सुलभ स्वच्छ भारत (अंक 47)

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06 - 12 नवंबर 2017

पहल

स्कूलों के मामले में दमन बन रहा है एक उदाहरण

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दमन में बने अनोखे नंद घरों में बच्चे कृष्ण की तरह पल और पढ़ रहे हैं। य​ह पहल यहां बाल-शिक्षा को नया आयाम दे रही है

आनंद भारती

रकार चाहे जितनी योजनाएं बना ले, अगर उसमें जनभागीदारी नहीं हुई तो उसकी सफलता की संभावना न्यूनतम रह जाती है। जब भी सरकार या प्रशासन के कामों में समाज और सचेतन लोगों ने अपने हाथ लगाए हैं, उसकी कामयाबी शत-प्रतिशत रही है। कामयाबी का ऐसा ही लक्षण दिखाई दे रहा है गुजरात और महाराष्ट्र से सटे केंद्र शासित प्रदेश दमन में। अरब सागर का यह द्वीप पर्यटकों के लिए स्वर्ग की तरह है। पहले यह पुर्तगालियों के अधीन था। 1961 में जब गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, उसी समय दमन भी भारत का हिस्सा बना, लेकिन यह केंद्र शासित प्रदेश बना 1987 में। दमन में अपनी कोई सरकार या विधान सभा नहीं है। प्रशासक यहां का काम काज देखते हैं। दमन और दीव, दोनों जिलों की आबादी लगभग ढाई लाख है। उसमें दमन का ही लगभग दो लाख है। साक्षरता लगभग 87 प्रतिशत है। इस साक्षरता को और भी बढ़ाने और असरकारी बनाने की कोशिश में प्रशासक प्रफुल्ल पटेल की पहल पर इंडस्ट्री एसोसिएशन ने खुलकर हाथ बढाया है। कह सकते हैं कि सरकार की योजना को कॉरपोरेट कंपनियों का सहयोग मिल रहा है। सीएसआर यानी कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व का असर बढ़ने लगा है। एसोसिएशन के सदस्यों और प्रशासक के बीच हुई बातचीत आम सहमति में तब्दील हुई और यह तय किया गया कि न केवल आठवीं तक के स्कूलों को दुरुस्त किया जाए बल्कि आंगनबाड़ी को भी इस लायक बना दिया जाए कि छोटे-छोटे बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाए। मां-बाप भी अपनी जीविका ठीक से चला सकें। अबतक दमन के स्कूलों के परिसरों की हालत

बहुत दयनीय थी। भवन टूट-फूट के शिकार थे, वहां टॉयलेट का अभाव था, टॉयलेट थे भी तो उसमें पानी नहीं होता था। चहारदीवारी का नामो निशान नहीं था। छतें भी बरसात में टपकती रहती थीं। वह किसी भी तरह से स्कूल जैसा नहीं लगता था। इसीलिए बच्चों का रुझान भी कम हो गया था। मां-बाप की कोशिश होती थी की उनके बच्चे निजी स्कूलों में जाएं ताकि अच्छे से पढ़-लिखकर बढ़िया नौकरियां हासिल कर सकें, लेकिन निजी स्कूलों की भी अपनी सीमा है। उतने सारे बच्चों के एडमिशन में दिक्कतें ही दिक्कतें थीं। गरीब और सामान्य परिवारों के पास इतने पैसे भी नहीं होते हैं कि वे वहां प्रवेश दिला सकें। सरकारी स्कूलों में हालांकि प्रशिक्षित टीचर हैं, लेकिन उनके पास छात्र नहीं होते थे। जो भी थी वे मजबूरी में थे। स्कूलों की बदतर स्थिति के कारण पढ़ाई का माहौल नहीं बन पाता था। प्रशासन ने पहले भी कई बार कोशिश की कि इस स्थिति को बदला जाए, लेकिन किसी न किसी कारण से परिवर्तन में देरी हो रही थी। यही हाल आंगनबाड़ी का भी था। अब जब कुछ महीने पहले प्रशासक ने इंडस्ट्री एसोसिएशन के सामने अपने मन की बात कही तो सीएसआर के तहत इसकी जरुरत महसूस करते हुए तुरंत अपनी तैयारी शुरू कर दी। दमन की एक खास बात यह है कि यहां का सांस्कृतिक जीवन का चरित्र अलग-अलग रंगों में डूबा हुआ है। एक साथ उनमें आप यूरोपीय, भारतीय और परम्परागत आदिवासी तत्वों के दर्शन कर सकते

हैं। अंगरेजी, हिंदी, कोंकणी, गुजराती के साथसाथ पुर्तगाली भी सुन सकते हैं, लेकिन अब उत्तर भारतीय मजदूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी के कारण उनकी बोलियां भी भरपूर बोली जा रही हैं। परंपरा और रिवाज पर गुजरात का प्रभाव है। यहां के मूल लोग मछलियों का व्यवसाय करते थे, लेकिन अब उद्योगों का जाल बिछ जाने के कारण लोग कारखानों की शरण में पहुंच चुके हैं। उनके लिए प्रशिक्षण के इंस्टीट्यूट भी खुल गए हैं। नौजवानों का भी रुझान बढ़ा है। वे नौजवान पहले ठीक से पढ़-लिख सकें उसके इंतजाम की बात सोची गई। कहा गया कि इसके लिए पहले स्कूल को मजबूत करने का काम किया जाए। उस दिशा में पहल शुरू हुई। यह काम दोहरे स्तर पर किया जा रहा है। एक तो आंगनबाड़ी को घर का रूप दिया जा रहा है। उसे प्रधानमंत्री ने ‘नंद घर’ का नाम दिया है। यानी हर बच्चे को कृष्ण के रूप में देखा जाए और उसे नंद जैसा अभिभावक मिले ताकि उसका पालन-पोषण सही तरह हो सके। कारखानों में काम करने वाले मजदूर या मछली का व्यवसाय करने वाले पति-पत्नी निश्चिन्त होकर अपने बच्चे को पालने-घर में छोड़ सकें। उन बच्चों के खाने आदि की सारी व्यवस्था को मजबूती दी जा रही है। उस पालने-घर या नंद-घर को इस तरह से सजाया-संवारा जा रहा है कि बच्चों को कोई परेशानी नहीं हो। उनके खेलने-कूदने और मन लगाए रखने के लिए सभी आवश्यक साधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। यह घर नर्सरी स्कूल की

आंगनबाड़ी को घर का रूप दिया जा रहा है। उसे प्रधानमंत्री ने ‘नंद घर’ का नाम दिया है। यानी हर बच्चे को कृष्ण के रूप में देखा जाए और उसे नंद जैसा अभिभावक मिले ताकि उसका पालन-पोषण सही तरह हो सके

शक्ल में भी है, ताकि जब स्कूलों में एडमिशन हो तो पीछे न रह जाएं। इसमें दो से चार साल तक के बच्चे पलते हैं। यानी स्कूल जाने से पहले तक की बुनियादी जानकारियां उन्हें यहीं मिल जाएगी। प्रशासक पटेल के अनुसार, ‘प्रधानमंत्री ने इसे नंद घर का नाम दिया है इसलिए हमारी जिम्मेदारी है कि उसे उस अनुरूप बनाया जाए। हर मां-बाप समझें कि उनका बच्चा कृष्ण की तरह ही पल रहा है। मैंने यह बात इंडस्ट्री एसोसिएशन के सामने रखी। मुझे खुशी है कि उसने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझते हुए अपना हाथ बढ़ा दिया।’ उल्लेखनीय है कि दमन में प्राइमरी स्कूलों की संख्या 36 है, जहां दो शिफ्टों में पढ़ाई होती है। उन खस्ता-हाल स्कूलों में अधिकांश को को आधुनिक रूप दिया जा चुका है और बाकी को भी उसी तरह सुसज्जित किया जा रहा है। पंखे, बिजली, लाईट, टॉयलेट, साफ सफाई की हर व्यवस्था हो रही है। वे स्कूल अब पढ़ाई और सुविधा के मामले में निजी स्कूलों को पीछे छोड़ रहे हैं। यहां का आकर्षण भी बढ़ा है। खास बात यह हुई है कि कल तक जो बच्चे निजी स्कूलों के बच्चों के मुकाबले खुद को कमतर समझते थे वे आज सीना तानकर चल रहे हैं। इससे गरीब बच्चों में आत्मविश्वास भी बढ़ा है। उनमें पढ़ने की ललक भी पैदा हुई है। इंडस्ट्री की सहभागिता के कारण स्कूल और उसके आंतरिक ढांचे को सुधारने में मदद मिली है। यह एक बड़े उदाहरण के रूप में देखा जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि ऐसा ही प्रयोग दूसरे राज्यों में भी होगा। सरकार की तरफ देखने की प्रवृत्ति खत्म होगी और यह कहने-सोचने की आदत भी खत्म होगी कि ‘देश का कोई हिस्सा विकास की बाट जोह रहा है।’ हर सक्षम आदमी कायदे से समाज की समस्या का हल ढूंढने का प्रयास करेगा।


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