903_Verses_of_Kabir_in_Hindi_Kabir_ke_dohe

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कबीर गु

की भि

िबन, राजा ससभ होय ।

माटी लदै कु हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ कबीर गु

की भि

िबन, नारी कूकरी होय ।

गली-गली भूक ँ त िफरै , टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ जो कािमिन परदै रहे , सुनै न गु गुण बात । सो तो होगी कूकरी, िफरै उघारे गात ॥ 518 ॥ च सठ दीवा जोय के, चौदह च दा मा ह ।

तेिह घर िकसका चाँदना, िजिह घर सतगु हिरया जाने

ना ह ॥ 519 ॥

खाड़ा, उस पानी का नेह ।

सूखा काठ न जािनहै, िकतहू ँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ िझरिमर िझरिमर बरिसया, पाहन ऊपर मे ह । माटी गिल पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ कबीर दय कठोर के, श द न लागे सार । सुिध-सुिध के िहरदे िवधे, उपजै

ान िवचार ॥ 522 ॥

कबीर च दर के िभरै , नीम भी च दन होय । बूड़यो बाँस बड़ाइया, य जिन बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ पशुआ स पालो परो, रहू -रहू िहया न खीज । ऊसर बीज न उगसी, बोवै दू ना बीज ॥ 524 ॥ कंचन मे

अरपही, अरप कनक भ डार ।

कह कबीर गु

बेमुखी, कबहू ँ न पावै पार ॥ 525 ॥

साकट का मुख िब ब है िनकसत बचन भुवंग । तािक औषण मौन है, िवष न ह यापै अंग ॥ 526 ॥

॥ कबीर के दोह ॥


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