सुलभ स्वच्छ भारत (अंक - 34)

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14 आवरण कथा

07 अगस्त - 13 अगस्त 2017

अगस्त क्रांति का बागी नायक डॉ. राममनोहर लोहिया

अगस्त क्रांति की घोषणा के साथ ही गांधी जी सहित कांग्रेस के सारे आला नेता बंदी बना लिए गए। ऐसे में डॉ. राममनोहर लोहिया ने भूमिगत रहकर आंदोलन की आंच कम नहीं होने दी

लो

एक नजर

एसएसबी ब्यूरो

हिया को भारतीय संस्कृति से न केवल अगाध प्रेम था, बल्कि देश की आत्मा को उन जैसा हृदयंगम करने वाला समकालीन शायद ही कोई दूसरा हो। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व-दृष्टि विकसित की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म का असली व सच्चा मेल तभी हो सकता है, जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाए कि वे एक-दूसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सकें। भारतमाता से लोहिया की मांग थी-‘हे भारतमाता ! हमें शिव का मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथसाथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’ वास्तव में यह एक साथ एक विश्व-व्यक्तित्व की मांग है। इससे ही उनके मस्तिष्क और हृदय को टटोला जा सकता है। बात अगस्त क्रांति की करें तो इसकी घोषणा के साथ ही जहां गांधी जी सहित कांग्रेस के सारे आला नेता बंदी बना लिए गए, डॉ. राममनोहर लोहिया अंग्रेजों को चकमा देकर गिरफ्तारी से बच निकले। अपनी समाजवादी मित्र मंडली के साथ वे भूमिगत हो गए। भूमिगत रहते हुए भी उन्होंने बुलेटिनों, पुस्तिकाओं, विविध प्रचार सामग्रियों के अलावा समानांतर रेडियो 'कांग्रेस रेडियो' का संचालन करते हुए देशवासियों को अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए प्रेरित किया, लेकिन जब अगस्त क्रांति का जन उबाल ठंडा पड़ने लगा तब डॉ. लोहिया का ध्यान नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुआई में आजाद हिंद फौज द्वारा छेड़े गए सशस्त्र मुक्ति संग्राम की ओर गया। उस समय भारत के पूर्वोत्तर भाग में नेताजी का विजय अभियान जारी था। डॉ. लोहिया नेताजी से मिलने की योजना बना ही रहे थे कि अचानक 20 मई, 1944 को उन्हें मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्भाग्य से अगस्त क्रांति के वीर सेनानी डॉ. लोहिया और आजाद हिंद फौज के सेनानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस का मिलन न हो सका। वैसे अगस्त क्रांति के दौरान डॉ. लोहिया के कौशल और साहस से महात्मा गांधी अत्यंत प्रभावित हुए थे। इसके पहले बापू डॉ. लोहिया के कई विचारोत्तेजक लेख, बेबाक टिप्पणियां आदि अपने पत्र 'हरिजन' में प्रकाशित भी कर चुके थे। भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज डूब रहा था। राष्ट्रीय नेताओं का यह मानना था कि अंग्रेजों के जाते ही पुर्तगाली भी गोवा से स्वयं कूच कर जाएंगे, इसीलिए वहां शक्ति झोंकने की जरूरत नहीं, लेकिन डॉ. लोहिया ने वहां जाकर आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा ही दिया। उनका साथ महात्मा गांधी को छोड़कर और किसी बड़े नेता ने नहीं दिया। इससे भी

अगस्त क्रांति से लेकर आजादी के बाद तक गांधी जी के निकट सहयोगी गांधी जी ने ‘हरिजन’ में उनके कई लेख और टिप्पणियां प्रकाशित कीं

1944 में गिरफ्तारी के कारण सुभाष चंद्र बोस से मिलना न हो सका

आजादी के बाद जब देश सांप्रदायिकता के संकट में फंस गया तो शांति और सद्भाव कायम करने में डॉ. लोहिया ने गांधी का सहयोग किया। इस प्रकार वे बापू के बेहद करीब आ गए थे पता चलता है कि गांधी लोहिया का कितना सम्मान करते थे। दरअसल, डॉ. लोहिया का व्यक्तित्व और उनका स्वाधीनता संग्राम व उसके बाद के दिनों का संघर्ष उन्हें भारतीय इतिहास का एक ऐसा नायक बनाता है, जिसके दिल में देश के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति तो अगाध आस्था तो थी ही, वे स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के पुरोधा और प्रखर चिंतक भी थे। यही वजह है कि डॉ. लोहिया को भारत आज भी एक अजेय योद्धा और महान विचारक के रूप में देखता है। देश की राजनीति में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद ऐसे कई नेता हुए, जिन्होंने अपने दम पर शासन का रूख बदल दिया, जिनमें सर्वप्रमुख थे डॉ. राममनोहर लोहिया। अपनी प्रखर देशभक्ति और बेलौस तेजस्वीे समाजवादी विचारों के कारण अपने समर्थकों के साथ ही डॉ. लोहिया ने अपने विरोधियों के मध्य भी अपार सम्मान हासिल किया।

उनका का जन्म 23 मार्च 1910 को तमसा नदी के किनारे स्थित कस्बा अकबरपुर, फैजाबाद में हुआ था। उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनके पिताजी गांधी जी के अनुयायी थे। जब वे गांधी जी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गांधी जी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। वे अपने पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए। आजादी के बाद जब देश सांप्रदायिकता के संकट में फंस गया तो शांति और सद्भाव कायम करने में डॉ. लोहिया ने गांधी का सहयोग किया। इस प्रकार वे बापू के बेहद करीब आ गए थे। इतने करीब की गांधी ने जब लोहिया से कहा कि जो चीज आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं है, उसका उपभोग तुम्हें भी नहीं करना चाहिए और सिगरेट त्याग देना चाहिए तो लोहिया ने तुरंत उनकी बात मान ली। 28 जनवरी, 1948 को गांधी ने लोहिया से कहा,

मुझे तुमसे कुछ विषयों पर विस्तार में बात करनी है, इसीलिए आज तुम मेरे शयनकक्ष में सो जाओ। सुबह तड़के हम लोग बातचीत करेंगे। लोहिया गांधी के बगल में सो गए। उन्होंने सोचा कि जब बापू जागेंगे, तब वे जगा लेंगे और बातचीत हो जाएगी, लेकिन जब लोहिया की आंख खुली तो गांधी जी बिस्तर पर नहीं थे। बाद में जब डॉ. लोहिया गांधी से मिले तब गांधी ने कहा, ‘तुम गहरी नींद में थे। मैंने तुम्हें जगाना ठीक नहीं समझा। खैर कोई बात नहीं। कल शाम तुम मुझसे मिलो। कल निश्चित रूप से मैं कांग्रेस और तुम्हारी पार्टी के बारे में बात करूंगा। कल आखिरी फैसला होगा।’ लोहिया 30 जनवरी, 1948 को गांधी से बातचीत करने के लिए टैक्सी से बिड़ला भवन की तरफ बढ़े ही थे कि तभी उन्हें गांधी की शहादत की खबर मिली। इस तरह भारत के नवनिर्माण की एक ठोस योजना की भ्रूण हत्या हो गई। दिलचस्प है कि बापू अपनी शहादत से पहले अपने आखिरी वसीयतनामे में कांग्रेस को भंग करने की अनिवार्यता सिद्ध कर चुके थे। उस समय उन्होंनें ऐसा स्पष्ट संकेत दिया था कि आजादी की लड़ाई के दौरान अनेकानेक उद्देश्यों के निमित्त गठित विविध रचनात्मक कार्य संस्थाओं को एकसूत्र में पिरोकर शीघ्र ही एक नया राष्ट्रव्यापी लोक संगठन खड़ा किया जाएगा। डॉ. लोहिया की उसमें विशेष भूमिका होती। इस प्रकार बनने वाले शक्तिपुंज से बापू आजादी की अधूरी जंग के निर्णायक बिन्दु तक पहुंचाना चाहते थे। आजादी के बाद के दो दशकों में डॉ. लोहिया ने देश में लोकतांत्रिक समाजवादी मूल्यों की न सिर्फ एक नई जमीन तैयार की, बल्कि देश में संसदीय लोकतंत्र की सार्थकता को लेकर एक वैकल्पिक दृष्टि भी दी। 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हुआ। कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर डॉ. लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी। कई लोग उनको अपने समय का सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रखर वक्ता मानते हैं।


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