प्रथम शताब्दी तक यही मधुरस जीवन के हर संघषश में मानव का सहचर रहा है। असुरी शनियों से अक्रान्त दैवी शनियों की िुब्धता समेककत शनि पुंज दुगाशजी का प्राकट्य और ऄसुरता की पराजय के बीच मनहषासुर से संघषश-शानन्त के िण में पराशनि ने भी आस कदव्यरस का पान ककया था। मारकण्डेय पुराणान्तगशत दुगाशसप्तशती में मधुपान के समय की भगवती की यह गवोनि ककतनी ओजमयी हैगजश-गजश िणं मूढ़ मधुयावनमपबाम्प्यहम। मयामवनय हतेत्रैव गर्मजश्यान्मयाषु देवता।। ‘‘ऐ मूखश! जब तक मैं मधुपान करती हँ ईतने िणों तक तू नजतनी चाहे गजशना कर ले। ईसके बाद तो शीघ्र ही मेरे िारामारे जाने पर देवता लोग तुम पर गजशना करें गे। युिगत थकान नमटाने एवं मस्ती में डू बने के नलए यह परम्प्परा संस्कृ त के महान कनव कानलदास के समय तक यथावत् व्यवहृत रही है। मधुरस का ऄन्वेषी, ‘रसो वै सः ‘��ानन्द सहोदरः’ का प्रमन प्रसन्न गायक ‘‘अनन्दम् ��ेनत व्यजानात्। यकद वा अकाशे अनन्दी न स्यात्,तर्मह को वा ऄन्यात् को वा प्राण्यात्’’ का द्रिाभोिा मानव जीवन भर अनन्द ही तो खोजता रहता है। ‘अनन्दम् दृश्यते ऄनेनेनत’’ का दशशन जीते ऊनष मना ऄमृतस्य पुत्राः मनुसंतनत की यह भावनामधुमन्मे ननष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम् वाचा वदानम मधुमत भूयाषं मधु संदश ृ ः ।। सचमुच स्तुमय है और प्रणम्प्य है। ईसका अममदृि सािामकृ त वह मधुलोक भी, जो ईसके परमाराध्य भगवान नवष्णु के नत्रनवक्रम रूप के ऄनतररि ईनका परमपद है, जहाँ परमाममा नवष्णु के सूक्ष्म ��रूप का ननवास है, ईस लोक में नवष्णु के भि लोग ऄमृतपान करते हुए अनंदानुभव ककया करते हैं ईसमें मधुचक्र है, ऄमृतरूप है। (ऊग्वेद १/१५४/०५) प्रनसि ऄिैतवादी दाशशननक भि अचायश शंकर की दृनि में वह परमाममा सवशतोभावेन मधुर हैऄधरं मधुरं वदनं मधुरं चलनं मधुरं हनसतं मधुरं। गोपी मधुरा गावौ मधुरौ मधुरानधपतेरानखलं मधुरम् ।।
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