवाज़े के बाहर समाचार-पत्र रखा हुआ था, उसे उठा कर वो बुदबुदाया, "िकसी को इसकी भी परवाह नहीं है..."
 अंदर जाते ही वो अख़बार को सोफे पर पटक कर िचल्लाया, "अपने प्यारे बेटे को अभी बुलाओ...."
 उसकी पत्नी और बेटा लगभग दौड़ कर अंदर के कमरे से आये, तब तक उसने जूता अपने हाथ में उठा िलया था| 
 "इधर आओ..!" उसने बेटे को बुलाया|
 बेटा घबरा गया, उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया और कांपते हुए सोफे के पीछे की तरफ चला गया| 
 वो गुस्से में िचल्लाया, "क्या बातें सीख कर आया है? एक तो पढता नहीं है और उस पर नकल...." वो बेटे पर लपका, बेटे ने सोफे पर रखे समाचारपत्र से अपना मुंह ढक िलया|
 अचानक क्रोध में तमतमाता चेहरा फक पड़ गया, आँ खें फ़ैल से गयीं और उसके हाथ से जूता िफसल गया|
 अख़बार में एक समाचार था - 'फेल होने पर भय से एक छात्र द्वारा आत्महत्या'
 उसने एक झटके से अख़बार अपने बेटे के चेहरे से हटा कर उसके चेहरे को अपने हाथों में िलया|


मधुदीप की लघुकथाऐं

उजबक की कदमताल समय के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता । हाँ, बनवारीलाल आज पूरी िशद्दत के साथ यही महसूस कर रहा था । समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है । उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दाियत्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर िदया तो वह बेबस होकर रह गया । जब सब-कु छ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते ? तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुिवधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं । उनके बच्चे अब सरकारी नौकिरयों में अिधकारी हैं, कुछ तो िवदेश तक पहुँ च गए हैं मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए । िपता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के िसर से उठ गया तो वह उन तीनों के िलए िपता बन गया । जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कमर्ठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी िक वह सभी छोटों को िहल्ले से लगा सका । चार बेटों की कमर् ठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गई थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के काँधों पर सवार होकर अपनी अिन्तम यात्रा पर जा चुकी थी । उतरती रात के पहले प्रहर में चारों भाइयों का भरापूरा पिरवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था । “बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाये तो अच्छा है ।” छोटे ने कहा तो बनवारीलाल उजबक की तरह उसकी तरफ देखने लगा । “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा ! माँ थी तो...” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गदर्न उधर घूम गई ।


सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है । बनवारीलाल को लग रहा है िक समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है । मगर यह क्या ! उसके पाँवों के तले जमीन तो है ही नहीं।

टीस

पूवर् िदशा में धीरे-धीरे िदन उग रहा था । अलसाई-सी सुबह पाकर् की ओर जा रही थी । दीनदयाल नंगे पाँव घास पर टहल रहे थे । जयप्रकाश प्राणायाम के बाद सूयर्-नमस्कार कर रहे थे । कुछ लोग असली-नकली ठहाके लगा रहे थे । थोड़ी देर में दीनदयाल और जयप्रकाश दोनों बेंच पर आ बैठे । दोनों खामोश थे । “लोग इतना हँ स कैसे लेते हैं जयप्रकाश भाई ?” दीनदयाल ने कहा तो जयप्रकाश उनकी उदासी को पढ़ने की कोिशश करने लगे । तभी एक गेंद उनके पाँवों के पास आकर ठहर गई । दो सुन्दर फूल उनके पास आकर िठठक गए थे । “मुझे अपने साथ िखलाओगे ?” दीनदयाल गेंद को उठाकर एक हाथ से दूसरे हाथ में उछालने लगे तो दोनों फूल एक-दूसरे की ओर देखकर िखल उठे । “यस अंकल !” दीनदयाल ने गेंद उछाली और फूलों के साथ उछलने-दौड़ने लगे । जयप्रकाश वहीं बेंच पर बैठे मुस्कराते रहे । कुछ देर में ही हाँफते हुए वे िफर बेंच पर जयप्रकाश के पास आ बैठे । “असली िजन्दगी तो इन बच्चों के साथ ही है भाई !” दीनदयाल के गहरे िन:श्वास ने जयप्रकाश को चौंका िदया । “अवनीश आज िवदेश जा रहा है ना !” एक की दृिष्ट दूसरे के चेहरे पर िटक गई । “हाँ भाई ! अवनीश और बहू के साथ िपंकू भी चला जायेगा ।” इस बार गेंद उछलकर िवपरीत िदशा में गई थी और अब दो फूल उसी िदशा में जा रहे थे । पाकर् के सामने की ऊँची िबिल्डं ग उदास हो गई थी । निमता

िसंह

हँ सता हुआ नूरानी चेहरा, काली जुल्फें रंग सुनहरा...जी हाँ, आप निमता िसंह के बारे में बेशक यह जुमला उछाल सकते हैं मगर उसके व्यिक्तत्व को िकसी भी सीमा में बाँधने से पहले उसके जीवन में एक ही िदन में घटी इन तीन घटनाओं पर अवश्य ही गौर कर लें । यह िपछले सप्ताह की बात है । निमता िसंह कायार्लय जाने के िलए िरक्शे में बैठकर मैट्रो की तरफ जा रही थी । सरे-राह एक मनचले ने अपनी बाइक िरक्शे के आगे अड़ा दी । “िरक्शे को छोड़कर मेरी बाइक पर आ जाओ, फुरर्-से दफ्तर पहुँ चा दूँगा ।”


उम्मीद के िवपरीत वह कूदकर िरक्शा से उतरी और बाइक के आगे जा खड़ी हुई । “पेट्रोल है बाइक में...?” सुनकर युवक हक्का-बक्का रह गया और इसके बाद जो झन्नाटेदार झापड़ उसके गाल पर पड़ा िक िदन में ही उसकी आँ खों के सामने तारे नाच उठे । कायार्लय में पहुँ चकर निमता िसंह ने अपना कम्प्यूटर ऑन िकया तो कुछ मैसेज उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे । उसने इधर-उधर देखा, पूरा कायार्लय व्यस्त था । हाँ, िमस्टर चक्रधर की िनगाहें उसकी मेज की तरफ उठी हुई थीं । “हैलो िमस्टर चक्रधर ! कैसे हैं आप !” उसकी सीट पर पहुँ चकर निमता िसंह ने कहा तो चक्रधर की मुस्कान चौड़ी हो गई । “तो आप मुझे ‘प्रपोज’ करना चाहते हैं ?” उसने अपनी आँ खें उसकी आँ खों में डाल दीं । “आप इजाजत दें तो !” चक्रधर ने कहा तो अवश्य लेिकन वह उसकी आँ खों की चुभन अपनी आँ खों में महसूस कर रहा था । “भाभीजी को तलाक दोगे या िफर धमर्-पिरवतर्न का इरादा रखते हो ?” “क्या...!” बस एक शब्द । “िमस्टर चक्रधर ! यह कायार्लय है, होश में रहा करो । आपके सारे मैसेज मेरे कम्प्यूटर में सुरिक्षत हैं ।” इससे पहले िक दूसरी मेजों की िनगाहें उस तरफ उठें , वह अपनी सीट पर जा चुकी थी । शाम को घर के ड्राइं गरूम में गहमागहमी थी । चन्द्रशेखर अपने माता-िपता के साथ निमता िसंह को देखने आया हुआ था । चाय पी जा चुकी थी । हाँ, हूँ ...सब-कुछ लगभग तय हो चुका था । शगुन लेने-देने की तैयारी चल रही थी िक तभी निमता िसंह की आवाज पर सब-कुछ ठहर गया । “चन्द्रशेखरजी, मैं नहीं जानती िक मेरे माता-िपता और आपके माता-िपता के मध्य क्या बात हुई है मगर इस िववाह के िलए मेरी एक शत्तर् है ।” निमता िसंह ने कहा तो सभी की िनगाहों में एक प्रश्न आ गया । “हमारा िववाह आयर् समाज मिन्दर में होगा और िबना िकसी दान-दहेज़ के होगा । हाँ, एक बात और...” सभी िनगाहें उत्सुकता में उठी रहीं । “आप और मैं दोनों ही अपने माता-िपता की इकलौती सन्तान हैं । स्वभािवक है, आप अपने माता-िपता का पूरा दाियत्व वहन करेंगे । मुझे इसमें कोई आपित्त नहीं है । हाँ, मैं इतना अवश्य चाहूँ गी िक आप मुझे भी मेरे माता-िपता का दाियत्व वहन करने की स्वीकृित देंगे ।” निमता िसंह के कहने के साथ ही अब वे िनगाहें बाहर जाने के दरवाजे पर अटक गई थीं । अब आप चाहें तो निमता िसंह पर यह जुमला बेशक उछाल सकते हैं --- हँ सता हुआ नूरानी चेहरा, काली जुल्फें रंग सुनहरा...।


शोभा रस्तोगी की लघुकथा

रंग छोटी टोकिरयों में मस्ता रहे थे गुलाब, मज़ार के बाहर, हरी पित्तयों के साथ। एक बड़ी डिलया और पॉलीथीन से भी झांक रहे थे। एक छोटी डिलया के िलए मैंने बीस रूपए का नोट आगे कर िदया और एक बेहद कच्ची कोमल कलाई ने डिलया थमा दी। जो उठी मेरी नज़र तो उठी रह गई। सरकारी स्कूल की पोशाक में, हरे रंग का कपड़ा सर पे ढाँप,े नादां उम्र की समझदार बच्ची बितयाती आँ खें िलए कुछ िसक्के लौटा रही थी मुझे। उसके िनदोर्ष चेहरे पर संझा-बाती उग आई थी । ओह! ये तो मासूम सपनों का क़त्ल है!-- स्वयं से बुदबुदाते हुए उससे पूछ बैठी; 'क्या नाम है तुम्हारा ?' 'िफरदौस।' 'रोज बैठती हो यहाँ ?' 'नईं आं टी, िसफर् वीरवार को ।' 'बाक़ी िदन ?' 'सोम, मंगल िसबजी, हलमान जी, और सुक्कर लछ्मी जी के मंदर के बाहर...' उसकी बात पूरी भी न हो पाई थी की मेरा प्रश्न कूद पड़ा, 'मुसलमान होकर मंिदर के बाहर ?' सांप्रदाियक दंगे याद आने लगे मुझे। 'लाल चुन्नी ओढ़ लेती ऊं न ।' वह मुस्कुराकर बोली। 'और नाम ?' 'पूजा।' उसने सहज भाव से कहा। िकसी सवाल का जवाब देते हुए उसके चेहरे पर संशय, परेशानी, डर की कोई लपट-अपट नहीं थी । सपाट, स्पष्ट, िनद्वर्न्द । मुझे यूँ ही खड़ा देख बोली, 'जेई कमाई से हमार घर चले है आं टी। नाम का का है । बस िदखना चिहए । सो मज़ार पे हरा, मंिदर पे लाल।' उसका जवाब याद करके मैं आज भी उन तमाम िहन्दू-मुिस्लम की सोच पर हैरान रह जाती हूँ जो लाल-हरे के फेर में िकतना ही लाल रंग बहा देते हैं।


संध्या ितवारी की लघुकथाऐं

बाबू रेल की पटरी पर भीड इकट्ठी हो गयी थी। पन्द्रह सोलह साल की िकशोरी दो िहस्सों में कटी पड़ी थी। भीड़ में पीर से सने तरह तरह के स्वर उभर रहे थे। मम्मी की अंगुली थामे पाँचेक साल की िपंकी भी पटरी िकनारे बने अपने घर की िखड़की से ही यह नजारा देख सुन रही थी। उसने सुना िक मम्मी मुँह िबचकाते हुए पड़ोसवाली आं टी से कह रही थीं - प्यार मोहब्बत का चक्कर लगता है शायद इसीिलये वह ट्रेन के नीचे कट मरी। 
 अचानक िपंकी को जाने क्या हुआ उसने मम्मी की मुट्ठी से अपनी अंगुली छु ड़ाई और घर से बाहर की तरफ चल दी। - कहाँ जा रही हो िपंकी? इधर आओ। मम्मी ने पीछे से पुकारा। - कटने..... िपंकी ने संिक्षप्त उत्तर िदया। पहले तो मम्मी और पड़ोसन आं टी इसे मजाक समझकर िखलिखला दीं, लेिकन जब िपंकी सच में बाहर की ओर चल दी तो भाग कर उसे पकड़ा, बाहों में भर िलया - क्या हुआ बोलो, िकस बात पर कटने जा रही थी? मम्मी ने उसे हँ सते और बहलाते हुए पूछा। 
 - आप सब भइया को प्यार करते हैं, सेरेलक दूध शहद सब भइया को िखलाते हैं। गोदी भी सब उसे ही लेते है,


और तो और मेरा बाबू नाम भी भइया को दे िदया। पहले जब यह नही था तब सब हमें ही बाबू कहते थे प्यार भी करते थे अब कोई मुझे प्यार नही करता न आप न पापा न ताऊ और ना दादी। जहाँ प्यार मोहब्बत का चक्कर होता है वहाँ ट्रेन से कट जाना चािहये, अभी यह बात आप आं टी को बता रहीं थी, मैने खुद सुना। कहते कहते िपंकी का चेहरा लाल हो गया था और आँ खों के आँ सू गाल पर ठहर गए। उसके छोटे मुँह से ऐसी बातें सुनकर मम्मी की आँ खें फटी रह गईं। 'उफ्फ इतना ददर् है इस नन्हे से मन में।' - अले मेला बाबू! कहकर मम्मी ने उसे अपने आिलंगन में ऐसे समेट िलया जैसे िचिड़या ने अपना अंडा अपने डैनो में समेट िलया हो।

किठना - अरे वाह! िकतना िवहंगम दृश्य है! चारों ओर घना जंगल, जंगल के बीच अपने तेज़ बहाव से संगीत रचती नदी। जी करता है, यहीं बस जाऊँ। उस कंक्रीट के जंगल में ऐसा नजारा कहाँ! खुशी और मायूसी के िमिश्रत मनोभावो से िघरी चांदनी बस की िखड़की से बाहर झांक रही थी। बस धीरे धीरे किठना नदी पर बना लकड़ी का जजर्र पुल पार कर रही थी। उसने साथ बैठी अपनी मामी से पूछा - यह कौन सी नदी है? - किठना मामी ने सिन्क्षप्त सा उत्तर िदया - क्या हुआ मामी आप अचानक बीतराग हो गईं? चुहुल करती हुयी चांदनी ने उनसे कहा, मगर उत्तर की जगह सन्नाटा था । चांदनी ने शायद उत्तर की अपेक्षा भी नहीं की थी , इसिलये वह बाहर के दृश्य में उलझ गयी और मामी अन्दर के। उसके भी चारो तरफ जंगल था िबयाबान जंगल। िसयार, गीदड़, लकड़बग्घे, लोमड़ी सब वचर्स्व की लड़ाई में िभतरघात करने का कोई मौका चूकना नहीं चाहते थे। कब िकसका दांव लगे िक वह दूसरे को ऐसी चोट दे िक अगला कह भी न सके और सह भी न सके। दांव लगा था चिचया ससुर के बेटे का, दांव पर लगी थी उसकी पन्द्रह वषीर्य बेटी खानदानी भाई का बीज पेट में िलये घूम रही थी नादान। पूरा पिरवार सकते में था। बेटी भी जा रही और इज्जत भी। 'जे जांघ खोले तो लाज वो जांघ खोले तो लाज।' क्या िदन थे? समझ नही आ रहा क्या िकया जाय ,इस मुसीबत से छु टकारा पाने को। बड़ा किठन फैसला िलया था उसके ससुर ने, बच्ची को जंगल िदखाने का, किठना नदी की सैर कराने का।


किठना की सैर करके सब लौट आये बस बच्ची नही आई। तब से वह अपने भीतर उफनती किठना पर िरश्ते-नातों का जजर्र पुल बाँधे किठनाई से आवागमन करती है।

क्षेपक राित्रभोज के िलये खाने की मेज पर बैठे बैंक मैनेजर िमस्टर एस लाल पचास साल पीछे की सीिढ़याँ उतर गए, जब वह सुिखया हुआ करते था। बस जब गाँव की पाठशाला में हािजरी होती थी तब सुखलाल नाम सुनाई पड़ता था। नही तो ऐ सुख्खी! ऐ सुिखया!! जैसे सम्बोधन ही उसे िमलते। उसके गाँव का नाम तो सौंिखया था लेिकन गाँव में जाित के आधार पर टोले बँटे हुए थे जैसे बामनटोला, लोधीटोला, पिसयाटोला, कुम्हारनटोला और उसका बाला था चमारनटोला। उफ्फ !! झरु झरु ी आ गई एस लाल को। पूरी खाल में चमरौधे की सड़ांध िभंद गई। - खाना लगा िदया है। पत्नी मायावती की आवाज से वह वतर्मान में लौटे - कुसुम कहाँ है? खाना नहीं खायेगी क्या? एस लाल ने पूछा। - अपने कमरे में है आती होगी। आज ऑिफस से देर से आयी थी। कह रही थी िक ऑिडट है, थोड़ा काम करना है। - हूंऽऽऊं। अरे वाह ! आज तो पनीर और खीर दोनो मेरी मनपसन्द चीजें बनाई हैं क्या बात है, कुछ कहना है क्या? - जी। मायावती कुछ सकुचाते हुये बोली - कुसुम के साथ एक लड़का काम करता है.. अच्छी पोस्ट पर है... और दोनों एक दूसरे को पसन्द भी करते है, आप कहें तो........?" - ठीक हैऽ ,ठीक हैऽ ,भाई। हमें क्या आपित्त हो सकती है। खीर गटकते हुये उन्होने पत्नी को प्यार से देखा । - लेिकन वह............. पत्नी हकलायी - लेिकन क्या? एस लाल िवराम िचह्न से प्रश्नवाचक बन गये थे। - जी वह..... मु......स......ह....र अचानक खीर के बतर्न में सुअरों को अपनी थूथन घुसाते देख सुिखया से एस लाल बने सुखलाल अिगया बेताल बन गये।


रथवान - पं. नरेन्द्र शमार्

हम रथवान, ब्याहली रथ में, रोको मत पथ में, हमें तुम, रोको मत पथ में। माना, हम साथी जीवन के, पर तुम तन के हो, हम मन के। हिर समरथ में नहीं, तुम्हारी गित हैं मन्मथ में। हमें तुम, रोको मत पथ में। हम हिर के धन के रथ-वाहक, तुम तस्कर, पर-धन के वाहक हम हैं, परमारथ-पथ-गामी, तुम रत स्वारथ में। हमें तुम, रोको मत पथ में।

दूर िपया, अित आतुर दुलहन, हमसे मत उलझो तुम इस क्षण। अरथ न कुछ भी हाथ लगेगा, ऐसे अनरथ में। हमें तुम, रोको मत पथ में।


अनिधकार कर जतन थके तुम, छाया भी पर छू न सके तुम! सदा-स्वरूपा एक सदृश वह पथ के इित-अथ में! हमें तुम, रोको मत पथ में। शिशमुख पर घूँघट पट झीना िचतवन िदव्य-स्वप्न-लवलीना, दरस-आस में िबंधा हुआ मन-मोती है नथ में। हमें तुम, रोको मत पथ में। हम रथवान ब्याहली रथ में, हमें तुम, रोको मत पथ में।


अपूवर् शुक्ल की किवताऐं

१- पुराने जूतों को पता है नये जूते शोरूम की चमचमाती िवंडो मे बेचैन उचकते हैं उछलते हैं आतुर देख लेने को शीशे के पार की फ़ंतासी सी दुिनया। नये जूते दौड़ना चाहते हैं धड़-पड़ सूँघना चाहते हैं सड़क के काले कोलतार की महक वे नाप लेना चाहते हैं दुिनया छोड़ देना चाहते हैं अपनी छाप जमीं के हर अछू ते कोने पर । बगावती हैं नये जूते काट खाते हैं पैरों को भी अगर पसंद ना आये तो वे राजगद्दी पे सोना चाहते हैं वो राजा के चेहरे को चखना चाहते हैं । नये जूतों को नही पसंद भाषण, उबाऊ बहसें, बदसूरती, उम्र की थकान


वे िहकारत से देखते हैं कोने मे पड़े उधड़े, बदरंग पुराने जूतों को पुराने जूते उधड़े, बदरंग पड़े हुए कोने मे पिरत्यक्त िकसी जोगी सरीखे िघसे तलों, फटे चमड़े की बीच देखते हैं नये जूतों की बेचैनी, िहकारत मुँह घुमा लेते हैं पुराने जूतों को मालूम है शीशे के पार की दुिनया की फ़ंतासी की हकीकत पुराने जूतों ने कदम-दर-कदम नापी है पूरी दुिनया उन्हे मालूम है समंदर की लहरों का खारापन वो रेिगस्तान की तपती रेत संग झल ु से हैं पहाड़ के उद्दंड पत्थरों से रगड़े हैं कंधे भीगे हैं बािरश के मूसलाधार जंगल मे िकतनी रात तमाम रास्तों-दरोर्ं का भूगोल नक्श है जूतों के िजस्म की झिु रर् यों मे। पुराने जूतों ने चखा है पैरों का नमकीन स्वाद सफर का तमाम पसीना अभी भी उधड़े अस्तरों मे दफ़्न है पुराने जूते हर मौसम मे पैरों के बदन पर िलबास बन कर रहे हैं । पुराने जूतों ने लांघा है सारा िहमालय अंटािटर् का की बफ़र् के सीने को चूमा है। पुराने जूतों ने लड़ी हैं तमाम जंगें अफ़गािनस्तान, िफ़िलस्तीन, श्रीलंका, सूडान अपने िलये नहीं


(दो बािलश्त जमीं काफ़ी थी उनके िलये) पर उनका नाम िकसी िकताब मे नही िलखा गया उन जूतों ने जीती हैं अनिगनत दौड़ें िजनका िखताब पैरों के सर पे गया है मंिदरों से बाहर ही रह गये हैं पुराने जूते हर बार। वो जूते खड़े रहे हैं िसयाचीन की हड्डी-गलाऊ सदीर् मे मुस्तैद तािक बरकरार रहे मुल्क के पाँवों की गमीर् पुराने जूतों ने बनाये हैं राजमागर्, अट्टािलकाएँ , मेट्रो-पथ बसाये हैं शहर उगायी हैं फ़सलें पुराने जूतों ने पाँवों का पेट भरा है। उन जूतों ने लाइब्रेरी की खुशबूदार रंगीन िकताबों से ज्यादा देखी है दुिनया पुराने जूते खुद इितहास हैं बावजूद इसके कभी नही रखा जायेगा उनको इितहास की बुक-शेल्फ़ मे। पुराने जूतों के िलये आदमी एक जोड़ी पैर था िजसके रास्ते की हर ठोकर को उन्होने अपने सर िलया है पुराने जूते भी नये थे कभी बगावती मगर अधीनता स्वीकार की पैरों की भागते रहे ताउम्र पैरों को सर पर उठाये। पुराने जूते देखते हैं नये जूतों की अधीरता, जुनून मुस्कराते हैं हो जाते हैं उदास पता है उनको


िक नये जूते भी िबठा लेंगे पैरों से तालमेल तुड़ा कर दाँत सीख लेंगे पैरों के िलये जीना िफर एक िदन फेंक िदये जायेंगे बदल देंगे पैर उन्हे और नये जूतों के साथ।

२- समय की अदालत में क्षमा कर देना हमको ओ समय ! हमारी कायरता, िववशता, िनलर्ज्जता के िलये हमारे अपराध के िलये िक बस जी लेना चाहते थे हम अपने िहस्से की गलीज िजंदगी अपने िहस्से की चंद जहरीली साँसें भर लेना चाहते थे अपने फेफड़ों मे कुछ पलों के िलये ही सही िक हमने मुिक्त की कामना नही की बचना चाहा हमेशा न्याय, नीित, धमर् की पिरभाषाओं से भागना चाहा नग्न सत्य से. िक हम अपने बूढे अतीत को िवस्मृित के अंधे कुँए मे धकेल आये थे अपने नवजात भिवष्य को िगरवी रख िदया था वतर्मान के चंद पलों की कच्ची शराब पी लेने के िलये, बॉटम्स अप ! िक हम बस जी लेना चाहते थे अपने िहस्से की हवा अपने िहस्से की जमीन अपने िहस्से की खुशी


नहीं बाँटना चाहते थे अपने बच्चों से भी िक हम बड़े िनरंकुश युग मे पैदा हुए थे ओ समय उस मेरुहीन युग में जहाँ हमें आँ खें दी गयी थीं झक ु ाये रखने के िलये इश्तहारों पर िचपकाये जाने के िलये हमें जुबान दी गयी थी सत्ता के जूते चमकाने के िलये िवजेता के यशोगान गाने के िलये और दी गयी थी एक पूँछ िहलाने के िलये टांगों के बीच दबाये रखने के िलये िक िजंदगी की िनलर्ज्ज हवस मे हमने चार पैरों पर जीना सीख िलया था सीख िलया था जमीन पर रेंगना िबना मेरु-रज्जु के सलाखों के बीच रहना, िक हमें अंधेरों मे जीना भाता था क्योंिक सीख िलया था हमने िनरथर्क स्वप्न देख्नना जो िसफ़र् बंद आँ खों से देखे जा सकते थे हमें रोशनी से डर लगने लगा था ओ समय ! जब हमारी असहाय खुिशयाँ पैरों मे पत्थर बाँध कर खामोशी की झील मे डु बोयी जाती थीं, तब हम उसमे


अपने कागजी ख्वाबों की नावें तैरा रहे होते थे ओ समय ऐसा नही था िक हमें ददर् नही होता था िक दुःख नही था हमें बस हमने उन दुःखों मे जीने का ढंग सीख िलया था िक हम रच लेते थे अपने चारो ओर सतरंगे स्वप्नो का मायाजाल और कला कह देते थे उसे िक हम िवधवाओं के सामूिहक रुदन मे बीथोवन की नाइन्थ िसम्फनी ढूँ ढ लेते थे अंगिछन्न शरीरों के दृश्यों मे ढूँ ढ लेते थे िपकासो की गुएिनर् क आटर् दुःख की िनष्ठुर िवडम्बनाओं मे चालीर् चैिप्लन की कॉिमक टाइिमंग और यातना के चरम क्षणों मे ध्यान की समयशून्य तुरीयावस्था, जैसे श्वान ढूँ ढ़ लेते हैं कूड़े के ढेर मे रोटी के टु कड़े; िक अपनी आत्मा को, लोरी की थपिकयाँ दे कर सुला िदया था हमने हमारे आत्मािभमान ने खुद अपना गला घोंट कर आत्महत्या कर ली थी हम भयभीत लोग थे ओ समय ! इसिलये नही िक हमें यातना का भय था, हम डरते थे अपनी नींद टू टने से


अपने स्वप्नभंग होने से हम डरते थे अपनी कल्पनाओं का हवामहल ध्वस्त होने से हम डरते थे, उस िनदर्यी युग मे जब िक छू रे की धार पर परखी जाती थी प्रितरोध की जुबान हमें क्रांित से डर लगता था क्योंिक, ओ समय हमें िजंदगी से प्यार हो गया था और आज जब उसकी छाया भी नही है हमारे पास हमें अब भी िजंदगी से उतना ही प्यार है हाँ हमे अब भी उस बेवफ़ा से उतना ही प्यार है।

३- कैलेण्डर बदलने से पहले आज, वक्त के इस व्यस्ततम जंक्शन पर जबिक सबसे सदर् हो चले हैं गुजरते कैलेंडर के आिखरी बचे िडब्बे जहाँ पर सबसे तंग हो गयी हैं धुंध भरे िदनों की गिलयाँ सबसे भारी हो चला है हमारी थकी पीठों पर अंधेरी रातों का बोझ और इन रातों के दामन मे िवयोग श्रंगार के सपनों का मीठा सावन नही है इन जागती रातों की आँ खों मे हमारी नाकामयाबी की दास्तानों का बेतहाशा नमक घुला है इन रातों के बदन पर दजर् हैं इस साल के जख्म वो साल जो हमारे सीनों पर से िकसी शताब्दी एक्सप्रेस सा


धड़धड़ाता गुजर गया है और इससे पहले िक यह साल आिखरी बूंदे िनचोड़ िलये जाने के बाद सस्ती शराब की खाली बोतल सा फेंक िदया जाय कहीं लाइब्रेरी के उजाड़ िपछवाड़े मे, हम शुिक्रया करते हैं इस साल का िक िजसने हमें और ज्यादा बेशमर्, जुबांदराज और खुदगजर् बना िदया और िफर भी हमें िजंदगी का वफ़ादार बनाये रखा इस साल हम शुक्रगुजार हैं उन प्रेिमकाओं के िजन्होने िकसी मुफ़िलस की शरीके-हयात बनना गवारा नही िकया हम शुक्रगुजार हैं उन नौकिरयों के जो इस साल भी गूलर का फूल बन कर रहीं हम शुक्रगुजार हैं उन धोखेबाज दोस्तों के िजन्होने हमें उनके िबना जीना िसखाया हम शुक्रगुजार हैं िजंदगी के उन रंगीन मयखानों के जहाँ से हर बार हम धक्के मार के िनकाले गये हम शुक्रगुजार हैं उन क्षणजीवी सपनों का िजनकी पतंग की डोर हमारे हाथ रही मगर िजन्हे दूसरों की छतों पर ही लूट िलया गया उन तबील अंधेरी रातों का शुिक्रया िजन्होने हमें अपने सीने मे छु पाये रखा और कोई सवाल नही पूछा उन उम्रदराज सड़कों का शुिक्रया िजन्होने अपने आँ चल मे हमारी आवारगी को पनाह दी और हमारी नाकामयाबी के िकस्से नही छे ड़े ! और वक्त के इस मुकाम पर जहाँ उदास कोहरे ने िकसी कंबल की तरह हमको कस कर लपेट रखा है


हम खुश हैं िक इस साल ने हमें िसखाया िक जरूरतों के पूरा हुये िबना भी खुश हुआ जा सकता है िक फ़टी जेबों के बावजूद िसफ़र् नमकीन खुशगवार सपनों के सहारे िजंदा रहा जा सकता है िक जब कोई भी हमें न करे प्यार तब भी प्यार की उम्मीद के सहारे िजया जा सकता है। और इससे पहले िक यह साल पुराने अखबार की तरह रद्दी मे तोल िदया जाये, हम इसमें से चंद खुशनुमा पलों की किटंग चुरा कर रख लें और शुकराना करें िक खैिरयत है िक उदार संगीनों ने हमारे सीनों से लहू नही मांगा, खैिरयत है जहरीली हवाओं ने हमारी साँसों को िसफ़र् चूम कर छोड़ िदया, खैिरयत है िक मँहगी कारों का रास्ता हमारे सीनों से हो कर नही गुजरा, खैिरयत है िक भयभीत सत्ता ने हमें राजद्रोही बता कर हमारा िशकार नही िकया, खैिरयत है िक कुपोिषत फ़्लाईओवरों के धराशायी होते वक्त उनके नीचे सोने वालों के बीच हम नही थे, खैिरयत है िक जो ट्रेनें लड़ीं हम उनकी िटकट की कतार से वापस लौटा िदये गये थे, खैिरयत है िक दंगाइयों ने इस साल जो घर जलाये उनमे हमारा घर शािमल नही था, खैिरयत है िक यह साल भी खैर से कट गया और हमारी कमजोरी, खुदगजीर्, लाचारी सलामत रही। मगर हमें अफ़सोस है उन सबके िलये िजन्हे अपनी ख्वािहशों के खेमे उखाड़ने की मोहलत नही िमली


और यह साल िजन्हे भूखे अजगर की तरह िनगल गया, और इससे पहले िक यह साल इस सदी के िजस्म पर िकसी पके फ़फ़ोले सा फूटे आओ हम चुप रह कर कुछ देर जमीन के उन बदिकस्मत बेटों के िलये मातम करें िजनका बेरहम वक्त ने खामोशी से िशकार कर िलया। आओ, इससे पहले िक इस साल की आिखरी साँसें टू टे इससे पहले िक उसे ले जाया जाय इितहास की जंग लगी पोस्टमाटर्म टेबल पर हम इस साल का स्यापा करें िजसने िक हमारी ख्वािहशों को, सपनों को बाकी रखा िजसने हमें िजंदा रखा और खुद दम तोड़ने से पहले अगले साल की गोद के हवाले कर िदया आओ हम कैलेंडर बदलने से पहले दो िमनट का मौन रखें!


अिनल पुरोिहत की दो किवताऐं

आिद मानव धरोहर है एक - परंपरा कैसी छोड़ दूं इसे ? बबर्रता, िहंस्रता, पशुता और इसमें थोड़ी सी - मानवता । यही सौंप जाना, आने वाले - कल को । आिद मानव मैंआिदम - सिदयों से सिदयों तक । अवसर ही कहाँ िमला सभ्य होने का । चढा मुखौटे सवाँरता रहा बस अपने आपको । आिदमता जो िदख रही मुझे अतीत में वही देखेगा भिवष्य मुझमें । कहाँ माँज पाया - परंपरा अपनी। बहती गयी - धारा वक्त की धोता रहा मुखौटे,


बैठ िकनारेसिदयों से - सिदयों तक ।

उसके िलए वो जानता - कहाँ सजाना मुझे शब्द एक मैं उसके िलये िनत नए भावों में सजा मुझे किवता अपनी िनखार रहा । तलाश कर रहा वह - एक नयी धुन स्वर एक मैं, उसके िलये साज पर अपने तरंगों में सजा किवता में प्राण नए फूंक रहा । देखा है मैंने उसे - खींचते आड़ी ितरछी रेखाएं रंग एक मैं, उसके िलए तूली पर अपनी सजा सपनों को आकार इन्द्रधनुषी दे रहा । लहरों सा बार बार भेजता मुझे कभी सीपी देकर, तो कभी मोती सब कुछ िकनारे धर बेकल सा मैं बार बार लौट - समा जाता उसमें।


दीपक पाटीदार की तीन किवताऐं

वो मुस्कुराती है वो मुस्कुराती है मुस्कुराता है पित्तयों का हरापन मुस्कुराता है रोशनी का समग्र उजास मुस्कुराती है घास की कोमलता बसंत की सारी सुंदरता मुस्कुराती है। उसके बितयाते वक्त बितयाते हैं निदयों के िकनारे बितयाते हैं भँवरों के िवचरते गान समस्त आकाश का खुलापन और बादल बितयाते हैं। वह गातीं है गाता है पिक्षयों की धीमा कलरव गाते हैं हवा के खुशबूदार झोंके गाते हैं पेड़ अपनी सरसराहट िलए उनकी छांव की शीतलता गातीं है लौट जाती है बहारें वो जाती है िबखर जाता है सुकून हवा का।


वहीं रहने दो जहां से िनकलता है सूरज का पहला प्रकाश उठती है जहां से बािरश की पहली गंध वहीं रहने दो मेरे प्यार को जहां से झरना िगरता है शहर की ये हवाएँ उसे अच्छी नहीं लगती।

मजदरू और कुछ किवताऐं अपनी जान जोिखम में डालकर उन्हें बखूबी आता है कुएँ से मगरमच्छ िनकालना, और इस मामले में उनके अिधकारी भी उनसे डरते हैं। अकसर िलखा होता है सूखी और जली रोिटयों पर उसका नाम और वो इं तजाम करता है दूसरों की सुकून भरी रोिटयों का। आज ले ना सके वो अपने मजदूर से पूरा काम, और इस घाटे में खराब हो सकती है उनकी रातों की नींद। हालांिक इस हालत में मजदूर का मुरझाया चेहरा


उनका सुकून बन सकता है।

शहर और कुछ किवताऐं आकाश में अपने पूरे आकार में होता है चाँद, चमक जाता है उसकी चाँदनी में अंधेरे में िलपटा पूरा शहर और इसी चाँदनी में चमक जाते हैं फुटपाथ पर कई खाली पेट अगली सुबह के इं तजार में। वे कुछ खाकर आते हैं उनके मुँह से टपकता है लहू, मैं गांव का हूँ बहुत जल्दी पहचान जाता हूँ उनके मुँह से शहर की बू आती है। अपने खेत के िकनारे बैठा तो जाना अपनी ऊंची-ऊंची इमारतों में िकतना सहमा और िसमटकर रहता है शहर का आदमी। अपने ही अंधेरे में इस तरह डू ब जाता है शहर िक सब खो कर इधर-उधर ढू ढ ं ते हैं अपनी ही परछाइयाँ, और इस हालत को देखकर ठहाका लगाकर हंसता है पास ही का एक गाँव। नींद में बोलता है और सपनों में दौड़ता है शहर का आदमी


एक तेज रफ्तार हरदम उसे खींचें हुए हैं और एक शोर उसे घेरे हुए हैं चारों ओर से। शहर में शांित खोजने से पहले इतना जान लेना जरूरी है िक शहर अपने शोर के िलए मशहूर बहुत है। िदन भर का थका शहर इस तरह लेटता है िक उसे सुबह उठने की भी चाहत नहीं होती। हर शाम शहर अपनी ददर् भरी दास्तान कहता है मगर वो दबी रह जाती है उसी के शोर के पीछे ।


किव शरद कोकास कQ लंबी किवता 'पुरातMववे–ा' से यह अंश 'GपाटVकस' कQ कथा

“ पहली सह¯ाि†द कQ नीचे उतरती सीढ़ी पर जहाँ आकाश अटलांTटस कQ पीठ पर Tटका है सोने के सेब कQ खोज मF भटक रहा है हdयूVिलस मैराथन से दौड़कर आते एथेनी यो¬ा के पाँव GपाटVकस* कQ देह से टपके ल² मF सने ह_ दास% कQ म/डी से आती है ि¯य% के रोने कQ आवाज़ इितहासकार% कQ िनरLरता पर हँस रहे ह_ िस/धु घाटी के नगरजन *'GपाटVकस' कQ कथा: पहली शता†दी ईसा पूवV कQ बात है ।रोम के स³ाटो और संपª वगV के लोग% ´ारा यु¬% के दौरान दु?मनो के रा-य के अनेक ¯ी पु•ष% को यु¬बंदी बना िलया जाता था और |फर उनसे उनकQ आिख़री साँस तक गुलाम% कQ तरह काम िलया जाता था । उ/हF िसफV इतना खाना |दया जाता |क वे ¶ज़दा रह सकF । न उ/हF Pेम कQ इज़ाज़त थी न िववाह कQ । इन दास% कQ मंिडयाँ होती थी जहाँ जानवर% कQ तरह इ/हF बेचा ख़रीदा जाता था । स·ांत लोग% ´ारा इन दास% से 20 -20 घंटे खेत% , खदान% और महल% मF मजदूरी करवाने के अलावा मनोरं जन के िलए इ/हF आपस मF लड़ाया जाता था । शेर जैसे खूं‰वार जानवर% से भी लड़ाया भी जाता था िजसमे उनकQ जान जाना तय रहता था । खेल का अथV होता था ल²लुहान होकर एक दास कQ मौत । िजतना उनका खून बहता था उतने अमीर ख़¸श होते थे । इस खूनी खेल के िलए हमारे आज के Gटेिडयम कQ तरह रोम मF कोलोिसयम बनाये गए थे जहाँ हज़ार% अमीर ¯ी पु•ष मनोरं जन के िलए मनु¹य कQ हMया का यह िघनौना खेल देखते थे । तड़प तड़प कर अपनी जान दे देने वाले यह दास Hलेिडएटर कहलाते थे ।


इस अमानवीयता के िखलाफ सबसे पहले आवाज़ उठाई GपाटVकस ने । *GपाटVकस*उस Pिस¬ दास िव•ोही Hलेिडएटर का नाम है िजसने 71 ईसापूवV मF रोम के शासक% ´ारा दास% के शोषण और उनके इस खूनी खेल के िव•¬ एक संगTठत िव•ोह |कया था । ले|कन जीत अमीर% कQ ”ई । GपाटVकस के इस िव•ोह को तMकालीन शासक% ´ारा कु चल |दया गया और उसे मार डाला गया । िव•ोह मF शािमल होने वाले उसके छह हज़ार से भी अिधक सािथय% को Pाणदंड देकर रोम से कापुआ के राGते मF सलीब% पर लटका |दया गया । काला/तर मF यह खेल समाƒ हो गया ले|कन ’ांितकारी GपाटVकस का नाम हमेशा के िलए अमर हो गया।


पापा गुड्डा - मािमर् क संस्मरण - एमार् बॉम्बैक

Photo Courtesy: cleveland.com िजस ज़माने मF म_ एक न/ही ब»ी थी, पापा |¼ज के अंदर लगे ब§ब कQ तरह होते थे। हर घर मF पाये जाते थे। ले|कन जैसे |¼ज का दरवाज़ा बंद होने पर |कसी को ब–ी का पता नह‡ होता वैसे ही |कसी को भी पता नह‡ था |क पापा कQ भूिमका dया है। मेरे पापा अलGसुबह घर से िनकल जाते थे और शाम को वापस आने पर हमF देखकर Pसªता से फू ल जाते थे। अचार का मतVबान य|द |कसी से भी नह‡ खुलता था तो पापा ही उसे खोलते थे। घर मF एक वे ही थे जो तहखाने मF अके ले जाने से नह‡ घबराते थे। दाढी बनाते ”ए उनके गाल कई बार कट जाते थे ले|कन उनका खून बहना सामा/य बात थी, दुलारे जाने जैसी कोई दुघVटना नह‡। बाTरश होने पर यह तय था |क वे भीगते ”ए जाकर कार को हमारे िलये दरवाज़े तक लायFगे। घर मF |कसी के भी बीमार पडने पर वे ही दवा िलखाकर और खरीदकर लाते थे। िपतृ |दवस पर िवशेष PGतुित पापा सदा CGत रहते थे। |कसी को कांटे न चुभF, इस इरादे से गुलाब कQ झािडय% को तराशने से लेकर चूहद े ानी लगाना तक सब उनके ही काम थे। मेरे Gके ¾स अ¿छे चलF इसिलये उनकQ ऑइ¶लग वेही करते थे। मेरे पूरी तरह साइ|कल चलाना सीखने तक वे मेरी पहली साइ|कल के साथ कमसे कम हज़ार मील तो दौडे ही ह%गे। मेरे TरपोटVकाडV पर हGताLर वे ही करते थे, मुझे सुलाते भी थे। मां कQ कपडे सुखाने वाली डोरी को हर सƒाह वे ही कसते थे। वे हमेशा हमारी फ़ोटो लेते थे ले|कन खुद |कसी भी तGवीर मF नह‡ होते थे।


मुझे हर |कसी के पापा से डर लगता था, िसवाय मेरे, अपने पापा के । एक बार म_ने उनके िलये चाय भी बनाई थी। चाय नह‡, बस मीठा पानी थी। मेरी छोटी कु सÁ पर बैठकर उसे पीते ”ए वे असहज तो थे ले|कन बोले |क चाय बडी Gवा|द¥ थी। एक बार वे मुझे झील मF ले गये। वे नाव खे रहे थे और म_ पानी मF पMथर फF कने लगी। उनके मना करने पर भी फF कती रही तो वे बोले |क वे मुझे भी पानी मF फF क दFगे। मुझे लगा |क वे सच नह‡ बोल रहे थे। म_ने एक पल •ककर उनकQ आंख% मF देखा और जान िलया |क वे मज़ाक कर रहे थे। उसके बाद म_ने और पMथर पानी मF फF के । उ/हF पोकर खेलना नह‡ आता था। म_ अdसर घर-घर खेलती थी। माता-गुिडया को करने के िलये लाख% काम थे। ले|कन मुझे कभी समझ नह‡ आया |क िपता-गुिडया को dया काम दूं इसिलये म_ उससे कहलवाती, “म_ काम पर जा रहा ²ँ” और |फर उसे िबGतर के नीचे िखसका देती। एक |दन, जब म_ नौ वषV कQ थी, िपता काम पर जाने के िलये िबGतर से नह‡ उठे । वे अGपताल गये, और ... और अगले |दन उनकQ मृMयु हो गई। |कतने ही लोग भोजन और के क लेकर घर आये। इतने सारे लोग इससे पहले कभी भी हमारे घर मF नह‡ आये थे।म_ चुपचाप अपने कमरे मF गई और िबGतर के नीचे से िपता गुिडया को िनकाला, साफ़ |कया और अपने िबGतर पर िलटा |दया। उ/ह%ने कभी कु छ नह‡ |कया |फर भी उनका जाना इतना दुख देगा यह म_ नह‡ जानती थी। मुझे आज तक पता नह‡ चला dय%। (मूल रचना: "Daddy Doll Under the Bed" By Erma Bombeck, June 21, 1981)

अनुवाद: अनुराग शमाV


रोसािरयो त्रोंकोसो की स्पेिनश किवताऐं

- अनुवाद: पूजा अिनल

सम्पूणर् आत्मोत्सगर् आकाशीय गुम्बदों से ज़मीन की ओर कूदते हैं अनावृत्त देवदूत वे होते हैं खंिडत वायुमंडल में, िगरते हैं कुछ नगिरयों पर उनके अवशेष। झपकती है पलक हर बार, हर बार घिटत होता यही, उनके बनते िबगड़ते प्रितिबम्ब पंिछयों का भ्रम हैं देते। यहाँ जो कुछ शेष रहा उनका, बस यही: भस्म और टू टे परों का एक िबछौना, िजतना सघन उतना ही एकाकी।

स्नो व्हाइट जहाँ सदीर् नहीं छोड़ती अपना वचर्स्व, वहाँ िसफर् कुछ पलों के िलए हो


धूप का आगमन, तुम्हे मालूम था िक यह पयार्प्त नहीं होगा। तुम्हें तो मालूम था ठं ड का स्वभाव उसका कठोर आिलंगन आकर न जाने का उसका हठ सब पता था तुम्हें और इसीिलए तुम मेरे िलए बफर् ले आई। अंततः, हम सब को होना होता है क़ुबार्न। इसी बफर् पर खौलती रही मैं, िपघली, बही रक्तरंिजत हुई। इस बार तुमने िबसरा दीं सभी राजकुमािरयों की आँ खें।

गुप्त निदयाँ बेतरतीब हो गया है यह शहर मेरे िलये हर एक सड़क िबल्कुल अलग िदखती हुई जाने पहचाने रास्ते भी िवश्वसनीय औऱ आसान नही रहे चौराहे का बूढ़ा वृक्ष अब वहां नही छोटे छोटे घर भी नही अब वहाँ जो अपने हाथों मे समेट लेते थे रात िनवर्स्त्र पुतले शीशे की खुली कब्रों से सारे महलों को नष्ट होते देखते हैं अपनी देह को


गुप्त निदयों मे मुक्त हो जाने देती हूँ मै यह संसार सूयर् का सूखा िवस्तार है चूहों औऱ िबच्छु ओं का उत्सव है यह।

बिखया यहाँ कपड़ों को रफ़ू िकया जाता है लंबे लंबे िदनों को मोड़ कर की जाती है तुरपाई िजनमे फैल जाती है परछाई कोई स्वर भी नही िजन िदनों मे और लगता है बोिझल हर िमनट। हथेली पर काढ़ा जाता है कशीदे से नाम का पहला अक्षर यादों मे िसले जाते हैं कई चीजों के नाम िक कहीं उधड़ ना जाये अदृश्य िवस्मृित की बिखया। सुंदर िडज़ाइन के पीछे भद्दे पैबंद से अनैितक रहस्य हों जैसे! बनाया जाता है वस्त्रों को सुदृड यिद िघस चुका हो महीन उत्साह और पुनः ताग िदया जाता है झूठ को िकसी बनावटी चैन से। यहाँ दुरुस्त की जाती है कमर की नाप और बांहों की लम्बाई पूरे रूखेपन से, हर देह की इच्छाओं की कतरन करते हुये।


खोई हुई वस्तुएँ वे दूर दूर से आये हुए चुम्बन वह अनपेिक्षत अंगूठी में बािरश की बूँदों का हीरा वह रेइयस* का िदन वह मेरे िलए लाया हुआ गुलदस्ता वह िनष्कपट सूत्र जो मुझे बांधता था तेरे तन से वह तुझे सम्पूणर् रूप से चाहना वे छोटी छोटी खुिशयाँ हमेशा तुझे वहीँ पाना जहां िजंदगी की और समय पर लौटने का कायदा तलाशा ये सभी किवतायें तेरी ही बात करती हैं। *रेइयस = स्पेन में छः जनवरी को मनाया जाने वाला एक महत्त्वपूणर् उत्सव | कहा जाता है िक थ्री वाइज़ मैन इसी िदन मदर मेरी के िलए तोहफा लाये थे | अतः इसे “तोहफे का त्यौहार” की तरह सभी अपनों को, खास तौर पर बच्चों को, तोहफा देकर मनाया जाता है। किव - रोसािरयो त्रोंकोसो अनुवादक – पूजा अिनल


ज्योित जैन का कथा संग्रह "सेत" ु

लेिखका ज्योित जैन ने स्त्री िवमशर् के आधुिनक बोध और समकालीन यथाथर् को सेतु संग्रह में बेहतर तरीके से िलखा है । और यही बात को लेिखका ने सेतु के माध्यम से समझाई भी है - सािहत्य रचनेवाला िकसी भी क्षेत्र या भाषा का हो, उसका सािहत्य उसके व् पाठकों के बीच सेतु का काम करता है।"कहािनयाँ कुल िमलकर 21 है जो िविभन्न िवषयों के जिरये वैचािरक ऊजार् समािहत करती है और यही सेतु की खािसयत है। "सेत"ु कहानी में िरश्तों और भाषा को जोड़नेमें सेतु का महत्व बताया - "सेतु चाहे बड़ा हो या छोटा ,जोड़ने का ही काम करता है। िकनारे दूर रहकर भी साथ रहते है ।"छोड़ी हुई" में िवडंबना ,व्यथा के संग "छोड़ी हुई " बेइज्जती भरे तानो को झेलती स्त्री में सहनशीलता की और इशारा िकया है। शायद, छोड़ी हुई जैसे शब्द भरे बाणों पर अंकुश लगाना भी कहानी का मूल उदेश्य रहा हो। "इफ यू लव समबडी" कहानी में प्रेम की अिभव्यिक्त को कुछ यू िनखारा है - "प्रेम कुबार्नी नहीं माँगता, हमेशा जीना ही िसखाता है। प्रेम िजंदगी का पयार्य है "मानव जीवन ईश्वर का िदया सबसे खूबसूरत उपहार, इसे यूँ नष्ट कर उसका अपमान न करो। जीवन को महसूस करो, उसे भरपूर िजयो और िजन्दािदली से िजयो " "पारस" कहानी में िशक्षा की अिभलाषा व् देह व्यापार से मुिक्त की बात रखी - "क्या यहाँ कोई स्कूल नहीं है?" वो बोले जा रही थी, "क्या तुम्हे नहीं लगता िक इस अँधे रे माहोल में िशक्षा का उजाला होना जरुरी है। "स्कूल तो कब्बी गई नहीं मैडम। टीवी ,िपक्चर में ही देखा है बस। "इस धन्धे को छोड़ना चाहती है ,छोड़ भी रही है। चार अक्षर बाचना चाहती है। हम धीरे -धीरे ही सही पर बढ़ रहे है। देह व्यापार के उन्मूलन व् िशक्षा प्रािप्त कहानी संदेश परक रही। ज्योित जैन की कल्पनाशीलता ,शब्दों की गहराई से जीवन के कटु सत्य का िचत्रण अन्य कहािनयो में बखूबी िकया और सम्मानजनक जीने की प्रेरणा स्त्री पक्ष को दी। "सेत"ु संग्रह कहानी जगत में अपनी पहचान अवश्य


स्थािपत करेगा व सािहत्य उपासकों,िफल्म जगत, टी वी सीिरयलों में िवषय वस्तु की मांग कहानी के शौकीनों के िलए मददगार सािबत होगा। ज्योित जैन को सेतु कहानी संग्रह के िलए हािदर् क बधाई।

कहानी संग्रह -सेतु लेिखका -ज्योित जैन मूल्य 240 /प्रकाशक -िदशा प्रकाशन 158/16 ित्रनगर िदल्ली 110035 समीक्षक: संजय वमार् "दृिष्ट"


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